Monday, October 23, 2023

ऑनलाइन हिन्दी साहित्य की पत्रिकाएँ

ऑनलाइन हिन्दी साहित्य की पत्रिकाएँ वैसी ही है जैसे हर गली-मोहल्ले में चलता महादेव का मन्दिर। किसी के मन में आया कि मन्दिर होना चाहिए तो बना दिया। बाद में ख़याल आया कि इसे चलाने में समय भी जाता है और धन भी खर्च होता है। और यह भी ख़याल आता है कि यह कुछ लोगों की ज़रूरतें भी पूरी कर रहा है। तब धन जुगाड़ने के प्रयास किए जाते हैं। आजीवन संरक्षक सदस्य बनाए जाते हैं। उनके नाम दिए जाते हैं। और यहाँ एक और ज़रूरत पूरी हो जाती है। 


पत्रिकाएँ पढ़ते वही हैं जिनकी रचनाएँ छपती हैं। और वे भी सारे अंक नहीं पढ़ते, सिर्फ़ वह अंक जिसमें उनकी रचना छपी हो। और वह अंक भी वे पूरा नहीं पढ़ते। सिर्फ़ अपनी रचना पढ़ कर बंद कर देते हैं। 


ऐसे माहौल में भी दिन-प्रतिदिन दर्जनों पत्रिकाएँ निकल रही हैं तो समझ में नहीं आता कि उन्हें बधाई दूँ या हिम्मत की दाद दूँ या आनेवाले ग़म को खींच-तान कर आज की ख़ुशी में ज़हर घोल दूँ?


इन पत्रिकाओं से जुड़े लोग मुझसे रचनाएँ माँगते हैं तो मैं दे देता हूँ। वे छापना चाह रहे हैं तो मुझे क्या एतराज़?


जब वे पत्र सम्पादक के नाम चाहते हैं या पत्रिका पर टिप्पणी माँगते हैं तो मैं आनाकानी कर जाता हूँ। जो लिखूँगा, उन्हें अच्छा नहीं लगेगा। 


बात जब आर्थिक सहयोग की आती है तो मैं साफ़ मना कर देता हूँ। ऐसा नहीं कि सहयोग देने में असमर्थ हूँ। पर इस सोच में पड़ जाता हूँ कि जब इसे दे रहा हूँ तो उसे क्यों नहीं? इन सबको इसलिए दूँ कि ये मेरी रचनाएँ छापते हैं या मुझे जानते हैं? 


सबका अपना शग़ल है और वह शग़ल एक जज़्बे की वजह से जीवित है। आर्थिक समस्याएँ किसी जज़्बे को रोक नहीं सकती। 


वैसे भी सब मेरे जैसा नहीं सोचते हैं। यह अच्छी बात है। विविधता से ही दुनिया चलती है। आगे बढ़ती है। 


उन्हें सहायता मिल ही जाती है। 


राहुल उपाध्याय । 23 अक्टूबर 2023 । लंगकावी (मलेशिया)


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