Wednesday, December 27, 2023

पारूल

पारूल मध्यम वर्ग से है। काम भी करती है जिससे वेतन मिलता है। घर का काम भी करती है जिससे वेतन नहीं मिलता है। कई कष्ट, कई यातनाएँ सहती है। सास-ससुर-देवरानी सब से। सब अपनी क़िस्मत समझ सह लेती है। ईश्वर में विश्वास है। प्रारब्ध और कर्मों के हिसाब के गुणा-भाग से अच्छी तरह से परिचित है। पति है पर पति से भी कोई आस नहीं। उसे भी वह दोष नहीं देती है। जो है, सो है। जो मिला है उसी में वो ख़ुश है। दुखी कभी नहीं होती है। 


ऑफिस का काम मन लगा कर करती है। काम से उसे वह सब मिला जो घरवाले उसे कभी न दे सके। वहाँ उसको इज़्ज़त मिली। सम्मान मिला। यथोचित पदोन्नति भी। 


काम के सिलसिले में उसे एक बार पेरिस जाना पड़ा। बाँछें खिल आईं। वह भी तीन महीनों के लिए। इसी बहाने उसे घर के काम से तीन महीने की छुट्टी मिल गई। और हर तरह की आज़ादी भी। जो करना चाहे, कर सकती है। जो खाना चाहे, खा सकती है। जब सोना चाहे, सो सकती है। जब तक सोना चाहे, सो सकती है। 


लेकिन जैसा कि अक्सर होता है, जब तक हम सिस्टम से लड़ते नहीं है, हमें उसी सिस्टम में जीना आसान लगता है। हम उसी सिस्टम के पक्षधर बन जाते हैं। उसी में अपनी भलाई समझते हैं। जो खाते आ रहे हैं, वही खाते हैं। जो पहनते आ रहे हैं, वही पहनते हैं। 


मुझे याद है जब हम स्कूल से कॉलेज में गए, स्कूल की तरह सबकी कोई निर्धारित सीट नहीं थी। लेकिन हम सब रोज़ एक ही जगह बैठते थे। कॉलेज में यूनिफ़ॉर्म भी नहीं थी। लेकिन हम सब अपने-अपने ढर्रे के ही कपड़े पहनते थे। जो साड़ी पहनती थी, वो साड़ी पहनती थी। जो सलवार सूट पहनती थी, वो सलवार सूट पहनती थी। जो जीन्स, वो जीन्स। लड़कों का भी यही हाल था। जो कुर्ता-पजामा पहनता था, वो कुर्ता-पजामा ही पहनता था। जीन्स वाला जीन्स। 


पारूल पेरिस में रही तीन महीने, लेकिन कुछ अलग नहीं किया। न सिगरेट पी। न दारू पी। न चिकन खाया, न फ़िश। न बार गई मौज-मस्ती के लिए। 


हाँ, घूमी-फिरी बहुत। सारे म्यूज़ियम नाप डाले। सारे ऐतिहासिक भवनों को आँखों से पी गई। दुकानों पर भी खूब गई। बस आँखें ही सेंकीं। ख़रीदा कुछ भी नहीं। हर नोट का अठारह से गुणा कर के दिल बैठ जाता था। 


बस एक स्कर्ट-ब्लाउज़ इतना पसंद आया कि आज बीस बरस बाद भी उसकी एक-एक चीज़ अच्छी तरह से याद है। उसका रंग। उसकी ख़ुशबू। उसका टेक्स्चर। सब का सब तन-मन में समाया हुआ है। बहुत मन किया कि इसे तो ले ही लूँ। ऑफिस वाले पेरिस के हाथ-खर्च और खाने-पीने के लिए कुछ तय रक़म रोज़ाना के हिसाब से दे भी रहे थे। उसमें से पैसे बच भी रहे थे। 


उसने स्कर्ट कभी नहीं पहनी थी शादी के बाद। शादी के पहले भी प्रायमरी स्कूल तक ही पहनी। उसके बाद कभी नहीं। न जाने क्यों मन हो आया कि पेरिस में कौन मुझे रोकेगा। पहन कर तो देख लूँ। लेकिन मन की बात मन में ही रह गई। नहीं ख़रीदी तो नहीं ख़रीदी। 


अब रिटायर होने के बाद। विधवा होने के बाद। एक दिन उसी स्कर्ट जैसी स्कर्ट ऑनलाइन ऑर्डर कर ही ली। आ गई तो बहुत खुश हुई। बेटी को दिखाई। बेटी को इतनी पसंद आई कि उसने रख ली। अब इस उम्र में कोई कुछ माँग ले तो देने में बहुत अच्छा लगता है। सो दे दी। क़िस्मत देखो। तब से अब तक तीन बार मँगवा चुकी है। लेकिन सब कोई न कोई ले गया। 


इस कहानी का अंत ऐसे नहीं होना चाहिए। मेरा उसके ईश्वर से निवेदन है कि हिसाब में कुछ धांधली करें और पारूल को एक बार स्कर्ट-ब्लाउज़ पहनने दें। और हाँ एक सेल्फ़ी भी होनी चाहिए ताकि सबूत रहे कि स्कर्ट पहनी थी कभी प्रौढ़ावस्था में। 


राहुल उपाध्याय । 28 दिसम्बर 2023 । अम्स्टर्डम

यूरोप

यूरोप में घूमने का एक अपना अलग रोमांच है। एक तो इतिहास में इसके शहरों का महत्वपूर्ण स्थान है। चाहे युद्ध हो या राजनीति, ये शहर प्रमुख रहे हैं। लंदन, पेरिस, बर्लिन। इनके बिना बीसवीं शताब्दी की मुख्य घटनाओं का वर्णन नहीं किया जा सकता। 


आगे जाकर जब अमेरिका में रहने लगा तो नॉरमंडी बीच का भी नाम सुना जहां की ऐतिहासिक विजय के बाद ही द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त हुआ। क्रिस्टोफ़र नोलन की फिल्म के बाद डनकर्क के बारी में भी जानकारी बढ़ी। 


जब मैं अम्स्टर्डम से पेरिस जा रहा था तो डनकर्क और नॉरमंडी बीच क़रीब से निकले। मानचित्र पर देखकर ही मेरे रोंगटे खड़े हो गए। 


पेरिस की भव्य इमारतों के बीच साईन नदी पर नौका विहार के वक्त सोचता रहा कैसे वो दिन रहे होंगे जब इन इमारतों पर बमबारी का ख़तरा रहा होगा। कैसे हर घर से कोई युवा सेना में काम कर रहा होगा। कैसे नाज़ी सेना इन्हीं सड़कों पर घूम रही होगी। 


अम्स्टर्डम तक हिटलर का आतंक था। सिर्फ़ जर्मनी से ही नहीं, यहाँ से भी लोग घरों से निकालकर कंसंट्रेशन कैम्प में ज़िन्दा मौत के घाट उतार दिये जा रहे थे। हिटलर की सेना यहाँ भी आईं और एन फ़्रेंक जैसे लाखों लोगों को लेकर चले गई।  


अद्भुत शहर हैं ये। अद्भुत देश हैं ये। अद्भुत लोग हैं ये। 


एक तरफ़ हिटलर की सेना। एक तरफ़ एन को बचाने वाले जैसे लोग। एक तरफ़ एन का पता हिटलर की सेना को देनेवाले लोग। 


सब यहीं था। सब यहीं थे। मात्र पचहत्तर-अस्सी वर्ष पहले। 


और उससे पहले थे महान कलाकार। लियोनार्दो द विंची। मिकेलांजिलो। दांते। वेन गो। रेम्ब्राण्ट। 


महान वैज्ञानिक। न्यूटन। आइंस्टाइन। हुक। हैली। डार्विन। बर्नौली। मार्कोनी। वॉट। एम्पियर। क्यूरी। हर्ट्ज़। मैक्सवेल। यूलर। फर्मेट। 


महान लेखक। शेक्सपीयर। शॉ। शैली। कीट्स। बर्ट्रेंड रसल। 


बेल्जियम जैसे छोटे देश के छोटे शहर में बारहवीं शताब्दी के महल आज भी उस शहर की शोभा बढ़ा रहे हैं। आज भी मुझ जैसे पर्यटक को चकित कर रहे हैं। 


राहुल उपाध्याय । 27 दिसम्बर 2023 । ब्रसल्स 

Saturday, December 23, 2023

सैलानी

मैं सैलाना से हूँ। सैलानी मेरे खून में है। 


कोरोना की महामारी सबके लिए अभिशाप रही। मेरे लिए वरदान। 2019 से मम्मी मेरे साथ अमेरिका में थी। दिन में तीन घंटे से ज़्यादा मैं उन्हें अकेले नहीं छोड़ता था। नौ बजे दफ्तर जा कर बारह बजे वापस आ जाता था। खाना बनाकर खिला कर दो बजे दफ्तर जाता था। पाँच बजे लौट आता था। अपार्टमेंट के सामने ही दफ़्तर था। 


2020 में कोरोना के आते ही हम माँ-बेटे चौबीसों घंटों साथ थे। ऑफिस का काम कहीं से भी कर सकते थे। 


2021 में मम्मी गुज़र गईं। कोराना भी चला गया। रह गई कहीं से भी काम करने की आदत। 


26 सितम्बर को जब सिंगापुर से निमंत्रण आया कि चले आईए एक तरफ़ा टिकट लेकर। मैं तुरंत राज़ी हो गया। तब से अब तक वापस सिएटल नहीं गया हूँ। 


तब से अब तक सिंगापुर, मलेशिया. थाइलैंड, भारत, चीन, नेदरलैंड्स घूम चुका हूँ। आज फ़्रांस जा रहा हूँ पेरिस का आयफल टॉवर देखने। अम्सटर्डम से यूरोप के बाक़ी देशों में हवाई जहाज़ के अलावा ट्रेन, बस, कार से भी ज़ाया जा सकता है। 


मैं एक बस टूर के साथ जा रहा हूँ। सुबह पाँच बजे बस निकली हैं। दो बजे तक पेरिस पहुँचने की सम्भावना है। 


रास्ते में दो जगह रूके थे - नाश्ते और भोजन के लिए। मैक्डॉनल्ड और स्टारबक्स जैसे रेस्टोरेन्ट हैं।


मेरे साथ मेरे मेज़बान मनीष की पत्नी रश्मि ने मेरी प्रिय भिण्डी की सब्ज़ी और रोटियाँ बन कर रख दी थीं। सुबह की पाँच बजे की बस के लिए मनीष मुझे छोड़ने आ रहे थे। घर से चार बजे निकलना था। रश्मि ने साढ़े तीन बजे उठ कर रोटियाँ बनाईं। रात बारह बजे भिण्डी की सब्ज़ी बनाकर सोई थीं। 


कई बार समझ नहीं आता कि मेरी क़िस्मत इतनी अच्छी कैसे हैं कि मुझे इतने अच्छे लोग मिल रहे हैं। 


राहुल उपाध्याय । 23 दिसम्बर 2023 



Thursday, December 21, 2023

डंकी - एक समीक्षा

डंकी राजकुमार हिरानी द्वारा लिखित एवं निर्मित फिल्म है। इसके निर्माता शाह रूख खान की कम्पनी रेड चिलीज़ है। जब विधु विनोद चोपड़ा निर्माता थे तब की हिरानी की सारी फ़िल्में उत्तम गुणवत्ता वाली थीं। उनमें हर तरह के इमोशन्स थे। हास्य का बाहुल्य था। मुन्ना भाई के कई सीन्स अमर हैं। थ्री इडियट्स बहुत ही अच्छी थीम पर थी। सबसे बड़ी बात उन सबका लेखन उम्दा था, संवाद अच्छे थे। कहानी में दम था। 


डंकी संजू की तरह बहुत ही कमज़ोर प्लॉट पर आधारित है। फ़्लैशबैक के ज़रिए थोड़ा रोचक बनाने का प्रयास किया गया है पर वो ज़्यादा सफल नहीं हुआ। बोमन का किरदार कमज़ोर है। विकी को ज़बरदस्ती लिया गया है। वे मेहमान कलाकार हैं। समझ नहीं आया तापसी का नाम शाह रूख से पहले क्यों आया टायटल्स में। 


फ़िल्म में अंग्रेज़ी के संवाद बहुत ज़्यादा है। अंत में जो ज्ञान दिया गया है वह भी अंग्रेज़ी में। हिन्दी वाले बिचारे आँसू न बहा पाएँगे। 


वीसा न हो तो कितना अच्छा हो यह संदेश दे रही है यह फिल्म। जबकि भारत में कोई नहीं चाहता कि पाकिस्तान वाले या बंदलादेश वाले या अमेरिका वाले यहाँ खुले आम आए-जाए। 


न जाने किस आधार पर ये वीसा रहित प्रणाली को बेहतर बता रहे हैं। 


मौत को हास्य में बदल दिया। जनता भी खूब हँसी। बस वही एक हँसी गूंजी थियेटर में। बाक़ी सारे जोक्स में उतना दम नहीं है कि हँसी छूट पड़े। 


किसी भी निर्देशक से उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे हर फिल्म उम्दा बनाए। सुभाष घई, राज कपूर, स्टीवन स्पीलबर्ग - सब गलती करते हैं। इस बार हिरानी से हो गई। 


राहुल उपाध्याय । 22 दिसम्बर 2023 । अम्स्टर्डम


Thursday, December 14, 2023

शंघाई

शंघाई एयरपोर्ट पर आज भी सारे अधिकारी मास्क पहने रहते हैं। शायद सरकारी आदेश के तहत। 


प्लेन उतरने से पहले भी तमाम उद्घोषणाएँ हुई कि बुख़ार, जुकाम, उल्टी कुछ भी हो रहा हो तो तुरंत सूचित करें। क्वारंटिन किया जाएगा। मन में आया कि कहाँ बुरा फँसा। अच्छा ख़ासा अम्सटर्डम जा रहा था। ये दाल-भात में मूसलचंद कहाँ से टपक गया। 


पन्द्रह घंटे का ले ओवर था। रात नौ से दोपहर बारह बजे तक। पता नहीं था अमेरिकी नागरिक को ट्रांज़िट वीसा मिलेगा या नहीं। रात को बाहर निकल कर करूँगा क्या? निकल गया तो सुबह दस बजे तक वापस भी आना है। सोने के अलावा कुछ ख़ास हो नहीं पाएगा। 


सिंगापुर एयरपोर्ट पर एक और धक्का लगा। बैग सीधे अम्सटर्डम के लिए चैक इन नहीं होगा। मुझे सामान कलेक्ट कर के अपने पास रखना होगा और दूसरे दिन चैक इन करना होगा। एक और मुसीबत। सामान लेकर कहाँ घूमने जा पाऊँगा। 


जैसे-तैसे ग्यारह बजे तक ट्रांज़िट वीसा लेकर फ़्री हुआ। एयरपोर्ट पर ही लॉकर रूम मिल गया। चैन से छः बजे तक सोया। साढ़े छः तक तैयार हो कर सामान चैक इन करवाया। मेट्रो पकड़ी और पहुँच गया शंघाई सेंटर। कुछ घूमा-फिरा, कुछ खाया-पिया। लौटते वक्त मैगलेव से आया। जो काम मेट्रो ने एक घंटे में किया, इसने आठ मिनट में कर दिया। 


वापस एयरपोर्ट में घुसते वक्त सीलिंग पर लगे इन्फ्रा रेड सेंसर ने माथे का तापमान लिया। बुख़ार हुआ तो यात्रा रद्द। अजीब तमाशा है। 


लाईन पर लाईन। इमिग्रेशन की लाईन। सिक्योरिटी की लाईन। 


सिंगापुर इस मामले में बहुत बढ़िया है। कहीं कोई लाईन नहीं। चैक इन पर नहीं। इमिग्रेशन पर नहीं। और सिक्योरिटी तो कमाल की है। हर गेट की अपनी सिक्योरिटी। पता ही नहीं चलता है कि सिक्योरिटी है। 


राहुल उपाध्याय । 15 दिसम्बर 2023 । शंघाई 


Tuesday, December 12, 2023

एनिमल - समीक्षा

एनिमल - एक ज़माने में सिर्फ़ तेलुगू फ़िल्म बनकर ही रह जाती। पुष्पा के बाद से अब दक्षिणी फ़ार्मूले पूरे भारत ने स्वीकार कर लिए हैं। जैसे कि डोसा-इडली पूरे भारत में बड़े चाव से खाए जाते हैं। फ़र्क़ यह रह जाता है कि सारे मुख्य अभिनेता तो मुम्बई के होते हैं पर गाजर-मूली की तरह कट जाने वाले कलाकार दक्षिण भारत के होते हैं। उसी से पता चल जाता है कि निर्देशन और निर्माण दक्षिण भारत का है। रही-सही कसर तब पूरी हो जाती है जब कूल बनने के चक्कर में कच्छा पुराण भी शामिल कर लिया जाता है, ख़ासकर तब जब तीन सौ लोगों का नर संहार होने वाला है। 


फ़िल्म किसी महाकाव्य की तरह अलग-अलग अध्यायों में प्रस्तुत की जाती है। लेकिन हर अध्याय में बेटे का पिता के प्रति प्यार की अति समाहित है। ख़ून-ख़राबा लगभग हर फ़्रेम में है। गॉडफ़ादर से बहुत प्रभावित हैं निर्देशक। पूरे परिवार को बड़ा-चढ़ा कर दिखाया गया है। दुश्मनी भी। 


अंत में भी जैसे अभी पेट भरा नहीं है सो खूब खून-ख़राबा है। और दूसरे भाग की सम्भावना भी स्थापित कर दी जाती है। 


जितने भी सीन में रश्मिका है, बेहतरीन सीन हैं। बाक़ी सब या तो फूहड़ हैं या वीभत्स रस के हैं। 


गीत कई हैं, गीतकार कई हैं, संगीतकार कई हैं। बैकग्राउंड कम्पोज़र एक ही है। क्या कमाल का संगीत है। हर दृश्य को झेलने लायक बनाने में सहायक है। 


रणबीर का अभिनय कमाल का है। रश्मिका की कशिश बरकरार है। एक दो सीन छोड़ कर सब में वह सामान्य वेष भूषा में है। आजकल लोगों ने केदारनाथ को कश्मीर समझ रखा है। यह संदेश भी सहजता से दे दिया गया है। यह भी कि एक ही परिवार के जब दो गुट बन जाते हैं तो दूसरा मुसलमान बन जाता है और मुस्लिम गुट में कोई गुण नहीं रह जाता है। और जब वह गुट हिंदू गुट पर हमला करता है और हिन्दू गुट आत्मरक्षा में हथियार उठाता है तो उसे अपने ही अपराधी करार देते हैं। 


राहुल उपाध्याय । 12 दिसम्बर 2023 । सिंगापुर 





Saturday, December 9, 2023

सेम बहादुर- एक समीक्षा

सेम बहादुर - मेघना गुलज़ार द्वारा निर्देशित एवं लिखित नवीनतम फ़िल्म है जिसमें विक्की कौशल ने सेम मानेक्शा का रोल बखूबी निभाया है। फ़िल्म हर क्षेत्र में उम्दा है। अभिनय, छायांकन, लेखन, शोध, सेट की साज-सज्जा सब बहुत ही बढ़िया है। 


कमी है तो मनोरंजन की। रोमांच की। कहानी को एक सूत्र में पिरोने की। यह कमी शायद इसलिए है कि मानेक्शा की कोई कहानी ही नहीं है। सिर्फ़ एक जीवन है जो उन्होंने जीया। जैसे सबके जीवन में उतार-चढ़ाव आते हैं वैसे उनके जीवन में भी आए। फ़र्क़ सिर्फ यह है कि वे नेहरू जी के क़रीब रहे, इंदिरा गांधी के क़रीब रहे, उनसे कईं मुलाक़ातें हुईं, उन्होंने पाकिस्तान को हरा कर बांग्लादेश की स्थापना की, बंदूक़ की नौ गोलियाँ खाने के बाद भी वे बच गए। 


सारी महत्वपूर्ण घटनाएँ हैं। पर ऐसे जैसे एक दिन एक खबर पढ़ी, दूसरे दिन दूसरी, तीसरे दिन तीसरी आदि। यानी खबर और बस खबर। डाकूमेंट्री भी नहीं कि कोई सूत्रधार उन्हें जोड़ता चले, समझाता चले। 


गीत-संगीत छाप नहीं छोड़ते। देशभक्ति की ऊर्जा वाले गीत हैं। पर असरदार नहीं। 


इंदिरा गांधी का किरदार निभाना आसान नहीं। लेकिन फ़ातिमा ने इस चुनौती की स्वीकार किया और बखूबी निभाया। 


राहुल उपाध्याय । 9 दिसम्बर 2023 । सिंगापुर