Saturday, February 27, 2021

27 फ़रवरी 2021

मेरे एक गुणी, सादे, सहृदय पाठक इतने स्नेही हैं कि वे मुझे अपना बड़ा भाई मानते हैं। इतना प्रेम कि विश्वास ही नहीं होता कि कोई कैसे किसी की सिर्फ़ एक रचना पढ़कर इतना अपनापन जता सकता है। मैं आज तक उनसे मिला नहीं। फ़ोन पर ही बात होती हैं। कई बार डर लगता है कि कहीं एक दिन मैं उनकी नज़रों से उतर न जाऊँ। 


कल उन्होंने जो किया वह इतना अप्रतिम है कि मैं अपनी भावनाओं को शब्द नहीं दे पा रहा हूँ। 


मेरे जीवन में सदा ख़ुशियाँ आती रही हैं। कई बार तो विश्वास नहीं होता कि मैं इतना ख़ुशक़िस्मत क्यों हूँ?


मैंने आज तक किसी मन्दिर में कोई दान नहीं दिया है। दान पेटिका साफ़ दिखाई देती है। पर मैं नहीं देता। 


मम्मी ने सैलाना में मन्दिर बनवाया उसमें भी नहीं दिया। वैष्णोदेवी, तिरूपति, महाकाल, कामाख्या, कालीघाट, दक्षिणेश्वर, त्रयम्बकेश्वर, सिद्धिविनायक, मुम्बादेवी, काशी विश्वनाथ, अक्षरधाम, शंकराचार्य आदि कई प्रसिद्ध मन्दिरों में जा चुका हूँ। कहीं कभी कोई दान नहीं। 


जब कोई घर पर नल ठीक करने, या सामान डिलीवर करने आते हैं मैं उन्हें उनकी सेवा की पूरी राशि दे देता हूँ। जब किसी टैक्सी, ऑटो, टेम्पो से कहीं जाता हूँ तो पूरा भुगतान करता हूँ। 


जब कोई मुझे कोई सेवा प्रदान करता है, कुछ देता है, उसके बदले में यदि थोड़ा अधिक दे भी दिया तो मैं ठगा नहीं महसूस करता हूँ। मुझे स्वयं नहीं पता कि नल ठीक करने का या कार सही करने का सही मेहनताना क्या होगा। इसलिए कुछ ज़्यादा दे भी दिए तो कोई दुख की बात नहीं है। 


दान भी नहीं दिया फिर मुझ पर इतनी नेमत क्यों बरसती है? कोई कहता है मम्मी की पूजा-पाठ और दान-पुण्य का असर है। कई बार मुझे लगता है कि यह मेरी माटी का असर है जो कलकत्ता और बनारस के परिवेश में पकी। इन दोनों जगह पर महान विभूतियाँ रही हैं। यहाँ उन्होंने सृजन किया है। और मैंने इन दोनों शहरों में बहुत पैदल भ्रमण किया है। इनकी धूल-मिट्टी ऐसी लिपटी कदमों से कि सुख की छत्रछाया सदा साथ रही। 


अब मुझे लगता है कि मेरी ख़ुशहाली में मेरे पाठकों के प्रेम का भी योगदान है। और मज़े की बात यह भी है कि मेरी सारी रचनाओं से या उनमें व्यक्त विचारों से या दृष्टिकोण से उनकी सहमति भी नहीं है। लेकिन फिर भी प्रेम है, सद्भाव है, प्यार है। 


आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न न होते हुए भी इन्होंने अपने मन से मेरी, मेरी पत्नी, मेरे दोनों बेटों, और मेरी माँ की ओर से मन्दिर निर्माण के लिए धन राशि दान की। 


यह घटना सिर्फ़ वास्तविक जीवन में हो सकती है। इसकी कल्पना कोई कथाकार नहीं कर सकता। 


राहुल उपाध्याय । 27 फ़रवरी 2021 । सिएटल 

Thursday, February 25, 2021

संतोष आनंद

संतोष आनंद के लिखे गीतों का मैं सदा प्रशंसक रहा हूँ। बाक़ी गीतकारों के उम्दा गीतों का भी। समय-समय पर उन सबके शब्दों में हेरफेर कर प्रतिगीत भी प्रस्तुत किए हैं। 


