Wednesday, December 27, 2023

पारूल

पारूल मध्यम वर्ग से है। काम भी करती है जिससे वेतन मिलता है। घर का काम भी करती है जिससे वेतन नहीं मिलता है। कई कष्ट, कई यातनाएँ सहती है। सास-ससुर-देवरानी सब से। सब अपनी क़िस्मत समझ सह लेती है। ईश्वर में विश्वास है। प्रारब्ध और कर्मों के हिसाब के गुणा-भाग से अच्छी तरह से परिचित है। पति है पर पति से भी कोई आस नहीं। उसे भी वह दोष नहीं देती है। जो है, सो है। जो मिला है उसी में वो ख़ुश है। दुखी कभी नहीं होती है। 


ऑफिस का काम मन लगा कर करती है। काम से उसे वह सब मिला जो घरवाले उसे कभी न दे सके। वहाँ उसको इज़्ज़त मिली। सम्मान मिला। यथोचित पदोन्नति भी। 


काम के सिलसिले में उसे एक बार पेरिस जाना पड़ा। बाँछें खिल आईं। वह भी तीन महीनों के लिए। इसी बहाने उसे घर के काम से तीन महीने की छुट्टी मिल गई। और हर तरह की आज़ादी भी। जो करना चाहे, कर सकती है। जो खाना चाहे, खा सकती है। जब सोना चाहे, सो सकती है। जब तक सोना चाहे, सो सकती है। 


लेकिन जैसा कि अक्सर होता है, जब तक हम सिस्टम से लड़ते नहीं है, हमें उसी सिस्टम में जीना आसान लगता है। हम उसी सिस्टम के पक्षधर बन जाते हैं। उसी में अपनी भलाई समझते हैं। जो खाते आ रहे हैं, वही खाते हैं। जो पहनते आ रहे हैं, वही पहनते हैं। 


मुझे याद है जब हम स्कूल से कॉलेज में गए, स्कूल की तरह सबकी कोई निर्धारित सीट नहीं थी। लेकिन हम सब रोज़ एक ही जगह बैठते थे। कॉलेज में यूनिफ़ॉर्म भी नहीं थी। लेकिन हम सब अपने-अपने ढर्रे के ही कपड़े पहनते थे। जो साड़ी पहनती थी, वो साड़ी पहनती थी। जो सलवार सूट पहनती थी, वो सलवार सूट पहनती थी। जो जीन्स, वो जीन्स। लड़कों का भी यही हाल था। जो कुर्ता-पजामा पहनता था, वो कुर्ता-पजामा ही पहनता था। जीन्स वाला जीन्स। 


पारूल पेरिस में रही तीन महीने, लेकिन कुछ अलग नहीं किया। न सिगरेट पी। न दारू पी। न चिकन खाया, न फ़िश। न बार गई मौज-मस्ती के लिए। 


हाँ, घूमी-फिरी बहुत। सारे म्यूज़ियम नाप डाले। सारे ऐतिहासिक भवनों को आँखों से पी गई। दुकानों पर भी खूब गई। बस आँखें ही सेंकीं। ख़रीदा कुछ भी नहीं। हर नोट का अठारह से गुणा कर के दिल बैठ जाता था। 


बस एक स्कर्ट-ब्लाउज़ इतना पसंद आया कि आज बीस बरस बाद भी उसकी एक-एक चीज़ अच्छी तरह से याद है। उसका रंग। उसकी ख़ुशबू। उसका टेक्स्चर। सब का सब तन-मन में समाया हुआ है। बहुत मन किया कि इसे तो ले ही लूँ। ऑफिस वाले पेरिस के हाथ-खर्च और खाने-पीने के लिए कुछ तय रक़म रोज़ाना के हिसाब से दे भी रहे थे। उसमें से पैसे बच भी रहे थे। 


उसने स्कर्ट कभी नहीं पहनी थी शादी के बाद। शादी के पहले भी प्रायमरी स्कूल तक ही पहनी। उसके बाद कभी नहीं। न जाने क्यों मन हो आया कि पेरिस में कौन मुझे रोकेगा। पहन कर तो देख लूँ। लेकिन मन की बात मन में ही रह गई। नहीं ख़रीदी तो नहीं ख़रीदी। 


अब रिटायर होने के बाद। विधवा होने के बाद। एक दिन उसी स्कर्ट जैसी स्कर्ट ऑनलाइन ऑर्डर कर ही ली। आ गई तो बहुत खुश हुई। बेटी को दिखाई। बेटी को इतनी पसंद आई कि उसने रख ली। अब इस उम्र में कोई कुछ माँग ले तो देने में बहुत अच्छा लगता है। सो दे दी। क़िस्मत देखो। तब से अब तक तीन बार मँगवा चुकी है। लेकिन सब कोई न कोई ले गया। 


इस कहानी का अंत ऐसे नहीं होना चाहिए। मेरा उसके ईश्वर से निवेदन है कि हिसाब में कुछ धांधली करें और पारूल को एक बार स्कर्ट-ब्लाउज़ पहनने दें। और हाँ एक सेल्फ़ी भी होनी चाहिए ताकि सबूत रहे कि स्कर्ट पहनी थी कभी प्रौढ़ावस्था में। 


राहुल उपाध्याय । 28 दिसम्बर 2023 । अम्स्टर्डम

यूरोप

यूरोप में घूमने का एक अपना अलग रोमांच है। एक तो इतिहास में इसके शहरों का महत्वपूर्ण स्थान है। चाहे युद्ध हो या राजनीति, ये शहर प्रमुख रहे हैं। लंदन, पेरिस, बर्लिन। इनके बिना बीसवीं शताब्दी की मुख्य घटनाओं का वर्णन नहीं किया जा सकता। 


आगे जाकर जब अमेरिका में रहने लगा तो नॉरमंडी बीच का भी नाम सुना जहां की ऐतिहासिक विजय के बाद ही द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त हुआ। क्रिस्टोफ़र नोलन की फिल्म के बाद डनकर्क के बारी में भी जानकारी बढ़ी। 


जब मैं अम्स्टर्डम से पेरिस जा रहा था तो डनकर्क और नॉरमंडी बीच क़रीब से निकले। मानचित्र पर देखकर ही मेरे रोंगटे खड़े हो गए। 


पेरिस की भव्य इमारतों के बीच साईन नदी पर नौका विहार के वक्त सोचता रहा कैसे वो दिन रहे होंगे जब इन इमारतों पर बमबारी का ख़तरा रहा होगा। कैसे हर घर से कोई युवा सेना में काम कर रहा होगा। कैसे नाज़ी सेना इन्हीं सड़कों पर घूम रही होगी। 


अम्स्टर्डम तक हिटलर का आतंक था। सिर्फ़ जर्मनी से ही नहीं, यहाँ से भी लोग घरों से निकालकर कंसंट्रेशन कैम्प में ज़िन्दा मौत के घाट उतार दिये जा रहे थे। हिटलर की सेना यहाँ भी आईं और एन फ़्रेंक जैसे लाखों लोगों को लेकर चले गई।  


अद्भुत शहर हैं ये। अद्भुत देश हैं ये। अद्भुत लोग हैं ये। 


एक तरफ़ हिटलर की सेना। एक तरफ़ एन को बचाने वाले जैसे लोग। एक तरफ़ एन का पता हिटलर की सेना को देनेवाले लोग। 


सब यहीं था। सब यहीं थे। मात्र पचहत्तर-अस्सी वर्ष पहले। 


और उससे पहले थे महान कलाकार। लियोनार्दो द विंची। मिकेलांजिलो। दांते। वेन गो। रेम्ब्राण्ट। 


महान वैज्ञानिक। न्यूटन। आइंस्टाइन। हुक। हैली। डार्विन। बर्नौली। मार्कोनी। वॉट। एम्पियर। क्यूरी। हर्ट्ज़। मैक्सवेल। यूलर। फर्मेट। 


महान लेखक। शेक्सपीयर। शॉ। शैली। कीट्स। बर्ट्रेंड रसल। 


बेल्जियम जैसे छोटे देश के छोटे शहर में बारहवीं शताब्दी के महल आज भी उस शहर की शोभा बढ़ा रहे हैं। आज भी मुझ जैसे पर्यटक को चकित कर रहे हैं। 


राहुल उपाध्याय । 27 दिसम्बर 2023 । ब्रसल्स 

Saturday, December 23, 2023

सैलानी

मैं सैलाना से हूँ। सैलानी मेरे खून में है। 


कोरोना की महामारी सबके लिए अभिशाप रही। मेरे लिए वरदान। 2019 से मम्मी मेरे साथ अमेरिका में थी। दिन में तीन घंटे से ज़्यादा मैं उन्हें अकेले नहीं छोड़ता था। नौ बजे दफ्तर जा कर बारह बजे वापस आ जाता था। खाना बनाकर खिला कर दो बजे दफ्तर जाता था। पाँच बजे लौट आता था। अपार्टमेंट के सामने ही दफ़्तर था। 


2020 में कोरोना के आते ही हम माँ-बेटे चौबीसों घंटों साथ थे। ऑफिस का काम कहीं से भी कर सकते थे। 


2021 में मम्मी गुज़र गईं। कोराना भी चला गया। रह गई कहीं से भी काम करने की आदत। 


26 सितम्बर को जब सिंगापुर से निमंत्रण आया कि चले आईए एक तरफ़ा टिकट लेकर। मैं तुरंत राज़ी हो गया। तब से अब तक वापस सिएटल नहीं गया हूँ। 


तब से अब तक सिंगापुर, मलेशिया. थाइलैंड, भारत, चीन, नेदरलैंड्स घूम चुका हूँ। आज फ़्रांस जा रहा हूँ पेरिस का आयफल टॉवर देखने। अम्सटर्डम से यूरोप के बाक़ी देशों में हवाई जहाज़ के अलावा ट्रेन, बस, कार से भी ज़ाया जा सकता है। 


मैं एक बस टूर के साथ जा रहा हूँ। सुबह पाँच बजे बस निकली हैं। दो बजे तक पेरिस पहुँचने की सम्भावना है। 


रास्ते में दो जगह रूके थे - नाश्ते और भोजन के लिए। मैक्डॉनल्ड और स्टारबक्स जैसे रेस्टोरेन्ट हैं।


मेरे साथ मेरे मेज़बान मनीष की पत्नी रश्मि ने मेरी प्रिय भिण्डी की सब्ज़ी और रोटियाँ बन कर रख दी थीं। सुबह की पाँच बजे की बस के लिए मनीष मुझे छोड़ने आ रहे थे। घर से चार बजे निकलना था। रश्मि ने साढ़े तीन बजे उठ कर रोटियाँ बनाईं। रात बारह बजे भिण्डी की सब्ज़ी बनाकर सोई थीं। 


कई बार समझ नहीं आता कि मेरी क़िस्मत इतनी अच्छी कैसे हैं कि मुझे इतने अच्छे लोग मिल रहे हैं। 


राहुल उपाध्याय । 23 दिसम्बर 2023 



Thursday, December 21, 2023

डंकी - एक समीक्षा

डंकी राजकुमार हिरानी द्वारा लिखित एवं निर्मित फिल्म है। इसके निर्माता शाह रूख खान की कम्पनी रेड चिलीज़ है। जब विधु विनोद चोपड़ा निर्माता थे तब की हिरानी की सारी फ़िल्में उत्तम गुणवत्ता वाली थीं। उनमें हर तरह के इमोशन्स थे। हास्य का बाहुल्य था। मुन्ना भाई के कई सीन्स अमर हैं। थ्री इडियट्स बहुत ही अच्छी थीम पर थी। सबसे बड़ी बात उन सबका लेखन उम्दा था, संवाद अच्छे थे। कहानी में दम था। 


डंकी संजू की तरह बहुत ही कमज़ोर प्लॉट पर आधारित है। फ़्लैशबैक के ज़रिए थोड़ा रोचक बनाने का प्रयास किया गया है पर वो ज़्यादा सफल नहीं हुआ। बोमन का किरदार कमज़ोर है। विकी को ज़बरदस्ती लिया गया है। वे मेहमान कलाकार हैं। समझ नहीं आया तापसी का नाम शाह रूख से पहले क्यों आया टायटल्स में। 


फ़िल्म में अंग्रेज़ी के संवाद बहुत ज़्यादा है। अंत में जो ज्ञान दिया गया है वह भी अंग्रेज़ी में। हिन्दी वाले बिचारे आँसू न बहा पाएँगे। 


वीसा न हो तो कितना अच्छा हो यह संदेश दे रही है यह फिल्म। जबकि भारत में कोई नहीं चाहता कि पाकिस्तान वाले या बंदलादेश वाले या अमेरिका वाले यहाँ खुले आम आए-जाए। 


न जाने किस आधार पर ये वीसा रहित प्रणाली को बेहतर बता रहे हैं। 


मौत को हास्य में बदल दिया। जनता भी खूब हँसी। बस वही एक हँसी गूंजी थियेटर में। बाक़ी सारे जोक्स में उतना दम नहीं है कि हँसी छूट पड़े। 


किसी भी निर्देशक से उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे हर फिल्म उम्दा बनाए। सुभाष घई, राज कपूर, स्टीवन स्पीलबर्ग - सब गलती करते हैं। इस बार हिरानी से हो गई। 


