Tuesday, February 28, 2023

गर्भ धारण करना क्या कोई बीमारी है?

गर्भ धारण करना क्या कोई बीमारी है कि जिसके निवारण के लिए दवाई बनाई जाए, एफडीए द्वारा पारित की जाए और दुकानों पर बेची जाए?


यह सवाल अभी अमेरिका की कोर्ट में किया जानेवाला है। 


करनेवाले हैं रिपब्लिकन जो गर्भपात के ख़िलाफ़ है। 


गर्भपात में सरकार का हस्तक्षेप क्यों?


यह देश जो हर तरह की आज़ादी देने के लिए 'बदनाम' है ऐसे सवाल क्यों कर रहा है?


आज़ादी देने के अलावा यह देश इस बात के लिए भी प्रसिद्ध है कि अदालत के ज़रिए हर मसले को सुलझाए जाने का प्रयास किए जाता है। 


इसीलिए सुप्रीम कोर्ट में कौन न्यायाधीश है यह बहुत मायने रखता है। दिक्कत यह है कि हर न्यायाधीश आजीवन पदासीन रहता/रहती है। वह सेवानिवृत्त नहीं होता/ होती है। इसलिए हर सत्तारूढ़ राष्ट्रपति कोशिश करता है कि अपनी विचारधारा वाले युवा व्यक्ति को पदासीन करे। पर वह तभी सम्भव है जब कोई न्यायाधीश गुज़र जाए या किसी वजह से स्वेच्छा से छोड़ दे। 


यह सवाल इस बार क्यों उठाया जा रहा है? हुआ यह कि पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने रो बनाम वेड के पचास साल पुराने फ़ैसले को पलट दिया। पुराने फ़ैसले के मुताबिक़ नारी अपने गर्भ के साथ जो चाहे कर सकती है। इसमें सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं हो सकता। किसी पिता, माता, भाई, बहन, पति, बॉयफ़्रेंड, सहेली आदि की भी अनुमति आवश्यक नहीं है। 


यह राष्ट्रीय तौर पर लिया गया फ़ैसला था। और पूरे देश में गर्भ गिराना ग़लत नहीं था और इसके लिए सारी सुविधाएँ मौजूद था। पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि नारी गर्भ के साथ क्या करे, क्या न करे, इस मसले में सुप्रीम कोर्ट को अपनी कोई भूमिका नहीं दिखती है। इस का निर्णय जनता करे। और राष्ट्र की नहीं, राज्य की जनता निर्णय ले। आमतौर पर हर क़ानून यहाँ राज्य ही निर्धारित करती है। यहाँ हर राज्य के अपने क़ानून हैं। अपना ड्राइवर लाइसेंस है। अपना मैरिज लाइसेंस है। आदि। 


किसी राज्य में डेमोक्रेट्स की सरकार है। किसी में रिपब्लिकन्स की। डेमोक्रेट्स इस पक्ष में हैं कि नारी जो चाहे करे। उसका तन, उसका मन। सरकार रास्ते का काँटा क्यों बने?


रिपब्लिकन यो तो चाहते हैं कि सरकार जितनी छोटी हो और जितना कम हस्तक्षेप करे किसी के जीवन में उतना बेहतर। लेकिन यहाँ वे अपना मोरल अधिकार समझती है। उनका कहना है कि किसी को, माँ तक को, हक़ नहीं है कि वे किसी मासूम की जान ले। ख़ासकर वह जो अभी पैदा नहीं हुआ/हुई है। उसे अपने अधिकार नहीं पता है, खुद अपनी रक्षा नहीं कर सकता। रेप या इन्सेस्ट हो तब भी माँ को यह अधिकार नहीं है। जान तो जान है। चाहे कैसे भी दुनिया में आई हो। 


इसलिए रिपब्लिकन राज्यों में अब वे क्लिनिक बंद हो चुके हैं जहां गर्भपात करवाये जा सकते हैं। महिलाएँ एक राज्य से दूसरे राज्य में जाकर यदि गर्भपात करवाती है तो यह दंडनीय अपराध है जिसमें जेल की सज़ा भी शामिल है। 


पहले गर्भपात का खर्च स्वास्थ्य बीमा से चुकाया जा सकता था। स्वास्थ्य बीमा अधिकतर आपके रोज़गार से जुड़ा होता है। जो संस्थाएँ रिपब्लिकन राज्यों में हैं उन्होंने गर्भपात के लिए स्वास्थ्य बीमा का उपयोग करना वर्जित कर दिया है। 


