Wednesday, December 28, 2022

साहित्यकार गुरू नहीं है

मुझे कबीर बहुत पसन्द हैं। लेकिन जैसा कि आमतौर पर होता है साहित्य में हर तरह की बात कही जा सकती है। रचनाकार रचना में दी गई सलाह से सहमत हैं या नहीं यह आवश्यक नहीं है। 


काल करे सो आज कर, आज करे सो अब

पल में प्रलय होएगी बहुरी करेगा कब?


इससे लगता है कि वे कल का काम आज ही करने को अच्छा मानते हैं। जबकि इसमें कुछ अलग ही कह रहे हैं:


धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय। 

माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय॥ 


किसी भी रचनाकार को ज़्यादा पढ़ लो, तो वे 'गुनाहों के देवता' वाले बर्टी ही नज़र आएँगे। वे तटस्थ नहीं रह सकते। वे हर एक का दृष्टिकोण प्रस्तुत करेंगे। और यही एक अच्छे रचनाकार की पहचान है कि वह किसी दायरे में बँधकर नहीं लिखता। 


साहित्यकार गुरू नहीं है जो कि सही मार्ग दिखलाए। साहित्यकार रंग बदलता रहता है। बदलते रहना भी चाहिए। 


राहुल उपाध्याय । 28 दिसम्बर 2022 । दिल्ली 

Thursday, December 22, 2022

विवेकानंद शिला स्मारक

इतिहास एक ऐसी ताक़त है जो पत्थर में भी जान फूंक देती है। मदुराई के संग्रहालय में गाँधी जी की रक्त-रंजित पोषाक से मैं भावुक हो उठा। 


आज कन्याकुमारी में 1970 में निर्मित ध्यान केन्द्र में ध्यान करते हुए सुकून हुआ। यह केन्द्र विवेकानंद शिला स्मारक का हिस्सा है। कहते हैं कि 1892 में इसी शिला पर विवेकानंद ने ध्यान करने के बाद निर्णय लिया था कि वे अब अमेरिका जाएँगे। ग्यारह सितंबर 1893 के दिन उन्होंने शिकागो में जो भाषण दिया उसकी गूंज आज भी हिन्दू समाज के जनमानस में है। 


लेकिन दुख की बात है कि उनका दर्शन विश्वव्यापी तो क्या देश को जोड़ने में भी सफल न हो सका। हालाँकि पूरे स्मारक में घोषणा यही की गई है कि उन्होंने पूरे भारत को जोड़ दिया था। यदि उन्होंने पूरे भारत को जोड़ ही दिया था तो विभाजन हुआ ही क्यों? और उनके पदचिह्नों पर चलने वाले तथाकथित गुट, गुट ही क्यों रह गए?


उसी शिला पर उसी स्मारक के परिसर में किसी देवी के रक्त-रंजित चरण हैं। यह मुझे भावुक नहीं करता। क्योंकि यह इतिहास नहीं है। आस्था है। 


विवेकानंद भी क्या सचमुच इस शिला पर आए थे? कैसे आए थे? कोई केवट लाया था? तीन दिन यहीं रहे या आते-जाते रहे? यहीं रहे तो भोजन-शौच-शयन आदि का क्या इंतज़ाम रहा?


प्रश्न किए जा सकते हैं। किए जाने चाहिए। लेकिन यह तो इतिहास ही है कि इसे किसी संस्था ने चंदा इकठ्ठा कर के बनाया। आज भी ये दान स्वीकार करती है। अमिताभ बच्चन ने ग्यारह लाख रूपये दान में दिए हैं। 


विवेकानंद की मूर्ति स्वयंभू नहीं है। किसी ने चित्र बनाया। किसी ने उस चित्र के आधार पर मूर्ति बनाई। सब साफ़ है। कोई रहस्य नहीं है। 


ध्यान केन्द्र में रोशनी नहीं के बराबर है। पंखे बहुत कम शोर करते हैं। कोई ड्रेस कोड नहीं है। कोई टिकट नहीं है। कोई शर्त नहीं है। कोई प्रतिबंध नहीं है। सिवाय इसके कि शांत बैठे। असुविधा हो तो कुर्सियाँ भी हैं। 


जितनी देर चाहे बैठें। कोई भगाता नहीं है। दुत्कारता नहीं है। क्यों? क्या भीड़ कम है इसलिए? भीड़ क्यों कम है? फैरी से जाना पड़ता है इसलिए?


नहीं। कलकत्ता में ढाकुरिया झील के निकट स्थित रामकृष्ण मिशन के ध्यान केन्द्र में मैं कई बार गया हूँ। वहाँ भी बिलकुल यही वातावरण है, यही व्यवस्था है। कोई रोकटोक नहीं है। सहज वातावरण है। (तब मैं नवीं कक्षों दूसरी बार पढ़ रहा था। पिछले साल फेल हो चुका था गणित और अंग्रेज़ी में। किशोरावस्था थी। किसी ने न बालक समझा, न कोई सलाह दी। मैं आता, बैठता, ॐ को निहारता रहता और चला जाता। मुझे आँख बंद कर के ध्यान करना नहीं आता। ध्यान करना ही नहीं आता। विपासना के आश्रम में दस दिवस बीता चुका है। वहाँ किसी को किसी से बात करने की अनुमति नहीं होती। यहाँ तक कि आँख भी नहीं मिला सकते। सब एक ही कमरे में एक ही टेबल पर बैठकर भोजन करते हैं। पर आँख नहीं मिलाते। न लिख सकते हैं, न पढ़ सकते हैं। न फोन, न कोई और उपकरण साथ होता है। कहते हैं उन दस दिनों में इंसान बदल जाता है। मुझे कोई फ़र्क़ नहीं लगा।) वहाँ भी मगर भीड़ नहीं होती है। कालीघाट पर भयंकर भीड़ होती है। मम्मी सैंकड़ों बार कालीघाट गईं होंगी। रामकृष्ण मिशन एक बार भी नहीं गईं। कालीघाट पर शनिवार को बकरे की बलि के खून को देखकर भयभीत भी हुई है पर वहाँ जाना नहीं छोड़ा। 


दरअसल ध्यान में निष्क्रियता है। पूजा में सक्रियता है। कुछ ख़रीदो, कुछ चढ़ाओ, कुछ खाओ, कुछ खिलाओ, क़तार में लगो, घंटों खड़े रहो, किसी से बात करो। 


पूजा केन्द्र जो व्यस्त हैं और भी व्यस्त रहेंगे। क्योंकि लोग वही जाते हैं जहाँ सब जाते हैं। जहाँ कोई नहीं जाता, वहाँ कोई नहीं जाता। भरे को ही भरने का रिवाज है। जिसके पास अपार धन है उसे बहुत महँगा उपहार दिया जाता है। जो गरीब है उसे उतरे हुए कपड़े दे दिए जाते हैं। 