राहुल उपाध्याय । 22 दिसम्बर 2023 । अम्स्टर्डम


Thursday, December 14, 2023

शंघाई

शंघाई एयरपोर्ट पर आज भी सारे अधिकारी मास्क पहने रहते हैं। शायद सरकारी आदेश के तहत। 


प्लेन उतरने से पहले भी तमाम उद्घोषणाएँ हुई कि बुख़ार, जुकाम, उल्टी कुछ भी हो रहा हो तो तुरंत सूचित करें। क्वारंटिन किया जाएगा। मन में आया कि कहाँ बुरा फँसा। अच्छा ख़ासा अम्सटर्डम जा रहा था। ये दाल-भात में मूसलचंद कहाँ से टपक गया। 


पन्द्रह घंटे का ले ओवर था। रात नौ से दोपहर बारह बजे तक। पता नहीं था अमेरिकी नागरिक को ट्रांज़िट वीसा मिलेगा या नहीं। रात को बाहर निकल कर करूँगा क्या? निकल गया तो सुबह दस बजे तक वापस भी आना है। सोने के अलावा कुछ ख़ास हो नहीं पाएगा। 


सिंगापुर एयरपोर्ट पर एक और धक्का लगा। बैग सीधे अम्सटर्डम के लिए चैक इन नहीं होगा। मुझे सामान कलेक्ट कर के अपने पास रखना होगा और दूसरे दिन चैक इन करना होगा। एक और मुसीबत। सामान लेकर कहाँ घूमने जा पाऊँगा। 


जैसे-तैसे ग्यारह बजे तक ट्रांज़िट वीसा लेकर फ़्री हुआ। एयरपोर्ट पर ही लॉकर रूम मिल गया। चैन से छः बजे तक सोया। साढ़े छः तक तैयार हो कर सामान चैक इन करवाया। मेट्रो पकड़ी और पहुँच गया शंघाई सेंटर। कुछ घूमा-फिरा, कुछ खाया-पिया। लौटते वक्त मैगलेव से आया। जो काम मेट्रो ने एक घंटे में किया, इसने आठ मिनट में कर दिया। 


वापस एयरपोर्ट में घुसते वक्त सीलिंग पर लगे इन्फ्रा रेड सेंसर ने माथे का तापमान लिया। बुख़ार हुआ तो यात्रा रद्द। अजीब तमाशा है। 


लाईन पर लाईन। इमिग्रेशन की लाईन। सिक्योरिटी की लाईन। 


सिंगापुर इस मामले में बहुत बढ़िया है। कहीं कोई लाईन नहीं। चैक इन पर नहीं। इमिग्रेशन पर नहीं। और सिक्योरिटी तो कमाल की है। हर गेट की अपनी सिक्योरिटी। पता ही नहीं चलता है कि सिक्योरिटी है। 


राहुल उपाध्याय । 15 दिसम्बर 2023 । शंघाई 


Tuesday, December 12, 2023

एनिमल - समीक्षा

एनिमल - एक ज़माने में सिर्फ़ तेलुगू फ़िल्म बनकर ही रह जाती। पुष्पा के बाद से अब दक्षिणी फ़ार्मूले पूरे भारत ने स्वीकार कर लिए हैं। जैसे कि डोसा-इडली पूरे भारत में बड़े चाव से खाए जाते हैं। फ़र्क़ यह रह जाता है कि सारे मुख्य अभिनेता तो मुम्बई के होते हैं पर गाजर-मूली की तरह कट जाने वाले कलाकार दक्षिण भारत के होते हैं। उसी से पता चल जाता है कि निर्देशन और निर्माण दक्षिण भारत का है। रही-सही कसर तब पूरी हो जाती है जब कूल बनने के चक्कर में कच्छा पुराण भी शामिल कर लिया जाता है, ख़ासकर तब जब तीन सौ लोगों का नर संहार होने वाला है। 


फ़िल्म किसी महाकाव्य की तरह अलग-अलग अध्यायों में प्रस्तुत की जाती है। लेकिन हर अध्याय में बेटे का पिता के प्रति प्यार की अति समाहित है। ख़ून-ख़राबा लगभग हर फ़्रेम में है। गॉडफ़ादर से बहुत प्रभावित हैं निर्देशक। पूरे परिवार को बड़ा-चढ़ा कर दिखाया गया है। दुश्मनी भी। 


अंत में भी जैसे अभी पेट भरा नहीं है सो खूब खून-ख़राबा है। और दूसरे भाग की सम्भावना भी स्थापित कर दी जाती है। 


जितने भी सीन में रश्मिका है, बेहतरीन सीन हैं। बाक़ी सब या तो फूहड़ हैं या वीभत्स रस के हैं। 


गीत कई हैं, गीतकार कई हैं, संगीतकार कई हैं। बैकग्राउंड कम्पोज़र एक ही है। क्या कमाल का संगीत है। हर दृश्य को झेलने लायक बनाने में सहायक है। 


रणबीर का अभिनय कमाल का है। रश्मिका की कशिश बरकरार है। एक दो सीन छोड़ कर सब में वह सामान्य वेष भूषा में है। आजकल लोगों ने केदारनाथ को कश्मीर समझ रखा है। यह संदेश भी सहजता से दे दिया गया है। यह भी कि एक ही परिवार के जब दो गुट बन जाते हैं तो दूसरा मुसलमान बन जाता है और मुस्लिम गुट में कोई गुण नहीं रह जाता है। और जब वह गुट हिंदू गुट पर हमला करता है और हिन्दू गुट आत्मरक्षा में हथियार उठाता है तो उसे अपने ही अपराधी करार देते हैं। 


राहुल उपाध्याय । 12 दिसम्बर 2023 । सिंगापुर 





Saturday, December 9, 2023

सेम बहादुर- एक समीक्षा

सेम बहादुर - मेघना गुलज़ार द्वारा निर्देशित एवं लिखित नवीनतम फ़िल्म है जिसमें विक्की कौशल ने सेम मानेक्शा का रोल बखूबी निभाया है। फ़िल्म हर क्षेत्र में उम्दा है। अभिनय, छायांकन, लेखन, शोध, सेट की साज-सज्जा सब बहुत ही बढ़िया है। 


कमी है तो मनोरंजन की। रोमांच की। कहानी को एक सूत्र में पिरोने की। यह कमी शायद इसलिए है कि मानेक्शा की कोई कहानी ही नहीं है। सिर्फ़ एक जीवन है जो उन्होंने जीया। जैसे सबके जीवन में उतार-चढ़ाव आते हैं वैसे उनके जीवन में भी आए। फ़र्क़ सिर्फ यह है कि वे नेहरू जी के क़रीब रहे, इंदिरा गांधी के क़रीब रहे, उनसे कईं मुलाक़ातें हुईं, उन्होंने पाकिस्तान को हरा कर बांग्लादेश की स्थापना की, बंदूक़ की नौ गोलियाँ खाने के बाद भी वे बच गए। 


सारी महत्वपूर्ण घटनाएँ हैं। पर ऐसे जैसे एक दिन एक खबर पढ़ी, दूसरे दिन दूसरी, तीसरे दिन तीसरी आदि। यानी खबर और बस खबर। डाकूमेंट्री भी नहीं कि कोई सूत्रधार उन्हें जोड़ता चले, समझाता चले। 


गीत-संगीत छाप नहीं छोड़ते। देशभक्ति की ऊर्जा वाले गीत हैं। पर असरदार नहीं। 


इंदिरा गांधी का किरदार निभाना आसान नहीं। लेकिन फ़ातिमा ने इस चुनौती की स्वीकार किया और बखूबी निभाया। 


राहुल उपाध्याय । 9 दिसम्बर 2023 । सिंगापुर 



Monday, November 27, 2023

60

Now that I am 60, my life can be divided into several equal parts or chapters. 


30, 20, 15, 12, 10, 6, 5, 4, 3, 2



Two parts:

1️⃣ First 30 years : Bachelor

2️⃣Second 30 years: Married 


Three parts:

1️⃣First 20 years: Pre-BTech

2️⃣Second 20 years: Getting established in US

3️⃣Third 20 years: Getting to the core of life


Four parts:

1️⃣First 15 years: No idea what school is. Failed in Math and English in 9th grade. Repeated the grade. 

2️⃣Second 15 years: Enjoyed solving problems of math and other subjects. Got into IT-BHU (now IIT-Varanasi) and University of Cincinnati with full scholarship, tuition waiver and stipend to do MS and MBA. 

3️⃣Third 15 years: Figuring out what kind of work I can do that will help me get a green card, pay my bills and give some job satisfaction as well. 

4️⃣Fourth 15 years: no need to work for money. No mortgage. No debt. Live life at its fullest with no restrictions of any kind


Five parts:

1️⃣First 12 years: Living mostly the life of a small town boy. Reading several Hindi novels. Listening to lot of Hindi songs from neighborhood pan wala shops. 

2️⃣Second 12 years: Moved to big towns: Simla. Calcutta. Varanasi. Faced failures and success. Ended up leaving India. 

3️⃣Third 12 years: Found romance and rejection. Resorted to arranged marriage. Had a son. Struggled to get a green card. Found a very supportive employer. 

4️⃣Fourth 12 years: Layoffs loom large. Tried hand at owning a franchise restaurant. Had good experience. Not my cup of tea. One thing leads to another and achieved financial independence out of adversity. Unbelievable, on one hand I was facing the prospect of layoff. And on other hand the same situation pushed me into financial independence. 

5️⃣Fifth 12 years: best time of my life. Lots of poetry, music, friends, movies. Getting closer to parents. 


Six parts:

1️⃣First 10 years: the most innocent years. No idea who or where my father is. So much love from a joint family. The bonds that were made then are still strong. 

2️⃣Second 10 years: lots of travels with Bauji to Kashmir, Simla, Darjeeling, Behrampur, Visakhapatnam, Allahabad. Made several friends. Lots of visitors to Calcutta. I was their local guide. 

3️⃣Third 10 years: college days. In India and US. One year BSc Statistics at Presidency college, Calcutta. Four years at BHU, BTech in Metallurgical Engineering. Two years at University of Cincinnati, working on MS in Materials Science and Engineering. Did not finish. Completed MBA in Quantitative Analysis and Information Systems from University of Cincinnati in two years. 

4️⃣Fourth 10 years: moved from job to job. All without much planning from me. I just responded to situation at hand. I never had multiple offers. I always accepted the only offer I could get. No salary negotiations ever. No matter what the salary, I had the lifestyle that could be managed within 70 percent of my salary (post-tax) with some savings too to be able to travel to India with family. Buying four round trip tickets to India can get expensive. 

5️⃣Fifth 10 years: Facing the reality of layoffs in Silicon Valley. Mapping a path to be secure. Reaching financial freedom out of a fluke. 

6️⃣Sixth 10 years; having the time of my life. Able to enjoy anything and everything. Doing what I love and loving what I do. 


Ten parts:

1️⃣First 6 years: Not much first hand data here. Except that I remember my first day of school. I was maybe four at that time. I remember the day Shastriji died in Tashkent. 

2️⃣Second 6 years: I see my father for the first time when he returns with a PhD from London. 5th grade in Meerut English medium school. Aditi helped me through the year. Kind school principal who taught me ABCs. 6th and 7th grade from Jain school, Ratlam. 

3️⃣Third 6 years: 8th grade barely passed with the grace marks from Kendriya Vidyalay, Simla. Failed 9th grade in Math and English, Kendriya Vidyalay, Fort Williams, Calcutta. Thanks to patient teachers Shambhu da and Professor Haq, I enjoyed  learning mathematics.   

4️⃣Fourth 6 years: Moved to Varanasi and to Cincinnati. Very very transformative years. At BHU I learned how to express my opinions no matter how strong the other viewpoints may be. Learned a lot from Professor Lele. Exemplary figure. Loved the culture of IIT where getting in is tough. After that it's a conveyor belt. You just show up and everything falls in place. Applying to the US was such a simple and democratic process. I am still amazed by how much a student body can do when they decide to collaborate. This was also the time to find a job. I was dead against working in the harsh conditions of a steel plant. So I chose the management route. But the offer of admission to University of Cincinnati arrived before I could join Bokaro steel plant. Ended up in Cincinnati. September 15, 1986. Very memorable journey. Decided to stay in the US for the rest of my life if the visa situation is conducive. 

5️⃣Fifth 6 years: Finished MBA. Landed my first job as an Assistant Professor of Computer Science at Franklin College, Franklin, Indiana. I couldn't believe my luck. Then worked in Philadelphia for two years. Got married. Moved to Silicon Valley. 

6️⃣Sixth 6 years: worked in technical support supporting Wall Street starting from 4 am to 12 noon pacific. Not much work in the wee hours of morning. Picked up html. These were the heady days of web. Yahoo. Netscape. Created very first support incident management dashboard using isql and html on port 8080. Worked from home sometimes using dialup modem and atdt sequence through dumb terminal. Had a son. H1 expired. Moved to Toronto. Had a great time there. At that time Mummy had an accident in Jabalpur. She was bedridden for several days. I didn't go to see her. I still have ton of regrets. Lady Diana passed away. Moved back to Silicon Valley. Bought a home.

7️⃣Seventh 6 years: Got the green card. Changed jobs. Owned a franchise. Moved out of Silicon Valley to Seattle. 

8️⃣Eighth 6 years: Bought a home. Gained financial independence. Didn't work for a year. Started work just for fun. Explored various interests. Life is fun. 

9️⃣Ninth 6 years: Bauji passed away. Put a lot of focus on Mummy. She was happy where she was. Supported her in whatever she thought was best for her. 

🔟Tenth 6 years: Mummy fell down in India. She decided it's best to be with me in the US. I get an apartment for her next to Microsoft. I am able to take care of her completely with no assistance from anyone. I feed her breakfast before going to work. I come home for the lunch break, cook lunch - knead the fresh dough, cut the vegetables, cook the curry, make chapati, feed her, and then back to work. In the evening we go to temples. Stay there for four hours and then come home to sleep. We had such a lovely routine. She got her green card. Corona happened. Life changed for the better. We were together 24x7. No more temples. But we had our ducks and the pond in the apartment community. I couldn't believe life could be so beautiful. She passed away into ages. No regrets. Life took a new turn. I was now able to travel more frequently wherever I was asked to come. 



Saturday, November 25, 2023

32

वाणी नवीं कक्षा में थी। सोलह-सत्रह वर्ष की। तभी उसकी शादी हो गई। बच्ची थी। कोई जानकारी नहीं थी। पढ़ना चाहती थी। अजिया सास ने मना कर दिया। हमारे घर की बहू बाहर पढ़ने नहीं जातीं। घर में बहुत सारा काम भी था। सास का, ससुर का, अजिया सास का, जेठानी का, जेठ का, पति का। पति पाँच साल बड़ा था। ड्राइवर का काम करता था। 


एक साल में बेटा हो गया। 16 मार्च 2009। ख़ुद का जन्मदिन याद नहीं। याद इसलिए नहीं कि किसी को पता नहीं। वह मुझे एयरपोर्ट पर मिली। मेरी ही फ़्लाइट से सिंगापुर जा रही थी। बातों-बातों में मैंने उसका सारा भूगोल-इतिहास खंगाल लिया। यूँ ही पूछ लिया (मेरी उम्र अब दादा जैसी दिखने लगी है तो ऐसे सवाल बेख़ौफ़ पूछ सकता हूँ) तुम्हारी उम्र कितनी है? बत्तीस? उसने कहा हाँ। मैंने कहाँ ये तो कमाल हो गया। सच्ची? उसने कहा इतनी ही होगी। मैंने कहा, क्या मतलब। तुम्हें नहीं पता तुम कब पैदा हुई। नहीं। मैंने कहा कि पासपोर्ट देखो उसमें तो है। उसने पासपोर्ट देखा और पढ़ कर बताया। 12 तारीख़, सातवाँ महीना, साल इक्यान्वे। 


इतना भोलापन? कहने लगी अपना जन्मदिन जानकर क्या करेंगे। बच्चों का जन्मदिन मनाते हैं हम तो। 


वह अकेली सिंगापुर जा रही है। पति और बच्चे नोएडा में हैं। उसकी बहन, अंजलि, की शादी उसके देवर से हुई है। साथ ही रहते हैं। सो बच्चों की देखरेख के लिए उसकी बहन काफ़ी है। 


सिंगापुर में वह काम करती है - कुक का। किसी रेस्टोरेन्ट में नहीं। एक चौदह वर्षीय बच्चे, जिसका नाम गौतम है, के लिए खाना बनाती है। उसी के साथ रहती है। सारे काम करती है। कपड़े धोती है। सुखाती है। प्रेस करती है। फ़ोल्ड करती है। घर साफ़ रखती है। बर्तन धोती है। बाज़ार से दूध-ब्रेड-सब्जी सब लाती है। यानी जो काम माँ करती हैं, वे सारे काम वह करती है। बदले में मिलता है फ़्री में रहना, खाना-पीना, सिंगापुर से भारत आने-जाने का किराया। और आठ सौ सिंगापुरियन डॉलर। यानी पचास हज़ार रूपये। जो सीधे नोएडा की बैंक में जमा हो जाते हैं। 


यही काम गौतम की माँ, सुनीता, भी सिंगापुर में रहकर कर सकती थीं। लेकिन वे बिज़नेस चला रही हैं बैंगलोर में। वाणी पाल रही है सुनीता का बेटा। अंजलि पाल रही है वाणी के बच्चे। और सुनीता बढ़ा रही है देश की जीडीपी। घर की नेट वर्थ। 


वाणी जो काम सिंगापुर में करती है उससे ज़्यादा काम वह ससुराल में करती थी। पर बदले में उसे कुछ नहीं मिलता था। पैसा तो दूर कोई उसकी तारीफ़ तक नहीं करता था। ताने ज़रूर मिलते थे। आज यह नहीं किया। कल वो नहीं किया। आधे-अधूरे काम करती है। न जाने क्या सीखा के भेजा है। किसी बात का सऊर नहीं है। बिना नहाए रसोई में घुस जाती है। 


सिंगापुर में शांति है। टाईम ही टाईम है। दो बेडरूम है। एक उसका, एक मेरा। दो बाथरूम है। एक उसका, एक मेरा। अब मैं कमा भी रही हूँ। विदेश में रह रही हूँ। हवाई जहाज़ में बैठ चुकी हूँ। पति से ज़्यादा कमा रही हूँ। वे पैंतीस कमाते हैं। मैं पचास। घर में बहुत इज़्ज़त है। 


सिंगापुर से पहले भी घरवालों ने नौकरी करने से कभी मना नहीं किया। नौकरी करेगी तो घर में दो पैसे आएँगे। बच्चों के स्कूल की फ़ीस में मदद हो जाएगी। बहू पढ़ने इसलिए नहीं जा सकती कि खर्चा होता है। कमाने के लिए सब छूट है। 


सिंगापुर मुझे पसन्द नहीं। बहुत महँगा है। ज़्यादा ही शांति है। कोई तीज-त्योहार तीज-त्योहार लगता ही नहीं। वही आसमान। वही ज़मीन। न होली का रंग। न नवरात्रि की रौनक। न गरबे का आलम। खुल के यूट्यूब पर गाने भी नहीं सुन सकते। आवाज़ कम रखो। पड़ोसी को दिक्कत होती है। कई तरह के क़ानून है। कब किसके चक्कर में जेल हो जाए पता ही नहीं। रोज़ एक सी ज़िंदगी। बहुत सुखद। और बहुत दुखद। 


राहुल उपाध्याय । 25 नवम्बर 2023 । दिल्ली 



Thursday, November 23, 2023

बारहवीं फेल- समीक्षा

बारहवीं फेल विधु विनोद चोपड़ा की नवीनतम फिल्म है। यह एक सच्चे किरदार मनोज कुमार शर्मा के जीवन पर आधारित है। इसमें दिव्य प्रकाश कीर्ति भी है जो अपना ही किरदार निभा रहे हैं। यह डाक्यूमेंट्री नहीं है। सच घटना के पीछे कुछ नाटकीय प्रसंग जोड़े गए हैं। 


यह एक गाँव के कम जागरूक लोगों की कहानी है जिनमें से एक व्यक्ति किसी डीएसपी के अच्छे काम की वजह से उससे प्रभावित होता है। डीएसपी बनना चाहता है। उसे मूल मंत्र मिलता है कि चीटिंग छोड़ दो। उसी मूल मंत्र के सहारे वह अपने चरित्र का निर्माण करता है, धक्के खाता है, और अंततः सफलता प्राप्त करता है। 


कई बार आँखें नम हुई। बहुत ही प्रभावशाली लेखन एवं अभिनय है। कुछ प्रसंग गले नहीं उतरते हैं पर नज़रअंदाज़ किए जा सकते हैं। 


नायिका की भूमिका ज़्यादा नहीं है। फिर भी मेधा शंकर का अभिनय असर छोड़ता है। 


विधु विनोद चोपड़ा अब फ़िल्में निर्देशित नहीं करते हैं। वे एक प्रोड्यूसर बन कर रह गए है। जबसे राजकुमार हीरानी ने मुन्ना भाई और थ्री इडियट्स जैसी फ़िल्में निर्देशित की हैं विधु विनोद चोपड़ा सिर्फ प्रोड्यूस कर के ही खुश है। 


बारहवीं फेल को निर्देशित किया, अच्छा लगा। उनकी फ़िल्मों के विषय एक जैसे नहीं होते हैं। हमेशा नवीनता और ताज़गी रहती है। चाहे परिंदा हो या 1942 - ए लव स्टोरी। 


नायक के किरदार में विक्रांत मैसी का अभिनय विश्वसनीय है। 


राहुल उपाध्याय । 24 नवम्बर 2023 । दिल्ली 



Tuesday, November 14, 2023

टाइगर 3 - समीक्षा

टाईगर 3 एक बहुत ही शानदार फ़िल्म है। एक्शन सिक्वेंसेस बहुत ही ताज़गी लिए हुए हैं। हर सीन धमाकेदार। साथ ही बैकग्राऊंड म्यूज़िक भी कमाल का है। कभी लगता ही नहीं कि फ़िल्म खींच दी गई है। हर संवाद ज़रूरी है। ज़रा सा भी चूके कि बहुत कुछ मिस हो जाएगा। यह बहुत ही सेन्सिबल फ़िल्म है। ज़रा सी भी माइंडलेस वायलेंस नहीं है। शाह रूख खान की पठान किरदार वाली इन्ट्री कमाल की है। ताली बजाने को दिल करता है। मन करता है यह सिक्वेंस बस चलती जाए। कभी न ख़त्म हो। नए-नए संकट आते जाए और ये दोनों उनसे निपटते जाए। 


पाकिस्तान के प्रधानमंत्री और केबिनेट आदि के कैम्पस को भव्य दिखाया है। देख के अच्छा लगा कि पाकिस्तान को भी ख़ूबसूरत दिखाने का साहस किया है। 


अनय गोस्वामी की सारी सिनेमेटोग्राफ़ी इतनी ख़ूबसूरत है कि दिल ख़ुश हो जाता है। राज कपूर- द शो मेन - की याद आ जाती है। ऑस्ट्रिया, रूस, तुर्की, आदि देश के बहुचर्चित स्थान बहुत ही बढ़िया दिखाए गए हैं। कई बार लगता है कि हमारे कैमरे में हम वह सब नहीं क़ैद कर पाते हैं जो आँखें देखती हैं। लेकिन इस फिल्म ने साबित कर दिया कि यह किया जा सकता है। 


जन गण मन अधिनायक - जब बजा तो सब गर्व से उठ गए। बहुत ही भावुक दृश्य है। 


मनीष शर्मा के निर्देशन में यह बहुत ही बढ़िया फ़िल्म बनी है जिसमें थीम को ध्यान में रखते हुए वही सामग्री रखी गई है जिसकी आवश्यकता है। नम्रता राव का संपादन उम्दा है। 12 नवम्बर को रिलीज़ हुई फिल्म का मंगलवार 14 नवम्बर का दिन के डेढ़ बजे का शो खचाखच भरा हुआ था। 


फ़िल्म सलमान खान प्रधान है। लेकिन सब के अभिनय के लिए भी अवसर है। गोपी के किरदार में रणवीर शौरी, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के किरदार में सिमरन बग्गा, ज़ोया के किरदार में कटरीना, आतिश के किरदार में इमरान हाशमी ने कमाल का अभिनय किया है। 


हर एक सीन में इतनी बारीकी से साज-सज्जा की गई है कि दिल ख़ुश हो जाता है। इतने लोग, इतने प्रॉप्स, इतनी लाइटिंग, इतने मॉडल्स। कमाल की लगन है हमारे फ़िल्मकारों में। कहने को मसाला फ़िल्म है लेकिन कला के क्षेत्र में अग्रणी है। 


पूरी फ़िल्म मज़ेदार एवं पैसा वसूल है। पूरे परिवार के साथ थियेटर में देखी जा सकती है। कहानी पेचीदा है और निर्देशक उसे समझाने की कोशिश भी नहीं करता। ताकि दर्शक आँखें गड़ाए बस देखता रहे। 


राहुल उपाध्याय । 15 नवम्बर 2023 । रीवा

Monday, November 6, 2023

जाने जाँ- समीक्षा

हर फ़िल्मी कहानी फ़िल्मी ही होती है। लेकिन सुजोय घोष द्वारा निर्देशित जाने जाँ कुछ ज़्यादा ही फ़िल्मी है। श्रीराम राघवन की अंधाधुन भी हद से ज़्यादा फ़िल्मी थी पर इतनी मनोरंजक और तेज गति की कि यह सोचने का समय ही नहीं मिला कि ये क्या हो रहा है। 


बहुत ही डार्क टोन है इस फ़िल्म की। कोई खुल के हँसता ही नहीं है। किसी के भाई-बहन-माँ-बाप नहीं हैं। सब स्वयं भू हैं। 


इतनी डार्क है कि शुरू के एक सीन में तो मन किया बंद करो इस फिल्म को। कोई कब तक वध और दृश्यम के ढर्रे पर बनी फ़िल्म देखता रहेगा। क्या उद्देश्य है ऐसे दृश्यों का जिनसे आदमी परेशान हो जाए। क्या वो नारे लगाने लगे। एक पिटीशन अभियान छेड़ दे? या निर्देशक, पटकथा लेखन और अभिनेताओं की प्रशंसा करे?


अभी हाल ही में भारत के एक विश्वविद्यालय में अप्रिय घटना घटी। सब बड़ चढ़ कर बोल रहे हैं। ये होना चाहिए, वो होना चाहिए। ये माफ़ी माँगे, वो माफ़ी माँगे। समस्या को सार्वभौमिक रूप से जड़ से कोई नहीं मिटाना चाहता। बस हमारे कॉलेज में रामराज्य आ जाए। बाक़ी तो अख़बार भरे ही रहते हैं ऐसी घटनाओं से। कब किसी ने कुछ किया है। जैसे भ्रष्टाचार है, वैसे अप्रिय घटनाएँ हैं। हमारे जीवन का हिस्सा है। 


वध की तरह इस फिल्म में भी खलनायक का किरदार दमदार है और सौरभ सचदेव का अभिनय शानदार है। वे ही इस फिल्म की जान है। वध फ़िल्म का किरदार जैसे फिर से दोहराया गया। 


बाक़ी किरदार बहुत ही बनावटी हैं। कौन टीचर को टीचर कहता है? कौन इतना अकेला होता है? कौन इतना पागल होता है? जयदीप अहलावत हमेशा दुखी ही रहते हैं। कोई बदलाव नहीं। अभिनय करने का कोई मौक़ा नहीं मिला। 


विजय वर्मा ने अपनी नेगेटिव इमेज को सही करने की कोशिश की है। लेकिन वे न अमोल पालेकर हैं, न गोविंदा, न मिठुन, न शाहरुख़ खान। मुझे नहीं लगता वे लम्बी रेस का घोड़ा है। 


दृश्यम को कॉपी करने की हज़ार कोशिश की गई लेकिन असफल रहे। मूल मूल होती है। नक़ल नक़ल ही रहती है। 


करीना का अभिनय ठीक-ठाक है। गीत-संगीत यादगार नहीं हैं। 


राहुल उपाध्याय । 7 नवम्बर 2023 । सिंगापुर से दिल्ली जाते हुए



Friday, October 27, 2023

अच्छा साहित्य

अच्छा साहित्य वही होता है जिसमें अविश्वसनीय बातें भी विश्वसनीय लगती हैं। तब ही वह कालजयी बनता है। 'दीवार' हमें विश्वसनीय लगती है, मनमोहन देसाई की अमर-अकबर-एंथोनी टाइप नहीं कि अस्पताल में चार पलंग लगे हैं और तीन इंसानों से खून निकल कर सीधे चौथे इंसान में जा रहा है। जबकि 'दीवार' भी एक काल्पनिक कहानी ही है एक यूनियन लीडर की जो एक फ़ोटो देखकर डर जाता है। घर छोड़ देता है। दो बेटों में से एक पुलिस अफ़सर और दूसरा स्मगलर बन जाता है। और सारे पुलिस विभाग में सिर्फ़ एक भाई ही है जो भाई को गिरफ़्तार करेगा। और वह भाई भी 786 संख्या के बिल्ले की वजह से एक बार बच जाता है। बिल्ला न हुआ बुलेट प्रूफ़ जैकेट हो गया। 


आनन्द जिसे देखकर हर कोई रो पड़ता है वह भी गौर से देखें तो एक काल्पनिक कहानी ही है। कोई भी इंसान बिना अपने आगे-पीछे के नहीं होता। न बाबू मोशाय का कोई है। न आनन्द का। वाह! 


इसी तरह रामचरितमानस भी अच्छा साहित्य है। ज़्यादा दिमाग़ लगाने की ज़रूरत नहीं है कि कब, कौन, कहाँ, कैसे पैदा हुआ, कब मिला, कब बिछुड़ा, कब किस किस से क्या बात हुई। मनमोहन देसाई कहते थे कि सिनेमा देखना है तो दिमाग़ घर पर रख कर आईए। 


रामचरितमानस में इतने प्रसंग ऐसे हैं कि न सर है, न पैर। कभी राम लाचार हैं तो कभी सारे संसार के स्वामी हैं। अब हर साल नए-नए कथावाचक उभर कर आ जाते हैं जो हर तर्क को काटने को तैयार रहते हैं। कहते हैं राम नहीं चाहते कि सब कुछ वे करें। वे हनुमान का भी नाम रोशन करना चाहते हैं। लक्ष्मण का भी। सबका। यह कोई वन-मैन शो नहीं है। लेकिन अंततः नाम तो रामचरितमानस ही है। 


खैर। अब समुद्र पार करने का ही प्रसंग ले लीजिए। पहले तो विभीषण की बात मान कर प्रार्थना की समुद्र से। कुछ असर नहीं हुआ तो बाण द्वारा समुद्र सोख रहे थे। ये कैसे सम्भव है? क्या यह कोई साधारण मानव है जो समुद्र सोख सकता है। समुद्र से बात करता है? ऐसा इंसान यदि वनवास सहर्ष स्वीकार करता है तो कौनसा बड़ा काम कर रहा है। वह तो उसके बाएँ हाथ का खेल है। और वह तो जानता ही है कि उसका जन्म ही रावण का वध करने के लिए हुआ है। वह तो चाहेगा ही कि उसे वनवास मिले। 


और अब तक तो वानर और रीछ इंसान की भाँति चल-बोल रहे थे, विवाह रचा रहे थे। अब समुद्र भी चलने-बोलने लगा। और माना कि नल और नील बचपन में शरारती थे और वे हर चीज़ को पानी में डाल देते थे जिससे उनके माता-पिता परेशान थे कि चीजें मिलती ही नहीं थी। तब उन्हें श्राप मिला था कि जो भी फेंकेंगे तैरेगा, डूबेगा नहीं। तो ठीक है पत्थर तैरेंगे। पर जुड़े कैसे रहेंगे? रस्सी से बांधा उन्हें? सीमेंट लगाई? ऐसे ही पुल बन गया?