इन सब हालातों को देखते हुए महिलाओं ने दूसरा तरीक़ा अपनाने की सोची। पहले तीन महीनों में दवाई लेकर भी गर्भ गिराया जा सकता है। 


रिपब्लिकन की नज़र अब इस दवाई पर है। तर्क यह रखा गया कि यह दवाई नहीं है। क्योंकि गर्भ धारण करना कोई बीमारी नहीं है। 


इसलिए एफडीए के ख़िलाफ़ रिपब्लिकन्स द्वारा यह मुक़दमा दायर किया गया है। एफडीए वह संस्था है जो हर दवाई की जाँच-परख करती है तभी जाकर यह बाज़ार तक पहुँचती है और ग्राहक को संतुष्टि होती है कि यह सुरक्षित दवाई है। 


एफडीए से कहा जा रहा है कि वह अपनी गलती मान ले कि यह दवाई दवाई नहीं है क्योंकि यह कोई बीमारी नहीं ठीक करती क्योंकि गर्भ धारण करना कोई बीमारी ही नहीं है। 


यह बहुत रोचक है। जैसे कि मर्चेंट ऑफ़ वेनिस में तर्क था कि जितना मांस ले लो लेकिन खून की एक बूँद नहीं गिरनी चाहिए। या अश्नीर ग्रोवर की ग्रोफर कम्पनी को बचानेवाले वकील, गोपाल सुब्रमण्यम, की दलील कि प्रतिवादी वह इनऑरगेनिक सब्जी लेकर आए जिसे ग्रोफर ने ऑर्गेनिक कह कर बेच दी थी। तारीख़ बढ़ते-बढ़ते महीनों गुज़र चुके थे। वह सब्ज़ी तब तक ख़ाक हो चुकी थी। 


उससे भी ज़्यादा आश्चर्यजनक यह कि एफडीए को मुक़दमे लड़ने की आदत नहीं है। इस पर कोई मुक़दमा नहीं करता है। इसलिए इसके पास पर्याप्त धन और वकील नहीं हैं। यह मुक़दमा लड़ तो लेगी पर हार गई तो आगे नहीं लड़ पाएगी। और हारने के साथ ही अलग मुक़दमे आ जाएँगे जो तैयार खड़े हैं क़तार में और भी इस तरह की दवाइयों को बाज़ार से हटाने में। जैसे हारमोन बदल कर लड़की से लड़का बनना या लड़के से लड़की। 


एफडीए सरकारी संस्था है जैसे नासा। पर हर संस्था का अपना बजट होता है। 


राहुल उपाध्याय । 28 फ़रवरी 2023 । सिएटल 

Thursday, February 23, 2023

ज़िन्दगी ज़िन्दगी की समीक्षा

अशोक कुमार, सुनील दत्त और वहीदा रहमान जैसे दिग्गजों द्वारा अभिनीत 'ज़िन्दगी ज़िंदगी' उस ज़माने की फिल्म है जब विधवा नायिका सफ़ेद साड़ी और कोहनी तक लम्बी बाँहों वाली ब्लाउज़ पहनती थी। डॉक्टर सफ़ेद कोट में नज़र आते थे। बच्चे पूरे-पूरे वाक्य हिन्दी में बोलते थे। समाज की कुरीतियों की बात होती थी। अमीर-गरीब का मसला बहुत बड़ा होता था। 


तपन सिन्हा द्वारा लिखी और निर्देशित की गई यह फ़िल्म बहुत अच्छी है। मैं इस फिल्म के मशहूर गीत, 'ज़िन्दगी ए ज़िन्दगी तेरे हैं दो रूप' से एक अरसे से प्रभावित था। मेरे चहेते गीतकार आनन्द बक्षी द्वारा लिखा और सचिन देव बर्मन द्वारा स्वरबद्ध किया और गाया यह गीत बहुत ही बढ़िया है। गहन दर्शन है। गहन टीस है। गहन पीड़ा है। 


इसी गीत की वजह से यह फ़िल्म देखी। यह गीत पूरी फ़िल्म में टुकड़ों-टुकड़ों में बजता है। फ़िल्म की शुरुआत में ही इस गीत का एक अंश है। 


