बड़े दिनों से थियेटर में कोई फ़िल्म नहीं देखी। लाल सिंह चड्ढा देखना चाहता था। पर आज-कल ही करता रह गया।
एक मित्र को कहीं से चार टिकट मिल गए फ़्री में 'कार्तिकेय' की। कोई जाने को राज़ी नहीं। परिवार में दो छोटे बच्चे हैं। उनके पल्ले पड़ेगी नहीं। बाक़ी यार लोग कोई तैयार नहीं। शनिवार सुबह 10:50 का शो। कौन इतनी जल्दी फ़िल्म देखने जाता है?
ख़ैर किसी तरह तीन और लोग जमा हुए। जिनमें से एक मैं भी था।
मैं तो समय से पहले पहुँच गया था। हिन्दी फ़िल्मों का दीवाना हूँ। शुरू से अंत तक देख कर ही तसल्ली होती है। बाक़ी तीनों क्रमशः आधा घंटा, चालीस मिनट और एक घंटा लेट आए।
पूरे थियेटर में हम कुल मिलाकर दस लोग थे।
फ़िल्म की शुरुआत अच्छी है। मन्नत, वास्तु, हवन, आदि अंधविश्वास है इस तरह के विचारोत्तेजक प्रश्न उठाए।
बाद में कहानी हॉलीवुड की फ़िल्मों से प्रेरित होती गई। कभी दविंची कोड तो कभी लॉर्ड ऑफ़ द रिंग्स को सलाम करती हुई। और कभी-कभी तो बेतुकी भी। जैसे कि चुड़ैल भगाओ प्रसंग। और फिर दक्षिण भारत के चिर-परिचित दृश्य जिनमें स्लो-मोशन और फ्रेम-फ़्रीज़ का इस्तेमाल किया जाता है ताकि हीरो अमोल पालेकर न लग कर हीरो लग सके।
कहानी अगर कहीं है तो वह यह कि कृष्ण उद्धव के हाथ एक कड़ा दे गए हैं जो उचित व्यक्ति के हाथ आ जाए तो वह जन समाज का भला कर सकता है। हमारा हीरो वह उचित व्यक्ति है जो कि विश्व को एक महामारी से बचा सकता है।
पुष्पा या अन्य दक्षिण भारतीय फ़िल्मों के हिन्दी संस्करण में टाइटल्स हिन्दी में होते हैं और अच्छी हिन्दी में होते हैं।
कार्तिकेय में कई ग़लतियाँ हैं।
'विशेष भूमिक मैं - अनुपम खेर'
चायाकरण —> छाया की जगह चाया।
अंत में आई एक श्रेणी- 'फेंकना'
मैं अभी तक सोच में हूँ कि यह क्या बला है।
राहुल उपाध्याय । 27 अगस्त 2022 । सिएटल