Saturday, October 31, 2020

अमेरिका में चुनाव - भाग 5

कल मैंने 38 खाने भर कर अंततोगत्वा वोट डाल ही दिया। अगले तीन दिन में शायद ही कुछ ऐसा हो कि मेरा निर्णय बदलें। 


कभी-कभी कितना अजीब लगता है कि हमें अगले पल की ख़बर नहीं और हम कितनी बड़ी योजनाएँ बना लेते हैं। अप्रैल में किसी का विवाह तय है। अगस्त में कोई एम-बी-ए आरम्भ कर रहा है। कितने दूरंदेशी हो जाते हैं कई बार। 


38 खानों में से 36 के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं थी। कुछ खाने तो ज़बरदस्ती के थे। भरो तो ठीक, न भरो तो ठीक। क्योंकि कोई प्रतिद्वंद्वी ही नहीं है। जिसका नाम है उसकी जीत तो पक्की है। फिर किस बात का चुनाव?


कुछ सवाल ऐसे थे कि हमने किसी कार्यक्रम को बिना मतदाताओं से पूछे शुरू कर दिया है। क्या उसे चलने दें या बंद कर दें। मैंने आँख मूँद कर चुन लिया कि बंद करो। ऐसे कैसे काम चलेगा? हमसे बिना पूछे?


उपराज्यपाल की बारी आई तो चौंक गया? दोनों उम्मीदवार एक ही दल के? 


बाक़ी सब में कुछ सूझा ही नहीं कि कैसे चुनाव करूँ? दोनों के बारे में इंटरनेट खंगाला जा सकता था। लेकिन क्या वहाँ भी कोई ठोस निष्पक्ष जानकारी होगी? वही प्रचार होगा। वही छीछालेदारी होगी। 


सिक्का उछाल कर दूँ? ख़ाली छोड़ दूँ? 


यह हाल है चुनाव का। पढ़ा-लिखा तबका जब हाथ खड़े कर देता है तो बाक़ी की तो जाने ही दीजिए। 


मतपत्र भरते वक़्त यदि दाल गिर जाए या हल्दी के दाग लग जाए तो घबराने की कोई बात नहीं। आप ऑनलाइन जाकर मतपत्र भर सकते हैं। पर जमा प्रिंट कर के ही करना होगा। 


मैं इसे डाक में भी डाल सकता था। लेकिन डर था कि कहीं वक़्त पर नहीं पहुँचा तो? सो निर्धारित पेटी में डाला। मेरे जिले में कुल 73 ऐसी पेटियाँ हैं। 


ज़्यादातर नगरपालिका या सार्वजनिक पुस्तकालयों के परिसर में हैं। 


कोई सुरक्षा के इंतज़ाम नहीं है। आवश्यकता भी नहीं है। हो सकता है कहीं कैमरे हों जो गतिविधियों पर नज़र रख रहे हों। मैंने वीडियो और फ़ोटो लीं। मैं जब जाने लगा तो कोई सेल्फ़ी ले रहीं थीं। मैंने कहा मेरी फ़ोटो ले सकती हो? यह कोविड के माहौल में आसान सवाल नहीं था। न पूछना आसान था, न जवाब देना। वो मुझे बीमार कर सकतीं थीं, मैं उन्हें। मैंने पूछ लिया। उन्होंने भी आसानी से हाँ कह दिया। और यह भी कहा कि मैं पहले गाड़ी से मास्क निकाल पहन आऊँ। मैं भी अपनी गाड़ी से मास्क ले आया। लेकिन पहन कर फ़ोटो लेने में कोई तुक नहीं दिखी। सो हाथ में ही रहने दिया। कैमरे का तो आदान-प्रदान हुआ बिना दस्तानों के। 


मतदान के सबूत के लिए यह था हमारा परस्पर बलिदान। 


राहुल उपाध्याय । 31 अक्टूबर 2020 । सिएटल 

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Friday, October 30, 2020

अमेरिका में चुनाव- भाग 4

चुनाव में गिनती के दिन बचे हैं और कई लोग मतदान कर भी चुके हैं। 


यह कैसे सम्भव हुआ? 


अमेरिका के नागरिक दुनिया भर में रहते हैं। या तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कर्मचारी के तौर पर, या फिर दूतावासों में, या फिर सेना का हिस्सा बनकर। और कई विदेशों में जन्में व्यक्ति जो अब अमेरिका की नागरिकता हासिल कर चुके हैं, लेकिन रहने वापस विदेश में लगे हैं। 


सब को मतदान का अधिकार है। चाहे निवास कहीं भी हो। इसलिए डाक द्वारा मतदान की व्यवस्था बहुत पहले सी दी गई है। 


डाक से मतपत्र आने-जाने में समय लगता है। इसीलिए यह मतदाता को पन्द्रह दिन पहले ही मिल जाता है। यानी भेजा 20 दिन पहले जाता है। छप 25 दिन पहले जाता है। 


लेकिन मतदाता को छूट है कि वह मतदान के निर्धारित दिन की डाक मोहर लगवाकर भेज दें तो उसे मतगणना में शामिल किया जाएगा। 


चुनाव 3 नवम्बर को है। डाक से मतपत्र को आते-आते 5 नवम्बर हो सकती है। 


मेरे राज्य में 3 नवम्बर की शाम 8 बजे तक बैलट बॉक्स में डाले जा सकते हैं। और 8:15 बजे पहला परिणाम घोषित हो जाएगा। यानी कौन आगे हैं और कौन पीछे। 


जब यहाँ सिएटल में शाम की 8 बजती है तब न्यू यॉर्क में रात की ग्यारह बजती है। वहाँ के परिणाम भी रोके जाते हैं जब तक हम वोट नहीं डाल दे। जैसे ही यहाँ 8 बजी ताबड़तोड़ सब जगह से परिणाम आने लगते हैं। चार-पाँच घण्टों में स्थिति साफ़ हो जाती है। कौन जीता, कौन हारा। 


हालाँकि आधिकारिक परिणाम तब तक नहीं घोषित किए जाते हैं जब तक सारे वोट गिन नहीं लिए जाते हैं। आधिकारिक परिणाम 6 जनवरी को घोषित किए जाते हैं। लेकिन उस दिन की प्रतीक्षा कोई नहीं करता। राष्ट्रपति पद की शपथ हमेशा 20 जनवरी को दी जाती है। इस बार भी यही तिथि है। 


कुल मिलाकर पर्याप्त समय है सारे वोट गिनने के लिए। 


लेकिन सब की आदत पड़ चुकी है तत्काल परिणाम की। इस बार यदि ज़्यादा देर हुई - यानी 4 नवम्बर- महज़ एक दिन, सब के धैर्य की परीक्षा होगी। जो पीछे होगा कहेगा वोट आते ही होंगे। थोड़ा रूक जाओ। सब गिन लो। हर बार डाक से आनेवाले वोट कम होते हैं सो पीछे रहनेवाला हार मान लेता है। इस बार कोविड की वजह से हो सकता है अधिकांश वोट डाक से आए। 


इसीलिए चार राज्यों ने कोर्ट से अपील की कि 3 नवम्बर के बाद पाए जानेवाले वोट नहीं गिने जाए। दो राज्यों - पेनसिलवेनिया और नार्थ कैरोलाइना - की कोर्ट ने इसे मानने से इंकार कर दिया। विस्कॉनसिन कोर्ट ने स्वीकार कर ली। मिनेसोटा ने कहा कि गिनो मत पर अलग से रख लो, फिर सोचेंगे। 


राहुल उपाध्याय । 30 अक्टूबर 2020 । सिएटल 


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Wednesday, October 28, 2020

28 अक्टूबर 2020

विजयदशमी/दशहरे पर आमतौर पर कई चिर-परिचित गीत सुनने को मिलते हैं। ज़्यादातर दीवाली की ख़ुशियों से सम्बंधित होते हैं। या फिर राम या देवी के भजन। 


शायद ही कभी यह गीत इस मौक़े पर सुना गया हो। यह देशभक्ति से ओतप्रोत हैं। हर 15 अगस्त, 26 जनवरी, विजय दिवस आदि पर सुना जाता है। 


जैसा कि आमतौर पर होता है, गीत की हर पंक्ति पर ध्यान बहुत कम जाता है। यहाँ तो लगता है पूरा पद ही नज़रअंदाज़ हो गया। 


चौथा पद पूरी रामायण सामने लाकर रख देता है। कैफ़ी के शब्द, रफ़ी की आवाज़ और मदन मोहन का संगीत एक ऐसी ऊर्जा भर देता है कि रोंगटे खड़े हो जाते हैं। 


कर चले हम फ़िदा जान-ओ-तन साथियों 

अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों


साँस थमती गई नब्ज़ जमती गई

फिर भी बढ़ते कदम को न रुकने दिया

कट गये सर हमारे तो कुछ ग़म नहीं

सर हिमालय का हमने न झुकने दिया

मरते-मरते रहा बाकापन साथियों, 

अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों


ज़िंदा रहने के मौसम बहुत हैं मगर

जान देने की रुत रोज़ आती नहीं

हुस्न और इश्क़ दोनों को रुसवा करे 

वो जवानी जो खूँ में नहाती नहीं

आज धरती बनी है दुल्हन साथियों

अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों


राह क़ुर्बानियों की न वीरान हो

तुम सजाते ही रहना नए क़ाफ़िले

फ़तह का जश्न इस जश्न के बाद है

ज़िंदगी मौत से मिल रही है गले

बाँध लो अपने सर से कफ़न साथियों


खेंच दो अपने खूँ से ज़मीं पर लकीर

इस तरफ़ आने पाए न रावण कोई

तोड़ दो हाथ अगर हाथ उठने लगे

छूने पाये न सीता का दामन कोई

राम भी तुम तुम्हीं लक्ष्मण साथियों


https://youtu.be/nBbmW9JpbUg 


राहुल उपाध्याय । 28 अक्टूबर 2020 । सिएटल 


Sunday, October 25, 2020

अमेरिका में चुनाव - भाग 3

मेरे राज्य, वाशिंगटन, में मतदान पिछले कई वर्षों से डाक से ही होता आया है। बाक़ी राज्यों में दोनों - डाक या मतदान केंद्र - का प्रावधान है। 


डाक में सुविधा यह है कि किसी क़तार में समय बर्बाद नहीं होता। लेकिन दिक़्क़त यह कि आपको पढ़ना-लिखना आना चाहिए। 


अधिकतर राजनीतिक दलों के चुनाव चिन्ह ऐसे होते हैं कि हर किसी को समझ आ जाए और याद रहे। यहाँ के दो प्रमुख दलों के चुनाव चिन्ह हैं- गधा (डेमोक्रेट) और हाथी (रिपब्लिकन)। 


ये यदि भारत में होते तो कई चुटकुले और कार्टून बन चुके होते। यहाँ कोई किसी को इन जानवरों के नाम लेकर अपशब्द नहीं कहता है। 


लेकिन मतपत्र पर चुनाव चिन्ह कहीं नहीं है। क्योंकि ये अधिकारिक नहीं हैं। सो पढ़ना न आए तो काला अक्षर भैंस बराबर। (चुनाव अधिकारी से सम्पर्क कर सुविधा प्राप्त की जा सकती है।)


और लिखना ना आए तो भी बेकार। बिना हस्ताक्षर मतदान वैध नहीं। (दो गवाह हो तो वे हस्ताक्षर कर सकते हैं आपके चिन्ह को वैध साबित करने के लिए)


लिखना आए तो भी मुसीबत। मेरे बड़े बेटे ने छ: वर्ष पहले अपना नाम पंजीकृत करवाया था। तब के हस्ताक्षर में और आज के में काफ़ी अंतर है। सो उसका मत अवैध घोषित किया जाएगा। पिछले राज्य स्तरीय चुनावों में ऐसा हो चुका है। वह नए हस्ताक्षर अद्यतन करवा सकता है। पर इतनी मेहनत किसलिए? हमारे राज्य से बाईडेन की जीत सुनिश्चित जो है। 


यह है लोकतंत्र। 


हस्ताक्षर कर भी लो तो एक और रोड़ा। स्याही का रंग या तो नीला हो या काला। वरना अवैध। 


मेरे जिले - किंग काउंटी - में कोई भी रंग की स्याही स्वीकार्य है, चूँकि यह समृद्ध जिला है। (यहाँ माइक्रोसॉफ़्ट और अमेज़ॉन जैसी कम्पनियों के मुख्यालय हैं। उनके कर्मचारी यहाँ रहते हैं।  विश्व के सबसे धनाड्यों में से दो - बिल गेट्स और जेफ बेॹोस - यहीं रहते हैं। सब से अच्छा ख़ासा विक्रय कर एवं सम्पत्ति कर मिलता है। यहाँ राज्य स्तरीय आयकर नहीं है। सिर्फ़ राष्ट्रीय आयकर।) इस कारण इनके पास ऐसे उपकरण हैं जो किसी भी रंग को पढ़ सकते हैं। अन्य जिलों में ऐसा नहीं है। 


एक और बात। चारों ओर डंका है ट्रम्प और बाईडेन का, लेकिन मतपत्र पर इनके साथ चार उम्मीदवार और हैं। 


मतपत्र पर नाम आ जाना कोई आसान काम नहीं है। बावजूद इसके ये हाशिए पर हैं और रहेंगे। इनका कोई साक्षात्कार नहीं लेता। इनके कच्चे चिठ्ठे नहीं कोई खोलता। 


यह हाल है लोकतंत्र का। 


कहने को कोई भी जीत सकता है। पर असलियत यह है कि सम्भावना सिर्फ़ बाईडेन और ट्रम्प की है। 


मेरे राज्य में तो इसकी भी गुंजाइश नहीं है। यहाँ से बाईडेन की जीत सुनिश्चित है। क्योंकि इस राज्य ने हमेशा डेमोक्रेटिक दल के उम्मीदवार को ही वोट दिया है, चाहे वो कोई भी हो। 


और हाँ, संविधान के अनुसार कोई भी मतदाता किसी का भी नाम लिखकर उसे अपना मत दे सकता है। ये भारत के 'नोटा' से एक कदम आगे है, यानी कोई भी पसन्द नहीं लेकिन इसे बना दो राष्ट्रपति। 


यह बात हास्यास्पद लग सकती है। कि जब बाकी चारों की कोई सम्भावना नहीं है तो इस हाथ से लिखे व्यक्ति की तो जीत असम्भव है। 


लेकिन मान लें कोई अप्रत्याशित घटना घट जाए और जिनके नाम लिखे हों वे उपलब्ध न हो तो? तब जनमानस में से कोई सामने आ सकता है। जैसे कि बिल गेट्स। 


इसलिए यह प्रावधान रखा गया। 


मतपत्र में राष्ट्रपति के अलावा बाक़ी के भी चुनाव शामिल हैं। जैसे मेरे यहाँ, राज्यपाल, उप राज्यपाल, आदि। 


यह मतपत्र मेरे ज़िले का है। इसी प्रकार हर जिले का अपना मतपत्र है। 


यह मतपत्र हिन्दी में उपलब्ध नहीं है।  स्थानीय अधिकारी से जाँच-पड़ताल करने से पता चलेगा कि क्या कोई अधिकारिक सहायता उपलब्ध है हिन्दी में? आमतौर पर हर हिन्दीभाषी का कोई न कोई परिचित निकल ही आता है जिसे अंग्रेज़ी समझ आती है। सो शायद कोई आवश्यकता ही न हो। 


राहुल उपाध्याय । 25 अक्टूबर 2020 । सिएटल 



सामूहिक साप्ताहिक प्रात: भ्रमण का इतिहास:

सामूहिक साप्ताहिक प्रात: भ्रमण का इतिहास:


माइक्रोसॉफ़्ट में एक सज्जन वैनकूवर (कनाडा) से तबादला लेकर आए। क़िस्मत से उन्होंने मेरे मोहल्ले में ही घर लिया। मिलना-जुलना होता रहा। एक दिन उनके घर वैनकूवर के मित्रगण आए। वे बातें करने लगे कि वैनकूवर में शनिवार का प्रात: भ्रमण की कमी खल रही है। यहाँ तो कुछ ऐसा नहीं है। वैनकूवर कितना सुंदर है। आदि-आदि। 


मैंने कहा कि सिएटल भी वैनकूवर जैसा ही सुन्दर है। हम दोनों शुरू कर सकते हैं वैसा ही भ्रमण जैसा वैनकूवर में होता था। 


हमने रविवार चुना। शनिवार को बच्चों की गतिविधियों (फुटबॉल, समाजसेवा इत्यादि) में बाधा आ सकती थी। शुक्रवार की शाम प्राय: कोई न कोई फ़िल्म भी सपरिवार देखी जाती थी। सोने में देर होती थी, सो सुबह जल्दी उठ पाना आसान नहीं लगता था। रविवार की सुबह अमेरिका में सार्वजनिक गतिविधियाँ कम होतीं हैं। यह समय चर्च जाने के लिए सुरक्षित माना जाता है। 


रवि की सुबह सात से नौ का समय निर्धारित किया गया ताकि वापस घर जल्दी आ जाया जा सके। और परिवार के किसी और काम का नुक़सान न हो। 


कौन आ सकता है, कौन नहीं, इस पर कोई प्रतिबंध नहीं। सिवाय इसके कि समय पर आए। इसी कारण यह प्रायः पुरूष प्रधान समूह रहा। बच्चे इतनी जल्दी रविवार को उठना नहीं चाहते। क्योंकि सोम से शुक्र वे उठते ही हैं स्कूल के लिए बहुत जल्दी। बच्चों की माताएँ भी इसी वजह से नहीं आ पातीं हैं। हालाँकि कई बार अपवाद स्वरूप बच्चे और माताएँ भी शामिल हुए हैं। जिनके बच्चे नहीं हुए हैं वे युगल भी शामिल हुए हैं। 


चाहे कितनी भी गर्मी हो, सर्दी हो, या बारिश हो। भ्रमण न रूकता है, न समय बदलता है। चूँकि मैं हर बार उपस्थित रहता हूँ सो मैंने खुद ज़िम्मेदारी ले ली स्थान तय करने की। हर गुरूवार को सोने से पहले मैं सबको सूचित कर देता हूँ कहाँ से भ्रमण शुरू होगा। 


कोरोना से पहले कारपूल का भी इंतज़ाम रहता था। एक ने ज़िम्मेदारी ले ली कि वे हमेशा अपनी गाड़ी से जाएँगे। उसमें सात प्राणी बैठ जाते थे। उन्होंने ही तय किया कि वे थर्मस फ़्लास्क में गरमागरम चाय भी लाएँगे। 


इतना जज़्बा बहुत कम देखने को मिलता है। सुबह छ: बजे पूरा फ्लास्क भरकर प्रेमपूर्वक बहुत ही मज़ेदार चाय बनाना, साढ़े छ: तक कारपूल से अन्य साथियों को लेना, ताकि सात बजे भ्रमण आरम्भ हो सके - जब तक दिल न हो, नहीं किया जा सकता। और वह भी हर रविवार, लगातार चार साल तक। 


जब वे किसी कारणवश नहीं आ पाते तो कोई और चाय की ज़िम्मेदारी ले लेता था। 


मैं चाय नहीं पीता। इसलिए मेरे लिए छोटे थर्मस में गर्म पानी होता था और हर्बल चाय का पैकेट। 


किसी ने सोचा चाय के साथ बिस्किट हो तो अच्छा होगा। और वे ले आए। सब ख़ुश। देखादेखी सब कभी कुछ, कभी कुछ लाने लगे। पोहा, कचोड़ी, समोसा, आलू का पराठा, नमकीन, केक, मिठाई सब कभी न कभी मिल जाते थे। और सब एक सुखद आश्चर्य की तरह। 