ये दो गीत भी बहुत अच्छे हैं। 


https://youtu.be/vKwuHdD4E18

मेरा सब कुछ मेरे गीत रे


https://youtu.be/Q_SBQJNI0MA

तूने हमें क्या दिया री ज़िन्दगी 


बाक़ी ख़ानापूर्ति के हैं। 


गीतों का फ़िल्मांकन बहुत कमजोर है। इतने अच्छे गीतों के साथ अच्छे बर्ताव की उम्मीद थी। 


'नमक हराम' फ़िल्म की तरह इसमें भी एक हारा हुआ शायर है।


और मज़े की बात यह कि इसी फ़िल्म में एक भाषण में कवि को कोसा गया है कि उनसे समाज का भला नहीं हो सकता क्योंकि वे समय के साथ बदलते नहीं। हज़ारों साल से वही प्रेम-प्यार-शमा-परवाना के गीत गा रहे हैं। समाज बदला है तो धनाढ्य नेताओं से जिन्होंने अपनी पूँजी लगाकर अस्पताल खोले, स्कूल खोले, गाँव तक पानी लेकर आए आदि। सिर्फ़ लफ़्फ़ाज़ी से कुछ नहीं होता। 


इफ़्तिख़ार बहुत कम फ़िल्मों में पुलिसकर्मी नहीं बने हैं। उनमें से यह एक है। इसमें तो वे किसी के पिता-भाई आदि भी नहीं बने हैं। 


जलाल आगा और अन्य सहायक अभिनेता भी सिर्फ़ मरीज़ के किरदार में अस्पताल के पलंग पर ही दिखाई देते हैं। फ़रीदा जलाल को देखकर भी आश्चर्य हुआ। रमेश देव को नकारात्मक रोल में पहली बार देखा। 


फ़िल्म की कहानी त्याग और बलिदान की भी है। जैसा तब अक्सर होता था यदि नायक डॉक्टर हो तो। 'दिल एक मन्दिर' याद आ गई। 


ख़्वाजा अहमद अब्बास ने बहुत सरल एवं छोटे संवाद लिखे हैं। तपन सिन्हा की स्क्रिप्ट भी उम्दा है। अमीर-गरीब वाला प्रसंग भावनाओं से ओतप्रोत है। दोनों धड़ ग़लत भी हैं और सही भी। 


नायक-नायिका का मिलना-बिछड़ना-मिलना और तनावपूर्ण स्थिति में रहना भी बखूबी दिखाया गया है। 


दोनों किरदार ऐसे हैं कि उनके जैसा होन को मन हो आए। मरीज़ों के किरदार भी अनुकरणीय हैं। नेताओं के भी। कम्पाउण्डर के भी। 


इस गाँव में, इस फिल्म में सब भले इंसान हैं, एक-दो को छोड़कर। 


राहुल उपाध्याय । 23 फ़रवरी 2023 । सिएटल 


गुडबाय की समीक्षा

हिन्दी फ़िल्मों में अक्सर परिवार दो ही तरह के होते हैं। या तो राज श्री जैसे संस्कारी। या गैंग्स ऑफ़ वासेपुर जैसे परिवार हीन। 


'गुडबाय' एक ऐसी हिन्दी फ़िल्म है जिसमें पहली नज़र में यह परिवार बहुत विचित्र लगेगा, बिखरा हुआ, टूटा हुआ, बिगड़ैल। बाद में धीरे-धीरे यह अपने परिवार सा लगने लगेगा। वह परिवार नहीं जिससे हमें प्यार है। बल्कि वह परिवार जो ऐसा नहीं होना चाहिए और है। और यही सच्चाई है। हम सबके परिवार - चाहे संयुक्त हो या इकाई, देश में हो या विदेश में, गाँव में हो या शहर में - ऐसे ही हैं बिखरे हुए, टूटे हुए, बिगड़ैल। 


अंत में निदेशक को न जाने क्या सूझी कि इसे राज श्री परिवार बना दिया। 


यदि अंत को छोड़ दें तो पूरी फिल्म बहुत अच्छी बनी है। सब को देखनी चाहिए। और सपरिवार देखी जा सकती है। 