आजकल सुरक्षा या कोरोना के बहाने प्रसिद्ध मन्दिरों में ख़ाली हाथ ही जाना पड़ता है। कोई हार-फूल नहीं। कोई प्रसाद नहीं। कोई चढ़ावा नहीं। इन मन्दिरों में भी सक्रियता घटती जा रही है। भक्तों को आनन्द कम मिल रहा है। 


शायद वहाँ भी ध्यान केन्द्र खुल जाए। लोग तसल्ली से सुकून के साथ घर लौट पाए। 


राहुल उपाध्याय । 22 दिसम्बर 2022 । कन्याकुमारी 





Wednesday, December 21, 2022

अय्याशी की भी हद होती है

अय्याशी की भी हद होती है 

भीषण गर्मी में 

पाँच सितारा होटल में

भयंकर ए-सी चलाकर 

रज़ाई ओढ़ सोया जाता है 

गर्म पानी से घंटो नहाया जाता है 

फ़ायर प्लेस चलाया जाता है 

टाई-सूट पहना जाता है 

और देश की गिरती हालत का

रोना रो लिया जाता है 


अय्याशी की भी हद होती है 

जिस तीर्थ का क-ख-ग नहीं पता

वहाँ संकल्प लिया जाता है

पण्डित के पीछे-पीछे तोतों सा

संस्कृत में खिटपिट-खिटपिट बोला जाता है 

हज़ारों का चढ़ावा चढ़ाया जाता है 

प्रसाद छोड़ चाऊमीन खाया जाता है 


अय्याशी की भी हद होती है 

जिस देश को छोड़ दिया जाता है 

उस देश के रमणीक स्थल 

बच्चों को दिखलाए जाते हैं 

हाथ से खाना खाते हैं 

ग्रामीण संग फ़ोटो खींचवाते हैं 

अभाव में जीकर भी

ख़ुश रहा जा सकता है 

बच्चों को यह बतलाते हैं 


राहुल उपाध्याय । 21 दिसम्बर 2022 । कन्याकुमारी 




Tuesday, December 20, 2022

रामेश्वरम. 21 दिसम्बर 2022

रामेश्वरम मंदिर जहाँ राम ने लिंग स्थापित किया था वहाँ शंकराचार्य द्वारा दी गई मणि भी है। जिसका दर्शन सुबह चार बजे से छ: बजे के बीच होता है।


उसके बाद 22 कुण्ड हैं जो राम ने अपने बाण से भेद कर बनाए थे। वहाँ बाल्टी से पानी खींच कर सर पर डाल लिया जाता है। इसे स्नान कहते हैं। फिर कपड़े बदल कर एक कोने में बैठकर संकल्प लिया जाता है। तत्पश्चात् दूध से लिंग का अभिषेक किया जाता है। 


कुल मिलाकर चार काम हुए - मणि दर्शन, कुण्ड स्नान, संकल्प, अभिषेक। इन सब में चार घंटे और दस हज़ार रूपये लगे हम छ: प्राणियों के। पण्डित जी कह रहे थे कि सारे काम डेढ़ लाख में भी किये जा सकते हैं। 


सब जगह खुले आम रेट लिखे हुए हैं। स्पीड दर्शन के लिए इतना। 108 कलश पूजा का इतना। आदि। 


हम एनआरआई तो पैसा फेंक तमाशा देख रहे थे। कोई भी रेट ज़्यादा नहीं लग रहा था। बल्कि दुख हुआ देख कर कि हम कितने खुश थे कि हम पैसे के दम पर कितनी जल्दी निकल आए और बाक़ी लोग न जाने कब तक इंतज़ार करते रहेंगे। 


एनआरआई भी अब विचित्र प्राणी नहीं रह गया है।  आज वह भी भारतीय समाज का एक अदद हिस्सा है। हर शहर में वह मिल जाएगा। इसी समूह की वजह से अब एयरपोर्ट और पाँच सितारा होटलों में बस स्टैंड सी भीड़ है। मन्दिर में भी हम समझे हम ही हैं पैसा फेंकने वाले। देखा तो हम जैसे वहाँ हज़ारों हैं। दो महीने पहले ग्रीस के खंडहर देख कर आए।  पिछले साल कोस्टा रिका गए थे। अगले साल के प्लान अभी से बन रहे हैं। देखना-समझना-पढ़ना-लिखना कुछ नहीं है। तमाशबीन सा तमाशा देख कर चले जाना है। फ़ोटो सोशल मीडिया पर चिपका देने हैं। कुछ के पोस्टर घर के कमरों में सजा देते हैं। 


उन्हें मन्दिरों में, पत्थरों की मूर्तियों में कोई आस्था नहीं है। दान हाथ खोलकर देते हैं। बच्चों को देश की संस्कृति से परिचित कराते हैं। आधुनिक गुरुओं के भक्त हैं। उनके शिविरों में समय बिताते हैं। उनके मुख से विश्व कल्याण की बात सुन खुश होते हैं। प्रसन्न होते हैं कि उनका दिया पैसा किसी स्कूल, अस्पताल के लिए खर्च किया जा रहा है। या उस यूट्यूब चैनल के लिए जहाँ वे बैठकर एक स्टैंडअप कॉमेडियन की तरह हँसते-हँसाते प्रवचन देते हैं। 


माथा टेकना और हाथ फैलाना उनके व्यवहार में नहीं है। आरती करना और भजन गाना तो कोसों दूर है। पूजा? यह तो करण जौहर की फिल्म का एक किरदार है। 


राहुल उपाध्याय । 21 दिसम्बर 2022 । रामेश्वरम 






कलाम स्मारक

कलाम साहब रामेश्वरम में पैदा हुए थे। यह मुझे पता नहीं था। आज रामेश्वरम पहुँचते ही टूर आपरेटर कलाम स्मारक ले गया। कल गाँधी संग्रहालय और आज कलाम स्मारक। यह क्या अद्भुत संयोग है। मैं तो समझा यह घार्मिक नगरी है। मन्दिर ही मिलेंगे। 


गाँधी जी से तो कभी मिल नहीं पाया। कलाम साहब से 2009 में सिएटल में मुलाक़ात हुई थी।  वे यूनिवर्सिटी ऑफ़ वाशिंगटन में व्याख्यान देने आए थे। तब सिएटल स्थित इंडियन एसोसिएशन ऑफ़ वेस्टर्न वाशिंगटन ने उनके स्वागत में एक कार्यक्रम रखा था। तब मैं सेवानिवृत्ति का आनन्द ले रहा था और इंडियन एसोसिएशन ऑफ़ वेस्टर्न वाशिंगटन के लिए स्वयंसेवक के रूप में बच्चों के समर कैम्प की फ़ोटोग्राफ़ी कर रहा था। मुझे भी न्यौता मिला। मैं वहाँ गया। साथ अपनी चुनिंदा कविताओं के प्रिंटआउट को एक किताब की शक्ल में ले गया था। एक रचना सुनानी भी चाही। पर अफ़सोस कि उन्हें हिन्दी नहीं आती। किताब भेंट कर दी। शायद किसी संग्रहालय में हो। 


आज एक बार फिर यह जानकर अच्छा लगा कि भारत विविधताओं का देश है। एक मुस्लिम हिन्दू तीर्थ स्थल पर पैदा होता है, क्रिश्चियन कॉलेज में पढ़ता है और भारत का राष्ट्रपति बन जाता है। भारत रत्न पा जाता है। 


यह भी जानकर अच्छा लगा कि स्मारक में नंगे पाँव जाना होता है। किसी प्रकार के चप्पल-जूते पहनकर नहीं जा सकते। ऐसा इसलिए कि वहाँ उनकी समाधि है।  यह जानकर और भी अच्छा लगा कि उनका शरीर राख नहीं हुआ। बड़ी अजीब अनुभूति हुई कि जिस शरीर से मैंने बात की थी उसका अवशेष आस-पास ही था। 


स्मारक में कैमरा या फ़ोन नहीं ले जा सकते हैं। बहुत ही सुन्दर परिसर है। कलाम साहब की इतनी तस्वीरें हैं, मूर्तियाँ हैं कि देखते ही रह जाओ। 


राहुल उपाध्याय । 20 दिसम्बर 2022 । रामेश्वरम 




Monday, December 19, 2022

विज्ञान और साहित्य

विज्ञान वह ज्ञान है जो सर्वमान्य है। पानी कब उबलता है, कब जमता है, सूर्योदय कब होता है, सूर्यास्त कब होता है जैसी तमाम बातों पर सबका एकमत है। चाहे किसी भी जाति, समाज, धर्म, भाषा का इंसान हो, इन बातों पर बहस नहीं करता। 


इसलिए मुझे विज्ञान प्रिय है। यहाँ तेरा-मेरा विज्ञान नहीं होता। सबका है। 


विज्ञान के परे की बातों पर दुनिया को सहमत करवाना आसान नहीं है। धर्मगुरु, समाज सुधारक, क्रांतिकारी प्रयास करते हैं लेकिन कुछ लोगों को ही समझा पाते हैं। 


ग़ालिब और ग़ालिब जैसे साहित्यकारों की कलम में वो ख़ूबी है कि वे सारी दुनिया को सहमत होने के लिए मजबूर कर देती है और दुनिया उनकी आजीवन प्रशंसक बन जाती है। 


इसलिए मुझे साहित्य में भी रूचि है। चाहे वो सीख देनेवाली ख़रगोश-कछुए की कहानी हो, या ग़ालिब की दार्शनिक रचनाएँ। 


ग़ालिब स्मारक की दीवारों पर लगे पोस्टर से उद्धृत हैं कुछ अशआर जिन पर शायद ही कोई विवाद खड़ा हो सकता है। 


उग रहा है दर-ओ-दीवार पर सब्ज़ा ग़ालिब 

हम बयाबां में हैं और घर में बहार आई है


तेरे वादे पर जिए हम, तो ये जान झूठ जाना

के ख़ुशी से मर न जाते अगर एतबार होता 


बस के दुश्वार है हर काम आसां होना

आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना


राहुल उपाध्याय । 20 दिसम्बर 2022  । मदुरै 




GOAL-DONE

गांधी संग्रहालय, मदुरै

आज मदुरै स्थित गांधी स्ंग्रहालय में जाने का अवसर प्राप्त हुआ। मदुरै में जब समय की कमी है क्यों कोई पर्यटक गाँधी संग्रहालय जाएगा। पोरबंदर हो, दिल्ली हो, मुम्बई हो, कलकत्ता हो तो समझ भी आए। 


ख़ैर टूर आपरेटर ले गया। आश्चर्य हुआ कि वहाँ गाँधी जी का वो कपड़ा रखा हुआ है जिसे उन्होंने पहन रखा था जब उनकी हत्या हुई थी। 


समझ नहीं आया कि वो कपड़ा क्यों संग्रहालय के लिए बचा के रखा गया और वह भी मदुरै में। 


मैं गाँधी जी से बहुत प्रभावित हूँ और आज की यात्रा अविस्मरणीय रही। उनके लिखे दस्तावेज देखें। उनके खत देखे। उनके चश्मे की प्रतिलिपि देखी। उनके जीवन के बिरले चित्र देखे। 


ऐसा लगा जैसे उनके सानिध्य में कुछ पल बिता आया। आज भी लोग उनके बारे में कई अपमानजनक बातें कहते हैं। दुख होता है। लेकिन सबकी अपनी सोच है। यह सोचकर मैं विवाद में नहीं पड़ता। लोग संग्रहालय आए। सब पोस्टर पढ़ रहे थे,चीज़े निहार रहे थे, साथ ही उनको और उनके कार्य कलापो को बुरा भला कह रहे थे। 


कितने अजीब है हम। महाभारत के एक पात्र, कर्ण, को एक साहित्यकार महापंडित कर देता है। और लोगों की राय बदल जाती है। 


एक दल बहुमत से सत्ता में आ जाता है और इतिहास बदल जाता है। 2 अक्टूबर को सरसरी तौर पर शीष नवा दिया जाता है पर सत्य स्थापित करने की कोई कोशिश नहीं की जाती। 


राहुल उपाध्याय । 19 दिसम्बर 2022 । मदुरै


Sunday, December 18, 2022

मीनाक्षी मन्दिर

मीनाक्षी मन्दिर भव्य है। पुराना है। विशाल है। भूल भूलैया है। कहीं से भी रोशनी का प्रवेश नहीं है। छतें बहुत ऊँची हैं। स्तम्भ अचम्भित करते हैं। कलाकृति अविस्मरणीय है। 


हर तरह से देखने लायक़ मन्दिर। मन्दिर में स्टेज पर सांस्कृतिक कार्यक्रम - गायन, नृत्य, नाटिकाएँ भी - चलते रहते हैं। लड्डू फ़्री में भी मिलते हैं। ख़रीदें भी जा सकते हैं। बहुत ही साफ़ सुथरा मन्दिर है। कहीं कोई चढ़ावा नहीं है। न फूल, न मिठाई, न पैसे। हुंडिया हैं जिनमें इच्छा अनुसार डाला जा सकता है। 


लेकिन इतने विशाल मन्दिर में करना क्या है, जाना कहाँ है, देखना क्या है, इसकी महत्ता क्या है, कोई नहीं बताता है। 


हमारा ग्रुप एनआरआई ग्रुप है। और वह भी ऐसा ग्रुप जिसे हिन्दू धर्म का क-ख-ग नहीं पता है। वो ढूँढ रहा है गाइड। गाइड कोई मिले नहीं। मिले तो 30 सेकण्ड में भाग जाए। पूरा पैकेज टूर ख़रीदा गया है लेकिन टूर ऑपरेटर भी कई प्रकार के होते हैं। इन्होंने बस छोड़ दिया 500 मीटर दूर और कह दिया कर आओ दर्शन। वहाँ जाओ तो पश्चिम टॉवर भी है, उत्तर टॉवर भी है। किधर जाए? फ़ोन आदि बाहर ही छोड़ो। जितनी भी ख़ूबसूरती देखो, सब आँखों में संजो के रखो। यूट्यूब पर दर्जनों वीडियो देख लो। गुगल पर इतिहास पढ़ लो। प्लेस्टोर से ऑडियो गाइड डाउनलोड कर लो। लेकिन सब मन्दिर के बाहर। मन्दिर के अंदर बस तुम और हज़ारों साल पुराने स्तम्भ। 


दर्शन करने के लिए खुले आम दाम लिख रखे हैं अलग-अलग लाइन के लिए। फिर भी हम एनआरआई क्यों डेढ़ घंटे लाइन में खड़े रहेंगे? हम तो "पैसा फेंक, तमाशा देख" वाले हैं। हमारी आस्था और श्रद्धा न के बराबर है। 


आख़िरकार मिल ही गया कोई पण्डित जो कि पाँच हज़ार में हम पाँच को तुरंत दर्शन करवाने के लिए तैयार हो गया। और हमने दर्शन कर लिए। जैसे किए जा सकते हैं। यहाँ भी रूकने नहीं दिया जाता है। जल्दी आगे बढ़ो को निर्देश आते रहते हैं। पर धक्का मुक्की नहीं होती। हाथापाई नहीं होती। 


मूर्ति बहुत दूर है। आँखें फाड़ के भी नहीं समझ आती। सिर्फ़ मुकुट दिखता है। दीपक जलते दिखते हैं। आरती होती दिखती है। आरती तो क्या, बस दीपक की थाल दो-चार बार घुमा दी जाती है। कुमकुम भक्त के माथे पे लगा दिया जाता है। 


जब तक दर्शन नहीं किए लग रहा था कि इतनी दूर से आए हैं, बिना दर्शन के जाना ठीक नहीं। दर्शन कर के लगा क्या दर्शन किया?


राहुल उपाध्याय । 19 दिसम्बर 2022 । मदुरै 


Friday, December 16, 2022

दिल्ली- 17 दिसम्बर 2022

दिक्कत एक हो तो बताऊँ भी। अब उस दिन पानी की समस्या, असुरक्षा के माहौल और हर बंधन में संतुष्टि का रोना रो ही चुका हूँ। 


परसो अपनी भतीजी से मिलने हंस राज कॉलेज गया। नामी-गिरामी कॉलेज है इसलिए दूर रतलाम से पढ़ने यहाँ आई है। पी-जी में रह रही है क्यूँकि होस्टल अभी बन रहे हैं। आई-कार्ड अभी तक बना नहीं है क्योंकि एडमिशन का चौथा राउंड चल रहा है। क्लासेज़ सारी ऑनलाइन चल रही हैं। दिल्ली में है और पी-जी का भाड़ा भर रही है और अकेले कमरे में बैठकर ऑनलाइन क्लासेज़ कर रही है। मतलब हद ही हो गई लापरवाही की। कोरोना के चक्कर में ऑनलाइन का खून क्या लग गया कि कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ता। न कोई टेक्स्ट बुक है, न कोई होमवर्क। और सत्र शुरू होते-होते नवम्बर हो गया। यह भी ख़ानापूर्ति है। जिनका एडमिशन अभी चल ही रहा है उनका क्या होगा? बस सीट पर सीट भरते जाओ और पैसे जोड़ते जाओ। 


यही हाल देश भर में है। कहीं-कहीं तो कॉलेज में उपस्थित होने की आवश्यकता भी नहीं है। सिर्फ़ परीक्षा देने पहुँच जाओ। वहाँ भी नक़ल करवाने वाले मौजूद हैं। चाहे कितने ही अच्छे से उत्तर दे दो, नम्बर सबको थोक में औसत मिलते हैं। कम पढ़ो तो नुक़सान नहीं। ज़्यादा पढ़ो तो इनाम नहीं। 


अब यह नया समाचार कि कुँवारों को मकान मालिक किराए पर नहीं रखेंगे। एक ग़लत ख़बर क्या आ गई, बात का बतंगड़ बन गया। 


एयरपोर्ट पर भीड़ इतनी है कि दो घंटे की फ़्लाइट के लिए साढ़े तीन घंटे पहुँचो वरना फ़्लाइट छूट जाएगी। सामान भी बस एक ही बैग लेकर आओ। 


विदेशी हो तो पेटीएम, यूपीआई, कुछ नहीं चलता है। क्रेडिट कार्ड अधिकांश वक्त और जगह पर नहीं चलता। कड़क नोट के बिना गुज़ारा नहीं। लोकल बैंक में खाता खुलवाना मतलब आ बैल मुझे मार वाला मामला। 


चारों तरफ़ इतना घुटन का माहौल है कि कुछ कह नहीं सकते। अच्छे-ख़ासे लोदी गार्डन में जगह-जगह लिखा है यहाँ थूकना मना है। हद ही हो गई। मेट्रो में तो नहीं लिखा है। मेट्रो इतनी साफ़-सुथरी है कि लगता ही नहीं यह दिल्ली शहर में है। चमचमाते फ़र्श। साफ़-सुथरे डब्बे। क्यों इन लोगों को यही सुविधा मेट्रो के बाहर भी मिल सकती है? जगह-जगह खुले तार हैं, गड्डे हैं, पत्थर हैं। 


राहुल उपाध्याय । 17 दिसम्बर 2022 । दिल्ली 



ऋषि राजपोपट

दो घंटे पहले जिसकी हमें जानकारी नहीं थी अब हमारे होंठों पे है जैसे अपने ही घर के दूर के भतीजे ने कहीं टॉप कर लिया हो। पता कुछ नहीं है कि कौनसी परीक्षा,  कब हुई, किस काम की है, कितने अंक मिले। बस टॉप किया है तो गर्व की बात है। 


गर्व होना भी चाहिए। ढाई हज़ार साल पुरानी गुत्थी. उस भाषा की जिसे आज सिर्फ़ पच्चीस हज़ार लोग बोलते हैं बहुत मायने रखती है। वह क्यों? क्योंकि इस भाषा (संस्कृत) में नए शब्द एक सीमित धातुओं से ही बनते हैं। जैसे उपनयन। उस ज़माने में चश्मे नहीं थे। जब चश्मे आ गए तो उसके लिए नया शब्द बन गया उप और नयन से। जैसे उपराष्ट्रपति। जो राष्ट्रपति तो नहीं है पर वक्त पड़ने पर राष्ट्रपति का काम कर सकते हैं। उपनयन भी नयन तो नहीं है पर ज़रूरत पड़ने पर नयन की मदद कर सकता है। 


पाणिनि के अष्टाध्यायी ग्रंथ में चार हज़ार के आसपास दिए गए नियमों में निर्देश दिए गए हैं कि कैसे भूतकाल, भविष्यकाल होने से शब्द में कहाँ और क्या जोड़ा जाएगा। कई बार उलझन पैदा हो जाती है कि इसमें पहले कुछ जोड़ा जाए या बाद में। तब कात्यायन ने समझाया कि जो नियम क्रमांक में सबसे बाद में आया हो, उसे ही सही माना जाए। 