किसी ने फ़ोटो खींचने का काम ले लिया। 


जब भी किसी ने शहर छोड़ा तो उसे विदाई में एक कोलॉज दिया गया। सबके हस्ताक्षर के साथ। लोग जुड़ते गए, बिछुड़ते गए। 


राहुल उपाध्याय । 25 अक्टूबर 2020 । सिएटल 


25 अक्टूबर 2020

आज का सामूहिक साप्ताहिक प्रात: भ्रमण हमेशा की तरह बहुत आनन्ददायक रहा। 


वाशिंगटन विश्वविद्यालय से जुड़ी 230 एकड़ की वनस्पति-वाटिका एक ऐसा उद्यान है जहाँ दुनिया भर के कई क़िस्म के पेड़, पौधे, झाड़ियाँ बड़े एहतियात के साथ लगाईं गईं हैं। उनकी नियमित रूप से देख-रेख भी होती है। 


पतझड़ की मनोरम छटा हमें और हमारे कैमरे को आकर्षित करती रही। 


रसगुल्लों से आनन्द बढ़ गया। 


राहुल उपाध्याय । 25 अक्टूबर 2020 । सिएटल 


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Wednesday, October 21, 2020

पहली पतझड़

यह मेरा पहला फ़ोटो हैं अमेरिका के पतझड़ के साथ। तब मुझे भारत से आए सिर्फ़ दो महीने ही हुए थे। 


सिनसिनाटी विश्वविद्यालय की यह परम्परा रही है कि हर नए विदेशी छात्र से एक लोकल परिवार को जोड़ दिया जाता है ताकि नवआगंतुक खुद को अकेला न समझे। 


मुझे यह परम्परा बहुत अच्छी लगी। उन्होंने प्रथम वर्ष मेरा बहुत ख़याल रखा। मुझे लेने आते थे, अपने घर कुछ समय बीताने, खाना खिलाने के बाद, वापस छोड़ भी जाते थे। 


यह फ़ोटो उनके इण्डियना राज्य स्थित अवकाश गृह का है। कैमरा उन्हीं का है। प्रिंट भी उन्होंने ही दिया था। 


उस दिन मेरा जन्मदिन भी था। और धन्यवाद ज्ञापन दिवस की पूर्व संध्या भी। 


बहुत मीठा दिन। 26 नवम्बर 1986। 


तब से मैं सिनसिनाटी, इण्डियनापोलिस, फिलाडेल्फिया, टोराण्टो, और सिएटल के पतझड़ का दीवाना हूँ। 


धन्यवाद ज्ञापन दिवस हर वर्ष नवम्बर के चौथे गुरूवार को मनाया जाता है। यही एकमात्र दिन है जिसकी दो दिन (गुरू-शुक्र) की छुट्टियाँ एक साथ मिलतीं हैं। यानी चार दिन की। क्योंकि शनि-रवि को वैसे भी छुट्टी रहती है। 


गुरूवार की छुट्टी परिवार के संग भोजन करने के लिए होती है। परम्परा अनुसार उस दिन माँसाहारियों के यहाँ टर्की पकाई जाती है। एक टर्की इतनी बड़ी होती है कि एक अकेला परिवार उसे खा नहीं सकता। इसलिए यह सबसे उपयुक्त दिन होता है। इतनी बड़ी टर्की को पकाने में भी घण्टों लगते हैं। सो मिल जुल कर पकाने के लिए भी यह श्रेष्ठ दिन रहता है। 


उस दिन रेस्टोरेन्ट बंद रहते हैं। सारे बाज़ार, मॉल सब बंद रहते हैं। अमेरिका में चौबीसों घण्टे खुलने वाली दुकानें भी बंद रहतीं हैं। हर जगह सन्नाटा। 


परिवार एक दूसरे से मिलने के लिए हज़ारों मीलों की यात्राएँ तय करते हैं। बुधवार के दिन हर एयरपोर्ट पर बहुत भीड़ रहती है आने-जाने वालों की। लेने-छोड़ने वालों की। 


जिन परिवारों में खटपट है, या टूट चुके हैं, या बिखर चुके हैं, या आने में असमर्थ हैं, उनके लिए यह दिन अत्यंत कष्टदायक होता है। कई लोग निराशा की गिरफ़्त में आ जाते हैं। 


शुक्रवार को छुट्टी इसलिए होती है कि क्रिसमस में सिर्फ़ 4 हफ़्ते रह गए हैं, जिसे जो उपहार देना हो, ख़रीद लें। इसलिए जितना सन्नाटा गुरूवार को था, उतनी ही ज़्यादा भीड़ होती है शुक्रवार को। हर दुकान की होड़ रहती है कि उसकी ज़्यादा बिक्री हो। इसलिए कुछ दुकानें सामान इतना सस्ता देने की घोषणा करते हैं कि लम्बी क़तारें लग जातीं हैं दुकान खुलने के कुछ घण्टों पहले से ही। ग़ज़ब का मेला होता है। 


इरादा उपहार के लिए ख़रीददारी का होता है। लेकिन अपने लिए भी सस्ते दाम पर कुछ मिल जाए तो हर्ज ही क्या है?


