Monday, October 16, 2023

रामचरितमानस दोहा 121 से 240


बालकाण्ड के 110वें दोहे में पार्वती जी शंकर भगवान से रामकथा सुनाने का अनुरोध करती हैं, तब श्री महादेवजी के हृदय में सारे रामचरित्र आ गए। प्रेम के मारे उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में जल भर आया। श्री रघुनाथजी का रूप उनके हृदय में आ गया, जिससे स्वयं परमानन्दस्वरूप शिवजी ने भी अपार सुख पाया। शिवजी दो घड़ी तक ध्यान के रस (आनंद) में डूबे रहे, फिर उन्होंने मन को बाहर खींचा और तब वे प्रसन्न होकर श्री रघुनाथजी का चरित्र वर्णन करने लगे॥ 


और तुलसीदास जी ने शंकर भगवान के मुख से रामचरितमानस की यह सुप्रसिद्ध चौपाई कहलवाई -


मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥बालकाण्ड 112.2॥

भावार्थ:-मैं उन्हीं श्री रामचन्द्रजी के बाल रूप की वंदना करता हूँ, जिनका नाम जपने से सब सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं। मंगल के धाम, अमंगल के हरने वाले और श्री दशरथजी के आँगन में खेलने वाले (बालरूप) श्री रामचन्द्रजी मुझ पर कृपा करें॥बालकाण्ड 112.2॥


यह जानकर तो मेरे रोमांच की कोई सीमा ही नहीं रही कि न सिर्फ़ हम बल्कि भगवान शंकर भी यह चाहते हैं कि श्रीरामजी भक्तों पर कृपा करें। गोस्वामी तुलसीदास जी के कवित्त और साहस का कोई सानी नहीं। 

====

और 140.3 में यह भी भगवान शंकर ही कह रहे हैं पार्वती जी से कि:

* हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥बालकाण्ड 140.3॥

भावार्थ:-श्री हरि अनंत हैं (उनका कोई पार नहीं पा सकता) और उनकी कथा भी अनंत है। ॥बालकाण्ड 140.3॥

====

द्वादशाक्षर मंत्र क्या है, यहाँ देखें:


द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।

बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग॥बालकाण्ड 143॥

भावार्थ:-और द्वादशाक्षर मन्त्र (ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय) का प्रेम सहित जप करते थे। भगवान वासुदेव के चरणकमलों में उन राजा-रानी का मन बहुत ही लग गया॥बालकाण्ड 143॥


नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा॥

संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥बालकाण्ड 144.3॥

भावार्थ:-जिन्हें वेद 'नेति-नेति' (यह भी नहीं, यह भी नहीं) कहकर निरूपण करते हैं। जो आनंदस्वरूप, उपाधिरहित और अनुपम हैं एवं जिनके अंश से अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु भगवान प्रकट होते हैंबालकाण्ड 144.3॥


अब लगि मोहि न मिलेउ कोउ मैं न जनावउँ काहु।

लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु॥बालकाण्ड 161 क॥

भावार्थ:-अब तक न तो कोई मुझसे मिला और न मैं अपने को किसी पर प्रकट करता हूँ, क्योंकि लोक में प्रतिष्ठा अग्नि के समान है, जो तप रूपी वन को भस्म कर डालती हैबालकाण्ड 161 क॥


बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं॥

जलधि अगाध मौलि बह फेनू। संतत धरनि धरत सिर रेनू॥बालकाण्ड 167.4॥

भावार्थ:-बड़े लोग छोटों पर स्नेह करते ही हैं। पर्वत अपने सिरों पर सदा तृण (घास) को धारण किए रहते हैं। अगाध समुद्र अपने मस्तक पर फेन को धारण करता है और धरती अपने सिर पर सदा धूलि को धारण किए रहती है॥बालकाण्ड 167.4॥


प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा॥

बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं॥बालकाण्ड 237.4॥

भावार्थ:-(उधर) पूर्व दिशा में सुंदर चन्द्रमा उदय हुआ। श्री रामचन्द्रजी ने उसे सीता के मुख के समान देखकर सुख पाया। फिर मन में विचार किया कि यह चन्द्रमा सीताजी के मुख के समान नहीं है॥4॥

दोहा :

* जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक।

सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक॥बालकाण्ड 237॥

भावार्थ:-खारे समुद्र में तो इसका जन्म, फिर (उसी समुद्र से उत्पन्न होने के कारण) विष इसका भाई, दिन में यह मलिन (शोभाहीन, निस्तेज) रहता है, और कलंकी (काले दाग से युक्त) है। बेचारा गरीब चन्द्रमा सीताजी के मुख की बराबरी कैसे पा सकता है?॥बालकाण्ड 237॥

चौपाई :

* घटइ बढ़इ बिरहिनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई॥

कोक सोकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही॥बालकाण्ड 238.1॥

भावार्थ:-फिर यह घटता-बढ़ता है और विरहिणी स्त्रियों को दुःख देने वाला है, राहु अपनी संधि में पाकर इसे ग्रस लेता है। चकवे को (चकवी के वियोग का) शोक देने वाला और कमल का बैरी (उसे मुरझा देने वाला) है। हे चन्द्रमा! तुझमें बहुत से अवगुण हैं (जो सीताजी में नहीं हैं।)॥बालकाण्ड 238.1॥

* बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोषु बड़ अनुचित कीन्हे॥

सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुर पहिं चले निसा बड़ि जानी॥बालकाण्ड 238.2॥

भावार्थ:-अतः जानकीजी के मुख की तुझे उपमा देने में बड़ा अनुचित कर्म करने का दोष लगेगा। इस प्रकार चन्द्रमा के बहाने सीताजी के मुख की छबि का वर्णन करके, बड़ी रात हो गई जान, वे गुरुजी के पास चले॥2॥



राहुल उपाध्याय । 15 अक्टूबर 2021 । सिंगापुर 


No comments: