Sunday, December 27, 2020

27 दिसम्बर 2020

आज का रविवारीय भ्रमण एक बार फिर समामिश पुस्तकालय से आरम्भ हुआ। लेकिन इस बार पाईन झील की ओर निकले। 


सिएटल क्षेत्र में कई झीलें हैं। झील के किनारे उद्यान हैं। और चारों और बसें महँगे घर हैं। महँगे इसलिए कि पानी के पास हैं, पानी दिखता है, या पानी में नाव उतार सकते हैं। पानी, पहाड़ और शहर की स्काईलाइन जिस घर से दिखाई दे जाए उसके दाम बढ़ ही जाते हैं। 


पिछले हफ़्ते की तरह आज भी सुबह सात बजे अंधेरा था सो क्रिसमस की रोशनी की एक तस्वीर आ गई। 


पुस्तकालय के सामने ही सार्वजनिक हाई स्कूल है। इस हाई स्कूल की फुटबॉल टीम (सॉकर नहीं) राज्य की सबसे बेहतरीन टीम है। एक बार इनका मुक़ाबला केलिफोर्निया राज्य की एक बेहतरीन टीम के साथ हुआ। इसी स्कूल के मैदान में। उस टीम में हॉलीवुड के प्रसिद्ध अभिनेता विल स्मिथ के बेटे थे। ज़ाहिर है विल स्मिथ भी आए। उस मैच की टिकट मिलना नामुमकिन हो गया था। जी हाँ, यहाँ अच्छे हाई स्कूल की टीम के मैच देखने के लिए टिकट ख़रीदनी पड़ती है। जब मैं 2005 में इस इलाक़े में रहने आया तब ऐसा नहीं था। तब तो रस्ते चलते खेल देख सकते थे। अब बक़ायदा छतदार बैठने की व्यवस्था है और बाहर से कुछ नहीं दिखता। टिकट ख़रीद कर अंदर जाने के बाद यदि आप कुछ कार में भूल गए और स्टेडियम से बाहर निकल गए तो दोबारा टिकट ख़रीदे बिना वापस अंदर नहीं जा सकते। 


2005 में पूरे सिएटल क्षेत्र में तीन मंदिर थे। और सबसे बड़ा और लोकप्रिय इस्कॉन का मंदिर था। मंदिर नहीं, एक पुराना घर था। धीरे-धीरे धन राशि एकत्रित कर के इसे यह रूप दिया गया जो तस्वीर में दिखाई दे रहा है।   भगवान दूसरी मंज़िल पर हैं। भोजन पहली मंज़िल पर। कई भक्तगण पेट पूजा कर के ही खिसक लेते हैं। 


पार्किंग की बहुत समस्या है। कुल चालीस कार पार्क हो सकतीं हैं। बाक़ी को पास के चर्च में पार्क कर पैदल आना पड़ता है। मम्मी चल नहीं सकतीं। सो उनके लिए दुष्कर है यहाँ आना किसी ख़ास दिन। जब सुनसान हो तब ठीक। 


आज सिएटल क्षेत्र में 16 मंदिर हैं। सब की अपनी छवि है। कोई उत्तर भारतीय माना जाता है, कोई दक्षिण भारतीय। (जैसे कोई रेस्टोरेंट हो। इडली खाना हो तो यहाँ जाओ। भटूरे के लिए वहाँ।) कहीं सिर्फ साईं बाबा है। कहीं सिर्फ हनुमान जी। और कहीं वन स्टॉप शॉप। छोटे ही सही, पर हर देवी देवता मिल जाएँगे। शनि महाराज भी मिल जाएँगे। जहाँ बक़ायदा सरसों का तेल और उड़द दाल चड़ाने की व्यवस्था है। 


कहीं हर मंगलवार सुंदरकाण्ड का पाठ होता है। कहीं सोमवार को रूद्राभिषक। कहीं गुरूवार को साईं बाबा की सेज आरती। कई श्रद्धालु एकत्रित होते हैं। भरपेट प्रसाद मिलता है। 


अमेरिका में हर भारतीय खाते-पीते घर का है। लेकिन मन्दिर के प्रसाद से पेट भर कर ही घर जाता है। 


हर मन्दिर में बड़ा सा रसोईघर है। और प्रसाद खाने के लिए बढ़िया हॉल। कुर्सी, टेबल, चम्मच, प्लेट, नैपकिन से सुसज्जित। प्रसाद में दाल, रोटी, सब्जी, छोले, खिचड़ी आदि होते हैं। 


राहुल उपाध्याय । 27 दिसम्बर 2020 । सिएटल 



Saturday, December 26, 2020

निबंध: कुटज

चार दिन का अवकाश है। शायद सब जगह यही हाल है। कई बार जब समय ज़्यादा होता है समझ नहीं आता क्या किया जाए। कहीं ना कहीं से कुछ लिखने पढ़ने को मिल जाए तो अच्छा लगता है।  


आज हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का 'कुटज' निबंध पढ़ा। मैं लिंक दे रहा हूँ। 

https://www.hindisamay.com/content/7413/1/हजारी-प्रसाद-द्विवेदी--निबंध-कुटज.cspx 


निबंध प्रायः लंबे होते हैं। पता नहीं कितने इसे पढ़ पाएँगे। लेकिन जिस भाग ने मुझे प्रभावित किया, वह यहाँ दे रहा हूँ। जिन शब्दों के अर्थ से मैं अनभिज्ञ था, उनके अर्थ मैंने खोजे, और उन्हें कोष्ठक में दे रहा हूँ।


यह शब्दकोश बहुत सहायक हुआ:

http://www.sanskritdictionary.in 


जिस शब्द का अर्थ मैं खोज नहीं पाया वह है: छंदावर्तन। 


हिंदी समय एक बहुत अच्छी वेबसाइट है, जहाँ हिन्दी साहित्य की कई विधाओं में लिखीं प्रसिद्ध रचनाएँ पढ़ीं जा सकतीं हैं। 

https://www.hindisamay.com


=== निबंध का अंश ====

यह जो मेरे सामने कुटज का लहराता पौधा खड़ा है वह नाम और रूप दोनों में अपनी अपराजेय जीवनी-शक्ति की घोषणा कर रहा है। इसीलिए यह इतना आकर्षक है। नाम है कि हजारों वर्ष से जीता चला आ रहा है। कितने नाम आए और गए। दुनिया उनको भूल गई, वे दुनिया को भूल गए। मगर कुटज है कि संस्‍कृत की निरंतर स्‍फीयमान (फैलती हुई) शब्‍दराशि में जो जम के बैठा सो बैठा ही है। और रूप की तो बात ही क्‍या है। बलिहारी है इस मादक शोभा की। चारों ओर कुपित यमराज के दारुण निःश्‍वास के समान धधकती लू में यह हरा है और भरा भी है, दुर्जन के चित्त से भी अधिक कठोर पाषाण की कारा (जेल) में रुद्ध (रुका हुआ) अज्ञात जलस्रोत से बरबस रस खींचकर सरस बना हुआ है और मूर्ख के मस्तिष्‍क से भी अधिक सूने गिरि कांतार (उजाड़) में भी ऐसा मस्‍त बना है कि ईर्ष्‍या होती है। कितनी कठिन जीवनी-शक्ति है। प्राण ही प्राण को पुलकित करता है, जीवनी-शक्ति ही जीवनी शक्ति को प्रेरणा देती है। दूर पर्वतराज हिमालय की हिमाच्‍छादित चोटियाँ है, वहीं कहीं भगवान महादेव समाधि लगाकर बैठे होंगे, नीचे सपाट पथरीली जमीन का मैदान है, कहीं-कहीं पर्वतनंदिनी सरिताएँ आगे बढ़ने का रास्‍ता खोज रही होंगी - बीच में यह चट्टानों की ऊबड़-खाबड़ जटाभूमि है - सूखी, नीरस, कठोर। यहीं आसन मारकर बैठे हैं मेरे चिरपरिचित दोस्‍त कुटज। एक बार अपने झबरीले मूर्धा (सिर) को हिलाकर समाधिनिष्‍ठ महादेव को पुष्‍पस्‍तबक (गुलदस्ता) का उपहार चढ़ा देते हैं और एक बार नीचे की ओर अपनी पाताल भेदी जड़ों को दबाकर गिरिनंदिनी सरिताओं को संकेत से बता देते हैं कि रस का स्रोत कहाँ है। जीना चाहते हो? कठोर पाषाण को भेदकर, पाताल की छाती चीरकर अपना भोग्‍य संग्रह करो, वायुमंडल को चूसकर, झंझा-तूफान को रगड़कर, अपना प्राप्‍य वसूल लो, आकाश को चूमकर, अवकाश की लहरी में झूमकर, उल्‍लास खींच लो। कुटज का यही उपदेश है :


भित्‍वा पाषाणपिठरं छित्‍वा प्राभन्‍जनीं व्‍यथाम्पी

त्‍वा पातालपानीयं कुटजश्‍चुम्‍बते नभ:।


दुरंत (प्रबल) जीवन शक्ति है। कठिन उपदेश है। जीना भी एक कला है। लेकिन कला ही नहीं, तपस्‍या है। जियो तो प्राण ढाल दो जिंदगी में, मन ढाल दो जीवन रस के उपकरणों में। ठीक है। लेकिन क्‍यों? क्‍या जीने के लिए जीना ही बड़ी बात है? सारा संसार अपने मतलब के लिए ही तो जी रहा है। याज्ञवल्‍क्‍य बहुत बड़े ब्रह्मवादी ऋषि थे। उन्‍होंने अपनी पत्‍नी को विचित्र भाव से समझाने की कोशिश की कि सब कुछ स्‍वार्थ के लिए है। पुत्र के लिए पुत्र प्रिय नहीं होता, पत्‍नी के लिए पत्‍नी प्रिया नहीं होती - सब अपने मतलब के लिए प्रिय होते हैं - 'आत्‍मनस्‍तु कामाय सर्व प्रियं भवति।' विचित्र नहीं है यह कर्त (लेखक/कर्ता)? संसार में जहाँ कहीं प्रेम है, सब मतलब के लिए। सुना है, पश्चिम के हॉब्‍स और हेल्‍वेशियस जैसे विचारकों ने भी ऐसी ही बात कही है। सुन के हैरानी होती है। दुनिया में त्‍याग नहीं है, प्रेम नहीं है, परार्थ नहीं है, परमार्थ नहीं है - है केवल प्रचंड स्‍वार्थ। भीतर की जिजीविषा - जीते रहने की प्रचंड इच्‍छा - ही अगर बड़ी बात हो तो फिर यह सारी बड़ी-बड़ी बोलियाँ, जिनके बल पर दल बनाए जाते हैं, शत्रुमर्दन का अभिनय किया जाता है, देशोद्धार का नारा लगाया जाता है, साहित्‍य और कला की महिमा गाई जाती है, झूठ हैं। इसके द्वारा कोई-न-कोई अपना बड़ा स्‍वार्थ सिद्ध करता है। लेकिन अंतरतर से कोई कह रहा है, ऐसा सोचना गलत ढंग से सोचना है। स्‍वार्थ से भी बड़ी कोई-न-कोई बात अवश्‍य है, जिजीविषा से भी प्रचंड कोई-न-कोई शक्ति अवश्‍य है। क्‍या है?


याज्ञवल्‍क्‍य ने जो बात धक्‍कामार ढंग से कह दी थी वह अंतिम नहीं थी। वे 'आत्‍मन - ' का अर्थ कुछ और बड़ा करना चाहते थे। व्‍यक्ति का 'आत्‍मा' केवल व्‍यक्ति तक सीमित नहीं है, वह व्‍यापक है। अपने में सब और सबमें आप - इस प्रकार की एक समष्टि बुद्धि जब तक नहीं आती तब तक पूर्ण सुख का आनंद भी नहीं मिलता। अपने-आपको दलित द्राक्षा (अंगूर) की भाँति निचोड़कर जब तक 'सर्व' के लिए निछावर नहीं कर दिया जाता तब तक 'स्‍वार्थ' खंड सत्‍य है, वह मोह को बढ़ावा देता है, तृष्‍णा को उत्‍पन्‍न करता है और मनुष्‍य को दयनीय-कृपण-बना देता है। कार्पण्‍य दोष से जिसका स्‍वभाव उपहत (नष्ट) हो गया है, उसकी दृष्टि म्‍लान हो जाती है। वह स्‍पष्‍ट नहीं देख पाता। वह स्‍वार्थ भी नहीं समझ पाता, परमार्थ तो दूर की बात है।


कुटज क्‍या केवल जी रहा है? वह दूसरे के द्वार पर भीख माँगने नहीं जाता, कोई निकट आ गया तो भय के मारे अधमरा नहीं हो जाता, नीति और धर्म का उपदेश नहीं देता फिरता, अपनी उन्‍नति के लिए अफसरों का जूता नहीं चाटता फिरता, दूसरों को अवमानित करने के लिए ग्रहों की खुशामद नहीं करता, आत्‍मोन्‍नति के हेतु नीलम नहीं धारण करता, अँगूठियों की लड़ी नहीं पहनता, दाँत नहीं निपोरता, बगलें नहीं झाँकता। जीता है और शान से जीता है - कोई वास्‍ते, किस उद्देश्‍य से? कोई नहीं जानता। मगर कुछ बड़ी बात है। स्‍वार्थ के दायरे से बाहर की बात है। भीष्‍म पितामह की भाँति अवधूत की भाषा में कह रहा है : 'चाहे सुख हो या दुख, प्रिय हो या अप्रिय, जो मिल जाय उसे शान के साथ, हृदय से बिल्‍कुल अपराजित होकर, सोल्‍लास ग्रहण करो। हार मत मानो।'


सुखं वा यदि वा दुखं प्रियं वा यदि वाऽप्रियम्।

प्राप्‍तं प्राप्‍तमुपासीत हृदयेनापराजितः। (शांतिपर्व, 25/26)


हृदयेनापराजितः। कितना विशाल वह हृदय होगा जो सुख से, दुख से, प्रिय से, अप्रिय से विचलित न होता होगा। कुटज को देखकर रोमांच हो आता है। कहाँ से मिली है यह अकुतोभया (नितांत भयशून्य) वृत्ति, अपराजित स्‍वभाव, अविचल जीवन-दृष्टि।


जो समझता है कि वह दूसरों का उपकार कर रहा है वह अबोध है, जो समझता है कि दूसरे उसका अपकार कर रहे हैं वह भी बुद्धिहीन है। कौन किसका उपकार करता है, कौन किसका अपकार कर रहा है? मनुष्‍य जी रहा है, केवल जी रहा है, अपनी इच्‍छा से नहीं, इतिहास विधाता की योजना के अनुसार। किसी की उससे सुख मिल जाय, बहुत अच्‍छी बात है, नहीं मिल सका, कोई बात नहीं, परंतु उसे अभिमान नहीं होना चाहिए। सुख पहुँचाने का अभिमान यदि गलत है, तो दुख पहुँचाने का अभिमान तो नितांत गलत है।


दुख और सुख तो मन के विकल्‍प हैं। सुखी वह है जिसका मन वश में है, दुखी वह है जिसका मन परवश है। परवश होने का अर्थ है खुशामद करना, दाँत निपोरना, चाटुकारिता, हाँ-हजूरी। जिसका मन अपने वश में नहीं है वही दूसरे के मन का छंदावर्तन करता है, अपने को छिपाने के लिए मिथ्‍या आडंबर रचता है, दूसरों को फँसाने के लिए जाल बिछाता है। कुटज इन सब मिथ्‍याचारों से मुक्‍त है। वह वशी है। वह वैरागी है। राजा जनक की तरह संसार में रहकर, संपूर्ण भोगों को भोगकर भी उनसे मुक्‍त है। जनक की ही भाँति वह घोषणा करता है : ''मैं स्‍वार्थ के लिए अपने मन को सदा दूसरे के मन में घुसाता नहीं फिरता, इसलिए मैं मन को जीत सका हूँ उसे वश में कर सका हूँ' :


नाहमात्‍मार्थमिच्‍छामि मनोनित्‍यं मनोन्‍तरे।

मनो से निर्जितं तस्‍मात् वशे तिष्‍ठति सर्वदा।


कुटज अपने मन पर सवारी करता है, मन को अपने पर सवार नहीं होने देता। मनस्‍वी मित्र, तुम धन्‍य हो।

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राहुल उपाध्याय । 26 दिसम्बर 2020 । सिएटल 

Thursday, December 24, 2020

2020: गीत बने हमसफ़र

इस वर्ष जहाँ हम सबने कुछ हद तक अपनी आज़ादी खोई, वहीं उमेश को, प्रमोद को, मधु को और मुझे अपनी बात कहने का स्वर भी मिला। जिसका श्रेय जाता है इन महान कलाकारों को:


*गीतकार*:  शकील बदायुनी, साहिर, शैलेंद्र, संतोष आनंद, मजरूह, इंदीवर, आनंद बक्षी, राजेन्द्र कृष्ण, अनजान, रवि मलिक, हसरत जयपुरी, राजा मेंहदी अलीख़ान, शमीमजयपुरी, कमर जलालाबादी; 


*संगीतकार*: रवि, शंकर जयकिशन, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, सचिन देव बर्मन, कल्याणजी-आनंदजी, राहुल देव बर्मन, नौशाद, राजेश रोशन, ऊषा खन्ना, नदीम-श्रवण, एन दत्ता,  मदन मोहन; 


*गायक*: रफ़ी, महेंद्र कपूर, मुकेश, हेमंत कुमार, शैलेंद्रसिंह, कुंदनलाल सहगल, अनवर, मन्नाडे, कुमार सानु, लता मंगेशकर को।


वर्ष के अंत में प्रस्तुत है उन गीतों की झलक:

https://youtu.be/OVZwOe1zv5I 


पूरे गीत इस प्लेलिस्ट में सुने जा सकते हैं:

https://youtube.com/playlist?list=PLAxLt1oyJnF9LflX0KW6NmF-JwOBRDSy3 


राहुल उपाध्याय । 24 दिसम्बर 2020 । सिएटल 




Tuesday, December 22, 2020

22 दिसम्बर 2020

आज, 22 दिसम्बर, रामानुजन का जन्मदिन है। भारत में इसे राष्ट्रीय गणित दिवस के रूप में मनाया जाता है। आए दिन कोई न कोई दिन तो होता ही है। आमतौर पर कई दिनों की हमें जानकारी नहीं होती है। 


उनके जीवन पर अंग्रेज़ी में कई किताबें लिखी जा चुकीं हैं। इनमें से एक किताब का हिन्दी में अनुवाद करने का मुझसे अनुरोध किया गया था। जिन्होंने मुझसे अनुरोध किया था वे गणित के अध्यापक है अमेरिका में। मूल लेखक बिना धनराशि लिए अनुमति देने में असहमत थे। इसलिए यह काम संभव नहीं हुआ। 


रामानुजन के जीवन पर एक अंग्रेज़ी फ़िल्म भी बनी है। जो कि यूट्यूब पर सहज उपलब्ध है। इसमें देव पटेल ने रामानुजन का किरदार निभाया है। वही देव पटेल जिन्होंने स्लमडॉग मिलेनियर में अभिनय किया था। 


उन्नीसवीं सदी के भारत में ग़रीबी के हाल में उन्होंने गणित में महारत हासिल की। वह कहते थे कि उन्हें कोई दैविक शक्ति गणित के सारे समीकरण बता देती थी। उनके लिए गणित बहुत आसान विषय था। कोई पूछे कि तुमने यह कठिन सवाल चुटकी में कैसे कर लिया तो वे कहते थे बस यूँ ही मन में आ गया। 


गणित में प्रूफ़ की आवश्यकता होती है। हल पता होना एक बात है। जब तक हल समझाया न जा सके वो मान्य नहीं है। 


उदाहरण के तौर पर संलग्न चित्र में रामानुजन द्वारा दिया समीकरण देखें। यदि सीधे-सीधे अंतिम पंक्ति लिख दी जाए तो वह रोमांचित तो करेगा पर पल्ले नहीं पड़ेगा और जो बता रहा है उसे सीमित ज्ञान वाला व्यक्ति ही कहा जाएगा। 


नम्बर थ्योरी गणित का ऐसा क्षेत्र है जिसके बारे में कहा जाता है कि इसकी कोई उपयोगिता नहीं है। यह रोचक है लेकिन किसी काम का नहीं। नम्बर थ्योरी के प्रणेता जी एच हार्डी के अनुसार ऐसा ही होना चाहिए। वे तो यहाँ तक कहते थे कि जिस दिन इसकी उपयोगिता निकल आएगी वो बहुत दुर्भाग्यपूर्ण दिन होगा। 


राहुल उपाध्याय । 22 दिसम्बर 2020 । सिएटल 


My Story

In May 2020,  I published this article on LinkedIn to celebrate Asian Pacific Heritage Month at Microsoft. 


https://www.linkedin.com/pulse/bringing-all-me-i-do-rahul-upadhyaya


My unedited entry was much longer. You can read this here:


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Do what you love. And love what you do. 

 

This may sound a cliché. And not many people may be lucky enough to have the luxury of fulfilling this aphorism. 

 

However, at Microsoft, I have been able to live this dream.

 

There comes a time in everyone's life when they have been able to achieve everything that they had planned to achieve when they started their journey. However, do we all see it that way? The answer varies widely. 

 

For some, if we have achieved everything, what's the point of waking up tomorrow. For others, one should aim so high that it is effectively impossible to achieve. And for some others, goals are moving targets. 

 

To each his own. For me, achieving financial freedom was first and foremost goal. 

 

I grew up dirt poor in a remote village in India's central state, Madhya Pradesh on tropic of cancer. Inhabited with about 150 homes built with clay, mud and cow dung. With thatched roof on top. Primary modes of livelihood is agriculture and raising cattle for dairy products.

 

There were no schools. No doctors. Just a temple, a post office, and a bus stop. Buses would run every hour from dawn to dusk. They would take you to a nearest train station, Ratlam, 12 miles away, which can connect you to the rest of the world. 

 

This 12-mile journey would take an hour. And the town and the village were almost a world apart in terms of opportunity and a path to grow and succeed. 

 

I had seen poverty firsthand. I was born at home, since there was no hospital and no doctor in the village. Father was working as a teacher at a school some 40 miles away, and would not see me for another few days.

 

We had no running water at home. No electricity. No bathroom. We took care of our daily chores at a stream flowing nearby filled with water from a dam nearby. 

 

Having grown so poor, I knew value of money. Money that can provide for basic needs. Not for luxuries. I did not see a piece of furniture until I spent summer holidays with my uncle who was a railway station master. Government had provided him a furnished house built with bricks and concrete. I loved the chairs so much that I would combine the two chairs and use it like a bed to sleep in the space I had created. 

 

Furniture was not part of my basic needs. It was just food, shelter and clothing. Even a chair would be a luxury.

 

With that goal in mind, I wanted a decent education that can give me a decent job with decent salary to pay for my basic needs.

 

However, coming from a village, I was not fluent in English. I failed in 9th grade in English, and Math, which was taught in English. 

 

This was a huge setback. I had to repeat the grade. Loss of a year. On other hand, there were bright kids skipping grades. 

 

However, this failure turned out to be a blessing. Now, I was determined to learn. Not just pass the grade. But know the stuff. 

 

This opened up a whole new world to me. Synergy of desire to learn, made me learn more and more. 

 

Before you know, I had graduated from Indian Institute of Technology, Varanasi, finished MBA from University of Cincinnati in US with full scholarship, and had been offered to teach at Franklin College Indiana, as an Assistant Professor of Computer Science. 

 

I worked at various companies for 14 years before moving to Seattle to work for Microsoft. Within 3 years, I bought a home, mortgage free. 

 

I had achieved financial freedom. 

 

I was free to explore the world. I worked at a startup in Bellevue and ended up working at Microsoft again. 

 

I realized Microsoft is so vast with variety of roles in a variety of organizations that one can choose to do what you love, and love what you do. 

 

I have been fortunate that leaders in my organization has always found a project or a role that was a good match for my skill set and passion. Reorgs after reorgs, I have found myself in yet another engaging work, that is rewarding and fulfilling. 

 

I have been heavily influenced by the simple lifestyle of my Grandfather, father and Mahatma Gandhi. From them I learned how to focus on basics, be frugal and how to stand up for your own beliefs. 

 

For example, we had one family rule. We never ate at a restaurant unless we were traveling. All the places I have lived, I never went out to eat. Mumbai, Kolkata, Delhi, Varanasi, Meerut. Homemade food is always much healthier and tasty. It also leads to financial independence. 

 

I love cooking. I watched how my mother would prepare food and picked up on it. We are from the tristate area in Madhya Pradesh, very close to the Rajasthan and Gujarat borders. So our cuisine has heavy influences of Gujarati and Rajasthani cuisines. It's spicy, with garlic and onion. Plus we love to add savory world famous Ratlami Senv as part of the meal. It's nothing but chickpea flour blended with salt, cloves, black pepper, asafetida and made into a paste. Which is then passed through a sieve and deep fried like French fries. But these are much thinner. 

 

I make my own food in the morning and bring it to work. I never bought lunch at the cafe. 

 

No one in our family smoked. Or used alcohol. Or ate non-vegetarian. Till today, I am same. In addition to saving me from bad health, I have developed a strong character. 

 

Everyone in my family was concerned whether I would start doing drugs once I left home and joined IIT, Varanasi. 

 

They were glad to know that not only did I not do drugs, I did not even drink a cup of tea or coffee, which is kind of free flowing at hostels so that students can stay up late cramming for exams. 

 

Even at work here in Redmond, I don't drink any beverage. Except for plain water. I don't need any caffeine to keep me going. People wonder how you kick start your day. I am wide awake when I wake up. I also sleep like a log, within a few moments of hitting the pillow. I can sleep in any bed. I have no concerns about firm or soft or whatever.

 

I love walking. My grandfather used to walk 18 kilometers from one village to another when there was no other transportation available. 

 

I picked up this habit from him. I walked to work every day when I lived in Sammamish. A distance of 6.2 miles. And then I walked back home in the evening. A total of 12.4 miles. It used to take me 2 hours each way. I had all the time in the world to do this.  If you have the right priorities you can squeeze in any activity in your lifestyle. 

 

 

Monday, December 21, 2020

20 दिसम्बर 2020

आज का रविवारीय भ्रमण फैंटम झील के इर्द-गिर्द हुआ। 


कल 21 दिसम्बर है। यानी साल का सबसे छोटा दिन। हम 47 डिग्री अक्षांश पर है। यानी बहुत ही छोटा दिन। सूर्योदय 7:54 पर। सूर्यास्त 4:20 पर। करेला, उस पर नीम चड़ा। 


(मेरा जन्म कर्क रेखा पर स्थित शिवगढ़ में हुआ। यानी 23 डिग्री अक्षांश। जो कि भूमध्य रेखा एवं सिएटल के बिलकुल बीच में है।)


भ्रमण का समय अडिग है। सो सुबह सात बजे घुप्प अंधेरा रहा। लेकिन सार्वजनिक शौचालय की, उसी शौचालय के बाहर लगी स्वर्णिम रोशनी के बीच तस्वीर बहुत ही सुन्दर आई। ऐसी ही सुन्दर तस्वीर ग्रीन झील के शौचालय की भी ली थी मैंने दो साल पहले। मेरी सारी तस्वीरों में से वह तस्वीर गुगल नक़्शे के उपभोक्ताओं को सर्वाधिक पसन्द आई थी। अब तक की सबसे ज़्यादा पसन्द की गई है सैलाना की तस्वीर। मुझे यह भी नहीं मालूम कि यह है क्या। यूँही चलते-चलते खींच ली थी। सैलाना उतनी बड़ी तहसील नहीं है। फिर भी कुछ क्षेत्रों से अनभिज्ञ हूँ। 


बोर्डवॉक भी सुन्दर लग रहा है। यह बोर्डवॉक हर उस स्थान पर लगाया जाता है जहाँ जमे हुए या बहते पानी से कीचड़ होने की या फिसलने की सम्भावना हो। ताकि पदगामियों को कोई असुविधा न हो। लेकिन बर्फ़ीले मौसम में यहाँ भी सचेत रहना पड़ता है। जमी हुई ओस से कोई बचाव अभी तक अवतरित नहीं हुआ है। 


शौचालय के बाहर तीन उपकरण है। पहला, सफ़ेद, हाथ धोने के लिए है। इसमें गरम पानी आता है। दूसरा हाथ सुखाने के लिए ड्रायर है। तीसरा पानी पीने के लिए। इसमें हमेशा बर्फीला पानी आता है। यहाँ लोगों को प्रायः पानी बर्फ़ डालकर पीना ही अच्छा लगता है। और पानी नीचे से ऊपर आता है, जिसमें मुँह लगाकर पीना होता है। बड़ा अजीब लगता है शुरू में। कि कैसे वहीं से पी लें जहाँ किसी और ने मुँह लगाया हो! लेकिन तरकीब यह है कि मुँह पानी की धार पर लगाए। पानी के स्रोत पर नहीं। 


भारत में पानी ऊपर से नीचे आता है और उसे हाथ से ओक बनाकर पिया जाता है। उसमें भी दिक्कत है। पानी कोहनी तक पहुँच जाता है। नीचे भी गिरता है। कीचड़ की समस्या हो जाती है। 


झील ज़्यादा बड़ी नहीं है। पर छोटी भी नहीं। बहुत शांति थी। वीडियो में पक्षियों की आवाज़ साफ़ सुनाई दे रही है। 


झील के सामने रहने वाले एक परिवार के पास नाव भी है। लेकिन इस झील में नाव उतारने की अनुमति नहीं है और व्यवस्था भी नहीं है। 


मछली पकड़ी जा सकतीं हैं। पर उनके भी नियम हैं। किस मछली को कब पकड़ा जा सकता है, उसका बक़ायदा कैलेंडर है। गिनी-चुनी मात्रा में ही  घर ले जाई जा सकतीं हैं। बाक़ी को वापस झील में डालना होता है। 


अजब हिसाब है! कौन देखने आएगा किसने कितनी लीं? कितनी वापस डाली? 


मैंने कभी मछली नहीं पकड़ी। किसी से बात करूँगा तो और जानकारी मिलेगी। 


वैसे अमेरिका में अधिकांश क़ानून/नियमों का पालन होता है। न हो तो पकड़े जाने पर रियायत नहीं दी जाती। जान-पहचान, धन-दौलत, शोहरत - किसी से काम नहीं चलता। 


इसी वजह से रात के तीन बजे भी सुनसान सड़क पर भी स्टॉप साईन पर हर गाड़ी रूकती है, फिर निकलती है। 


बिल गेट्स भी लापारवाही से गाड़ी चलाने के जुर्म में गिरफ़्तार हो चुके हैं। 


34 वर्ष पहले जब मैं यहाँ आया तब समाचार पत्र पढ़े जाते थे। जगह-जगह वेन्डिंग मशीन होती थी जिसमें सिक्के डालने पर दरवाज़ा खुल जाता था, और अख़बार की एक प्रति उठाई जा सकती थी। 


मैं हैरान था कि लोग इतने ईमानदार है कि सिर्फ एक ही प्रति निकालते हैं। चाहें तो एक से ज़्यादा निकाल सकते हैं। पूरा डब्बा ही ख़ाली कर सकते हैं। 


बाद में समझ आया कि इसकी वजह ईमानदारी नहीं है। पढ़नी तो एक ही प्रति है। बाक़ी का क्या करेंगे? अचार डालेंगे? 


यदि ईमानदार होते तो चिप्स और पेप्सी की भी ऐसी व्यवस्था होती। चिप्स पाँच-दस लेकर आज नहीं तो हफ़्ते भर में तो निपटाई जा सकतीं हैं। और कुछ नहीं तो परिवार के अन्य सदस्यों में बाँटी जा सकतीं हैं। 


राहुल उपाध्याय । 20 दिसम्बर 2020 । सिएटल 








Thursday, December 17, 2020

माँ को मालूम है

आज यह पढ़कर किसी ने बहुत प्यारी बात कही: 'माँ को मालूम है कब साथ रहना ज़रूरी है।'


सच! हमें नहीं पता हमें कब क्या चाहिए। कहते भी हैं कि मन की हो तो अच्छा, न हो तो और भी अच्छा। 


सारी घटनाएँ जिन्होंने एक समय बहुत दुख दिया, आज वरदान लगतीं हैं। 


मेरा अभाव के जीवन में पलना, बाऊजी से आठ वर्ष की उम्र तक परिचय न होना, नवीं में असफल होना, इन सबसे मुझे वह सब मिला जो अन्यथा न मिलता। 


अभाव के जीवन - बिजली नहीं, नल नहीं, बाथरूम नहीं, फ़र्निचर नहीं - ने ऐसी शक्ति दी है कि मैं किसी भी परिस्थिति में ख़ुश रह सकता हूँ। 


मैं 34 महीने का था जब बाऊजी लंदन पी-एच-डी करने चले गए थे। इस कारण चौथी कक्षा तक मैं मम्मी-भाईसाब के साथ ननिहाल में रहा। एक भरा पूरा परिवार - मामासाब, मामीसाब, दासाब, बाई, दो मौसियाँ, छोटे मामासाब, छोटी मामीसाब, मासीजी की बेटी, मामासाब की बेटी, मामासाब के तीन बेटे - और उन सबका लाड़-दुलार मिला। मैं छोटा था सो सब को आप कहता था। सब मुझे तू कहते थे। जबकि दोनों मामीसाब मुझे आप कहतीं थीं। और कहतीं हैं। भानजे को हमेशा सम्मान से सम्बोधित किया जाता है। और सम्मान भी दिया जाता है। 


नवीं में असफल होने पर शम्भु दा के सम्पर्क में आया। प्रश्न पूछने की झिझक ख़त्म हुई। जिस विषय में कमजोर था, उसी में रूचि पैदा हुई, सफलता हासिल हुई। 


राहुल उपाध्याय । 17 दिसम्बर 2020 । सिएटल 








ध्येय

1971 में होली पर लिए गए श्वेत-श्याम चित्र में मेरे साथ भाईसाब, काकासाब, बुआजी और दादा है। 


काकासाब, बुआजी और दादा अब नहीं है। 


2013 में बाऊजी के गुज़रने पर परिजन एकत्रित हुए थे। उनमें से मौसाजी, जीजाजी, और बहन अब नहीं रहे। राजेश भी चला गया। 


इन्हीं हालात के बीच अप्रैल 2018 में यह कविता लिखी थी:

——

पहले मैं जन्मदिन याद रखता था

अब निधन की तारीख़ याद रखता हूँ


पहले रिटायर होने के ख़्वाब देखता था

अब रिटायर होने से डरता हूँ


तेरह में पिता

चौदह में ससुर

पन्द्रह में दोस्त 


फिर तो जैसे ताँता ही लग गया

जीजा, बुआ, मौसा, सास


धीरे-धीरे सारे 

सम्बन्ध छूटते जा रहे हैं

बंधन टूटते जा रहे हैं 


वह नाव

जिसका कोई ध्येय नहीं है

पतवार डाले

पड़ी है सुस्त 


राहुल उपाध्याय । 14 अप्रैल 2018 । सिएटल

—-

अक्टूबर 2018 में एक अद्भुत चमत्कार हुआ। मम्मी जो कि पिछले 15 वर्षों से अमेरिका आने से मना कर रहीं थीं, अब आना चाहतीं थीं। 


मुझे ध्येय मिल गया। नया पासपोर्ट बनवाया, नया वीसा मिला, मार्च 2019 में मम्मी मेरे साथ अमेरिका में थीं। 


हालात बदले। नई कविता बनी:

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मेरे घर आईं मेरी प्यारी माँ 

करके कई सरहदें पार


उनकी पूजा में सेवा का है भाव

उनके भजनों में प्रभु का है गान

भोग ऐसे कि जैसे हों मिष्ठान 

घण्टी बजे तो लगे छेड़े सितार 


उनके आने से मेरे जीवन को

मिल गया ध्येय, मिल गई है राह

देख-भाल कर के उनकी जी नहीं भरता

कर लूँ मैं चाहे कितनी बार


जिन्होंने रखा था कभी मेरा ख़याल 

उनका रखूँ मैं बन के मशाल

ढाल उनकी मैं, मैं उनका साथी हूँ

साथ उनके हूँ सातों वार


पूछा उनसे कि पहले क्यों नहीं आईं

हँस के बोली कि मैं हूँ तेरा प्यार

मैं तेरे दिल में थी हमेशा से

घर में आई हूँ आज पहली बार


(साहिर से क्षमायाचना सहित)

राहुल उपाध्याय । 20 अप्रैल 2019 । सिएटल

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राहुल उपाध्याय । 17 दिसम्बर 2020 । सिएटल 







Sunday, December 13, 2020

13 दिसम्बर 2020

आज का रविवारीय सामूहिक भ्रमण बेलव्यू के रॉबिंसवुड पार्क के आसपास हुआ। वहाँ से हम दो मील दूर माइक्रोसॉफ्ट और बोइंग के दफ़्तर तक पहुँचे। वहाँ से एक चर्च के सामने होते हुए वापस आए।  


यह चर्च बहुत ही भब्य है, शानदार है। इसके सामने फ़व्वारा है, अमरीका का लहराता झंडा है। सारे चर्च इतने भव्य नहीं होते हैं। यह एक अपवाद है। इस चर्च के सामने लिखा भी है सिएटल टेम्पल। बहुत ही अनोखी बात लगी। टेम्पल का मतलब मंदिर समझा जाता है। या जहाँ पूजा की जाती हो। इस अर्थ में चर्च भी मंदिर ही है, इसमें दो राय नहीं। लेकिन फिर भी किसी मंदिर के सामने चर्च लिखा नहीं दिखेगा। हाँ अमृतसर के गुरुद्वारे को मंदिर ज़रूर कहते हैं। 


आज मैं एपल घड़ी द्वारा रास्ता नापना भूल गया था। एक घंटे बाद याद आया तो लगाया। 


अमेरिका में प्रायः हर दूसरे-तीसरे परिवार के घर में एक पालतू कुत्ता रहता है। उन्हें बाहर घूमाना ज़रूरी होता है। सारे कुत्तों को बाक़ायदा समझाया जाता है कि सभ्य समाज में कैसे रहा जाता है। अनावश्यक भोंकते नहीं हैं। किसी को परेशान नहीं करते। फिर भी मालिकों को सख़्त हिदायत है कि बाहर ले जाते वक़्त वे लीश पर रहे ताकि ग़लती से किसी अनजान व्यक्ति को काट न लें। 


पार्क में जाली से सुरक्षित एक क्षेत्र ऐसा बना दिया जाता है जहाँ वे कुत्तों को खुला छोड़ सकते हैं। राबिंसवुड पार्क में भी ऐसा क्षेत्र है। एक फ़ोटो में आप देख सकते हैं कि यदि दौड़भाग में कुत्ते को प्यास लग जाए तो उसके लिए एक विशेष नल का इंतज़ाम है जिससे कुत्ता आराम से पानी पी सके। 


यहाँ कुछ लोगों के पास अपने घोड़े भी हैं। उनके पास लम्बी-चौड़ी ज़मीन है जहाँ अस्तबल होते हैं। वे जब घोड़े लेकर घूमने निकलते हैं तो कई बार कोई सड़क भी पार करनी पड़ती है। ट्रेफ़िक को रोकने के लिए एक बटन दबाना पड़ता है, ताकि ट्रैफ़िक को लाल लाईट दी जा सके। ऐसे स्थानों पर बटन बहुत ऊँचा होता है ताकि घुड़सवार को उतर कर बटन न दबाना पड़े। 


यहाँ समाज के हर तबके का ख़याल रखा जाता है। यहाँ तक कि किसी गली में यदि कोई बहरा इंसान रहता है तो बड़ा सा ट्रैफ़िक साईन होगा कि यहाँ कोई बहरा है तो आप ध्यान से गाड़ी चलाए। 


नेत्रहीन भी सिनेमाघर में जाकर फ़िल्म का आनंद उठा सके, उसका भी इंतज़ाम है। जैसे हमें तेलुगु समझ न आए तो हम सबटाइटल से समझ जाते हैं। वैसे ही नेत्रहीन देख नहीं सकते हैं तो क्या हुआ, सुन तो सकते हैं। उन्हें एक विशेष हेडफ़ोन दिया जाता है जिसमें फ़िल्म के हर सीन का आँखों देखा हाल सुनाया जाता रहता है। जैसे एक ज़माने में हम क्रिकेट की कमेंट्री से कपिल देव के चौके-छक्के 'देखा' करते थे, वैसे ही ये फ़िल्म 'देखते' हैं। 


राहुल उपाध्याय । 13 दिसम्बर 2020 । सिएटल 


Friday, December 11, 2020

गेबरू

पैट्रिक हेमिल्टन का एक अंग्रेज़ी नाटक 'गैसलाईट' इन दिनों सुर्ख़ियों में रहा। इस उपन्यास पर अंग्रेज़ी फ़िल्में बन चुकीं हैं। नाटक का मंचन भी हुआ है। टीवी सीरियल में कुछ ऐसे प्रकरण हैं जिनमें कोई पात्र इसमें दर्शाई गैसलाईट पद्धति का लाभ उठाता है। 


हिन्दी फ़िल्मों में भी इसका ज़िक्र आता है। 


गैसलाईट क्या है? गैसलाईट वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा शिकायत करने वाले को बताया जाता है कि शिकायत का कोई आधार नहीं है। कुछ ग़लत नहीं हो रहा है। सब तुम्हारे मन में चल रहा है। तुम्हारे विचार सच्चाई से कोसों दूर है। 


इस प्रक्रिया को गैसलाईट क्यों कहा जाता है? क्योंकि जिस पृष्ठभूमि में यह नाटक लिखा गया तब बिजली नहीं थी। गैसलाईट से ही अमीरों के घरों में रोशनी होती थी। उसमें पति अपनी पत्नी को गुमराह करने के चक्कर में रोशनी कम कर देता था, और उस कम रोशनी में जिस महिला की वह हत्या कर चुका है, उसके गहने घर में तलाशता रहता है। खुद से बातें करता है। शोर करता है। 


जब पत्नी शिकायत करती है कि अजीब-अजीब आवाज़ें आ रहीं हैं, वह कहता है सब तुम्हारे मन का वहम है। मुझे तो कुछ नहीं सुनाई देता। रोशनी भी ठीक है। 


ऐसा करने से पत्नी का मनोबल गिरता रहता है। स्वयं को ही दोष देती है। खुद को बीमार समझ लेती है। 


पिछले हफ़्ते गुगल में काम कर रहीं शोधकर्ता गेबरू ने ट्वीट किया कि उन्हें गुगल ने नौकरी से बर्खास्त कर दिया है। 


इस पर गुगल के कर्मचारियों ने गुगल की ईमानदारी पर सवाल उठाए। गेबरू के मैनेजर और उनके मैनेजर ने एक अंदरूनी मीटिंग में अपनी सफ़ाई दी। लेकिन मौजूद कर्मचारियों के सवालों का जवाब देने के लिए मॉडरेटर को छोड़ कर मीटिंग से चले गए। 


गुगल बार-बार कह रहा है, और कहता आया है कि हमारी संस्था सबके साथ समान व्यवहार करती है। कोई भेदभाव नहीं है। जो भी हुआ, वह दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन किसी मुद्दे को लेकर नहीं बल्कि कम्पनी की पूर्वनिर्धारित नियमों के तहत हुआ है। 


गेबरू ने पाँच अन्य साथियों के साथ मिलकर एक शोधपत्र लिखा था। किसी भी शोधपत्र को प्रकाशित होने से पहले गुगल की रिव्यू समीति की सहमति आवश्यक होती है। रिव्यू समीति को दो हफ़्ते का समय देना होता है। गेबरू ने सिर्फ एक दिन दिया। गेबरू ने बिना सहमति प्राप्त किए प्रकाशन के लिए भेज दिया। रिव्यू समीति ने जब रिव्यू किया तो पाया कि यह कम्पनी के नियमों के विरुद्ध है। गेबरू शोधपत्र वापस ले लें। 


गेबरू ने जवाब दिया कि मेरी कुछ शर्तें हैं, यदि वे मान्य नहीं हैं तो मुझे यह पद छोड़ने की तैयारी करनी होगी। 


उनकी मैनेजर मेगन कचोलिया ने जवाब दिया कि गेबरू की इन शर्तों और अन्य बातों की वजह से जो कि कम्पनी के नियमों के विरूद्ध हैं, गेबरू को जल्दी ही यह पद छोड़ देना चाहिए। 


और फिर गेबरू को निकाल ही दिया गया। 


अब बाल की खाल निकाली जा रही है कि गेबरू को निकाला गया, या वे समझौता करने के बजाए स्वयं ही नौकरी छोड़ने का सोच रहीं थीं। 


शोधपत्र में क्या आपत्तिजनक है? 


गुगल फेशियल रिकागनिशन के क्षेत्र में प्रणेता है। सबसे पहले इसी ने यह तकनीक निकाली थी जिससे किसी भी फ़ोटो में बिल्ली को पहचाना जा सकता था।  बाद में और भी सुधार हुए है और आज यह परिवार के सदस्यों, नेताओं एवं अन्य आम आदमियों को पहचानने में सक्षम है। 


इस तरह की तकनीक को विकसित करने में कई फ़ोटो की आवश्यकता होती है। जितने अधिक फ़ोटो कम्पयूटर देखेगा उतनी ही इसकी पहचानने की क्षमता बढ़ेगी।  ज़ाहिर है इंटरनेट पर अधिकांश लोग संपन्न है।  ग़रीब लोग अभी भी इंटरनेट से वंचित हैं एवं वे जो साक्षर नहीं हैं। इसलिए ज़्यादातर फ़ोटो सम्पन्न श्वेत कम उम्र के पुरुष के ही हैं। इसलिए इसमें पूर्वाग्रह की आशंका रहती है। गेबरू ने इन्हीं पूर्वाग्रह की ओर संकेत किया था।  वे समाज को ध्यान दिलाना चाहती थी कि गूगल में जो विकास हो रहे हैं उनमें अभी कई कमज़ोरियाँ हैं। यह कोई नई जानकारी नहीं है। इसका ज्ञान पिछले कई महीनों से सबको है। 


न जाने क्या कारण रहा। लेकिन बवाल तो मच ही गया। और 1938 में लिखा नाटक गैसलाईट फिर से सुर्ख़ियों में आ गया। 


साहित्य समाज का दर्पण है। और कई बार सहायक भी होता है समाज को समझने में, उसे अपनी विसंगतियों से मुक्त हो पाने में। 


राहुल उपाध्याय । 11 दिसम्बर 2020 । सिएटल