राहुल उपाध्याय । 21 अक्टूबर 2020 । सिएटल 



Monday, October 19, 2020

रामचरितमानस कहाँ उपलब्ध है?

रामचरितमानस के नवाह्नपारायण मैंने 2016 में नवरात्रि में पूरे किए और कुछ दोहों पर भावार्थ सहित टिप्पणी की थीं। 


रामचरितमानस की प्रतियाँ हर माध्यम में उपलब्ध हैं। आप जैसे चाहें, जब चाहें उसे पढ़ सकते हैं। पुस्तक के रूप में पढ़नी हो तो गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित प्रचलित है। यह कई छोटे बड़े आकार में मिलती है। मूल रचना गोस्वामी तुलसीदास जी की अवधि में है, कहीं-कहीं संस्कृत के पद भी हैं। पूरे रामचरितमानस की लिपि देवनागरी ही है। अर्थात यदि आप हिंदी पढ़ सकते हैं तो तुलसीदास जी की मूल रचना का भी आनन्द ले सकते हैं। 


अवधि भाषा समझ न आए तो उसका अनुवाद/भावार्थ भी गीताप्रेस की पुस्तकों में हैं। हिंदी, अंग्रेज़ी और अन्य भाषाओं में। कुछ को भ्रांति थी कि भावार्थ मेरे थे। नहीं। भावार्थ गीताप्रेस की पुस्तक से लिए थे मैंने। केवल उनकी प्रस्तुति और टिप्पणियाँ मेरी थीं। 


गीताप्रेस की पुस्तकें अन्तर्जाल पर भी सहज उपलब्ध हैं:

    1.: 

http://www.jitu.info/ramayan 


    2.हिन्दी में अनुवाद के साथ: http://hindi.webdunia.com/religion/religion/hindu/ramcharitmanas/ 


    3. पढ़ें एवं सुनें: http://rahul-upadhyaya.blogspot.com/2016/04/complete-ramcharitamanas-agyat-sanyasi.html 


राहुल उपाध्याय । 17 अक्टूबर 2020 । सिएटल 


Thursday, October 15, 2020

मदर टेरेसा

कई बार लगता है कि सारे महान चरित्र इतिहास में हुए हैं। काश हम तब होते तो कितना अच्छा होता। 


हम यह भूल जाते हैं कि जब वे थे तब भी कई लोगों ने उसे अपना सौभाग्य नहीं माना। किसी न किसी ख़ामी की वजह से दूरी बनाए रखी। 


और यही हम आज कर रहे हैं। जो हमारे आसपास हैं, उन्हें ही इतिहास एक दिन महान करार देगा। तब हम हाथ मलते रह जाएँगे। कि मौक़ा था, और उसे हाथ से जाने दिया। 


कई बार लगता है कि बड़े लोगों से मिलना तो विदेश में बसे भारतीयों के लिए आसान है। ज़्यादा भारतीय हैं नहीं। और अमेरिका कर्म-प्रधान देश है। काम से छुट्टी लेकर बहुत कम ही किसी को देखने या सुनने जाते हैं। तो जो जा रहे हैं उनको मिलने के अवसर और बढ़ जाते हैं। 


जबकि जो अपने ही देश में, अपने ही शहर में हैं, उनसे मिलने की हम सोचते ही नहीं। घर की मुर्ग़ी दाल बराबर। 


नवीं में असफल होने का दुःख तो हुआ था। पर फ़ायदे भी बहुत हुंए। उनमें से एक था मदर टेरेसा से मिलना। 


असफल होने पर नई नवीं कक्षा में, और फिर दसवीं में मिस चन्द्रा मिलीं। वे प्रोत्साहित करतीं थीं, और मुझे अंग्रेज़ी पढ़ना-लिखना भाने लगा था। 1979 में, दसवीं की अंग्रेज़ी पुस्तक में मदर टेरेसा से एक मुलाक़ात पर आधारित ख़ुशवंत सिंह का लिखा निबंध था। 


मिस चन्द्रा ने योजना बनाई कि क्यूँ न पूरी कक्षा मदर टेरेसा से स्वयं मिले। ताकि जो पढ़ रहे हैं, उसे अनुभव कर सकें। 


जिस दिन जाना था मिलने, मैं जल्दी तैयार हो गया था। दरवाज़े के नीचे से सरकाया हुआ स्टेट्समैन समाचार पत्र मैंने ही उठाया। मुख्यपृष्ठ पर मदर टेरेसा की बड़ी सी तस्वीर थी। और समाचार था कि उन्हें इस साल के नोबेल पुरस्कार के लिए चुन लिया गया है। 


ख़ुशी तो हुई। चिन्ता उससे ज़्यादा हुई। कि यह भी आज ही होना था। क्या पता वे इतनी व्यस्त हों कि हमसे मिले ही नहीं। या मिले भी तो कुछ ही क्षणों के लिए। 