कुछ गीतकार दिल के ज़्यादा क़रीब हो जाते हैं। मेरे जीवन के तीन आदर्श व्यक्ति रहे हैं: कपिल देव, आनन्द बक्षी और अमिताभ बच्चन। 


इतना लगाव कि मुझे उनमें कभी कोई ख़ामी नज़र नहीं आई। अमिताभ से मोह भंग हुआ अमेरिका आने के बाद। कपिल देव के बारे में भी कई बातें ऐसी सुनने में आईं जो कि मोह भंग कर सकती थीं। लेकिन मेरी निष्ठा अभी भी अडिग है। शायद इसे ही प्यार कहते हैं। 


जब आनन्द बक्षी गुज़रे, ऐसा लगा कोई मेरा अपना मुझे छोड़ गया। आज भी उनकी कमी खलती है। 


भोपाल से प्रकाशित 'गर्भनाल' पत्रिका के मई 2017 के अंक में इस लेख में मैंने हिंदी फ़िल्मों का और हिन्दी फ़िल्म के गीतों का मुझ पर कितना अहसान है, यह लिखा है:

https://www.garbhanal.com/What-to-do-if-you-do-not-have-dreams 


20 फ़रवरी 2021 को प्रसारित इण्डियन आयडल कार्यक्रम में 1939 में जन्में संतोष आनन्द को आमन्त्रित किया गया था। सारे उपस्थित गण एवं दर्शक बहुत भावुक हुए। 


यह रही उस कार्यक्रम की एक झलक:

https://youtu.be/t3l-Pi8tl9Y 


एक कार्यक्रम 2018 में हुआ था। जहाँ उन्होंने अपने जीवन के बारे में थोड़ा और विस्तार से बताया। उसे यहाँ देखें:

https://youtu.be/0GaijLsK10Q 


राहुल उपाध्याय । 25 फ़रवरी 2021 । सिएटल 







Saturday, February 20, 2021

20 फ़रवरी 2021

29 सितम्बर 1966 के इस फ़ोटो के साथ जो मैंने बात (https://rahul-upadhyaya.blogspot.com/2020/09/29-1966.html?m=1 )  शुरू की थी, उसे और आगे बढ़ाने का स्वर्णिम अवसर आज मुझे मेरी भांजी  प्रांशु, ने दिया। 


आज हमारा पूरा परिवार गर्व से अभिभूत है। 


इन्दौर शहर के निकट पीथमपुर के एक गरीब परिवेश में पली प्रांशु हमेशा से होनहार रही। 2017 में उज्जैन स्थित विक्रम विश्वविद्यालय से बी-ए (राजनीति विज्ञान) में सर्वोच्च अंक प्राप्त कर उसने स्वर्ण पदक अर्जित किया। 2019 में विक्रम विश्वविद्यालय से ही एम-ए (राजनीति विज्ञान) में सर्वोच्च अंक प्राप्त कर उसने दोबारा स्वर्ण पदक अर्जित किया, जिसे आज, 20 फ़रवरी को, भव्य दीक्षांत समारोह में मध्य प्रदेश की राज्यपाल श्रीमती आनंदी बेन पटेल ने प्रदान किया। 


बाऊजी और प्रांशु - दोनों को विक्रम विश्वविद्यालय से स्वर्ण पदक मिले।


1965 में जब बाऊजी को मिला था तब मेरी आयु दो वर्ष भी नहीं थी। उनका स्वर्ण पदक हमेशा बड़ा सम्हाल कर रखा गया। दूसरे शब्दों में कहूँ तो देखने का मौक़ा कभी नहीं मिला। कुछ वर्षों पहले उन्होंने लाड़ से मेरे छोटे बेटे को यह कहते हुए दिखाया कि मैं यह तुझे देता हूँ। 


तब मैंने उस पदक का यह फ़ोटो लिया था। पता चला कि पदक सोने का नहीं है। सिर्फ़ परत सोने की है। मेरे लिए इसका फ़ोटो ही सोने से ज़्यादा क़ीमती है। 