अमिताभ का किरदार कोई भी निभा सकता था। अनुपम खेर, संजय मिश्रा। बोमन ईरानी। लेकिन अमिताभ ने निभाया अच्छा हुआ। इसी बहाने इसे दर्शक मिलेंगे। मैंने भी इसी वजह से देखी। अच्छा हुआ देख ली। 


एक और आश्चर्यजनक कास्टिंग। रश्मिका मंदाना। पुष्पा के बाद मैं कभी सोच भी नहीं सकता था कि वैसी ऐसी फिल्म में दिख जाएँगी। फ़िल्म की शुरू की फ़्रेम में ही उनकी काजल वाली आँखों ने मोह लिया। मुझे हीरोइनों को पहचानने में दिक्कत होती है। तो सोचा मेरा भ्रम है। कोई और होंगी। अंत में क्रेडिट से पुष्टि हो गई कि वे रश्मिका ही हैं। 


फ़िल्म के शुरू होने से पहले के टाइटल्स से मन खिन्न हुआ। सब कुछ हिन्दी में था। नाम भी। और लिपि भी देवनागरी। लेकिन देवनागरी में थैंक्स ठीक नहीं लगा। इन एसोसिएशन विथ भी। क्या मजबूरी थी समझ नहीं आई। 


फ़िल्म का विषय नाज़ुक है। बहुत संजीदगी बरती गई। लेकिन मज़ाक़ भी है। कॉमेडी भी है। बुरी लग सकती है। लगनी भी चाहिए। लेकिन यह सच्चाई है। अंतिम क्रिया के वक्त ऐसी हास्यास्पद घटनाएँ होना आम बात है। 


सुनील ग्रोवर एक ख़ास भूमिका में हैं। उनके ऊपर से अभी तक कपिल शर्मा का असर गया नहीं है। उन्हें रहस्यमयी बनाने का प्रयास किया गया है। 


फ़िल्म चंडीगढ़ रहनेवाले एक परिवार की है। इसलिए गाने पंजाबी में हैं। ठीक हैं। याद रखने के लायक़ नहीं। ज़्यादातर गाने फ़िल्म की लम्बाई बढ़ाते हैं। 


अमिताभ को तीन अवस्थाओं में दिखाया गया है। युवा, अधेड़ और उम्रदराज़। तीनों में देखकर बहुत अच्छा लगा। अधेड़ वाले अमिताभ के लिए मेकअप टीम वाले बधाई के पात्र हैं। 


फ़िल्म इसलिए भी अच्छी है कि यह दर्शक को एक परिपक्व दर्शक मानती है। उसे खुद सब समझने देती है। 


विकास बहल की कहानी और उनका निर्देशन प्रशंसनीय है। रश्मिका का अभिनय भी शानदार है। 


कई सारी ग़लतियाँ हैं स्क्रिप्ट में। उन्हें सही किया जा सकता था। सब कुछ - अचार, पतंग, यूकेलयली, पर्वतारोहण, फ़ोन चार्जर, कुत्ता, अनाथालय - एक ही फिल्म में डालना ज़रूरी नहीं है। 


राहुल उपाध्याय । 23 फ़रवरी 2023 । सिएटल 

Wednesday, February 22, 2023

डॉक्टर जी

आयुष्मान खुराना अभिनीत फिल्म 'डॉक्टर जी' एक बहुत ही अच्छी और संवेदनशील फ़िल्म है जिसे हर किसी को देखना चाहिए। दो-चार सस्ते जोक्स छोड़ दिए जाए तो एकदम टॉप क्लास है। जॉनी लीवर की बेटी को देख कर लगा कि काफ़ी फूहड़ता होगी। लेकिन वह डर ग़लत साबित हुआ। 


मध्य प्रदेश के टीयर टू शहर के बाशिंदों की महत्वाकांक्षाओं की कहानी है ये। समाज में चली आ रही विसंगतियों की कहानी है ये। 


आयुष्मान चूँकि हीरो हैं तो सारी विसंगतियाँ उनके सर नहीं मढ़ दी गईं हैं। उनके सम्बन्धी का एक किरदार इजाद किया गया है। लेकिन फ़िल्म में कोई भी प्रेम चोपड़ा, अमरीश पुरी या बिन्दु नहीं है। सब सामान्य लोग हैं जो सबको अपने मोहल्ले में मिल जाएँगे। 