हम उस गली में पहुँचे। जहाँ उनका मिशन था। ख़ुशवंत सिंह के बताए अनुसार वैसा ही दरवाज़ा था, वैसी ही बड़ी चर्च जैसी घण्टी थी, जो रस्सी खींचने पर बजती थी। घण्टी बजने पर कोई सिस्टर आईं। हमें उनके दफ्तर ले गईं। 


मदर टेरेसा सहज भाव से मिली। नोबेल का प्रभाव कहीं नहीं था। पूरे मिशन, अस्पताल, रोगी, बच्चों, सबसे परिचय कराया। 


उस दिन किसी के पास कैमरा नहीं था। 


एक अविस्मरणीय दिन। एक अविस्मरणीय मुलाक़ात। एक अविस्मरणीय व्यक्तित्व। 


राहुल उपाध्याय । 15 अक्टूबर 2020 । सिएटल 



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15 अक्टूबर 2020

आज भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर कलाम का जन्मदिन है। 


24 अप्रैल 2009 को वे सिएटल पधारे। वाशिंगटन विश्वविद्यालय में हुए उनके स्वागत समारोह में मैं भी उपस्थित था। 


उन्हें मेरी हिन्दी कविताओं की पुस्तक भेंट की। एक सुनानी भी चाही। पर, अफ़सोस, उन्हें हिन्दी समझ नहीं आती। 


इसे पुस्तक कहना शायद उचित नहीं होगा। कुछ चुनिंदा कविताओं का प्रिंट ले कर, पन्नों का आधा काट कर, मोटे काग़ज़ का आवरण बना कर, जोड़ दिया था स्पाइरल बाइंडिंग में। 


राहुल उपाध्याय । 15 अक्टूबर 2020 । सिएटल 



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Tuesday, October 13, 2020

निदा फ़ाज़ली

आज निदा फ़ाज़ली का जन्मदिन है। 


मेरी पहली रचना का श्रेय उन्हीं को जाता है। 


यह रही वो रचना -


http://mere--words.blogspot.com/2008/02/blog-post_18.html 


2011 में एक और रचना लिखी थी। विपासना के दस दिन के मौन सत्र के दौरान। वहाँ लिखना-पढ़ना-बोलना-नज़रें मिलाना सब मना था। मैंने नियम का पूरा पालन किया। दोपहर के भोजन के बाद थोड़ा टहल लिया करता था। तभी सब पंक्तियाँ ज़हन में आई और घर आने पर ब्लैकबेरी पर उतरी। 


http://mere--words.blogspot.com/2011/12/blog-post.html 


निदा साहब ने बी-बी-सी के लिए एक स्तंभ भी लिखा। एक कड़ी यहाँ देखें। जिसमें वे बताते हैं कि कैसे किसी रचना का श्रेय किसी और को मिल जाता है और लाख चाहने पर भी सही नहीं किया जा सकता है। 


http://www.bbc.com/hindi/entertainment/story/2007/12/071226_nida_column.shtml 


एक अंतराल ऐसा भी आया जब मैंने कुछ लिखा नहीं। 2016 में निदा के निधन ने बहुत प्रभावित किया और लिखना फिर शुरू हो गया।  


https://mere--words.blogspot.com/2016/02/blog-post.html?m=1 


इनकी इस मशहूर गीत का मूल रूप यह है:


कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता 

कहीं ज़मीं कहीं आसमाँ नहीं मिलता 


तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो 

जहाँ उमीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता 


कहाँ चराग़ जलाएँ कहाँ गुलाब रखें 

छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता 


ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं 

ज़बाँ मिली है मगर हम-ज़बाँ नहीं मिलता 


चराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है 

ख़ुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता


राहुल उपाध्याय । 12 अक्टूबर 2020 । सिएटल 


ख़ुलूस = निष्कपटता

अज़ाब = पीड़ा 

बीनाई = दृष्टि 



Saturday, October 10, 2020

संगीतकार रवि (10 अक्टूबर 2020)

https://youtu.be/bkorO2ZZAv4 


इस 27 मिनट के वीडियो में बहुत कुछ सीखने को है:


*-* पन्नों पर लिखे शब्दों को धुन में कैसे पिरोया जाता है। 

*-* कितनी प्रतिभाएँ ऐसी हैं जिनका नाम कभी उजागर नहीं होता। 

*-* इंसान करना कुछ चाहता है और कर कुछ बैठता है। 

*-* नागिन की बीन वाली धुन कैसे बनी (7:30)

*-* रवि ने गीत लिखे भी और गाए भी। (8:38)

*-* चौदहवीं का चाँद हो - यह गीत कैसे बना। (11:48)