इसी की वजह से बाऊजी रतलाम से बाहर निकलें। लंदन से पी-एच-डी की। और मेरा रतलाम के जैन स्कूल से निकल कर शिमला के केन्द्रीय विद्यालय में दाख़िला सम्भव हुआ। आज मैं जो भी हूँ, जहाँ भी हूँ, उन सबका बीज मैं इस पदक को मानता हूँ। यह न होता तो दुनिया कुछ और ही होती। 


मैं नहीं जानता कि प्रांशु की या प्रांशु के परिवार की दुनिया अगले 55 वर्षों में कितनी बदलेगी। लेकिन जितनी मेहनत और लगन वो आज दिखा रही है, उससे मुझे पूरा भरोसा है कि जो भी होगा अच्छा और अभूतपूर्व ही होगा। 


इन दिनों वह भोपाल में बैठकर पूरी दुनिया पर नब्ज रखती है। अनऐकेडमी के दैनिक समसामयिकी श्रंखला के लिए सामग्री तैयार करती है। इधर घटना घटी और उधर वह जी-जान से जुट जाती है इंटरनेट खंगालने में। 


एक दिन मैं उससे बात कर रहा था। उसने कहा कि जैक मा ग़ायब है। मैं उसी पर काम कर रही हूँ। और मैं इधर बबल की कृपा से पूरी तरह से अनभिज्ञ था। 


भोपाल से उसने सिएटल का बबल तोड़ा। 


मेरी कोई बहन नहीं है। हम दो भाई ही हैं। तो यह भांजी कैसे हुई?


इसका श्रेय मैं बाऊजी के स्वर्ण पदक को ही देता हूँ। चूंकि बाऊजी लंदन में थे तो मेरा बचपन ननिहाल में गुज़रा। उन दिनों शायद यह रिवाज नहीं था कि पूरा परिवार ले जाया जाए। या फिर मम्मी चौथी तक ही पढ़ीं थीं और अंग्रेज़ी से कोसों दूर थीं शायद इसलिए। या फिर हाथ तंग होंगे इसलिए। या फिर कोई और वजह। मज़े कि बात यह है कि मैंने आज तक नहीं सोचा कि हम साथ क्यों नहीं गए। 


नहीं गए तो एक तरह से अच्छा ही हुआ। मुझे एक संयुक्त परिवार का प्यार मिला। 


जैसा कि मैंने पहले कहा था वहाँ हम पन्द्रह प्राणी एक ही छत के नीचे खाते-पीते और गद्दे-चादर बिछा, रज़ाई ओढ़ सोते थे। गर्मियों में पतरों (टीन की चादर) पर सोते थे। साथ में सगे मामा और सगी मौसी का परिवार भी रहता था। मेरे दासाब-बाई (मेरे नाना-नानी) बहुत दिलेर थे। 


बाई के भाई और भाभी कम उम्र में गुज़र गए। (भाभी पहले कैंसर से, भाई बाद में लकवे से। तब मैंने पहली बार घर में अर्थी पर रखा शव देखा था)।  सो उनके बेटे (जिन्हें भी मैं मामासाब कहता था) को भी साथ रखा। पढ़ाया। शिक्षक की नौकरी दिलवाई। शादी करवाई। वह मेरे जीवन की पहली शादी थी। तब मैं दस वर्ष का था। हम बच्चे बहुत लालायित थे बारात में जाने को। लालच पकवान का था।संयुक्त परिवार में प्रेम बहुत था। और दाल-रोटी-चावल-सब्ज़ी भी पेट भर मिलता था। लेकिन पकवान? सिर्फ़ तीज-त्योहार पर। या जब कोई मेहमान आए तब। और वह भी पाँति से, हिसाब से। दस गुलाब जामुन कोई मेहमान लाए तो आधा मिल जाए वही ग़नीमत है। हम गधों के ढेंचू-ढेंचू सुनकर बहुत ख़ुश होते थे कि शायद आज कोई मेहमान आए और पकवान लाए। 


लेकिन दासाब (मेरे नाना) का आदेश था कोई बच्चा बारात में नहीं जाएगा। बहुत दुखी हुए। शायद समधी की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखकर यह निर्णय लिया गया था। 


जब दुल्हन घर आई तो सब बच्चों में होड़ मच गई दुल्हन का चेहरा देखने की। इतना बड़ा घूँघट निकाले वे एक कोने में बैठी रहती थीं। काम करें तो सूरत भी दिखे। बड़े इंतज़ार के बाद मैंने सुशीला मामीसाब का चेहरा देखा। आज भी मुझे उनके हाथों की मेहंदी की ख़ुशबू याद है। 


सुशीला मामीसाब यानी प्रांशु की नानी। 


आ गया रिश्ता समझ प्रांशु का और मेरा?


मैं कभी-कभी मज़ाक़ में कहता हूँ कि मैं अभी 33 साल और जीवित रहूँगा। और मैं ऐसा अद्भुत इंसान बनूँगा जो तब तक चार पीढ़ियों की शादी देख चुका होगा। सुशीला मामीसाब, उनकी बेटी मीना, मीना की बेटी प्रांशु, और प्रांशु की बेटी। 


राहुल उपाध्याय । 20 फ़रवरी 2021 । सिएटल 









Friday, February 12, 2021

31 जनवरी 2021

31 जनवरी का रविवारीय भ्रमण व्यूपाईंट पार्क के इर्द-गिर्द हुआ। वहाँ पार्किंग सीमित है इसलिए पास के चर्च में गाड़ियाँ पार्क कीं। यहाँ हर मोहल्ले में कई चर्च हैं। और हर चर्च के पास प्रचुर मात्रा में पार्किंग है। 


इसलिए चर्च के पार्किंग लॉट का इस्तेमाल अन्य संस्थाएं भी यदाकदा करती हैं। जैसे कि फ़ेसबुक-गूगल आदि अपने कर्मचारियों को ऑफ़िस तक लाने के लिए जो बसें चलाते हैं वे सब चर्च से ही यात्री उठातीं हैं। 


अमेरिका भारत से तीन गुना बड़ा देश है क्षेत्रफल में। और आबादी में तीन गुना कम। इसलिए लोगों के आवास के बीच दूरियाँ बहुत है। बस लोगों को लेने के लिए उनके घर नहीं जा सकती। इसलिए बस में जाने के लिए भी कार आवश्यक होती है। पहले कार से आप पड़ोस के चर्च में जाइए। वहाँ अपनी गाड़ी पार्क करें। वही से आपको अपनी कंपनी की बस मिल जाएगी और फिर शाम को वही बस आपको इसी पार्किंग लॉट में छोड़ देगी। आप अपनी कार लेकर फिर घर जाएँ। 


चर्च का पार्किंग लॉट चर्च के लिए सिर्फ़ रविवार को काम में आता है।  रविवार के दिन सुबह दस बजे से चर्च की सर्विस शुरू हो जाती है। इन दिनों वे कम मात्रा में हो रहीं हैं। पहले तो बंद ही था कोविड के चक्कर में। अब चर्च खुल गए हैं और लोग कम मात्रा में आ रहे हैं। 


ईसाई सम्प्रदाय भी कई गुटों में बँटा हुआ है। हर गुट के अपने चर्च हैं। और उनके हिसाब से वहाँ काम-काज होता है। पर सब में समानताएँ भी हैं। हर चर्च ईसा मसीह का संदेश अपने भक्तों को सुनाता हैं। और समाज सेवा में जुटा रहता है। यहाँ भी गरीबों को मुफ़्त में खाना दिया जाता है। पका हुआ नहीं  खिलाया जाता। सामान बैग में देते हैं ताकि वो अपने घर जाकर दो-तीन दिन तक सपरिवार खा सकें। जैसे ब्रेड का पूरा पैकेट, जाम की शीशी, साबुत टमाटर-फल, कैन में पेक्ड सब्ज़ियाँ - जैसे मटर,पालक, फली आदि - जो कभी ख़राब नहीं होतीं और फ़्रीज़ में नहीं रखनी पड़तीं हैं। 


शादियाँ चर्च में भी होती हैं। और कहीं भी हो सकतीं हैं। घर पर भी की जा सकती हैं। 'बीच' पर या नदी किनारे भी। कहीं भी। कोई बंधन नहीं है। 


पादरी की भी आवश्यकता नहीं है। कोई भी लाइसेंस ले सकता है शादी करवाने का। दो गवाहों की आवश्यकता होती है। बस। 


शादी की ज़िम्मेदारी माँ-बाप पर नहीं होती है। लड़का-लड़की स्वयं एक-दूसरे को जानने-समझने और कई बार तो साथ रहने के बाद तय करते हैं कि अब हम शादी कर लेते हैं। वे ही निमंत्रण भेजते हैं। माता-पिता नहीं। कार्ड में लिखा रहता है कि शादी में हमें क्या उपहार चाहिए। इसकी सूची एक दुकान पर दे दी गई है। आपको जो पसन्द हो, आप उसके पैसे दे दीजिए। जैसे कि फ़ूड प्रॉसेसर, साईकिल, पर्दे, स्टील के बर्तन, डिनर सेट, चादर, रज़ाई, कम्बल आदि। अगर आप फ़ूड प्रॉसेसर के आधे पैसे ही दे सकते हैं तो वह भी ठीक है। 


चर्च की शादी में सूट-बूट में सज-धज कर जाया जाता है। 1987 में अमेरिका आए मुझे एक साल हुआ था। और एक अमेरिकन की चर्च की शादी का न्यौता आया। सूट नहीं था। ख़रीदा। चमड़े के काले जूते नहीं थे। ख़रीदे। 


छात्रवृत्ति में से सूट-बूट का ख़र्चा निकालने में बहुत कष्ट हुआ। ख़ैर वही सूट-बूट तीन साल बाद नौकरी के लिए इन्टरव्यू में काम आए। 


शादी में खाना होता है। पर हल्का-फुल्का। नाम मात्र का। पीने को पर्याप्त होता है। मैंने न खाया, न पीया। खाने में कोई भी व्यंजन पल्ले नहीं पड़ा। मीठे में भी सिर्फ केक। कोई गुलाब जामुन, गाजर का हलवा नहीं। 


शादी भारत में भी दो रूपये-नारियल में की जा सकती है। और अम्बानी की तरह भी। यहाँ भी कोर्ट में न्यूनतम खर्च में की जा सकती है। या फिर बाक़ायदा घोड़ी पर बैठकर बाजे-गाजे के साथ आलीशान पाँच सितारा होटल में की जा सकती है। या फिर किसी प्रसिद्ध गोल्फ कोर्स पर। कई-कई बार लोग साल-दो साल इंतज़ार करते हैं कि जब हमारा नम्बर आएगा तब हम फलानी जगह शादी करेंगे। तब तक साथ रहते हैं पति-पत्नी की तरह। बस शादी नहीं की होती है। कई बार दोनों मिलकर साल-दो साल धन जोड़ते हैं फिर शादी करते हैं। कई बार कुछ माता-पिता मदद भी कर देते हैं। 


राहुल उपाध्याय । 12 फ़रवरी 2021 । सिएटल 




Wednesday, February 10, 2021

24 जनवरी 2021

24 जनवरी का रविवारीय भ्रमण अमेज़ॉन के गो स्टोर से फ़्रैंटम झील तक हुआ। 


गो का मतलब होता है जाओ। लेकिन एक ही शब्द के अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग मायने निकलते हैं। जब किसी टीम का उत्साह बढ़ाना होता है तो उनका नाम लेकर कहा जाता है गो हॉक्स, गो ईगल्स, वग़ैरह। जिसका मतलब होता है जी जान से खेलो। ऐसा खेलो जिससे कि जीत हासिल हो। पूरे दम ख़म से खेलो। 


इस दुकान का नाम गो अजीब लगा। बुलाने के बजाय जाने को कह रहा है। और वह भी अमेज़ॉन जैसी कम्पनी, जिसने अपना नाम ऑनलाइन शॉपिंग से कमाया, एक ईंट-गारे की दुकान खोलकर बैठी है। 


यह ऐसी दुकान है जहाँ आपको जो भी सामान लेना हो वो अपने झोले में डाल लें और उसे लेकर बाहर निकल जाए। किसी से बात नहीं करनी, किसी को क्रेडिट कार्ड नहीं देना है। बस घुसते वक़्त फ़ोन स्कैन कर दें। कोई केशियर नहीं जो आपका बिल बनाए या आपसे भुगतान की बात करे। आप आराम से अपने घर जाए।  फ़ोन पर बिल आ जाएगा। 


इस स्टोर में ऐसी टेक्नोलॉजी लगी है जिससे वह जान लेता है कि आपने कहाँ से कब कौन सा सामान उठाया अपने झोले में रखा। चारों तरफ़ सेंसर हैं। यह दुकान अभी छोटी है इसमें ज़्यादातर वो चीज़ें रखी गई हैं जिन्हें डाक से भेजना आसान नहीं है। जैसे कि दूध, ब्रेड, धनिया, मूली, गोभी, शिमला मिर्च, टमाटर आदि। यानी वो चीज़ें जो आप तुरंत इस्तेमाल करें वरना वे ख़राब हो सकती हैं। 


जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हूँ मैं ऑनलाइन शॉपिंग नहीं करता। मुझे दुकान जाकर सामान ख़रीदना अच्छा लगता है। ज़्यादातर तो चीज़ें वही करता हूँ जो खाने-पीने की होती है। कपड़े ख़रीदने के मौक़े बार-बार आते नहीं हैं। जूते भी फट जाए तब। ये सब भी मैं दुकान में जाकर ही ख़रीदता हूँ। जो मुझे आँखों के सामने दिख जाए वही समझ में आता है। इसलिए मैं अमेज़ॉन या किसी और संस्था का ऑनलाइन ग्राहक नहीं हूँ


और वैसे भी ऑनलाइन चीज़ें महँगी मिलती हैं।  किफ़ायती पसंद हूँ इसलिए भी ऑनलाइन शॉपिंग से बचता हूँ। 


इस दुकान में भी कई चीज़ें बहुत महँगी हैं। लेकिन कुछ चीज़ें सस्ती भी हैं। मेरी सारी शॉपिंग यहाँ से नहीं हो पाती है। कुछ चीज़ें यहाँ से लेता हूँ। कुछ बाक़ी दुकानों से।


अमेज़न गो में ऐसा नहीं कि सब बढ़िया है। कुछ समस्याएँ भी हैं। एक तो यह कि दुकान बहुत छोटी है। कोई गारंटी नहीं कि आपको जो चाहिए वह मिल जाएगा। दूध लेने जा रहे हैं पता चला ख़त्म हो गया है। खीरा ढूंढ रहे हैं पता लगा खीरा ख़त्म हो गया है। या दाम बढ़ गए हैं। दूसरा जो कि अभ्यास के बाद समझ में आता है कि जिस भी सामान को अपने उठा लिया वह आपका हो गया। अगर आपने जहाँ से उठाया था वहाँ रख दिया तो वह आपका नहीं है। दुकान का है। लेकिन अगर आपने उसे उठाकर कहीं और रख दिया या अपने दोस्त के झोले में या कार्ट में तो वो चीज़ आपकी। वो चीज़ जो वहाँ से हट गई और आपने हटायी हैं तो वो आपकी होगी। इसलिए सब गिनती से मिलता है। वजन से नहीं। 


और ज़ाहिर है बिना स्मार्टफ़ोन के आप अंदर नहीं घुस सकते। वैसे अब उसका भी एक तरीक़ा है। क्रेडिट कार्ड रजिस्टर करें। अपने हाथ को स्कैन कर लें। बस अब वो हाथ से पहचान लेगा कि पैसा किस क्रेडिट कार्ड से लेना है। 


क्रेडिट कार्ड नहीं है तो आप ख़रीदारी नहीं कर सकते क्योंकि भुगतान नहीं हो पाएगा। 


कैशलेस सोसाइटी बनती जा रही है। उसके फ़ायदे भी हैं और नुक़सान भी। पहले मुझे यह बात समझ नहीं आती थी। मैं स्वयं कैश का इस्तेमाल नहीं करता। कोई मौक़ा ही नहीं है जहाँ नगद देना पड़े। यहाँ अगर आप दस पैसे का भी सामान लें तो उसके लिए क्रेडिट कार्ड दे सकते हैं। और सब क्रेडिट कार्ड सहर्ष स्वीकार करते हैं। जब कैश का उपयोग करता था तब चिल्लर और नोट सम्हालने में काफ़ी दिक़्क़त होती थी। अब तो क्रेडिट कार्ड ले कर भी नहीं चलना पड़ता है। फ़ोन में ही क्रेडिट कार्ड की जानकारी डाल दें तो फ़ोन से ही पेमेंट हो जाता है। 


कैशलेस से दिक़्क़त उनको है जिनका बैंक में खाता नहीं है। और आज की दुनिया में किसके पास बैंक एकाउंट नहीं है?  उन लोगों के पास जिनकी पर्याप्त आय नहीं है। क्योंकि बैंक के अपने नियम है। यदि हर महीने इतने पैसे जमा नहीं किए तो फ़ीस लगनी शुरू हो जाती है। बैंक में पैसे हैं और आपको निकालना है तो ए-टी-एम की फ़ीस लगनी शुरू हो जाती है। पहले ही आय कम है और ऊपर से बैंक की फ़ीस। जब ये लोग काम करते हैं तो इन्हें नगद पैसा नहीं मिलता है। इन्हें भी चैक दिया जाता है। अब बिना बैंक के कैसे भुनाया जाए? इसलिए काफ़ी संस्थाएँ खुली हैं जहाँ ये कुछ कमीशन देकर चैक के बदले नगद प्राप्त कर लेते हैं। कमीशन बहुत महँगा है। लेकिन अज्ञानतावश वो कमीशन देना पसंद करते हैं बजाय इसके कि बैंक में अकाउंट खोलें। 


बैंक में खाता खोलने के लिए आपको पता भी चाहिए और कई बार पता बदलता रहता है। या पता होता नहीं है चूँकि घर होता नहीं है। आज यहाँ रह रहे हैं तो कल कहीं और। 


जिनके पास क्रेडिट कार्ड हैं वे भी कई बार और अनावश्यक ख़र्चा न हो जाए इसलिए उसका इस्तेमाल बहुत कम करते हैं। पैसा उतना ही दिया जा सकता जितना आपके पास हो। क्रेडिट कार्ड में ऐसा नहीं है। क्रेडिट कार्ड में भी सीमा तय की जाती है। लेकिन वह आपकी क्षमता से अधिक होती है। और आप महीने के अंत में पूरा भुगतान न कर पाए तो उसके भयंकर परिणाम होते हैं। लेट फ़ीस और ब्याज बढ़ते जाते हैं। और उस चक्र से निकलना बहुत बहुत बहुत कठिन होता है। 


इसलिए यहाँ एक तरफ़ तो संपन्नता दिखती है। दूसरी ओर पीछे क्या चल रहा है इसका अंदाज़ा लगाना मुमकिन है। कई लोग पूरी ज़िंदगी कर्ज़ में डूबे रहते हैं। यहाँ स्कूल की पढ़ाई बारहवीं तक तो नि:शुल्क है। लेकिन कॉलेज की पढ़ाई बहुत महँगी। कई माँ-बाप के पास इतनी बचत नहीं होती है कि बच्चों की कॉलेज की फ़ीस भर सकें। कुछ माँ-बाप तो इसे अपनी ज़िम्मेदारी भी नहीं समझते हैं। जिसको पढ़ना है वह अठारह से ऊपर का है और पढ़ना चाहें तो स्वयं अपनी फ़ीस भरकर पढ़े। 18 वर्ष के बाद इंसान की अपनी निजी स्वतंत्रता होती है। वो जो करना चाहे करे। न करना चाहें ना करे। यदि आपका 19 वर्षीय बेटा अस्पताल जाए, डॉक्टर के पास जाए किसी समस्या को लेकर तो माता-पिता को कोई अधिकार नहीं है कि वे पूछ सकें कि बेटे को क्या हुआ है। यह उसका अपना निजी मामला है। यही बात उसके कॉलेज की ग्रेड्स पर भी होती है। आप नहीं पता कर सकते कि वह कौन सा कोर्स ले रहा है, कौन सी पढ़ाई कर रहा है, उसे किस परीक्षा में कितने नंबर आए हैं, इस परीक्षा में वो बैठा ही है या नहीं। भले ही आप उसकी पूरी फ़ीस दे रहे हैं। आपको उसके कॉलेज के जीवन की जानकारी नहीं मिलेगी। 


अधिकतर छात्र अपनी पढ़ाई के लिए क़र्ज़ लेते हैं। और स्कूल लोन को चुकाने में सारा जीवन लग जाता है। जब नौकरी करते हैं तो फ़र्नीचर लेते हैं तो वो भी किश्तों में। गाड़ी लेते हैं तो वो भी किश्तों में। घर लेते हैं तो वो भी किश्तों में। मतलब जो भी बड़े ख़र्चे हैं, दाल-रोटी के अलावा, वे सब किश्तों में पूरे किए जाते हैं।  


क्रेडिट कार्ड का कर्ज़ तक़रीबन अमरीका की एक बड़ी जनसँख्या के माथे पर है। लेकिन जीवन शैली में कोई बदलाव नहीं आता। जेब में पैसा नहीं लेकिन शुक्रवार की शाम शराब पीनी है। सिनेमा देखना है। रंगारंग कार्यक्रमों में जाना है। हवाई, डिस्ने आदि भी जाना है। 


कोरोना के टीके के पीछे सब हाथ धो कर पीछे पड़े हैं। लेकिन दारू न पीकर गाड़ी चलाने से भी जानें बच सकतीं हैं , यह सीधी सी बात गले नहीं उतरती। 


राहुल उपाध्याय । 10 फ़रवरी 2021 । सिएटल 





Thursday, February 4, 2021

क्या ग़ज़ल नहीं है (2)

होंठों से छूलो तुम मेरा गीत अमर कर दो


यह ग़ज़ल नहीं है। 


इस रचना की सारी पंक्तियाँ नीचे हैं। आप देख लें। हर पद में दो ही पंक्तियाँ होनी चाहिए। न कम, न ज़्यादा। 


मुखड़े से आभास होता है कि ग़ज़ल है। क्योंकि दो पंक्तियाँ हैं, रदीफ है (अमर कर दो), और क़ाफ़िया (गीत/प्रीत) है। 


रदीफ (अमर कर दो) और क़ाफ़िया (रीत/जीत/संगीत) हर पद में भी है। लेकिन ये दो पंक्तियों के पद नहीं हैं।  हर पद में तीन पंक्तियाँ हैं। 


होंठों से छूलो तुम मेरा गीत अमर कर दो (पंक्ति #1)

बन जाओ मीत मेरे मेरी प्रीत अमर कर दो (पंक्ति #2)


न उम्र की सीमा हो

न जन्म का हो बंधन (पंक्ति #1)

जब प्यार करे कोई

तो देखे केवल मन (पंक्ति #2)

नई रीत चलाकर तुम

ये रीत अमर कर दो (पंक्ति #3)


जग ने छीना मुझसे

मुझे जो भी लगा प्यारा (पंक्ति #1)

सब जीता किये मुझसे

मैं हर दम ही हारा (पंक्ति #2)

तुम हार के दिल अपना

मेरी जीत अमर कर दो (पंक्ति #3)


आकाश का सूनापन

मेरे तनहा मन में (पंक्ति #1)

पायल छनकाती तुम

आजाओ जीवन में (पंक्ति #2)

साँसें देकर अपनी

संगीत अमर कर दो (पंक्ति #3)


अब काजल फ़िल्म की इस रचना को देखें। यह ग़ज़ल है। 


देखने में पहली दो पंक्तियाँ चार लग सकतीं हैं। लेकिन वे दो ही हैं। रदीफ (है ये), क़ाफ़िया (जाम/ईनाम)  भी है। 


बाक़ी पद में भी वहीं रदीफ है। क़ाफ़िया (पैग़ाम/बदनाम) है। और दो पंक्तियों के पद हैं। 


छू लेने दो नाज़ुक होठों को

कुछ और नहीं है जाम है ये (पंक्ति #1)

क़ुदरत ने जो हमको बख़्शा है

वो सबसे हसीं ईनाम है ये (पंक्ति #2)


शरमा के न यूँ ही खो देना

रंगीन जवानी की घड़ियाँ (पंक्ति #1)

बेताब धड़कते सीनों का

अरमान भरा पैगाम है ये (पंक्ति #2)


अच्छों को बुरा साबित करना

दुनिया की पुरानी आदत है (पंक्ति #1)

इस मय को मुबारक चीज़ समझ

माना की बहुत बदनाम है ये (पंक्ति #2)


इस रचना का मैंने प्रतिगीत लिखा था। जिसे आप उमेश की आवाज़ में यहाँ सुन सकते हैं:


https://youtu.be/O67k994donU 


राहुल उपाध्याय । 4 फ़रवरी 2021 । सिएटल