Monday, May 31, 2021

23 मई 2015

अमेरिका कर्मप्रधान देश है। हर इंसान यहाँ कार्यरत है। 


साल में दो हज़ार घंटे काम करते हैं। 40 घंटा प्रति सप्ताह। 8 घंटे रोज़। (सुबह 8 से 12, और दोपहर 1 से 5, 12 से 1 के बीच लंच)। हफ़्ते में पाँच दिन। सोम से शुक्र। शनि, रवि - छुट्टी। साल में पचास हफ़्ते, यही क्रम चलता है।  


सफ़ेद कॉलर कर्मचारियों को साल में दो हफ़्ते या 80 घंटे की छुट्टी मिलती है। वो चाहे इसे जैसे ले। एक साथ। या टुकड़ों में। 


साथ ही मिलती है दस दिन की अन्य छुट्टियाँ:

ये तीन तिथि से तय हैं: 1 जनवरी, 4 जुलाई (स्वतंत्रता दिवस), 25 दिसम्बर। 


धन्यवाद ज्ञापन की छुट्टी नवम्बर के चौथे गुरूवार को होती है। उसके अगले दिन भी छुट्टी होती है। उसके बारे में मैंने यहाँ लिखा है:

https://rahul-upadhyaya.blogspot.com/2020/10/3.html?m=1


बाक़ी छुट्टियाँ सोमवार को होती हैं, ताकि शनि/रवि के चक्कर में न फँसे और तीन दिवस का अवकाश भी एक साथ मिल जाए। जिसे यहाँ लाँग वीकेंड कहा जाता है और बड़ी बेसब्री से किया जाता है। बड़ी-बड़ी योजनाएँ बनाई जाती है कि कहाँ कैसे क्या करेंगे। 


उनमें से साल का पहला लाँग वीकेंड आज वाला वीकेंड है। इसे मेमोरियल डे वीकेंड कहते हैं। आज के दिन शहीदों को याद किया जाता है। 


लेकिन जैसा कि होता है छुट्टियाँ होती है किसी और मक़सद से लेकिन हर कोई अपने हिसाब से लाभ उठाता है। 


इन दिनों मेरे लिए सारे दिन एक से हैं। कोविड न होता तो भी। मम्मी को जो आराम घर पर है वो और कहीं सम्भव नहीं हो पाता है। इसलिए जब से आई हैं, कहीं नहीं गई। 


छ: साल पहले, 23 मई 2015 को हम क्रेटर लेक गए थे। यह हमारे घर से 400 मील (650 किलोमीटर) दूर है। यानी दिल्ली से जम्मू तक। अपनी कार से आठ घंटे में पहुँच गए। भारत में यहीं दूरी तय करने में 13 घंटे लगते। 


वहाँ दो रात रूके। शनि को गए, सोम को वापस घर आ गए। 


बहुत अच्छा लगा। इतना नीला पानी और कहीं नहीं देखा। कुछ समय पहले बर्फ़ गिरी थी जो यदा-कदा दिख जाती थी। वरना मौसम बहुत सुहाना था। बर्फ़ के फ़र्श पर टी-शर्ट पहन कर चलने का अपना ही आनन्द है। 


यह झील इतनी विशाल और खूबसूरत है कि इसे देखे बिना समझा नहीं जा सकता है। 


7,700 साल पहले इसका गठन एक हिंसक विस्फोट से हुआ जिससे एक ऊंची चोटी ढह गई। वैज्ञानिक इसकी शुद्धता पर चकित हैं: बारिश और बर्फ से पोषित, यह अमेरिका की सबसे गहरी झील है। 655 मीटर। 


इस झील में सिर्फ़ आसमान से पानी आता है और आसमान को ही जाता है। और कोई निकास का रास्ता नहीं है। 


राहुल उपाध्याय । 31 मई 2021 । सिएटल 


30 मई 2021

आज का रविवारीय भ्रमण साऊथ सिएटल कॉलेज के प्रांगण में स्थित चीनी उद्यान में हुआ। 


अद्भुत सुन्दरता। सिएटल दुनिया के सारे शहरों में सर्वश्रेष्ठ शहर है। यह तो मैं जानता हूँ, और मानता हूँ। लेकिन मैं आश्चर्यचकित रह गया जो नज़ारे आज देखे उनसे। 


जिधर नज़र फेरूँ कोई कली मुस्कराती मिली, या फूल खिलखिलाता हुआ, या कोई राह बाट जोहती हुई। 


जबकि मुख्य चीनी उद्यान बंद था। वह नौ बजे खुलता है। हम तो मस्त मौला हैं । कभी किसी का इंतज़ार नहीं करते। सूर्यदेव भी निकले तो निकले। मेघ बरसे तो बरसे। तापमान गिरे तो गिरे। हम नहीं रूके कभी। जब तक कदमों तले फिसलन न हो, हमने सात से नौ, दो घंटे हमेशा भ्रमण चालू रखा। 


इस कॉलेज में एवियेशन सम्बंधित शिक्षा भी दी जाती होगी। तभी तो दो पुराने हवाई जहाज़ रखें दिख गए। 


ये बहुत ही पुराने लगे। 


मैं जिस टू-सीटर प्लेन में बैठा हूँ, उसकी कहानी इस लिंक पर पढ़ें:

https://rahul-upadhyaya.blogspot.com/2021/01/3-2021.html?m=1


इस उद्यान के पास आर्बोरिटम भी है। वह भी बहुत मनोरम जगह है। 


आज के फ़ोटो, आज के गीत के वीडियो में जोड़ दिए। मुझे उपयुक्त लगे।


https://youtu.be/av7hSYsov6s 


(वीडियो में झरने के फ़ोटो 23 मई के हैं।)


जो नहीं जोड़ा उनमें से एक इस पोस्ट के साथ है। 


राहुल उपाध्याय । 30 मई 2021 । सिएटल 




Friday, May 28, 2021

29 मई 1981

आठवीं कक्षा का बच्चा क्या जाने दस्तावेज क्या होते हैं। सम्हालना किसे कहते हैं। किस चीज़ की क्या क़ीमत होती है। याद क्या होती है। 


और हम तो तक़रीबन ख़ानाबदोश की ही ज़िन्दगी जी रहे थे। बाऊजी ने दिल्ली, ऑकलेण्ड, मेरठ, जम्मू, शिमला, कलकत्ता, जबलपुर और बैंगलोर में लॉ पढ़ाया। मैं उनके साथ मेरठ, शिमला और कलकत्ता में कुल आठ साल रहा। 


उन्होंने ही मेरा आठवीं का रिपोर्ट कार्ड सम्हाल कर रखा था। जब मैं बनारस में बी-टेक कर रहा था तभी बाऊजी जबलपुर चले गए थे। सारे काग़ज़ात वो ही ले गए थे। उनमें से मेरे रिपोर्ट कार्ड भी थे। 


मेरी तीन और प्रिय चीजें थीं। जो वो शायद जानबूझकर नहीं ले गए या उन्हें मिली नहीं। 


पहली चीज़, अदिति का संदेश, जो उसने मेरे लिए बड़े प्यार से पीले पतले नाज़ुक से काग़ज़ पर लिखा था और रोल कर के एक खूबसूरत रंगीन गत्ते की ट्यूब में डाल कर दिया था। ऊपर सुन्दर रिबन भी बांधी थी। 


कितना कुछ किया था उस पाँचवीं कक्षा की बच्ची ने मुझे हमारे फ़ेयरवेल के दिन देने के लिए। 


मुझ ग्रामीण को इन सबकी कोई समझ नहीं थी। तब जन्मदिन मनाए नहीं जाते थे। केक तो देखा तक नहीं था। उसने मुझे अपने जन्मदिन पर बुलाया था। मुझे पहुँचने में देर हो गई थी। उसने केक काटने से मना कर दिया था। सबसे कह दिया था कि जब तक राहुल नहीं आएगा केक नहीं कटेगा। इतनी छोटी उम्र में कोई कैसे ऐसी बातें कर सकता है?


फ़ेयरवेल पार्टी में उसने - इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा - पर नृत्य भी किया था। 


जन्मदिन की पार्टी में मैं क्या ले गया था मुझे कुछ याद नहीं। पर हाँ मुझे क्या मिला था, सब याद है। बहुत सारे चॉकलेट और ग़ुब्बारे। 


उसने जो फ़ेयरवेल पार्टी में संदेश लिखा था - वह था - टाईम एण्ड टाईड वेट्स फ़ॉर नो वन। 


मतलब समझ नहीं आया। उसी ने समझाया। लेकिन ठीक से समझ एक अरसे बाद आया। 


गाँधी जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि एक बार एक शिक्षक उन्हें एक परीक्षा में मदद करने की कोशिश कर रहे थे। एक अंग्रेज़ी शब्द की सही स्पेलिंग बता रहे थे। लेकिन गाँधी जी ने मना कर दिया। उन्हें यह ग़लत लगा। 


मेरे साथ उल्टा हुआ। कान्वेंट स्कूल के अंग्रेज़ी मीडियम माहौल में मैं बिलकुल निरक्षर था। प्रिंसिपल लंच के वक्त मुझे अपने ऑफिस में बुलाकर ए-बी-सी-डी सिखाती थीं। बस पूरे साल मैं इतना ही सीख पाया था। 


वार्षिक परीक्षा, हर विषय की, तीन घंटे की होती थी। अदिति बहुत स्मार्ट और सहृदय थी। परीक्षा के कमरे में हर डेस्क दूसरे डेस्क से सटी नहीं थी। अलग-अलग थी। उसकी डेस्क मेरी दायीं ओर थी। वह दिखाती भी कुछ तो मैं न तो देख पाता और न ही समझ पाता। हमने कोई बात भी नहीं की थी कि कैसे क्या होगा। 


उसने देखा कि मैं तो चुपचाप बैठा हूँ। एक अक्षर तक नहीं लिखा। उसने बिना कुछ कहे, अपनी कॉपी मेरे डेस्क पर रख दी, और मेरी ले ली। वो अपना सारा काम कर चुकी थी। अब वो मेरा काम कर रही थी। 


इसी प्रकार सारे विषय के पर्चे उसी ने दिए। यहाँ तक कि ड्राइंग में ऐपल बनाना था। उसी ने बनाया। 


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दूसरी चीज़, मेरा अपना पेंसिल से बनाया और क्रेयॉन से रंगा गुलाब का फूल, हरी पत्तियों के साथ। 


यह मैंने शिमला में बनाया था, एक ग्रीटिंग कार्ड को देख कर। 


मुझे वह गुलाब बहुत प्रिय था। मुझे लगता था मैं अब ग्रामीण नहीं रहा। अब मैं साफिस्टिकेटेड हो गया हूँ। सम्भ्रांत लोगों की श्रेणी में गिना जा सकता हूँ। 


पाँचवीं में मेरठ में हम साकेत में रहे।  101 साकेत। बड़ा सा घर। शावर से नहाना। कॉन्वेंट में पढ़ना। बालों को शैम्पू से धोना। स्कूल से ट्रिप पर दिल्ली का चिड़ियाघर देख आना। प्रगति मैदान में एशिया 72 की प्रदर्शनी में खुद को पहली बार टीवी पर देखना। 


इनमें और सैलाना के जीवन में ज़मीन-आसमान का अंतर था। समझो विदेश ही आ गया था। 


लेकिन शिमला तो इससे भी दस कदम आगे था। हमारा घर था गिडियन्स कॉटेज। सन 1975 की बात है यह। समरहिल स्टेशन से लगा हुआ था यह कॉटेज। शाम को जतोग की पहाड़ियों के पीछे सूरज डूबता हुआ बहुत सुन्दर लगता था। और घर के चारों ओर सुन्दर गुलाब के ख़ुशबूदार फूल खिलते थे। हम किराए से थे। मकान मालिक कोई अंग्रेज़ थे जिनका अलग से आवास था। बहुत ही सज्जन व्यक्ति।


तभी लग गया था कि हाँ जीवन बदल रहा है। सुविधाएँ सिर्फ़ पढ़ने की चीज़ें नहीं हैं। अब महसूस की जा सकती हैं। सैलाना में बहुत गर्मी होने पर डंडी पर क़ुल्फ़ी खाई जाती थी। यहाँ बारह महीने सॉफ्टी खाई जाती है - वह भी शुगर कोन में। आईसक्रीम तो खाओ तो खाओ, कोन भी चबा जाओ। 


रोज़ स्कूल से घर ट्रेन से आना। 


बिलकुल जन्नत की ज़िंदगी थी शिमला की ज़िंदगी। 


—-*—-*—-


तीसरी चीज़ थी, प्रेम पत्र, जिसमें संजुक्ता ने पहली बार आई लव यू लिखा। और एक बार नहीं, सौ बार लिखा होगा। कई तरह से लिखा था। आड़ा-तिरछा। गोल। काग़ज़ के ऊपर। नीचे। दायीं ओर। बायीं ओर। इस रंग से। उस रंग से। 


1979 की बात थी। मैं एक पारिवारिक मित्र के साथ उसकी बहन की शादी में उड़ीसा गया। आठ दिन रूका। कुछ पता नहीं चला वो आठ दिन कैसे गुजरे। 


एक तरफ़ तो मलाल कि वे बड़ी जल्दी गुज़र गए। दूसरी तरफ़ आश्चर्य कि इतने कम समय में इतनी दोस्ती कैसे हो गई? 


शायद उम्र ही कुछ ऐसी थी। मैं नवम्बर में 16 का होने वाला था। वह जनवरी में पन्द्रह की हो चुकी थी। वह दो चोटी बांधकर केन्द्रीय विद्यालय की यूनिफार्म पहन स्कूल जाती। मैं उसे छत से हाथ हिलाकर बाय बोलता। स्कूल से आते ही वह दौड़ कर अपनी छत पर आती। उसकी छत मेरे कमरे की खिड़की के पास दो-चार कदम की दूरी पर थी। वह रिकार्ड प्लेयर पर गाना लगा कर आती - बहुत शुक्रिया, बड़ी मेहरबानी, मेरी ज़िन्दगी में हुज़ूर आप आए। 


वह गाना आज भी जब बजता है तो दर्द भी होता है, ख़ुशी भी होती है। मन करता है यह गाना बजता ही जाए। कई बार घंटो तक इसे रिपीट पर सुना है। 


शादी में वह इतना सज-धज के आई कि मेरे तो होश ही उड़ गए। वहाँ कोई बात नहीं हुई। सारी बातें खिड़की से छत पर ही हुईं। 


वापस आने पर मैंने ख़त लिखा। पता तो मेरे पास था ही। वह अंग्रेज़ी में लिखती थी। बहुत सुन्दर लिखती थी। 


तीन साल बाद मैं बनारस चला आया। बनारस जाने से कुछ महीने पहले सैलाना में शादी थी। मम्मी और मैं पहले गए। बाऊजी बाद में आए। वे जब आए तो साथ में डाक भी लाए। डाक में एक लिफ़ाफ़ा मेरे लिए था। संजुक्ता का। बाऊजी ने उसे खोल लिया था। खोला तो पढ़ भी लिया होगा। 


उन्होंने कभी इसके बारे में बात नहीं की। न ही उन्होंने मुझे कभी डाँटा या मारा। 


उसी ख़त में उसने पहली बार आई लव यू लिखा था। उसे मैं बनारस जाते वक्त कलकत्ता में ही छोड़ गया था। 


राहुल उपाध्याय । 28 मई 2021 । सिएटल 




Thursday, May 27, 2021

अभिलाष और निष्ठा

अभिलाष ने फ़िल्मों के लिए बहुत कम लिखा है। उनका एक गीत बहुत प्रसिद्ध हुआ - इतनी शक्ति हमें देना दाता मन का विश्वास कमज़ोर हो ना


https://youtu.be/MGMNh5NyDFE


गीत जितना प्रसिद्ध हुआ उतने गीतकार नहीं। संगीतकार कुलदीप सिंह भी गुमनाम ही हैं। 


इसे दिल्ली के एक स्कूल में सुबह की प्रार्थना के रूप में गाया जाता था। मैं जब भी दिल्ली जाता बाऊजी के पास, पास के स्कूल से बच्चों के द्वारा गाते हुए सुनाई दे जाता था। 


यह स्कूल दिव्यांग बच्चों के लिए था। मेरा बड़ा बेटा प्रेरक तब गर्मी की छुट्टियों में वहाँ मदद करने जाता था। तब मैंने उन बच्चों को क़रीब से देखा। 


एक लड़की मिली। निष्ठा। उससे मैं बहुत प्रभावित हुआ। मिला नौ जुलाई को था। रचना 6 अगस्त को लिखी। 


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बड़े दिनों से

हम

एक दूसरे को 

ई-मेल्स लिख रहे हैं

और एक-दूसरे को

जानने-पहचानने

समझने-बूझने

और

रूठने-मनाने

लगे हैं


तुम्हारी

स्माईलिस,

खास ईमोटिकॉन्स,

एक्सक्लेमेशन्स,

और एक्स्ट्रा डॉट्स

इन सबसे तुम्हारा

प्यार छलकता है

एक छवि उभरती है


लेकिन 

मैं चाहता हूँ

कि तुम मुझे एक ख़त लिखो

वही पुराने ज़माने वाला

कलम और कागज़ वाला


मैं जानना चाहता हूँ

कि तुम्हारे हाथों की लिखावट कैसी होगी?

कहते हैं कि हैंडराइटिंग से 

व्यक्ति का व्यक्तित्व भी छलकता है


मैं भी तो देखूँ

कि तुम्हारी पर्सनालिटी कैसी है?


(और एक बात और

जो मैंने उसे बताई नहीं 

कि

सुना है

कि लड़कियाँ अक्सर ऐसे ख़तों में

दिल, तीर, तितलियाँ, फूल, सितारें आदि

बनाती हैं

मैं देखना चाहता था कि

वो मेरे लिये क्या बनाएगी?

क्या सब एक ही रंग की स्याही में लिखेगी?

या कुछ लाल होगा, कुछ हरा, कुछ नीला?

क्या कुछ हाशिए में भी लिखेगी?

हिंदी में लिखेगी? कि अंग्रेज़ी में?)


दो दिन बाद ख़त आया

दिल की धड़कन थाम के

मैंने सब से आँख बचाकर उसे खोला

और पाया एक पन्ना

बिल्कुल कोरा


और फिर

एक और पन्ना

जिस पर बहुत ही खूबसूरत हैंडराइटिंग में लिखा था

देख ली मेरी हैंडराइटिंग?

मेरे हाथ नहीं है

जो तुम पढ़ रहे हो 

वो लिखावट मेरे पैर की है

अंगूठों में कलम दबा कर

लिखती हूँ मैं

कैसी लगी?

हाँ और ये भी बताना कि मेरी पर्सनालिटी कैसी है


राहुल उपाध्याय । 6 अगस्त 2013 । दिल्ली 

===

https://mere--words.blogspot.com/2013/08/blog-post_5.html?m=1


राहुल उपाध्याय । 27 मई 2021 । सिएटल 

Wednesday, May 26, 2021

36 में से 36

36 में से 36! 


जी नहीं, ऐसा मेरा सौभाग्य कहाँ कि मुझे सौ प्रतिशत अंक मिले। और न ही ये गुण हैं जो पत्रिका मिलान में मिले। 


यह थी मेरी शिमला के केंद्रीय विद्यालय में पढ़ी आठवीं कक्षा की रेंक। 36 छात्रों में से मैं सबसे आख़री पादान पर था। 


था तो था, पर इसे रिपोर्ट कार्ड में साफ़-साफ़ लिखने की क्या आवश्यकता थी? 


लिख तो दिया। लेकिन मुझ बावले को, रतलाम के जैन स्कूल से पढ़े को कोई हवा नहीं थी कि इसका क्या अर्थ होता है। त्रैमासिक सत्र क्या होते हैं? होमवर्क क्या होता है?


कोई और होता तो बाऊजी को दिखाने से पहले दस बार सोचता। मैंने थमा दिया। उन्होंने दस्तखत कर दिए। 


बात ख़त्म। कोई हंगामा नहीं। कोई ड्रामा नहीं। कोई डाँट नहीं। कोई भाषण नहीं। 


जीवन पूर्ववत चलता रहा। 


मैं, अर्चना और हमारा दो घंटे पैदल चल कर स्कूल जाना चलता रहा। 


मैं हर विषय में फेल था। हर विषय के आगे मेरे अंकों को लाल गोले से हाईलाइट किया गया था। 


यह रहे टेस्ट के अंक। हर टेस्ट 70 अंक का है। 


अंग्रेज़ी - शून्य

हिन्दी - पाँच 

संस्कृत - शून्य 

गणित - पन्द्रह 

विज्ञान - तीन

सामाजिक अध्ययन - अनुपस्थित 


यह रहे होमवर्क के अंक। होमवर्क 30 अंक का है। 


अंग्रेज़ी - चौदह

हिन्दी - पाँच 

संस्कृत - छ:

गणित - तेरह

विज्ञान - दस

सामाजिक अध्ययन - शून्य 


कुल 600 में से 71 हासिल किए थे मैंने। 


अध्यापक ने लिखा था: वेरी वीक। मस्ट वर्क वेरी हार्ड। 


दूसरे सत्र में 36 में से 35 रेंक थी। न जाने वो 36 वीं पादान वाला आज किस देश में होगा। 


अध्यापक ने लिखा था: नो इम्प्रूवमेन्ट व्हाटसेवर।  पुट इन रियल हार्ड वर्क। 


इस बार भाई साहब ने दस्तखत किए। बाऊजी शहर से बाहर गए होंगे। 


उस सत्र के बाद कभी रेंक नहीं लिखी गई। न उस साल, न किसी ओर साल। न पहले, न बाद में। 


इसे महज़ संयोग समझूँ या कुछ और?


आठवीं पर रोका नहीं। वार्षिक परीक्षा आते-आते शायद कुछ सुधार हो गया। मात्र दो अंक रह गए थे पास होने में। सो दान में मिल गए। 


नवीं कलकत्ता के केंद्रीय विद्यालय (फ़ोर्ट विलियम्स) से की। वहाँ भी यही हाल रहा। वार्षिक परीक्षा में गणित और अंग्रेज़ी में पूरक आई। 


गर्मी की छुट्टियों में बाऊजी ने अपने एक एल-एल-एम के छात्र, और हमारे पारिवारिक मित्र, शम्भु दा से कहा कि मुझे गणित पढ़ा दें। 


यह बहुत बेतुकी बात है। गणित का विधि से क्या लेना-देना?


लेकिन बाद में समझ आया कि शम्भु दा से बढ़िया और कोई शिक्षक नहीं हो सकता था। पहली बात तो वे परिवार के मित्र थे सो कोई झिझक नहीं थी। दूसरा वे अच्छी तरह से समझ जाते थे कि मुझे क्या कठिनाई हो रही है, क्यों हल करने का कोई तरीक़ा आसानी से समझ नहीं आ रहा है। 


गणित में तो बेड़ा पार हो गया। अंग्रेज़ी में चूक गया। मुझे याद है मैं अकेला कक्षा में बैठा था। और मुझे लिखना था कोई यात्रा वृतांत। अंग्रेज़ी में। मैं वैष्णोदेवी की यात्रा के बारे में लिखने लगा। दो साल पहले बाऊजी जम्मू विश्वविद्यालय में लॉ पढ़ा रहे थे। तब हम सब गए थे। जम्मू से कटरा बस से। कटरा से अधक्वारी तक की पैदल चढ़ाई। फिर वैष्णोदेवी तक का उतार। ठंडे पानी में आधी रात को खुले में नहाना। संकुचित गुफ़ा में बमुश्किल दर्शन करना। सब तब भी और आज भी अच्छी तरह याद था।  


दिक़्क़त थी अंग्रेज़ी की। पैदल चलने की अंग्रेज़ी क्या होगी? मुझे याद है मैंने 'लेग' शब्द का इस्तेमाल किया था। जो कि आज हास्यास्पद लगता है। 


ख़ैर, साल दोहराना पड़ा। अंग्रेज़ी की अध्यापिका, मिस सान्याल, से मैं बहुत नाराज़ रहा। मुझे फूटी आँख नहीं सुहाई। सब लोग उन्हें 'काली माई' कहते थे। मुझे अच्छा लगता था कि सही नाम दिया है। 


नई अध्यापिका, मिस चन्द्रा, उनसे बिलकुल विपरीत। जितनी सुन्दर, उतना मधुर व्यवहार। या जितना मधुर व्यवहार, उतनी सुन्दर। तय करना मुश्किल कि वे ज़्यादा अच्छी हैं, या ज़्यादा सुन्दर। या कि वे अच्छी हैं, इसलिए सुन्दर हैं। गोल चेहरा। कान में सुन्दर सोने की बालियाँ। लटकने वाली। 


उन्होंने मुझे अंग्रेज़ी सीखने का आसान तरीक़ा बताया। वे बातों-बातों में जान गईं कि मुझे फ़िल्में पसन्द हैं। उन्होंने कहा कि तुम फ़िल्मों की कहानियाँ अंग्रेज़ी में लिखा करो। बस अंग्रेज़ी लिखना आसान हो जाएगा। 


उन दिनों ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को फाँसी दी गई थी। मुझे उस घटना ने बहुत प्रभावित किया। मैंने भुट्टो और 'आनन्द' की कहानी जोड़ दी। जो कहानी बनी उसमें अंत में बड़े ही नाटकीय अंदाज़ में भुट्टो को फाँसी लगते ही, दूर किसी गाँव में नवजात शिशु का आगमन उसके रोने की आवाज़ से हुआ। 


चन्द्रा मैडम बहुत भाव-विभोर हुई। बहुत शाबाशी दी। 


अमेरिका आने के बाद भी मैं उनसे संपर्क में रहा पत्राचार द्वारा। 


फिर टूट गया। 


उसके बाद कभी किसी विषय में फेल नहीं हुआ। 


राहुल उपाध्याय । 26 मई 2021 । सिएटल 



Monday, May 24, 2021

23 मई 2021

अब जब टीकाकृत लोगों को मास्क लगाना अनिवार्य नहीं है, अधिकृत रूप से हमारा सामूहिक प्रात: भ्रमण पिछले रविवार से शुरू हो गया है। उस दिन भी हम सिर्फ तीन ही जुड़ पाए थे। आज फिर से शोभित और मैं ही थे। एक बार कोई आदत छूट जाए तो दोबारा पकड़ने में समय तो लगता है। 


घर से तीस किलोमीटर दूर पर ही एक बहुत ही रमणीक स्थल है - स्नोक्वाल्मी प्रपात। ये यहाँ का खास आकर्षण है। यहाँ हम पहले जा चुके हैं। प्रयास रहता है कि नई जगह का आनंद लिया जाए। 


सो इससे पाँच मील दूर स्नोक्वाल्मी नदी के समीप स्थित एक पार्क को चुना। नदी का पाट बहुत ही चौड़ा था। छोटी-छोटी शाखाएँ इधर-उधर बह रही थीं। कितना अजीब था यह सोचना कि इन्हें पता नहीं है कि बस थोड़ी देर और, और ये गिरेंगी धड़ाम से!


पास ही एक पुल था जो कि कहीं से आ नहीं रहा था। हाँ, जा जरूर रहा था। किधर? पता नहीं। चलने लगा तो पता लगा यह एक गोल्फ कोर्स की ओर जा रहा है। बहुत ही सुहावना मौसम था और हरियाली, नदी और साई पर्वत मन मोह रहे थे। 


पुल तक का रास्ता चलने लायक नहीं था सो कार से गए। रास्ते में तीन हिरण भटके हुए नजर आए। ऐसा अक्सर होता है। कई बार गाड़ी तेज़     रफ्तार में हो तो बड़ा हादसा हो जाता है। 


फिर प्रपात को नज़रअंदाज़ करना भी बेईमानी लग रहा था। सोचेगा इतनी दूर आएँ और दुआ-सलाम भी नहीं की। सो फटाफट फ़ोटो-वीडियो लेकर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई। 


राहुल उपाध्याय | 23 मई 2021 | सिएटल 






Wednesday, May 12, 2021

My life

May 2020,  I published this article on LinkedIn to celebrate Asian Pacific Heritage Month at Microsoft. 


https://www.linkedin.com/pulse/bringing-all-me-i-do-rahul-upadhyaya


My unedited entry was much longer. You can read this here:


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Do what you love. And love what you do. 

 

This may sound a cliché. And not many people may be lucky enough to have the luxury of fulfilling this aphorism. 

 

However, at Microsoft, I have been able to live this dream.

 

There comes a time in everyone's life when they have been able to achieve everything that they had planned to achieve when they started their journey. However, do we all see it that way? The answer varies widely. 

 

For some, if we have achieved everything, what's the point of waking up tomorrow. For others, one should aim so high that it is effectively impossible to achieve. And for some others, goals are moving targets. 

 

To each his own. For me, achieving financial freedom was first and foremost goal. 

 

I grew up dirt poor in a remote village in India's central state, Madhya Pradesh on tropic of cancer. Inhabited with about 150 homes built with clay, mud and cow dung. With thatched roof on top. Primary modes of livelihood is agriculture and raising cattle for dairy products.

 

There were no schools. No doctors. Just a temple, a post office, and a bus stop. Buses would run every hour from dawn to dusk. They would take you to a nearest train station, Ratlam, 12 miles away, which can connect you to the rest of the world. 

 

This 12-mile journey would take an hour. And the town and the village were almost a world apart in terms of opportunity and a path to grow and succeed. 

 

I had seen poverty firsthand. I was born at home, since there was no hospital and no doctor in the village.

 

We had no running water at home. No electricity. No bathroom. We took care of our daily chores at a stream flowing nearby filled with water from a dam nearby. 

 

Having grown so poor, I knew value of money. Money that can provide for basic needs. Not for luxuries. I did not see a piece of furniture until I spent summer holidays with my uncle who was a railway station master. Government had provided him a furnished house built with bricks and concrete. I loved the chairs so much that I would combine the two chairs and use it like a bed to sleep in the space I had created. 

 

Furniture was not part of my basic needs. It was just food, shelter and clothing. Even a chair would be a luxury.

 

With that goal in mind, I wanted a decent education that can give me a decent job with decent salary to pay for my basic needs.

 

However, coming from a village, I was not fluent in English. I failed in 9th grade in English, and Math, which was taught in English. 

 

This was a huge setback. I had to repeat the grade. Loss of a year. On other hand, there were bright kids skipping grades. 

 

However, this failure turned out to be a blessing. Now, I was determined to learn. Not just pass the grade. But know the stuff. 

 

This opened up a whole new world to me. Synergy of desire to learn, made me learn more and more. 

 

Before you know, I had graduated from Indian Institute of Technology, Varanasi, finished MBA from University of Cincinnati in US with full scholarship, and had been offered to teach at Franklin College Indiana, as an Assistant Professor of Computer Science. 

 

I worked at various companies for 14 years before moving to Seattle to work for Microsoft. Within 3 years, I bought a home, mortgage free. 

 

I had achieved financial freedom. 

 

I was free to explore the world. I worked at a startup in Bellevue and ended up working at Microsoft again. 

 

I realized Microsoft is so vast with a variety of roles in a variety of organizations that one can choose to do what you love, and love what you do. 

 

I have been fortunate that leaders in my organization have always found a project or a role that was a good match for my skill set and passion. Reorgs after reorgs, I have found myself in yet another engaging work, that is rewarding and fulfilling. 

 

I have been heavily influenced by the simple lifestyle of my Grandfather, father and Mahatma Gandhi. From them I learned how to focus on basics, be frugal and how to stand up for your own beliefs. 

 

For example, we had one family rule. We never ate at a restaurant unless we were traveling. All the places I have lived, I never went out to eat. Mumbai, Kolkata, Delhi, Varanasi, Meerut. Homemade food is always much healthier and tasty. It also leads to financial independence. 

 

I love cooking. I watched how my mother would prepare food and picked up on it. We are from the tristate area in Madhya Pradesh, very close to the Rajasthan and Gujarat borders. So our cuisine has heavy influences of Gujarati and Rajasthani cuisines. It's spicy, with garlic and onion. Plus we love to add savory world famous Ratlami Senv as part of the meal. It's nothing but chickpea flour blended with salt, cloves, black pepper, asafetida and made into a paste. Which is then passed through a sieve and deep fried like French fries. But these are much thinner. 

 

I make my own food in the morning and bring it to work. I never bought lunch at the cafe. 

 

No one in our family smoked. Or used alcohol. Or ate non-vegetarian. Till today, I am same. In addition to saving me from bad health, I have developed a strong character. 

 

Everyone in my family was concerned whether I would start doing drugs once I left home and joined IIT, Varanasi. 

 

They were glad to know that not only did I not do drugs, I did not even drink a cup of tea or coffee, which is kind of free flowing at hostels so that students can stay up late cramming for exams. 

 

Even at work here in Redmond, I don't drink any beverage. Except for plain water. I don't need any caffeine to keep me going. People wonder how you kick start your day. I am wide awake when I wake up. I also sleep like a log, within a few moments of hitting the pillow. I can sleep in any bed. I have no concerns about firm or soft or whatever.

 

I love walking. My grandfather used to walk 18 kilometers from one village to another when there was no other transportation available. 

 

I picked up this habit from him. I walked to work every day when I lived in Sammamish. A distance of 6.2 miles. And then I walked back home in the evening. A total of 12.4 miles. It used to take me 2 hours each way. I had all the time in the world to do this.  If you have the right priorities you can squeeze in any activity in your lifestyle. 

 

 

29 मई 2020

मई का महीना अमेरिका में एशिया से आए प्रवासियों के योगदान के लिए उनके अभिनन्दन के रूप मेंमनाया जाता है। 


माइक्रोसॉफ़्ट में एशिया से जुड़े कई कर्मचारी हैं। सबसे कहा गया कि जो चाहे अपनी बातें साझा करसकते हैं। उनमें से कुछ की बातेंमेरी भीबुधवार, 27 मईको पूरी कम्पनी के साथ साझा की गईं।


मेरे जीवन के बारे में जो मैंने अंग्रेज़ी में लिखाउसे यहाँ हिन्दी में दे रहा हूँ। 

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काम वही करो जिसमें दिल लगे। 


यह कहना बहुत आसान है। मगर करना बहुत मुश्किल। कई लोग ऐसी नौकरी कर रहे हैं जहाँ उनकादिल नहीं है। मजबूरी में कर रहे हैं। किसी आर्थिक संकट या ज़रूरत की वजह से। या कोई औरकारण। 


हर एक के जीवन में ऐसा पड़ाव आता है जब उसे लगता है कि उसने वह सब कुछ पा लिया जो वहपाना चाहता था। 


लेकिन सब उस पड़ाव को उस तरह से नहीं देखते हैं। 


कुछ को लगता हैयदि सब कुछ पा लिया तो अब जीवन जीने में क्या रखा है?


कुछ को लगता है चाहत इतनी बड़ी होनी चाहिए कि कभी पाई  जा सके। 


कुछ की चाहत रोज़ बदलती रहती है। आज नौकरी चाहिए। कल प्रोमोशन। फिर सी--ओ। फिरघर। फिर गाड़ी। फिर एक-दो और घर। 


सबकी अपनी मर्ज़ी। 


मेरे लिए आर्थिक स्वतंत्रता सबसे ज़्यादा ज़रूरी थी। 


मैं ज़िन्दगी के उस पड़ाव पर हूँजहाँ पिछले नौ वर्ष से वही कर रहा हूँ जो मेरा दिल कहता है।धनोपार्जन के लिए नहीं। 


मेरा जन्म मध्यप्रदेश में कर्क रेखा पर से गुज़रते हुए एक छोटे से गाँव शिवगढ़ (जिला - रतलाममेंघर पर हुआ। बहुत ही ग़रीब परिवेश में।  कोई डॉक्टर।  कोई अस्पताल।  कोई स्कूल। था तोसिर्फ एक पोस्ट ऑफ़िस। एक मंदिर। एक  बस स्टॉप। जहाँ से सूर्योदय से सूर्यास्त तक प्रति घण्टाबस चलती थी रतलाम के लिए। 


घर में  बिजली थी नल था बाथरूम। सुबह लोटा लेकर जंगल जाते थे। 


लोग या तो खेती करते थे या गाय चराते थे। 


ग़रीबी को इतनी क़रीबी से देखा कि उदाहरण देना भी मुश्किल। 


माँ नंगे पाँव बावड़ी से तीन घड़े सर पर रख कर पीने का पानी लातीं थीं। 


हम बाँध से छोड़े गए पानी में नहाते थेकपड़े धोते थे। 


पहनने को जूते-चप्पल कुछ नहीं थे। 


ऐसे हालात में मैंने पैंसे की कमी महसूस की। यह भी अहसास हुआ कि पैसा कमाना भी कठिन है औरउसे बचाकर रखना भी। 


मैंने सोच लिया बड़ा होकर मुझे अपने पैरों पर खड़ा होना है। माता-पिता पर भार नहीं बनना है। 


पैसा कमाना है रोटी-कपड़ा-मकान के लिए। भोग-विलासिता के लिए नहीं। 


फ़र्नीचर क्या होता है यह मुझे पता नहीं था। कुर्सी  तक कभी देखी नहीं। हम सब नीचे चटाई बिछाकर बैठते थे। घर कच्ची मिट्टी का था। गोबर से लीपा जाता था। 


रात को गद्दे बिछाकर वहीं नीचे सो जाया करते थे। कोई पलंग नहीं था। कोई रेडियो नहीं था। एकचाबी घुमाकर चलने वाली अलार्म घड़ी थी। 


गर्मी की छुट्टी में रूनखेड़ा गया। वहाँ मेरे मामा रेलवे स्टेशन मास्टर थे। पहली बार पक्का घर देखा।कुर्सियाँ देखीं। दो कुर्सी जोड़कर मैं उस पर सो जाता था और किसी महाराजा से कम नहीं समझताथा खुद को। 


तब समझ आया कि मेहनत लगाकर पढ़ाई कर लूँ तो एक अच्छे वेतन वाली नौकरी मिल सकती है। 


क़िस्मत मुझे कलकत्ता ले गई। जहाँ के केन्द्रीय विद्यालय में नवीं कक्षा में मैं अंग्रेज़ी और गणित मेंफ़ेल हो गया। कारण अंग्रेज़ी  आना। रतलाम में तब -बी-सी-डी भी पहली बार छठी कक्षा मेंसीखाई जाती थी। आठवीं तक टूटी फूटी अंग्रेज़ी समझ  पाती थी। पूरी गणित अंग्रेज़ी में कैसेसमझताअंग्रेज़ी में निबन्ध कैसे लिखताकविताओं की व्याख्या कैसे करता?


एक साल बिगड़ा। सब आगे निकल गए। शर्मसार हुआ सो अलग। 


दूसरे साल गणित और अंग्रेज़ी के नए शिक्षक मिले। मैं भी अब मुखर हो चुका था। जो समझ  आएपूछ लेता था। उन्होंने धैर्य से मुझे समझाया। 


इस एक झटके की वजह से मुझे नया जीवन मिल गया। मैंने आय-आय-टी से बी-टेक की औरअमेरिका आकर पूर्ण छात्रवृत्ती के साथ एम-बी- किया। 


पहली नौकरी कम्प्यूटर साईंस के सहायक प्रोफेसर की की जबकि कम्प्यूटर साईंस की डिग्री नहींथी। 


14 वर्ष तक विभिन्न संस्थाओं में काम करने के बाद 2004 में माइक्रोसॉफ़्ट में काम शुरू किया। 


तीन साल बाद घर ख़रीदा। बिना किसी लोन के। सर पर एक पैसे का भी क़र्ज़ नहीं। 


मुझे आर्थिक स्वतंत्रता मिल गई थी। 


मैंने नौकरी छोड़ दी। डेढ़ साल काम नहीं किया। 


फिर सोचा काम करूँगा तो मन का। 


एक छोटी कम्पनी में नौकरी की। माइक्रोसॉफ़्ट ने फिर बुला लिया। तब से माइक्रोसॉफ़्ट में हूँ। 


यहाँ भी जब भी कम्पनी के कर्णधारों को लगा कि इस काम में मेरा मन लगेगाउन्होंने वह काम मुझेदिया और मैंने ख़ुशी-ख़ुशी किया। 


मैं दादाबाऊजीऔर गांधी जी के सादे जीवन से बहुत प्रेरित हूँ। उनसे मैंने सीखा कि ज़माना चाहेजो कहे या करेअपने सिद्धांतों पर अडिग रहो। 


जैसे कि हम रेस्टोरेंट में खाने तभी जाते हैं जब शहर से बाहर यात्रा पर हो। हम जिस भी शहर में रहेंबाहर खाना खाने नहीं गए। मेरठदिल्लीकलकत्ताजम्मूजबलपुरशिमला। 


यहाँ काम पर भी मैं कैंटीन का खाना नहीं खाता हूँ। अपना लंच घर से लेकर जाता हूँ। 


शरीर भी स्वस्थ रहता है। धन भी बचता है। 


जब मैं बनारस पढ़ने गयामेरे चाचा को डर था कि मैं वहाँ चरसी बन जाऊँगा। सब को राहत हुई जबजाना कि मैंने चाय तक नहीं पी। मैं आज भी पानी के अलावा कुछ नहीं पीता। 


हमारे परिवार में किसी ने नशा नहीं किया। सिगरेट नहीं पी। शाकाहारी रहें। 


मैंने भी यही किया। 


शरीर भी स्वस्थ रहता है। धन भी बचता है। 


दादा के ज़माने में साईकल भी नहीं थी। सो उन्होंने सीखी नहीं। जब बाऊजी 18 किलोमीटर दूरसैलाना में पढ़ रहे थेदादा उनसे मिलने पैदल ही चले जाते थे यदि किसी कारणवश बस नहीं चलरही हो तो। 


बाऊजी जब भी किसी नये शहर में जातेपैदल ही घूमने निकल जाते शहर को जानने-समझने केलिए। 


फिर जब मैं शिमला में था तो हमारे घर से स्कूल पाँच मील दूर था। और वो भी पहाड़ी रास्तों पर।जाते वक़्त पैदल जाने के अलावा कोई साधन  था। आते वक़्त ट्रेन मिल जाती थी। 


तब से पैदल चलने का शौक़ है। सिएटल में दफ़्तर से घर दस किलोमीटर दूर था। मैं रोज़ पैदलदफ़्तर आता जाता था। दो घण्टे जाने में। दो आने में। 


यदि लगन हो तो समय भी निकल आता है। 


राहुल उपाध्याय  29 मई 2020  सिएटल