ऋषि राजपोपट ने बताया कि कात्यायन का तरीक़ा सही नहीं है। उससे बड़ी मुश्किलें पैदा हो जाती हैं। नये-नये नियम बनने लगते हैं। जबकि अष्टाध्यायी अपने आप में परिपूर्ण है। 


सही तरीक़ा यह है कि शब्द के दाईं और वाला नियम ही माना जाए। ऐसा करने से सारी समस्या हल हो जाती है। नए नियम नहीं बनाने पड़ते हैं। यानी कम्प्यूटर में सब नियम डाल दीजिए तो अगले हज़ारों सालों तक कुछ करने की ज़रूरत नहीं। नए शब्द, नए जुमले, नए वाक्य बनते चले जाएँगे। 


बाद और दाई - दोनों एक जैसे ही लगते हैं लेकिन अंतर है। अब यह नहीं समझ में आता है कि पाणिनि के जीवनकाल में ही यह समस्या क्यों सामने नहीं आई? आती तो वे ही हल बता देते। 


ज़िन्दगी के 59 वर्ष गुज़ारने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि हम जितने जल्दी उत्साहित होते हैं उतनी ही जल्दी भूल भी जाते हैं। दो दिन बाद बहुत कम लोगों को ऋषि राजपोपट या उनकी खोज की कोई याद भी रहेगी। 


मीडिया भी एक साथ ही टूट पड़ता है। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से ऋषि की पीएचडी थीसिस 15 दिसम्बर को प्रकाशित हुई। तभी उन्होंने एक लेख भी अपनी वेबसाइट पर डाला। तबसे यह खबर आग की तरह फैल रही है। 


लेकिन ध्यान देनेवाली बात यह है कि थीसिस जनवरी में ही लिखी जा चुकी थी और ऋषि को डॉक्टर की उपाधि भी तभी मिल गई थी। कहाँ सो रहे थे सब जब यह क्रांतिकारी खोज केम्ब्रिज में बताई जा रही थी? क्यों थीसिस के प्रकाशित होने तक इंतज़ार किया गया?


दो बातें और। ऋषि ने मुम्बई से बीए इकॉनॉमिक्स से किया है। मास्टर्स करने वे ऑक्सफ़ोर्ड गए। लेकिन उधार लेकर नहीं। क़र्ज़ में नहीं डूबे। न ही माता-पिता को क़र्ज़ में डाला। बहुत से धनी लोगों को चिट्ठी लिख कर उन्होंने अनुदान की माँग की। और उन्हें पर्याप्त धन मिल गया। मालवीय जी ने ऐसे ही काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। 


पीएचडी के लिए धनराशि उन्हें राजीव गांधी फ़ाऊंडेशन और कैम्ब्रिज ट्रस्ट से मिली। 


ऋषि हनुमान भक्त हैं। अपनी खोज का श्रेय वे हनुमान जी और सरस्वती माता को देते हैं। यह तस्वीर उनकी डेस्क पर हमेशा रहती है। 


राहुल उपाध्याय । 16 दिसम्बर 2022 । दिल्ली 


Tuesday, December 13, 2022

बैकपैक के मायने बदल गए हैं

जहाँ बैकपैक के मायने ही बदल जाते हैं वह है शहर दिल्ली। मेट्रो में सफ़र करते वक्त भीड़-भाड़ के माहौल में यह तर्कसंगत लगता है कि बैकपैक पीठ की बजाय सामने पेट पर बांधा जाए। ताकि कोई पीछे से ज़िप खोल कुछ चुरा न ले। 


नल में पानी इतना कम आता है कि सबने घर में मोटर लगवा रखी है जिससे ज़्यादा से ज़्यादा पानी अपनी निजी टंकी में भरा जा सके। 


मोहल्ले में प्रवेश करने की कई गलियाँ हैं। एक को छोड़कर सब रात के ग्यारह से सुबह पाँच बजे तक बंद रहती हैं। गेट लगा दिए जाते हैं। ताले लगा दिए जाते हैं। यदि आना-जाना हो तो घूम-घामकर आओ-जाओ। 


एटीएम रात को बंद कर दिए जाते हैं ताकि चोरी न हो। 


इन्वर्टर लगा रखे हैं कि बिजली जाए तो पता न लगे। 


इन सबसे - ताला बंदी से, निजी टंकी से, इन्वर्टर से- इंसान आश्वस्त है। आश्वस्त ही नहीं, गौरवान्वित है कि देखिए हमारी सोसाइटी हमारी सुरक्षा का कितना ख़याल रखती है। बिना गार्ड की अनुमति के कोई परिन्दा पर नहीं मार सकता। 


तस्लीमा नसरीन की पुस्तक पढ़ रहा हूँ इन दिनों - औरत के हक़ में। उसमें लड़कियों के छात्रावास पर लगाए गए प्रतिबंधों पर सवाल खड़े किए गए हैं। क्यों वे शाम के अमुक समय के बाद बाहर नहीं जा सकती हैं। क्यों कोई उनसे मिलने नहीं आ सकता है? क्या भेड़िए सिर्फ़ लड़कियों के छात्रावास के आसपास ही रहते हैं? क्या वे घरों में नहीं रहते?


हमें पता ही नहीं चलता है कब हम सलाख़ों को क़ैद नहीं अपनी सुरक्षा समझने लगते हैं। कब टंकी को एक असुविधा और सरकारी नाकामी न मान अपने सामर्थ्य की डींग हांकने लगते हैं। 


कब बेड़ियों को संस्कार समझने लगते हैं। कब भेदभाव को रीति-रिवाज समझने लगते हैं। कब ग़ुलामी को रिश्तों का सम्मान समझने लगते हैं। कब ग़ुस्से को प्यार समझने लगते हैं। 


राहुल उपाध्याय । 13 दिसम्बर 2022 । दिल्ली 





Friday, December 9, 2022

नज़र अंदाज़

परियों की कहानी बहुत सुन्दर, ख़ूबसूरत, सुहानी, लुभावनी होती हैं। तितलियाँ विचरती रहती हैं। फूल खिलते रहते हैं। तारों से भरा एक अलौकिक संसार होता है। 


'नज़र अंदाज़' भी ऐसी ही एक फिल्म है जो बड़े दिनों बाद किसी मित्र के साथ देखी। मित्र ने देख रखी थी। इतनी पसन्द आई कि मेरे साथ दोबारा देखी। 


मैं उससे कैसे कहूँ कि मुझे पसन्द नहीं आई। पर सच तो यही है कि इस फ़िल्म की कहानी मेरे गले नहीं उतरी। बिना नौकरी के ज़िन्दगी इतनी ख़ूबसूरत और आरामदायक हो सकती है कैसे मान लूँ। और वह भी जब नायक नेत्रहीन है। वह औरों को भी सहारा देता है। 


एक्टिंग बहुत लाउड है। कुमुद मिश्रा ने अभिनय के क्षेत्र में चेहरे को तोड़ना-मोड़ना भी जोड़ लिया है। जिम कैरी जब ऐसी हरकत करते हैं तो कामेडी लगती है। यहाँ यह बेतुकी लगती हैं। दिव्या दत्ता का किरदार बहुत बहुत लाउड है। और फ़िल्म के उत्तरार्ध में वही किरदार बहुत बदल जाता है किसी उच्चवर्गीय परिवार के सदस्य की तरह। 


इस तरह के किरदार, इस तरह का जीवन, इस तरह के लटके-झटके सिर्फ़ पश्चिमी देशों के ही हो सकते हैं। ये हमारी मुम्बई में तर्कसंगत नहीं लगते।


कई तरह के घिसे-पीटे फ़ार्मूले भी जोड़े गए हैं। ज़बरदस्ती हँसाने की भी कोशिश की गई है। 


हर क्षेत्र में- गीत में, संगीत में, पटकथा में - कमज़ोर है। संवाद ज़बरदस्ती नेत्रहीन की विडम्बना दर्शाने की कोशिश करते हैं। 


अगर कुछ अच्छा है तो वह है अभिषेक बनर्जी का विश्वसनीय अभिनय। 


न देखें तो ही बेहतर है। हाँ मित्र का दिल रखना हो तो वह अलग बात है। 


राहुल उपाध्याय । 9 दिसम्बर 2022 । सिएटल 



Monday, December 5, 2022

घर पे बताओ

'घर पे बताओ' - 72 मिनट की एक अनूठी फ़िल्म है, जिसमें सिर्फ़ दो पात्र हैं, और एक ही शॉट में बनाई गई है। कैमरे की नज़रों से पात्र कभी ओझल नहीं होते। माथेरान के रमणिक पथ पर वे चलते रहते हैं। कैमरा कभी पीछे से तो कभी आगे से उन पर निगाहें बनाए रखता है। 


नेशु सलूजा द्वारा निर्देशित यह फ़िल्म अनूठी होने के साथ-साथ अच्छी भी है। प्रियंका बहुत अच्छी अभिनेत्री है। 72 मिनट में उनके पात्र के असंख्य भाव आते जाते हैं और वे सारे उनके चेहरे पर स्पष्ट देखे जा सकते हैं। दोनों अभिनेताओं ने ग़ज़ब की क्षमता दिखाई है कि बिना कट के 72 मिनट के पूरे डायलॉग ही नहीं, हर हरकत, हर मोड़, हर ठहराव को याद रखना और एक-दूसरे से ताल-मेल बनाए रखना। 


दोनों पात्रों के नाम भी नहीं बताए जाते हैं ताकि यह ध्यान रहे कि कहानी सिर्फ़ इनकी नहीं है। इनके जैसे करोड़ों लड़के-लड़कियों की है जो कि हर तरह से आज़ाद हैं लेकिन फिर भी कुछ मामलों में अपने आपको परिवार की अदृश्य सलाख़ों में क़ैद पाते हैं। शादी से पहले हनीमून कर सकते हैं लेकिन घर पर शादी करने की बात नहीं कर पाते हैं। आज से पचास साल पहले बनी 'कभी-कभी' और 30 साल पहले बनी 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे' की काली छाया ऐसी पड़ी हैं कि हर कोई आज्ञाकारी पुत्र और दामाद का प्रमाणपत्र पाना चाहता है। 


हम लाख कहें कि फिल्म और साहित्य समाज का दर्पण होते हैं। लेकिन सच तो यही है कि फ़िल्मों में हर तरह की कहानी होती है लेकिन जनता अपनाती वही है जो हिट हो जाती हैं। एक दूजे के लिए में प्रेमी युगल आत्महत्या कर लेते हैं। लेकिन आत्महत्या का मार्ग समाज ने अपनाया नहीं। क़यामत से क़यामत तक में प्रेमी युगल कत्ल कर दिए जाते हैं। समाज ने यह रूख भी नहीं अपनाया। 


अब उम्र हो चली है सो शायद मेरा दृष्टिकोण सही न हो। 


'घर पे बताओ' जैसी फ़िल्म बनती रहनी चाहिए और देखी जानी चाहिए। ये 72 मिनट किसी भी लम्बी सीरीज़ के दस घंटों को टक्कर दे सकते हैं। 


गीत भी नेशु सलूजा ने लिखे हैं। 


राहुल उपाध्याय । 5 दिसम्बर 2022 । सिएटल 




हवाई यात्रा

हवाई यात्रा को सहज बनाने के लिए लगातार प्रयास किए जा रहे हैं। 


डायबीटीज़ है तो उसके लिए भी अलग भोजन तैयार करके दिया जाता है। जैन समाज के लिए भी अलग है। 


दो-तीन महीने के शिशु के लिए पालने भी हैं। वृद्ध लोगों के लिए व्हीलचैयर ताकि टर्मिनल पर एक गेट से दूसरे गेट पर जाने में असुविधा न हो। वह अलग बात है कि भाषा न आने के कारण भी कई लोग व्हीलचैयर की माँग करते हैं। 


आज क़तर एयरवेज़ का जहाज़ जब दोहा एयरपोर्ट पर उतर रहा था तो यह अद्भुत नजारा देखा। सबकी सीट पर लगी टीवी स्क्रीन पर जहाज़ के नीचे लगे पहियों के पीछे के वीडियो का सीधा प्रसारण हो रहा था। हो तो कुछ देर से रहा था जब वो उतरने वाला था। लेकिन तब अंधेरा था तो समझ नहीं पाया। पता नहीं हर फ़्लाइट में है कि नहीं। 


अभी दोहा से दिल्ली इंडिगो एयरलाइन्स से जा रहा हूँ। यहाँ तो टीवी स्क्रीन भी नहीं है। फ़ोन चार्ज करने की भी कोई सुविधा नहीं। 


राहुल उपाध्याय । 5 दिसम्बर 2022 । दोहा, क़तर 



आर-के/आरके

किसी अच्छी कविता की तरह 'आर के/आरके' एक ऐसी फिल्म है कि यह कभी समझ आती है, कभी नहीं, कभी अद्भुत लगती है, कभी बकवास, कभी गुदगुदाती है, कभी हंसाती है, और कभी गहन दर्शन से साक्षात्कार करा देती है। 


लगता है जैसे कि रजत कपूर ने विश्व का सारा साहित्य और दर्शन पढ़ा हो और उसका निचोड़ इसमें छिड़क दिया हो। 


रजत कपूर द्वारा लिखित, अभिनीत, एवं निर्देशित यह फ़िल्म एक बहुत ही अच्छी फिल्म है जो पूरे परिवार के साथ बेहिचक देखी जा सकती है।  मैं आमतौर पर हवाई जहाज़ में सोना पसन्द करता हूँ। फ़िल्में नहीं देखता। आज खाना खाते वक्त यूँही देख रहा था कि क्या हिन्दी भाषा में भी यह इंटरटेनमेंट सिस्टम उपलब्ध है कि नहीं। निराशा हाथ लगी। आज से चार साल पहले यूनाईटेड एयरलाइन्स में यह सुविधा उपलब्ध थी जो आज कतर एयरवेज़ में नहीं है। 


बॉलीवुड फ़िल्मों की सूची में पहली फ़िल्म यही थी। रजत कपूर का नाम देख कर अपने आप को रोक नहीं पाया। उनकी सारी फ़िल्में एक से बढ़कर एक हैं। पहले सीन से ही फ़िल्म इतनी अच्छी लगी कि पूरी देख ली। 


पूरी फ़िल्म में कहीं नहीं लगा कि यह दृश्य न होता तो भी चल जाता। यह डायलॉग थोड़ा छोटा या लम्बा होता तो बेहतर होता। लगता है जैसे सब कुछ नाप-तौल कर डाला गया है। न कम न ज़्यादा। 


मल्लिका शेरावत को इस फिल्म में देखकर हैरानी हुई लेकिन उन्होंने भी अपनी भूमिका खूब निभाई। रनवीर शोरी तो रजत कपूर की हर फिल्म का स्थायी हिस्सा है। 


सबसे अच्छा अभिनय कुब्रा सैत ने किया है। बहुत ही उम्दा कलाकार है। मनुऋषि चड्डा की दाद देनी होगी कि उन्होंने गोयल साहब का किरदार जीवंत कर दिया।  


रजत कपूर ने तीनों क्षेत्र - लेखन, अभिनय और निर्देशन- में दक्षता हासिल कर ली है। आर-के और महबूब के किरदार एक जैसे होते हुए भी रजत कपूर की अभिनय क्षमता से इतने अलग लगते हैं कि मन झूम उठता है। 


अवश्य देखें। 


राहुल उपाध्याय । 5 दिसम्बर 2022 । दोहा, क़तर 


Friday, November 25, 2022

चुप

'चुप' - आर बाल्कि की फ़िल्म है इसलिए देखने का मन हुआ। लगा उनकी फिल्म - इंग्लिश-विंग्लिश जैसी होगी। लेकिन निराशा हाथ लगी। 


फ़िल्म को आकर्षक बनाने के लिए और भी हथकंडे हैं। अमिताभ भी हैं। अलबत्ता सिर्फ़ एक सीन के लिए। लेकिन उनका नाम ख़ूब भुनवाया गया। यहाँ तक कि फिल्म के अंत में जो क्रेडिट्स आते हैं तब जो संगीत बजता है उसके कम्पोज़र अमिताभ बच्चन है। मतलब हद ही हो गई। 


पूजा भट्ट भी हैं एक अहम किरदार में। सनी देओल का किरदार बहुत ही कमजोर है। श्रेया धन्वंतरि की अदायगी बहुत ही उम्दा है। हर सीन में विश्वसनीय लगी। हालाँकि फ़िल्म के अंत में उनका किरदार एक रोते बच्चे सा हो जाता है जो कि स्क्रिप्ट की कमजोरी है। 


कहानी बहुत ही मनगढ़ंत है। यथार्थ से कोसों दूर। मुख्य पात्र को जो करना है करता चला जाता है। पूरी आज़ादी से। क्रिकेट पिच पर फ़्लडलाइट्स में भी कोई उसे नहीं देख पाता है। 


एक बहुत ही कमज़ोर फ़िल्म जिसमें इतने वीभत्स सीन हैं कि कई बार आँखें बंद करनी पड़ती है। 


न देखें तो ही बेहतर है। 


राहुल उपाध्याय । 25 नवम्बर 2022 । सिएटल 



Thursday, November 24, 2022

थैंक्सगिविंग 2022

आज अमेरिका में थैंक्सगिविंग दिवस है यानी धन्यवाद ज्ञापन दिवस। वैसे तो मैं इन कृत्रिम दिवसों को नहीं मानता। जैसे कि पितृ दिवस या मातृ दिवस। और फिर धन्यवाद देना हमारी संस्कृति में काफ़ी औपचारिक लगता है। जैसे कि मामीसाब और मासीजी को क्या धन्यवाद देना। जब भी चरण छुए बहुत आशीर्वाद मिला। मैंने उन्हें दिया ही क्या है और क्या दे सकता हूँ?

फिर भी सूची तैयार की तो अहसास हुआ कि इस एक साल में इस अकेली जान को कितनों ने सहारा दिया है। सम्भाला है। सुख में, दुख में, हर घड़ी मेरा साथ दिया है। बिन कहे मेरी भावनाओं को समझा। 

मैं अपने आपको बहुत ही स्वतंत्र और आत्मनिर्भर समझता था। मुझे नहीं लगता है कि मुझे किसी की मदद की ज़रूरत है। लगता है मैं सब अपने आप कर लूँगा। 

लेकिन ये सब निःस्वार्थ रूप से समय-समय पर मेरे जीवन में आए और जो भी वे कर सकते थे, उन्होंने किया। चाहे वो मेरा भारत भ्रमण हो या मेरे गीत, चाहे वो मेरी मानसिक स्थिति हो या यूँही कोई बात हो, या अकारण ही। 

अक्षय
अंजना
अजय
अंजली
अनिल
अनीता
अनु
अर्चना
आकाश 
आयुषि
इन्द्र
उमेश
उषा
करूण
कविता
चिकी
छन्दा
छोटी मामीसाब
जया
ज्योति
दिनेश 
देवकन्या
देवीलाल
नमिता
निशांत
नीतू
नूतन
पंकज
पाखी
पुष्पा 
प्रभा
प्रशांत
प्रीत
प्रेम शंकर जी
बड़ी मामीसाब
बद्रीलाल जी
बबली
बृजेश
भक्ति
भावना
भाविक
मंगलेश
मणि शंकर जी
मधु
मनीष
मनोज
मन्ना दा
ममता
मासीजी
मीनू
मुक्ता
रमेश
राजीव
राजेश
राधा बाई
रीतेश
रूचिका
रूचिता
रेखा
वंदना
विजय
विनोद
वीणा
वीरू
वैभव
शबनम
शाची
शुभमय
शोभित
संगीता भाभी
संजना
सत्यनारायण जी
सरोज
सागरिका
सीमा
सृजन 
हरमीत
हरीश
हितेन्द्र

राहुल उपाध्याय । 24 नवम्बर 2022 । सिएटल

Monday, November 21, 2022

क्रिसमस - अमेरिका का

अमेरिका कर्मप्रधान देश है। हर कोई किसी न किसी कार्य में व्यस्त है जिसका सीधा असर यहाँ की अर्थव्यवस्था पर दिखाई देता है। यही एक कारण है जिसकी वजह से इसकी जी-डी-पी दुनिया में सबसे ज़्यादा है। हर कोई कमा रहा है, खर्च कर रहा है। चाहे वो पन्द्रह वर्ष का बालक है जो पड़ोसी के लॉन की घास काट रहा है। या 70 वर्ष का वृद्ध जो वॉलमार्ट में लोगों का स्वागत कर रहा है। 


इसके बीच के भी लोग हैं। इलॉन मस्क जैसे कई संस्थापक हैं जिन्होंने बिलियन डॉलर कमाने के बाद भी काम करना नहीं छोड़ा। बल्कि पहले से ज़्यादा काम करते हैं। और सिर्फ कमाने के लिए नहीं। बल्कि समाज में योगदान के लिए। आमूल परिवर्तन लाने के लिए। 


अमेरिका में आए एक अतिथि ने आश्चर्य व्यक्त किया कि सत्या नडेला माइक्रोसॉफ़्ट के सी-ई-ओ होते हुए भी रोज़ काम करते हैं। उनके विचार में सारे मैनेजर आराम करते हैं और अपने कर्मचारियों से काम करवाते हैं। 


यह धारणा शायद भारत के छोटे शहर के दुकानदारों की हो सकती है। दुकानें हैं जिन पर कर्मचारी काम कर रहे हैं। बसों के मालिक भी स्वयं बस नहीं चलाते। ऊबर और ओला के संस्थापक भी टैक्सी नहीं चलाते। लेकिन वे दूसरे अन्य काम ज़रूर करते हैं। 


अमेरिका में सब काम तो ज़रूर करते हैं लेकिन छुट्टियाँ भी खूब मनाते हैं। हर हफ़्ते चालीस घंटे काम करते हैं- सोम से शुक्र। शनि-रवि छुट्टी। 


शुक्रवार के दिन सब चहकने लगते हैं। कहते हैं- टी-जी-आई-एफ। यानी थैंक-गॉड-इट्स-फ़्राइडे। भगवान का शुक्रिया कि आज शुक्रवार है। 


और इसी चक्कर में शुक्रवार का दिन भी मौज मस्ती में निकल जाता है। नई फ़िल्में उसी दिन आती हैं। चार बजे से हैप्पी ऑवर शुरू हो जाता है। यानी रेस्टोरेन्ट में वही आयटम जो छः बजे बाद महँगा हो जाएगा वह चार से छः के बीच सस्ते में मिल जाएगा। 


शनि-रवि को घर के काम निपटाए जाते हैं। जैसे कपड़े धोना, और घर की सफ़ाई करना। कपड़े ज़्यादातर हफ़्ते में एक ही बार धोए जाते हैं। इसलिए सारे कपड़े ज़्यादा ख़रीद लिए जाते हैं ताकि रोज़ न धोए तो भी साफ़ कपड़े रोज़ मिल जाए। मौजे दो-तीन जोड़ी नहीं, बारह जोड़ी होते हैं। तौलिए भी ज़्यादा होते हैं। 


कपड़े ड्रायर में सूख भी जाते हैं। कहीं भी कोई रस्सी पर नहीं सुखाता। बरसात हो या कोई भी मौसम, कपड़े हमेशा सूखे ही मिलेंगे। 


घर में झाड़ू नहीं लगता। भारत से आए लोगों को बिना फूल-झाड़ू के चैन नहीं मिलता। पूरे घर में तो नहीं लेकिन किचन में ज़रूर फूल-झाड़ू लगा कर ही मन को संतुष्टि मिलती है। 


बाक़ी घर में शनिवार को ही वैक्यूम क्लीनर से सफ़ाई होती है। कोई काम वाली बाई नहीं आती। सब घर के सदस्य ही करते हैं। 


अब आई-रोबोट का रूम्बा काफ़ी आम हो चुका है। जो जब चाहें पूरे घर में वैक्यूम कर देता है। चाहे तो रोज़ ही। या एक दिन में कई बार। 


बर्तन तो रोज़ डिशवॉशर में धुल ही जाते हैं। एकदम से सूखे और चमचमाते हुए निकलते हैं। 


बाज़ार का सामान भी - जैसे दूध-ब्रेड-सब्जी - सब हफ़्ते में एक बार शनिवार को ही ख़रीदा जाता है। दूध प्लास्टिक की बोतलों में आता है। जितना लगे एक बार में ले लो। आठ लीटर, बारह लीटर या जितना भी। फ़्रीज़ इतने बड़े होते हैं कि सब समा जाते हैं। सब्ज़ियाँ भी थोक में ली जातीं हैं। फल भी। आइसक्रीम और मिठाइयाँ भी। 


शनि-रवि ही सारे त्योहार-जन्मदिन मनाए जाते हैं। जिस दिन है, उस दिन नहीं। मनाने को मना भी लो, लेकिन कोई आएगा नहीं। सब काम में व्यस्त हैं। काम से घर आते-आते सात बज जाती है और फिर कहीं जाने की ऊर्जा नहीं रहती। 


इसीलिए क्रिसमस महत्वपूर्ण है क्योंकि वो जिस दिन होता है उसी दिन मनाया जाता है। और मज़े की बात यह कि सारी दुनिया में उसी दिन मनाया जाता है। इसे कहते हैं रुतबा। 


लेकिन जैसे दीवाली एक दिन का त्यौहार नहीं है वैसे ही क्रिसमस भी नहीं। यह शुरू हो जाता है नवम्बर के अंत से ही। 


नवम्बर के चौथे गुरूवार को थैंक्सगिविंग दिवस के नाम से जाना जाता है। इस दिन यहाँ हर दफ़्तर में छुट्टी होती है। ज़रूरी सुविधाएँ - जैसे अस्पताल, एयरपोर्ट, बस आदि - खुली रहती हैं। दूध-सब्ज़ी की दुकानें जो प्रायः चौबीसों घंटे खुली रहती हैं वे भी शाम छः बजे बन्द हो जाती हैं ताकि कर्मचारी और ग्राहक दोनों अपने परिवार के साथ डिनर कर सके। बुधवार का दिन यातायात का सबसे व्यस्त दिन होता है। फ़्लाइट के टिकट मिलने मुश्किल हो जाते हैं। मिलते भी हैं तो बहुत महँगे। ज़्यादातर परिवार अपने दादा-दादी के घर जमा होते हैं और एक विशाल भोज का आयोजन किया जाता है जिसमें टर्की प्रमुख होती है। 


इस बार चौथा गुरूवार चौबीस नवम्बर को है। समझिए तबसे क्रिसमस की गहमागहमी शुरू। 


शुक्रवार, 25 नवम्बर को हर दफ़्तर में छुट्टी रहेगी लेकिन दुकानें सारी खुली रहेंगी। यह छुट्टी किस लिए? यह छुट्टी इसलिए कि लोग क्रिसमस पर देने के लिए उपहार इस दिन ख़रीद लें। इतनी जल्दी क्यों? अभी तो एक महीना है क्रिसमस आने में? वह इसलिए कि इस दिन हर सामान पर भारी छूट मिलती है। यही सामान अगले दिन महँगा मिलेगा। 


इस प्रकार दुकानों पर, मॉल में साज-सजावट शुरू हो जाती है। सड़कें रोशन हो जाती हैं झिलमिलाती लड़ियों से। चारों तरफ़ उत्सव और उत्साह का नजारा। 


राहुल उपाध्याय । 21 नवम्बर 2022 । सिएटल