राहुल उपाध्याय । 10 अक्टूबर 2020 । सिएटल 


Friday, October 9, 2020

अमेरिका में चुनाव- भाग 2

जैसा कि मैंने कहा कि जनता को संतोष है कि सब ठीक ही चल रहा है। 


हर बार चुनाव के मुद्दे ऐसे होते हैं जिनसे आम आदमी का कुछ लेना देना नहीं है। 


रोटी, कपड़ा और मकान की समस्या न के बराबर है। हर वयस्क व्यक्ति एक गाड़ी अपने बजट के मुताबिक़ ख़रीद सकता है, और ख़रीद ही लेता है। हवा, पानी सब साफ़ है। बिजली की कोई कमी नहीं। 


बेरोज़गारी कितनी भी हो। हमेशा मुद्दा बनती है। लेकिन सब जानते हैं कि राष्ट्रपति का इसमें कोई हाथ नहीं है। हर व्यक्ति अपने जीवनकाल में कम से कम एक बार नौकरी से बर्खास्त होता ही है। उसे ले-ऑफ़ कहते हैं। 


लेकिन हर कोई छोटा-मोटा काम करके अपना घर चला  लेता है। परिवार छोटा ही होता है। और हर वयस्क धनोपार्जन करता है। 


इसके अलावा हर चुनाव में गर्भपात भी एक मुद्दा बनता है। रिपब्लिकन के लिए यह एक हत्या है। डेमोक्रेट के लिए यह महिला का अधिकार है, वह जो चाहे सो करे। 


फिर से वही परिणाम। राष्ट्रपति किस पार्टी का है, उससे भी महिला के अधिकार की क्षति नहीं होती। सिवाय इसके कि केन्द्रीय सरकार के अनुदान कम हो जाते हैं। कुछ क्लिनिक बंद हो जाते हैं। गरीब लोगों के लिए थोड़ी असुविधा होती है। 


फिर आते हैं अंतरराष्ट्रीय मुद्दे। कभी रूस, कभी अफ़ग़ानिस्तान, कभी इरान, कभी इराक़, कभी चीन। कोई न कोई खलनायक हमेशा मिल ही जाता है। पिछले तीन साल से रूस हावी था। आजकल चीन है। 


स्वास्थ्य सेवा पर कुछ सालों से चिन्ता व्यक्त की जा रही है। समाधान किसी के पास नहीं। और वैसे भी यह ज्वलंत मुद्दा नहीं। 


राष्ट्रपति ट्रम्प की एक खूबी यह है कि वह एक ट्वीट से किसी का भी किसी भी विषय से ध्यान भटका सकते हैं। 


इन दिनों बस यही ख़ास मुद्दा है कि वे मास्क क्यों नहीं पहनते हैं। बीमार हुए तो पृथक वास में क्यों नहीं रहते? वापस घर क्यों आ गए? घर आ गए तो घर में रहें। लोगों से क्यों मिलते हैं? क्यों मिलना चाहते हैं? क्यों ज़ूम पर बाईडेन से वाद-विवाद नहीं कर सकते हैं?


बाक़ी सारे मुद्दे हवा हो गए हैं। आतंकवाद? यह किस चिड़िया का नाम है?


बाईडेन की सरकार कैसी होगी, इसका आभास किसी को नहीं है। और बाईडेन भी समझाना ज़रूरी नहीं समझते। वे ट्रम्प नहीं हैं, क्या इतना ही काफ़ी नहीं है?


इन सबको देखकर आमतौर पर जो राष्ट्रपति होता है वही दोबारा राष्ट्रपति बनता है। (इसीलिए दो बार से ज़्यादा कोई राष्ट्रपति न बन सके, ऐसा संविधान में संशोधन किया गया।) कुछ अपवाद हैं लेकिन वह भी तब जब कोई बड़ा काण्ड हो जाए। बुश हारे इराक़ के कारण। कार्टर हारे इरान के कारण। 


इस बार यदि ट्रम्प हारेंगे तो कोरोना को ज़िम्मेदार माना जाएगा। लेकिन उनकी हार की सम्भावना कम है। कोरोना से जीतने का गुर किसी प्रशासन के पास नहीं है। 


राहुल उपाध्याय । 9 अक्टूबर 2020 । सिएटल 


9 अक्टूबर 2020

https://youtu.be/3H7DZHYXx_0 


आज रवीन्द्र जैन की पुण्यतिथि है। पाँच साल पहले इनके निधन पर इतना दुःख हुआ था कि जैसे कोई अपना चला गया हो। 


मैं प्रतिगीत शुरू से ही लिखता आ रहा हूँ। समझ लीजिए बच्चे की तीन पहिए वाली साइकल। भाव-धुन-गायकी सब पहले से मौजूद है, बस कुछ शब्दों की ही हेराफेरी करनी होती है। 


प्रतिगीत तभी प्रभावी होते हैं जब मूल गीत की जानकारी हो। आजकल की पीढ़ी उन गीतों से अनभिज्ञ है। अंत: उमेश का इन प्रतिगीतों को गा कर प्रस्तुत करना एक वरदान साबित हुआ। 


इस प्रतिगीत से ही हमारी जोड़ी का शुभारम्भ हुआ। 


राहुल उपाध्याय । 9 अक्टूबर 2020 । सिएटल