Tuesday, February 28, 2023

गर्भ धारण करना क्या कोई बीमारी है?

गर्भ धारण करना क्या कोई बीमारी है कि जिसके निवारण के लिए दवाई बनाई जाए, एफडीए द्वारा पारित की जाए और दुकानों पर बेची जाए?


यह सवाल अभी अमेरिका की कोर्ट में किया जानेवाला है। 


करनेवाले हैं रिपब्लिकन जो गर्भपात के ख़िलाफ़ है। 


गर्भपात में सरकार का हस्तक्षेप क्यों?


यह देश जो हर तरह की आज़ादी देने के लिए 'बदनाम' है ऐसे सवाल क्यों कर रहा है?


आज़ादी देने के अलावा यह देश इस बात के लिए भी प्रसिद्ध है कि अदालत के ज़रिए हर मसले को सुलझाए जाने का प्रयास किए जाता है। 


इसीलिए सुप्रीम कोर्ट में कौन न्यायाधीश है यह बहुत मायने रखता है। दिक्कत यह है कि हर न्यायाधीश आजीवन पदासीन रहता/रहती है। वह सेवानिवृत्त नहीं होता/ होती है। इसलिए हर सत्तारूढ़ राष्ट्रपति कोशिश करता है कि अपनी विचारधारा वाले युवा व्यक्ति को पदासीन करे। पर वह तभी सम्भव है जब कोई न्यायाधीश गुज़र जाए या किसी वजह से स्वेच्छा से छोड़ दे। 


यह सवाल इस बार क्यों उठाया जा रहा है? हुआ यह कि पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने रो बनाम वेड के पचास साल पुराने फ़ैसले को पलट दिया। पुराने फ़ैसले के मुताबिक़ नारी अपने गर्भ के साथ जो चाहे कर सकती है। इसमें सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं हो सकता। किसी पिता, माता, भाई, बहन, पति, बॉयफ़्रेंड, सहेली आदि की भी अनुमति आवश्यक नहीं है। 


यह राष्ट्रीय तौर पर लिया गया फ़ैसला था। और पूरे देश में गर्भ गिराना ग़लत नहीं था और इसके लिए सारी सुविधाएँ मौजूद था। पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि नारी गर्भ के साथ क्या करे, क्या न करे, इस मसले में सुप्रीम कोर्ट को अपनी कोई भूमिका नहीं दिखती है। इस का निर्णय जनता करे। और राष्ट्र की नहीं, राज्य की जनता निर्णय ले। आमतौर पर हर क़ानून यहाँ राज्य ही निर्धारित करती है। यहाँ हर राज्य के अपने क़ानून हैं। अपना ड्राइवर लाइसेंस है। अपना मैरिज लाइसेंस है। आदि। 


किसी राज्य में डेमोक्रेट्स की सरकार है। किसी में रिपब्लिकन्स की। डेमोक्रेट्स इस पक्ष में हैं कि नारी जो चाहे करे। उसका तन, उसका मन। सरकार रास्ते का काँटा क्यों बने?


रिपब्लिकन यो तो चाहते हैं कि सरकार जितनी छोटी हो और जितना कम हस्तक्षेप करे किसी के जीवन में उतना बेहतर। लेकिन यहाँ वे अपना मोरल अधिकार समझती है। उनका कहना है कि किसी को, माँ तक को, हक़ नहीं है कि वे किसी मासूम की जान ले। ख़ासकर वह जो अभी पैदा नहीं हुआ/हुई है। उसे अपने अधिकार नहीं पता है, खुद अपनी रक्षा नहीं कर सकता। रेप या इन्सेस्ट हो तब भी माँ को यह अधिकार नहीं है। जान तो जान है। चाहे कैसे भी दुनिया में आई हो। 


इसलिए रिपब्लिकन राज्यों में अब वे क्लिनिक बंद हो चुके हैं जहां गर्भपात करवाये जा सकते हैं। महिलाएँ एक राज्य से दूसरे राज्य में जाकर यदि गर्भपात करवाती है तो यह दंडनीय अपराध है जिसमें जेल की सज़ा भी शामिल है। 


पहले गर्भपात का खर्च स्वास्थ्य बीमा से चुकाया जा सकता था। स्वास्थ्य बीमा अधिकतर आपके रोज़गार से जुड़ा होता है। जो संस्थाएँ रिपब्लिकन राज्यों में हैं उन्होंने गर्भपात के लिए स्वास्थ्य बीमा का उपयोग करना वर्जित कर दिया है। 


इन सब हालातों को देखते हुए महिलाओं ने दूसरा तरीक़ा अपनाने की सोची। पहले तीन महीनों में दवाई लेकर भी गर्भ गिराया जा सकता है। 


रिपब्लिकन की नज़र अब इस दवाई पर है। तर्क यह रखा गया कि यह दवाई नहीं है। क्योंकि गर्भ धारण करना कोई बीमारी नहीं है। 


इसलिए एफडीए के ख़िलाफ़ रिपब्लिकन्स द्वारा यह मुक़दमा दायर किया गया है। एफडीए वह संस्था है जो हर दवाई की जाँच-परख करती है तभी जाकर यह बाज़ार तक पहुँचती है और ग्राहक को संतुष्टि होती है कि यह सुरक्षित दवाई है। 


एफडीए से कहा जा रहा है कि वह अपनी गलती मान ले कि यह दवाई दवाई नहीं है क्योंकि यह कोई बीमारी नहीं ठीक करती क्योंकि गर्भ धारण करना कोई बीमारी ही नहीं है। 


यह बहुत रोचक है। जैसे कि मर्चेंट ऑफ़ वेनिस में तर्क था कि जितना मांस ले लो लेकिन खून की एक बूँद नहीं गिरनी चाहिए। या अश्नीर ग्रोवर की ग्रोफर कम्पनी को बचानेवाले वकील, गोपाल सुब्रमण्यम, की दलील कि प्रतिवादी वह इनऑरगेनिक सब्जी लेकर आए जिसे ग्रोफर ने ऑर्गेनिक कह कर बेच दी थी। तारीख़ बढ़ते-बढ़ते महीनों गुज़र चुके थे। वह सब्ज़ी तब तक ख़ाक हो चुकी थी। 


उससे भी ज़्यादा आश्चर्यजनक यह कि एफडीए को मुक़दमे लड़ने की आदत नहीं है। इस पर कोई मुक़दमा नहीं करता है। इसलिए इसके पास पर्याप्त धन और वकील नहीं हैं। यह मुक़दमा लड़ तो लेगी पर हार गई तो आगे नहीं लड़ पाएगी। और हारने के साथ ही अलग मुक़दमे आ जाएँगे जो तैयार खड़े हैं क़तार में और भी इस तरह की दवाइयों को बाज़ार से हटाने में। जैसे हारमोन बदल कर लड़की से लड़का बनना या लड़के से लड़की। 


एफडीए सरकारी संस्था है जैसे नासा। पर हर संस्था का अपना बजट होता है। 


राहुल उपाध्याय । 28 फ़रवरी 2023 । सिएटल 

No comments: