Friday, October 27, 2023

अच्छा साहित्य

अच्छा साहित्य वही होता है जिसमें अविश्वसनीय बातें भी विश्वसनीय लगती हैं। तब ही वह कालजयी बनता है। 'दीवार' हमें विश्वसनीय लगती है, मनमोहन देसाई की अमर-अकबर-एंथोनी टाइप नहीं कि अस्पताल में चार पलंग लगे हैं और तीन इंसानों से खून निकल कर सीधे चौथे इंसान में जा रहा है। जबकि 'दीवार' भी एक काल्पनिक कहानी ही है एक यूनियन लीडर की जो एक फ़ोटो देखकर डर जाता है। घर छोड़ देता है। दो बेटों में से एक पुलिस अफ़सर और दूसरा स्मगलर बन जाता है। और सारे पुलिस विभाग में सिर्फ़ एक भाई ही है जो भाई को गिरफ़्तार करेगा। और वह भाई भी 786 संख्या के बिल्ले की वजह से एक बार बच जाता है। बिल्ला न हुआ बुलेट प्रूफ़ जैकेट हो गया। 


आनन्द जिसे देखकर हर कोई रो पड़ता है वह भी गौर से देखें तो एक काल्पनिक कहानी ही है। कोई भी इंसान बिना अपने आगे-पीछे के नहीं होता। न बाबू मोशाय का कोई है। न आनन्द का। वाह! 


इसी तरह रामचरितमानस भी अच्छा साहित्य है। ज़्यादा दिमाग़ लगाने की ज़रूरत नहीं है कि कब, कौन, कहाँ, कैसे पैदा हुआ, कब मिला, कब बिछुड़ा, कब किस किस से क्या बात हुई। मनमोहन देसाई कहते थे कि सिनेमा देखना है तो दिमाग़ घर पर रख कर आईए। 


रामचरितमानस में इतने प्रसंग ऐसे हैं कि न सर है, न पैर। कभी राम लाचार हैं तो कभी सारे संसार के स्वामी हैं। अब हर साल नए-नए कथावाचक उभर कर आ जाते हैं जो हर तर्क को काटने को तैयार रहते हैं। कहते हैं राम नहीं चाहते कि सब कुछ वे करें। वे हनुमान का भी नाम रोशन करना चाहते हैं। लक्ष्मण का भी। सबका। यह कोई वन-मैन शो नहीं है। लेकिन अंततः नाम तो रामचरितमानस ही है। 


खैर। अब समुद्र पार करने का ही प्रसंग ले लीजिए। पहले तो विभीषण की बात मान कर प्रार्थना की समुद्र से। कुछ असर नहीं हुआ तो बाण द्वारा समुद्र सोख रहे थे। ये कैसे सम्भव है? क्या यह कोई साधारण मानव है जो समुद्र सोख सकता है। समुद्र से बात करता है? ऐसा इंसान यदि वनवास सहर्ष स्वीकार करता है तो कौनसा बड़ा काम कर रहा है। वह तो उसके बाएँ हाथ का खेल है। और वह तो जानता ही है कि उसका जन्म ही रावण का वध करने के लिए हुआ है। वह तो चाहेगा ही कि उसे वनवास मिले। 


और अब तक तो वानर और रीछ इंसान की भाँति चल-बोल रहे थे, विवाह रचा रहे थे। अब समुद्र भी चलने-बोलने लगा। और माना कि नल और नील बचपन में शरारती थे और वे हर चीज़ को पानी में डाल देते थे जिससे उनके माता-पिता परेशान थे कि चीजें मिलती ही नहीं थी। तब उन्हें श्राप मिला था कि जो भी फेंकेंगे तैरेगा, डूबेगा नहीं। तो ठीक है पत्थर तैरेंगे। पर जुड़े कैसे रहेंगे? रस्सी से बांधा उन्हें? सीमेंट लगाई? ऐसे ही पुल बन गया?


जटायु पक्षी हैं लेकिन बात करते हैं। बता देते हैं कि रावण ने सीता का अपहरण कर लिया है। पर नहीं, राम अभी हनुमान-सुग्रीव से मिलेंगे। (जैसा कि फ़िल्मों में होता है। क्लाईमेक्स तक हीरो विलैन को नहीं मारता है चाहे कितने ही मौक़े क्यों न मिल जाए) बालि का वध करेंगे। वह भी छुप कर। क्योंकि बालि को वरदान है कि प्रतिद्वंद्वी की आधी शक्ति उसे मिल जाएगी। उसके बाद भी चतुर्मास में आराम करेंगे। रावण से युद्ध तब तक नहीं हो सकता जब तक देवता सो रहे हों। 


सीता को मुक्त कराने की कोई जल्दी नहीं है। क्योंकि असली सीता तो अग्नि में छुपी बैठी हैं। जिसे अपहृत किया गया है वह तो सीता की प्रतिमूर्ति है। कम प्रबुद्ध पाठक नाहक परेशान होते हैं कि उन्हें सीता की कोई परवाह नहीं है। और अग्निपरीक्षा भी एक चाल थी असली सीता को आग से बाहर निकालने की। वे असली सीता को आग में नहीं धकेल रहे थे। वे तो दुनिया की आँख में धूल झोंक रहे थे। आई बात समझ में? यह सब लक्ष्मण को भी पता नहीं था। 


वनवास लेते समय शस्त्र साथ लेकर क्यों चले? कितने बाण लेकर चलें? एक धनुष कितने साल चल जाता होगा? और सारे आभूषण उतार दिए या कुछ रह गए? तो फिर केवट को देने के लिए अँगूठी कहाँ से आ गई? बाद में राम के पास एक और अँगूठी कहाँ से आ गई जो उन्होंने हनुमान जी को दी सीता की पुष्टि के लिए। और जब सीता सब अयोध्या में उतार ही चुकी थी तो अपहरण के वक्त पुष्पक से फेंकने के लिए गहने कहाँ से आए? और इतने गहने फेंक देने के बाद चूड़ामणि कैसे बच गया जो उन्होंने हनुमान जी को अशोक वन में दिया अपनी पहचान के रूप में राम के लिए?


जब लक्ष्मण मूर्छित हो जाते हैं तब राम काम नहीं आते हैं। पहले वैद्य सुषेण चाहिए। फिर संजीवनी। और वह भी सूर्योदय से पहले। और ऐसे में ही सौ बाधाएँ आती हैं। पहले कालनेमि से जान छुड़ाओ। फिर संजीवनी पहचानो। फिर पूरा पहाड़ ही उठा लो। अब समस्या यह कि रास्ते में अयोध्या पड़ता है। भरत हनुमान जी को दानव समझ लेते है। इतना बड़ा पहाड़ आख़िर कौन उड़ा को ले जा सकता है। उन्हें तीर मारते हैं। अब हनुमान धरा पर घायल बैठे हैं। उधर समय निकला जा रहा है। सोचिए अंजनी पुत्र इतने शक्तिशाली होते हुए सुग्रीव को बालि से नहीं बचा पाते हैं। भरत के तीर से घायल हो जाते हैं। राम को पहचान नहीं पाते हैं। ये कौनसी लीला कर रहे हैं? अब भरत इन्हें एक तीर पर बिठा कर लंका भेजते हैं ताकि शीघ्र पहुँच जाए। ख़ुद नहीं जाते हैं कि देखूँ दोनों भाई किस संकट में हैं। और सीता भाभी की कोई चिंता नहीं?


इतनी गुत्थियाँ हैं कि कहाँ तक सुलझाई जाए। 


तीन पत्नियाँ एक ही दिन एक ही खीर खा कर गर्भवती होती हैं। एक ही दिन चार भाइयों का जन्म होता है। एक ही दिन सबकी शादी होती है। सबके पुत्र भी चौदह साल बाद ही होते हैं। और सबको दो-दो पुत्र होते हैं। 


राम के राज्याभिषेक की ज़ोर-शोर से तैयारी हो रही है और भरत राज्य में ही नहीं है। ये कैसे हो गया? क्या उनके रहते राम का राज्याभिषेक नहीं हो पाता?


जैसा कि मनमोहन देसाई ने कहा - दिमाग़ नहीं लगाना है। मतलब की बात ग्रहण करनी है। बुराई पर अच्छाई की विजय होती है। बेटे को पिता का वचन निभाना है। भाई को भाई से प्यार करना चाहिए। आदि आदि। 


जैसे ख़रगोश-कछुए की कहानी है। सुनने से पहले ही आप टोक दोगे कि ये क्या चल रहा है? ख़रगोश और कछुए एक दूसरे से बात कर रहे हैं? ये कब और कहाँ हुआ? फिर तो आप आवश्यक शिक्षा से वंचित रह जाओगे कि काम करते रहने से ही सफलता मिलती है। चाहे कछुए की चाल से ही क्यों न करो। 


राहुल उपाध्याय । 27 अक्टूबर 2023 । क्राबी (थाइलैंड)










Monday, October 23, 2023

ऑनलाइन हिन्दी साहित्य की पत्रिकाएँ

ऑनलाइन हिन्दी साहित्य की पत्रिकाएँ वैसी ही है जैसे हर गली-मोहल्ले में चलता महादेव का मन्दिर। किसी के मन में आया कि मन्दिर होना चाहिए तो बना दिया। बाद में ख़याल आया कि इसे चलाने में समय भी जाता है और धन भी खर्च होता है। और यह भी ख़याल आता है कि यह कुछ लोगों की ज़रूरतें भी पूरी कर रहा है। तब धन जुगाड़ने के प्रयास किए जाते हैं। आजीवन संरक्षक सदस्य बनाए जाते हैं। उनके नाम दिए जाते हैं। और यहाँ एक और ज़रूरत पूरी हो जाती है। 


पत्रिकाएँ पढ़ते वही हैं जिनकी रचनाएँ छपती हैं। और वे भी सारे अंक नहीं पढ़ते, सिर्फ़ वह अंक जिसमें उनकी रचना छपी हो। और वह अंक भी वे पूरा नहीं पढ़ते। सिर्फ़ अपनी रचना पढ़ कर बंद कर देते हैं। 


ऐसे माहौल में भी दिन-प्रतिदिन दर्जनों पत्रिकाएँ निकल रही हैं तो समझ में नहीं आता कि उन्हें बधाई दूँ या हिम्मत की दाद दूँ या आनेवाले ग़म को खींच-तान कर आज की ख़ुशी में ज़हर घोल दूँ?


इन पत्रिकाओं से जुड़े लोग मुझसे रचनाएँ माँगते हैं तो मैं दे देता हूँ। वे छापना चाह रहे हैं तो मुझे क्या एतराज़?


जब वे पत्र सम्पादक के नाम चाहते हैं या पत्रिका पर टिप्पणी माँगते हैं तो मैं आनाकानी कर जाता हूँ। जो लिखूँगा, उन्हें अच्छा नहीं लगेगा। 


बात जब आर्थिक सहयोग की आती है तो मैं साफ़ मना कर देता हूँ। ऐसा नहीं कि सहयोग देने में असमर्थ हूँ। पर इस सोच में पड़ जाता हूँ कि जब इसे दे रहा हूँ तो उसे क्यों नहीं? इन सबको इसलिए दूँ कि ये मेरी रचनाएँ छापते हैं या मुझे जानते हैं? 


सबका अपना शग़ल है और वह शग़ल एक जज़्बे की वजह से जीवित है। आर्थिक समस्याएँ किसी जज़्बे को रोक नहीं सकती। 


वैसे भी सब मेरे जैसा नहीं सोचते हैं। यह अच्छी बात है। विविधता से ही दुनिया चलती है। आगे बढ़ती है। 


उन्हें सहायता मिल ही जाती है। 


राहुल उपाध्याय । 23 अक्टूबर 2023 । लंगकावी (मलेशिया)


Saturday, October 21, 2023

खुफिया- एक समीक्षा

खुफिया एक थ्रिलर मूवी है। शुरू से ही रहस्यमयी घटनाएँ होती रहती हैं। कुछ मौजूदा समय में। कुछ अतीत में। कई बार उन्हें एक दूसरे से अलग करना मुश्किल हो जाता है। 


यह विशाल भारद्वाज की फ़िल्म है और नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध है। 


विशाल भारद्वाज अलग तरह की फ़िल्में बनाते है। राहुल देव बर्मन के गुज़र जाने के बाद गुलज़ार की रचनाएँ को अधिकतर विशाल ने ही संगीत में पिरोया है। उनकी पत्नी रेखा भारद्वाज एक अच्छी गायिका हैं और अक्सर उनकी फ़िल्मों के गीत गाती हैं। 


विशाल को शेक्सपियर के नाटक भी प्रिय हैं और उन पर आधारित फ़िल्में भी बनाई है। जैसे कि औंकारा (ओथेलो), मक़बूल (मैक्बेथ), हैदर (हैमलेट)। 


खुफिया 2004 के आसपास की पृष्ठभूमि पर लिखी गई है और भारत-पाकिस्तान-बांग्लादेश-अमेरिका की राजनीति से ओतप्रोत है। इसमें कई और पहलू भी जोड़ दिए गए हैं जो कि घिसे-पीटे हैं। माँ का बेटे के प्रति हद से ज़्यादा लगाव। बेटे का माँ से अलगाव। बेटे का माँ के प्रति स्नेह। पति-पत्नी की तलाक़ के बाद की दोस्ती। काम की व्यस्तता से परिवार का उपेक्षित महसूस करना। समलैंगिक रिश्ते। बेटी का पिता के कैंसर का इलाज कराना। अमेरिका सोने की खान है पर गुलाब की सेज नहीं। संभ्रांत दिल्ली के गुरुओं की सच्चाई। आदि। 


इतने पहलू एक साथ होने से कई बार फ़िल्म खींच दी गई लगती है। हिचकॉक को भी माथा टेका गया है। क्लाईमेक्स में हास्यास्पद सीन अटपटा लगा। 


पर कुल मिलाकर घर बैठकर देखने लायक़ अच्छी फिल्म लगी। बैकग्राउंड स्कोर बहुत ही बढ़िया है। ख़ासकर व्हीस्लिंग वाला। 


खुफिया एजेंसी के खुफिया तरीक़े फ़िल्मी हैं। रीयल लाईफ़ में शायद ऐसा नहीं है। 


तबू और वामिका का अभिनय शानदार है। नवीन्द्रा बहल की अदायगी ओवर द टॉप है पर बहुत ही विश्वसनीय है। राहुल राम एक बहुत ही अच्छे कलाकार है। लग ही नहीं रहा था कि वे एक गुरू का किरदार निभा रहे हैं। 


गीत गुलज़ार के हैं लेकिन कोई असर नहीं छोड़ते। 


फरहाद अहमद दहेलवी की सिनेमेटोग्राफ़ी बहुत ही बढ़िया है। ख़ासकर कनाडा के सीन बहुत ही सुन्दर है। फिल्म में उन्हें अमेरिका बताया गया है। 


फ़िल्म की कहनी विशाल और रोहण नरूला ने लिखी है जो कि अमर भूषण के उपन्यास पर आधारित है। 


राहुल उपाध्याय । 22 अक्टूबर 2023 । सिंगापुर 



Monday, October 16, 2023

रामचरितमानस दोहा 121 से 240


बालकाण्ड के 110वें दोहे में पार्वती जी शंकर भगवान से रामकथा सुनाने का अनुरोध करती हैं, तब श्री महादेवजी के हृदय में सारे रामचरित्र आ गए। प्रेम के मारे उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में जल भर आया। श्री रघुनाथजी का रूप उनके हृदय में आ गया, जिससे स्वयं परमानन्दस्वरूप शिवजी ने भी अपार सुख पाया। शिवजी दो घड़ी तक ध्यान के रस (आनंद) में डूबे रहे, फिर उन्होंने मन को बाहर खींचा और तब वे प्रसन्न होकर श्री रघुनाथजी का चरित्र वर्णन करने लगे॥ 


और तुलसीदास जी ने शंकर भगवान के मुख से रामचरितमानस की यह सुप्रसिद्ध चौपाई कहलवाई -


मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥बालकाण्ड 112.2॥

भावार्थ:-मैं उन्हीं श्री रामचन्द्रजी के बाल रूप की वंदना करता हूँ, जिनका नाम जपने से सब सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं। मंगल के धाम, अमंगल के हरने वाले और श्री दशरथजी के आँगन में खेलने वाले (बालरूप) श्री रामचन्द्रजी मुझ पर कृपा करें॥बालकाण्ड 112.2॥


यह जानकर तो मेरे रोमांच की कोई सीमा ही नहीं रही कि न सिर्फ़ हम बल्कि भगवान शंकर भी यह चाहते हैं कि श्रीरामजी भक्तों पर कृपा करें। गोस्वामी तुलसीदास जी के कवित्त और साहस का कोई सानी नहीं। 

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और 140.3 में यह भी भगवान शंकर ही कह रहे हैं पार्वती जी से कि:

* हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥बालकाण्ड 140.3॥

भावार्थ:-श्री हरि अनंत हैं (उनका कोई पार नहीं पा सकता) और उनकी कथा भी अनंत है। ॥बालकाण्ड 140.3॥

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द्वादशाक्षर मंत्र क्या है, यहाँ देखें:


द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।

बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग॥बालकाण्ड 143॥

भावार्थ:-और द्वादशाक्षर मन्त्र (ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय) का प्रेम सहित जप करते थे। भगवान वासुदेव के चरणकमलों में उन राजा-रानी का मन बहुत ही लग गया॥बालकाण्ड 143॥


नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा॥

संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥बालकाण्ड 144.3॥

भावार्थ:-जिन्हें वेद 'नेति-नेति' (यह भी नहीं, यह भी नहीं) कहकर निरूपण करते हैं। जो आनंदस्वरूप, उपाधिरहित और अनुपम हैं एवं जिनके अंश से अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु भगवान प्रकट होते हैंबालकाण्ड 144.3॥


अब लगि मोहि न मिलेउ कोउ मैं न जनावउँ काहु।

लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु॥बालकाण्ड 161 क॥

भावार्थ:-अब तक न तो कोई मुझसे मिला और न मैं अपने को किसी पर प्रकट करता हूँ, क्योंकि लोक में प्रतिष्ठा अग्नि के समान है, जो तप रूपी वन को भस्म कर डालती हैबालकाण्ड 161 क॥


बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं॥

जलधि अगाध मौलि बह फेनू। संतत धरनि धरत सिर रेनू॥बालकाण्ड 167.4॥

भावार्थ:-बड़े लोग छोटों पर स्नेह करते ही हैं। पर्वत अपने सिरों पर सदा तृण (घास) को धारण किए रहते हैं। अगाध समुद्र अपने मस्तक पर फेन को धारण करता है और धरती अपने सिर पर सदा धूलि को धारण किए रहती है॥बालकाण्ड 167.4॥


प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा॥

बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं॥बालकाण्ड 237.4॥

भावार्थ:-(उधर) पूर्व दिशा में सुंदर चन्द्रमा उदय हुआ। श्री रामचन्द्रजी ने उसे सीता के मुख के समान देखकर सुख पाया। फिर मन में विचार किया कि यह चन्द्रमा सीताजी के मुख के समान नहीं है॥4॥

दोहा :

* जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक।

सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक॥बालकाण्ड 237॥

भावार्थ:-खारे समुद्र में तो इसका जन्म, फिर (उसी समुद्र से उत्पन्न होने के कारण) विष इसका भाई, दिन में यह मलिन (शोभाहीन, निस्तेज) रहता है, और कलंकी (काले दाग से युक्त) है। बेचारा गरीब चन्द्रमा सीताजी के मुख की बराबरी कैसे पा सकता है?॥बालकाण्ड 237॥

चौपाई :

* घटइ बढ़इ बिरहिनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई॥

कोक सोकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही॥बालकाण्ड 238.1॥

भावार्थ:-फिर यह घटता-बढ़ता है और विरहिणी स्त्रियों को दुःख देने वाला है, राहु अपनी संधि में पाकर इसे ग्रस लेता है। चकवे को (चकवी के वियोग का) शोक देने वाला और कमल का बैरी (उसे मुरझा देने वाला) है। हे चन्द्रमा! तुझमें बहुत से अवगुण हैं (जो सीताजी में नहीं हैं।)॥बालकाण्ड 238.1॥

* बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोषु बड़ अनुचित कीन्हे॥

सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुर पहिं चले निसा बड़ि जानी॥बालकाण्ड 238.2॥

भावार्थ:-अतः जानकीजी के मुख की तुझे उपमा देने में बड़ा अनुचित कर्म करने का दोष लगेगा। इस प्रकार चन्द्रमा के बहाने सीताजी के मुख की छबि का वर्णन करके, बड़ी रात हो गई जान, वे गुरुजी के पास चले॥2॥



राहुल उपाध्याय । 15 अक्टूबर 2021 । सिंगापुर 


Sunday, October 8, 2023

दासाहब और उनका स्कूल

आरिफ मिर्ज़ा साहब का लेख

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🌹 यादें स्कूल की  🌹 त्रिवेदी स्कूल सैलाना (ज़िला रतलाम)

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इस पोस्ट के साथ जिस हस्ती की तस्वीर आप देख रहे हैं , ये मेरे प्रथम गुरु परम् श्रधेय स्व. लक्ष्मीनारायण त्रिवेदी हैं। 1963 में मेरे पिता स्व. अब्दुल समद बैग रतलाम से स्थानांतरित हो कर सैलाना तहसील में ब्लॉक डेवलोपमेन्ट ऑफीसर के पद पर आए थे । उन्हें बताया गया कि त्रिवेदी प्राथमिक विद्यालय बच्चों के लिए बहुत अच्छा रहेगा । तब मेरा पहली, बड़े भाई शाहिद मिर्ज़ा का तीसरी और छोटे भाई हाज़िक का कक्का में दाखिला होना था । 57 बरस पहले केजी को कक्का कहा जाता था । पिता ने चपरासी बगदीराम को हम तीनों भाइयों को त्रिवेदी विद्यालय में प्रवेश के लिए भेजा । निहायत ही सख्त मिजाज़ लक्ष्मीनारायण त्रिवेदी मास्साब ने बगदीराम से साफ कहा- तेरे बीडीओ साब को बता देना , बच्चों को सबक याद नहीं हुआ तो ये पिटेंगे । वो अपनी अफसरी दिखाने यहां नहीं आएं । बहरहाल हमारा दाखिला त्रिवेदी मास्साब के स्कूल में हो गया ।  मास्साब पक्के गांधीवादी थे । खादी के कलफ लगे कपड़े पहनते । किमाम की खुशबू वाला पान खाते । कपड़े की थैली में हम बाल भारती, सुंदर लेखन आदि की किताबें  और काले रंग की स्लेट और लिखने वाली पेम ले जाते । व्याकरण और शुद्ध लेखन पर मास्साब विशेष ध्यान देते । गणित में तो उन्हें महारत थी । दूसरी कक्षा के बच्चे को 20 तक और चौथी वाले को 40 तक पहाड़े कंठस्थ होना अनिवार्य था । तब मुझे अद्धा-पौना-सवैया का पहाड़ा भी याद था । शुद्ध लेखन के लिए मास्साब हमे राड़े का बर्रु बनाकर देते । स्याही की गोलियों को घोल कर हम दवात में भरते और बर्रु से लिखते । स्कूल में सुबह ' दया कर दान भक्ति का  मुझे परमात्मा देना ' प्रार्थना के बाद मास्साब ओटले पर अपना दायां पैर आगे कर खड़े हो जाते । बच्चे स्कूल में प्रवेश करते हुए मास्साब कें पैर छूते और कक्षा में टाट पट्टी पर बैठ जाते । मुस्लिम बच्चों को पैर न छूने की छूट थी । हर कक्षा के बच्चों को दिया जाने वाला होम वर्क मास्साब खुद चेक करते । क्लास मोनिटर बच्चों की कॉपियां मास्साब की टेबल पर रख देते । उनमे से सही उत्तर वाली किसी एक कॉपी को मास्साब जांच कर लाल स्याही से दस्तख्त कर देते । उस कॉपी के आधार पर  मोनिटर के साथ सीनियर क्लास के बच्चे बाकी बच्चों की कॉपियां जांचते । जिन बच्चों के उत्तर गलत होते उनकी कॉपी मास्साब की टेबल पर पहुंचा दी जातीं । फिर शुरू होती गलत उत्तर लिखने वालों की क्लास । मास्साब एक-एक शब्द को बीस-बीस बार लिखवाते । फिर भी जो सही नहीं लिख पाते उनकी अच्छी खासी कुटाई होती । जिन बच्चों को सबक याद नहीं होता उन्हें स्कूल की छुट्टि के बाद भी मास्साब घर नहीं जाने देते । मुझे याद है कि बच्चों के माता-पिता बाहर खड़े सुबकते रहते लेकिन त्रिवेदी मास्साब बच्के को तभी छोड़ते जब उसे सबक याद हो जाता । गुरुवार को लेखन और गुन्नी होती । गुन्नी यानी पहाड़े । दो-दो बच्चे खड़े होकर पहाड़े बोलते । उनके बोले पहाड़ों को पूरा स्कूल रिपीट करता ।  कई बार मास्साब खुश होने पर बच्चों को पिकनिक ले जाते । पिकनिक को जंगल जाना कहा जाता । जंगल जाते हुए बच्चों की प्रभात फेरी सैलाना की सड़कों पर पहाड़े बोलते हुए निकलती । तब सैलाना के कई व्यापारी ओटले वाली दुकान से उतर कर  मास्साब के चरण छूते । स्कूल भवन के पिछ्ले हिस्से में मास्साब रहते । वहां एक जामुन का पेड़ और एक कुआं हुआ करता था । बच्चों के माता पिता से मास्साब लिख कर मंगवाते थे कि बच्चा सुबह उठ कर नमस्का करता है या नही, कहना मानता है या नहीं । शिकायत मिलने पर बच्चे को मास्साब जीवन का पाठ पढ़ाते ।  महीने डेढ़ महीने में मास्साब किसी कोर्ट केस के सिलसिले में रतलाम जाते तब उनकी दस ग्यारह साल की बेटी हिन्दबाला स्कूल संभालतीं । तब बच्चों को खूब मस्ती करने का मौका मिल जाता । एक बार कोई बच्चा एक रुपये का कलदार सिक्का ले आया । मास्साब ने फ़ौरन उसके पिता को बुलाकर डांटा - बहुत बड़े आदमी हो गए हो...बच्चे को कलदार देके भेजोगे । आगे से ऐसा किया तो नाम काट दूंगा । मुझे आज भी 15 का वो पहाड़ा याद है- पंदरा कु पंदरा, दूना तीस, तरी पे ताला, चौका साठ, बने पिछोत्तर, छक्का नेउ, सते   पिचलन्तर, अन्ते बीसा, नमा पेंतीसा, डबल ढाई डेढ़ सौ ।  28 ओकटुबर 1989 को उनका निधन हुआ । उनकी पार्थिव देह को तिरंगे में ले जाया गया । उनके निधन पर सैलाना के बाजार बंद रहे । त्रिवेदी मास्साब का जन्म 1910 में सैलाना में हुआ था । जब वे 5 वर्ष के थे तब उनके पिता शालिग्रामजी का देहांत हो गया । माता रामी बाई ने इन्हें बहुत अभावों में पाला । मास्साब के बड़े भाई रामनारायण त्रिवेदी को उनके मामा ने गौद ले लिया था । उन्होंने अलीगढ से एलएलबी किया और पवई में मजिस्ट्रेट हो गए । बाद में आज़ादी के आंदोलन में भाग लेने के लिए उन्होंने नोकरी छोड़ दी । उन्होंने मास्साब को भी आज़ादी की लड़ाई में अपने साथ जोड़ा । दोनों भाइयों ने सैलाना में प्रजा मंडल के तहत आज़ादी की लड़ाई लड़ी । भाई की प्रेरणा से ही मास्साब ने 1936 में इस त्रिवेदी प्राथमिक शाला की स्थापना की । 1940 में मास्साब ने पत्रकरिता में कदम रखा । उन्होंने टाइम्स ऑफ़ इंडिया के लिए काम किया । 1947 में आप नईदुनिया से जुड़े । इसकी ऐजेंसी भी ली । आज उनके पोते वीरेंद्र त्रिवेदी सैलाना में नईदुनिया का ब्यूरो देखते हैं । वे इस आदिवासी अंचल के पहले स्कूल संचालक थे । उनका स्कूल 2019 तक 83 वर्ष तक चला ।


मैं आज जो कुछ भी हूं परम श्रधेय लक्ष्मीनारायण त्रिवेदी मास्साब की दी हुई तालीम , पिटाई और संस्कारों के कारण हूं । पिछले दिनों सैलाना में रहे मेरे एफबी फ्रेंड Basant Upadhyay बसंत उपाध्याय जी से मुझे सैलाना के एक बुजुर्ग हेमशंकर अवस्थीजी का नंबर मिला। उन्हीने मुझे मास्साब के पोते वीरेंद्र त्रिवेदी का नंबर दिया । वीरेंद्रजी ने मास्साब के अमेरिका में बस गए और माइक्रोसॉफ्ट में बड़े ओहदे पर कार्यरत  मास्साब के नाती राहुल उपाध्याय से मेरा फोन पर संपर्क कराया । राहुल जी ने अमेरिका से त्रिवेदी मास्साब के ये फोटो मुझे भेजे । मास्साब आपको प्रणाम करता हूँ और तहेदिल से खिराजे अक़ीदत पेश करता हूं ।


Tuesday, October 3, 2023

Prime Numbers - making them more accessible

If you avoid certain obvious non-prime numbers, all two digit numbers are prime numbers except for 49 and 91. Why? Because all other numbers either are even or mulitples of 5.

Don't belive it? Give it a try.

Similarly after avoinding certain obvious non-prime numbers, you are left with just 75 three-digit numbers that are divisible by 7, 13, 17, 19, 23, 29, or 31.