यह फ़िल्म प्रेम-प्यार-दोस्ती के बारे में भी कुछ कहना चाहती है और वह भी बड़ी साफ़गोई से, अदब से, सभ्यतापूर्वक। बिना किसी हंगामा के, ड्रामा के, मेलोड्रामा के। फ़िल्म इतनी नाज़ुक है कि कई बार कलेजा मुँह तक आ गया और आँखें नम हुईं। 


अनुभूति कश्यप द्वारा निर्देशित यह फ़िल्म हवा का ताज़ा झोंका है। पता नहीं कितने सालों बाद सुबह पाँच बजे तक जगा हूँ सिर्फ़ इसलिए कि यह फिल्म पूरी कर के ही दिन समाप्त करूँ। 


फ़िल्म में गाने नहीं हैं। यह एक अच्छी बात है। चीजें बहुत जल्दी होती हैं। कोई सूत्रधार नहीं है। कोई किसी बात को दोबारा-तिबारा नहीं समझाता है। कमाल की एडिटिंग है। 


कुछ ग़लतियाँ भी हैं। जिन्हें क्रिएटिव लायसेंस के तहत नज़रअंदाज़ किया जा सकता है। कहानी को किसी न किसी अंजाम तक लाने के लिए कुछ ग़ैर-तर्कसंगत घटनाएँ पैदा की जाती हैं। जैसे कि कभी-कभी में जंगल में आग और सिलसिला में प्लेन दुर्घटना। 


फ़िल्म पूरे परिवार के साथ देखी जा सकती है और देखी भी जानी चाहिए। विषय वस्तु लीक से हटकर है सो यह बात अटपटी लग सकती है। लेकिन शायद इसी वजह से यह पूरे परिवार के साथ देखी जानी चाहिए। 


शीबा चड्ढा और शेफाली शाह का अभिनय प्रशंसनीय है। 


राहुल उपाध्याय । 22 फ़रवरी 2023 । सिएटल 


स्टारबक्स की ग़ज़ब कहानी

स्टारबक्स की भी ग़ज़ब कहानी है। 


आज खबर आई कि इटली में यह ऑलिव ऑयल वाली कॉफ़ी बेचने जा रही है। कॉफ़ी में तेल? वह हुआ क्या कि किसी में कहा कि एक चम्मच ऑलिव ऑयल रोज़ पीना स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है। तो बस कॉफ़ी में डाल के पी लो। जैसे कि विटामिन डी दूध में डालना आम बात है। और नमक में आयोडीन। 


इससे भी ज़्यादा आश्चर्य की बात यह है कि इसमें लक्ष्मण नरसिम्हन का कोई हाथ नहीं है। जी। वे अभी सीईओ नहीं हैं। वे 1 अप्रैल 2023 से सीईओ का पद सम्भालेंगे। तब तक वे कम्पनी के वर्तमान सीईओ हावर्ड शुल्ज़ से से ट्रेनिंग ले रहे हैं। 


मार्च 2022 में केविन जॉनसन सीईओ के पद से सेवानिवृत्त हुए। उन्हें 16.7 मिलियन डॉलर यानी क़रीब 130  करोड़ रुपये मिले। तीन महीने का वेतन 130 करोड़ रुपये। 


उनकी जगह अक्टूबर में नरसिम्हन नियुक्त हुए। उन्हें 8.8 मिलियन डॉलर यानी 70 करोड़ रुपये मिले। तीन महीने का वेतन 70 करोड़ रुपये। 


और हॉर्वर्ड शुल्ज़ को मिला मात्र एक डॉलर। यानी 80 रुपये। नौ महीने का वेतन 80 रुपये। 


स्टारबक्स! ग़ज़ब तेरी माया! एक डॉलर में तो तेरी दुकान में कुछ भी नहीं मिलता। 


असल में चक्कर क्या है कि हॉर्वर्ड शुल्ज़ ने स्टारबक्स को अपने हाथों से बनाया है और जब-जब संकट की घड़ी आई है, उन्होंने इसे सहारा दिया है। पैसे भी खूब कमाए हैं। आज उनके पास क़रीब चार बिलियन डॉलर है। यानी 32 हज़ार करोड़ रुपये। 


राहुल उपाध्याय । 21 फ़रवरी 2023 । सिएटल 







Monday, February 20, 2023

राम सेतु फ़िल्म की समीक्षा

अभिषेक शर्मा द्वारा लिखित एवं निर्देशित फिल्म 'राम सेतु' देखने लायक़ फ़िल्म है। जैसे कि 'गाँधी-गोडसे एक युद्ध' हर पहलू को निष्पक्ष भाव से दिखाती है वही इस फिल्म में है। हालाँकि पूरी फ़िल्म काल्पनिक कहानी पर आधारित है फिर भी हर पक्ष को अपनी बात कहने का पूरा अवसर प्रदान करती है। 


जिसे जो ठीक लगता है वह उसे ही ठीक मानता रहेगा। इस फिल्म से विचार नहीं बदलने वाले। किसी किताब को पढ़ने से भी नहीं बदलते। सबका अपना सफ़र है अपने मन को समझाने का, समझने का और उसे बदलने का। 


विज्ञान के नाम पर जैसी प्रयोगशाला, जैसे वैज्ञानिक और उपकरण इस फिल्म में दिखाए गए हैं वे सब बचकाने हैं। कोर्ट में ड्रामा आदि भी सच्चाई से कोसों दूर हैं। लेकिन जो सच है वह है इस फिल्म की आत्मा और अभिषेक शर्मा की मेहनत और एक अच्छी फिल्म बनाने का जज़्बा। 


कईं ग़लतियाँ निकाली जा सकती हैं। फ़िल्म में एक ही गाना है और वह भी हास्यास्पद। लेकिन वह गीत ही है जो दर्शकों को यक़ीन दिलाता है कि इस फ़िल्म में घट रही घटनाओं को सच न माना जाए। यह एक कॉलेज में हो रहे नाटक जैसा है। इसे सच क़तई न माना जाए। 


इस सूझबूझ के लिए मैं अभिषेक को धन्यवाद देना चाहूँगा। 


यह इतनी अच्छी फिल्म है कि इसे पूरे परिवार के साथ देखा जा सकता है। सभ्य भाषा, सभ्य लोग, सभ्य व्यवहार। और विचार इतने स्पष्ट है कि दो परस्पर विरोधी लोग भी साथ में देख सकते हैं और पूरी बहस को विराम दे सकते हैं। 


दो-तीन किताब पढ़ो या यह फिल्म देख लो, बात एक ही है। 


राहुल उपाध्याय । 20 फ़रवरी 2023 । सिएटल 




Thursday, February 16, 2023

वध

दो-तीन मित्रों ने जब कहा कि 'वध' अच्छी फिल्म है तो मैंने सोचा देख लेनी चाहिए। 


आज देख ली। 


यह प्रेमचंद के उपन्यास 'गोदान' और अजय देवगन की फिल्म 'दृश्यम' का मिश्रण है। होरी के जीवन में जितना दुख था, उतना शम्भूनाथ मिश्रा के घर में है। एक नहीं दस दुख। और सब की जड़ है क़र्ज़। क़र्ज़ क्यों लिया, क्यों चुका नहीं पाए यह कहानी का पूर्वार्द्ध है। निर्देशक और कहानीकार ने कहानी इस ढंग से कही है कि लगता ही नहीं है कि कही है। सब अपनी आँखों के सामने घटित हो रहा है। थोड़ा वक्त दो। सब अपने आप समझ में आ जाएगा। किसी को समझाने की ज़रूरत नहीं है। 


खलनायक एक नहीं कई हैं। सब ने कमाल का अभिनय किया है। सौरभ सचदेव ने प्रजापति पांडेय के किरदार को इतनी बखूबी से निभाया है कि उससे घृणा होने लगती है। सुमित गुलाटी का अभिनय भी शानदार है। बिट्टू बिट्टू ही लगता है। लगता ही नहीं कि वह एक कलाकार है जिसका नाम सुमित गुलाटी है। 


पूर्वार्द्ध में इतनी पीड़ा है कि मन करता है यह फिल्म क्यों देख रहा हूँ। क्यों बनाई गई है। ऐसे ही कम ग़म है जो एक फिल्म देखकर और गमगीन हो जाऊँ। 


लेकिन वो कहते हैं ना कि फिल्म यथार्थ का चित्रण नहीं करती है। आजकल हर ओटीटी फिल्म ख़ून-ख़राबे से ही चलती है। लोगों को गाली-गलौज ही चाहिए। विभत्स रस ही चाहिए। 


और फिर चाहिए नायक में 'दृश्यम' के नायक जैसी सूझबूझ। खून भी हो जाए, कोर्ट-कचहरी न हो, उल्टा फ़ायदा हो जाए। 


फ़िल्म में जानबूझकर कुछ चीज़ें क्रमबद्ध नहीं दिखाई गई है ताकि सस्पेंस बढ़े। कुछ इशारे भी किए जाते हैं कि वध अब होगा, तब होगा, और कैसे होगा। मानो दर्शक स्वयं वध की तैयारी कर रहा हो। 


बहुत अच्छा फ़िल्मांकन है। चूँकि फ़िल्म है तो ग़लतियाँ तो दस बारह है ही। लेकिन कलात्मकता की कसौटी पर फ़िल्म खरी उतरी है। 


देखनी चाहिए? नहीं। परिवार के साथ तो क़तई नहीं। क्या आप भी शम्भूनाथ सा महसूस करना चाहेंगे जो प्रजापति के सामने सब ग़लत-शलत देखने को मजबूर हो जाता है, मार खा लेता है, बिक जाता है? नहीं ना, तो मत देखिए। 


यह फ़िल्म आपके नसों में घुस जाती है, बस जाती है। 


यह आपको कमज़ोर बना देती है। यह आपको यह स्वीकारने के लिए विवश कर देती है कि हाँ दुनिया ऐसी ही है। क्या कर लोगे तुम?


राहुल उपाध्याय । 16 फ़रवरी 2023 । सिएटल 

Wednesday, February 15, 2023

महान लोगों की भीड़

हर जगह भरमार है, भीड़ है। और सब अपनी गली के शेर हैं। अंधों में काने हैं। 


इतने पद्मश्री विजेता हैं कि अब कोई ज़हमत नहीं उठाता याद रखने की कि किसे कब क्या मिला। साथ में पद्म भूषण, पद्म विभूषण हैं सो अलग। फिर अर्जुन पुरस्कार, राष्ट्रीय पुरस्कार। ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी, विश्व हिन्दी सम्मान और तमाम संस्थानों के सम्मान। 


12 मार्च को सजीव प्रसारित होने वाले ऑस्कर पुरस्कार कार्यक्रम के लिए मनोनीत व्यक्तियों की इस भीड़ को देखिए। फ़ोटो 13 फ़रवरी का है। कितनों को आप जानते हैं? टॉम क्रूज़ भी तब पहचाने जाएँगे जब आपको पहले से पता हो कि उनकी फ़िल्म इस साल मनोनीत की गई है। 


नाटू, नाटू वाले दिखाई नहीं दे रहे। शायद वे इतनी जल्दी एल-ए नहीं आए। एक महीने पहले कौन जाता है?


राहुल उपाध्याय । 15 फ़रवरी 2023 । सिएटल 



सिंहली भाषा में मेरी रचना - अमर प्रेम

मेरी ख़ुशी की आज कोई सीमा नहीं है। मैं बहुत बार कह चुका हूँ कि मैं बहुत भाग्यशाली हूँ। 


उसका आज एक और प्रमाण। मेरी रचना - अमर प्रेम - को अनुषा सल्वतुर ने सिंहली में अनुवाद किया है ताकि वे फ़ेसबुक द्वारा इस रचना को और लोगों तक पहुँचा सके। अनुषा जी श्री लंका में केलानिया विश्वविद्यालय की हिंदी की वरिष्ठ प्रवक्ता है। 


අමරණීය ප්‍රේමය

  • රාහුල් උපාධ්‍යාය 


ඔබ හමුවීමට 

පැමිණෙන හැමවිටම

සිතමි....මම

නුඹ හමු නොවුණානම් 

අගෙයි කියා.....

ඔබව 

හමුවුණ හැමවිටම

සිතමි.....මම

නුඹ,

කිසිදා වෙන් නොවේ නම් මගෙන්

අගෙයි කියා


මේ තරම් දිනක්..

වික්ෂිප්ත විය....

කනස්සල්ලෙන් පසුවිය ...

මම

කිම්ද, 

ඔබ මා පිළිගන්නේද නැත

ඔබ මා ප්‍රතික්ෂේප කළේද නැත


වැටහෙයි මට දැන්

සැබෑ ප්‍රේමය කිමක්දැයි.....

රැඳී තිබේ නම් සදා

ඕනෑකම

සිතෙහි....

සැබෑ ප්‍රේමය එයම වනු ඇත.


හමුවෙන්න නුඹ මා හා

නමුත්...

කිසි දිනෙක 

නුඹ...

මගේම නොවන්න


පසක් විය මට දැන්

අයිතිය....නොමැත්තේ 

යම් තැනකද,

එතැන....

'සැබෑ ආදරය' පවතිනු ඇත


නුඹ....

මා හා හමුවන්න

නමුත්,

සබඳකමක්, අයිතියක් 

කිසි විටෙක නොපතන්න


සත්‍යය නම් මෙයයි...

මිලනය....

පෙම්වතුන්ගේ

සනිටුහන් කරයි 

සැමවිටම 

ප්‍රේමයේ..... 

අවසානය


නුඹේ පිළිගැනීමම

නැති කරයි ' ඕනෑකම'

නුඹේ 'ප්‍රතික්ෂේප කිරීම'

ඇති කරයි වෛරය

ඇවිලී ඇති 'ගින්න'

එලෙසම රැක ගන්න

නිවා දමා 

කිසි විටෙක

එය....

අළු බවට පත් නොකරන්න


මම....

රහසිගතව, 

සියල්ලෝ ඉදිරියේ

නුඹව හමුවෙමින් ඉන්නම්

නුඹ දෙසම බලමින් ඉන්නම්

නුඹ කෙරෙහි ඇල්මෙන් පසුවෙන්නම්


නමුත්....

'නුඹ හරිම ලස්සනයි'

'නුඹ මගේ හදවතේ සිටියි'

' මම නුඹට ආදරෙයි'

නොකියමි මම කිසි දිනෙක

මේ කිසිත්....නුඹට


මක් නිසාද,

අපට පැවසිය නොහැකි වූ දෙය

හදවතෙහි, මුවගෙහි

සදහටම රැඳෙනු ඇත.....


පැවසුවහොත් දිනක...

අමතක වනු ඇත

යම් දිනක

මා නුඹට එය පැවසූ වග...


නොපැවසුවහොත්......

මතකයෙහි පවතිනු ඇත සැමදා....

මා කිසි විටෙක එය....

නුඹට නොපැවසූ වග....


यह रही मेरी मूल रचना:


अमर प्रेम


जब-जब तुमसे मिलने आता हूँ

तो सोचता हूँ

तुम न मिलो तो ही अच्छा है

जब-जब तुमसे मिलता हूँ

तो सोचता हूँ

तुम जुदा न हो तो ही अच्छा है


मैं इतने दिनों तक

हैरान था

परेशान था

कि तुमने मुझे स्वीकारा नहीं

तो क्यूँ ठुकराया भी नहीं?


अब समझ में आया कि

असली प्यार तो वही है

जिसमें चाहत अभी बाकी है


तुम मुझसे मिलती रहना

मगर मेरी हरगिज़ न बनना


अब समझ में आया कि

असली प्यार तो वही है

जो वर्जित है


तुम मुझसे मिलती रहना

मगर वैध रिश्ता हरगिज़ न बनाना


सच तो यही है कि

प्रेमी-प्रेमिका के मिलाप के साथ ही

अक्सर प्रेम कहानी खत्म हो जाती है


तुम स्वीकारती

तो चाहत खत्म हो जाती

तुम ठुकराती

तो नफ़रत हो जाती

ये आग जो लगी हुई है

इसे बनाए रखना

शांत कर के

इसे राख हरगिज़ न होने देना


मैं चोरी-छुपे

सब के सामने

तुमसे मिलता रहूँगा

तुम्हें निहारता रहूँगा

तुम्हें चाहता रहूँगा


पर कभी नहीं कहूँगा

कि तुम बहुत सुंदर हो

कि तुम मेरे दिल में बसी हो

कि मुझे तुमसे प्यार है


क्यूँकि जो बात हम कह नहीं पाते

वो दिल, दिमाग और ज़ुबान पर

हमेशा रहती है


अगर कह दिया तो

भूल जाऊँगा कि कभी

मैंने तुमसे ये कहा था


न कहूँ तो

हमेशा याद रहेगा कि कभी

मैंने तुमसे ये कहा नहीं


राहुल उपाध्याय । 15 जनवरी 2008 । दिल्ली