जटायु पक्षी हैं लेकिन बात करते हैं। बता देते हैं कि रावण ने सीता का अपहरण कर लिया है। पर नहीं, राम अभी हनुमान-सुग्रीव से मिलेंगे। (जैसा कि फ़िल्मों में होता है। क्लाईमेक्स तक हीरो विलैन को नहीं मारता है चाहे कितने ही मौक़े क्यों न मिल जाए) बालि का वध करेंगे। वह भी छुप कर। क्योंकि बालि को वरदान है कि प्रतिद्वंद्वी की आधी शक्ति उसे मिल जाएगी। उसके बाद भी चतुर्मास में आराम करेंगे। रावण से युद्ध तब तक नहीं हो सकता जब तक देवता सो रहे हों। 


सीता को मुक्त कराने की कोई जल्दी नहीं है। क्योंकि असली सीता तो अग्नि में छुपी बैठी हैं। जिसे अपहृत किया गया है वह तो सीता की प्रतिमूर्ति है। कम प्रबुद्ध पाठक नाहक परेशान होते हैं कि उन्हें सीता की कोई परवाह नहीं है। और अग्निपरीक्षा भी एक चाल थी असली सीता को आग से बाहर निकालने की। वे असली सीता को आग में नहीं धकेल रहे थे। वे तो दुनिया की आँख में धूल झोंक रहे थे। आई बात समझ में? यह सब लक्ष्मण को भी पता नहीं था। 


वनवास लेते समय शस्त्र साथ लेकर क्यों चले? कितने बाण लेकर चलें? एक धनुष कितने साल चल जाता होगा? और सारे आभूषण उतार दिए या कुछ रह गए? तो फिर केवट को देने के लिए अँगूठी कहाँ से आ गई? बाद में राम के पास एक और अँगूठी कहाँ से आ गई जो उन्होंने हनुमान जी को दी सीता की पुष्टि के लिए। और जब सीता सब अयोध्या में उतार ही चुकी थी तो अपहरण के वक्त पुष्पक से फेंकने के लिए गहने कहाँ से आए? और इतने गहने फेंक देने के बाद चूड़ामणि कैसे बच गया जो उन्होंने हनुमान जी को अशोक वन में दिया अपनी पहचान के रूप में राम के लिए?


जब लक्ष्मण मूर्छित हो जाते हैं तब राम काम नहीं आते हैं। पहले वैद्य सुषेण चाहिए। फिर संजीवनी। और वह भी सूर्योदय से पहले। और ऐसे में ही सौ बाधाएँ आती हैं। पहले कालनेमि से जान छुड़ाओ। फिर संजीवनी पहचानो। फिर पूरा पहाड़ ही उठा लो। अब समस्या यह कि रास्ते में अयोध्या पड़ता है। भरत हनुमान जी को दानव समझ लेते है। इतना बड़ा पहाड़ आख़िर कौन उड़ा को ले जा सकता है। उन्हें तीर मारते हैं। अब हनुमान धरा पर घायल बैठे हैं। उधर समय निकला जा रहा है। सोचिए अंजनी पुत्र इतने शक्तिशाली होते हुए सुग्रीव को बालि से नहीं बचा पाते हैं। भरत के तीर से घायल हो जाते हैं। राम को पहचान नहीं पाते हैं। ये कौनसी लीला कर रहे हैं? अब भरत इन्हें एक तीर पर बिठा कर लंका भेजते हैं ताकि शीघ्र पहुँच जाए। ख़ुद नहीं जाते हैं कि देखूँ दोनों भाई किस संकट में हैं। और सीता भाभी की कोई चिंता नहीं?


इतनी गुत्थियाँ हैं कि कहाँ तक सुलझाई जाए। 


तीन पत्नियाँ एक ही दिन एक ही खीर खा कर गर्भवती होती हैं। एक ही दिन चार भाइयों का जन्म होता है। एक ही दिन सबकी शादी होती है। सबके पुत्र भी चौदह साल बाद ही होते हैं। और सबको दो-दो पुत्र होते हैं। 


राम के राज्याभिषेक की ज़ोर-शोर से तैयारी हो रही है और भरत राज्य में ही नहीं है। ये कैसे हो गया? क्या उनके रहते राम का राज्याभिषेक नहीं हो पाता?


जैसा कि मनमोहन देसाई ने कहा - दिमाग़ नहीं लगाना है। मतलब की बात ग्रहण करनी है। बुराई पर अच्छाई की विजय होती है। बेटे को पिता का वचन निभाना है। भाई को भाई से प्यार करना चाहिए। आदि आदि। 


जैसे ख़रगोश-कछुए की कहानी है। सुनने से पहले ही आप टोक दोगे कि ये क्या चल रहा है? ख़रगोश और कछुए एक दूसरे से बात कर रहे हैं? ये कब और कहाँ हुआ? फिर तो आप आवश्यक शिक्षा से वंचित रह जाओगे कि काम करते रहने से ही सफलता मिलती है। चाहे कछुए की चाल से ही क्यों न करो। 


राहुल उपाध्याय । 27 अक्टूबर 2023 । क्राबी (थाइलैंड)










Monday, October 23, 2023

ऑनलाइन हिन्दी साहित्य की पत्रिकाएँ

ऑनलाइन हिन्दी साहित्य की पत्रिकाएँ वैसी ही है जैसे हर गली-मोहल्ले में चलता महादेव का मन्दिर। किसी के मन में आया कि मन्दिर होना चाहिए तो बना दिया। बाद में ख़याल आया कि इसे चलाने में समय भी जाता है और धन भी खर्च होता है। और यह भी ख़याल आता है कि यह कुछ लोगों की ज़रूरतें भी पूरी कर रहा है। तब धन जुगाड़ने के प्रयास किए जाते हैं। आजीवन संरक्षक सदस्य बनाए जाते हैं। उनके नाम दिए जाते हैं। और यहाँ एक और ज़रूरत पूरी हो जाती है। 


पत्रिकाएँ पढ़ते वही हैं जिनकी रचनाएँ छपती हैं। और वे भी सारे अंक नहीं पढ़ते, सिर्फ़ वह अंक जिसमें उनकी रचना छपी हो। और वह अंक भी वे पूरा नहीं पढ़ते। सिर्फ़ अपनी रचना पढ़ कर बंद कर देते हैं। 


ऐसे माहौल में भी दिन-प्रतिदिन दर्जनों पत्रिकाएँ निकल रही हैं तो समझ में नहीं आता कि उन्हें बधाई दूँ या हिम्मत की दाद दूँ या आनेवाले ग़म को खींच-तान कर आज की ख़ुशी में ज़हर घोल दूँ?


इन पत्रिकाओं से जुड़े लोग मुझसे रचनाएँ माँगते हैं तो मैं दे देता हूँ। वे छापना चाह रहे हैं तो मुझे क्या एतराज़?


जब वे पत्र सम्पादक के नाम चाहते हैं या पत्रिका पर टिप्पणी माँगते हैं तो मैं आनाकानी कर जाता हूँ। जो लिखूँगा, उन्हें अच्छा नहीं लगेगा। 


बात जब आर्थिक सहयोग की आती है तो मैं साफ़ मना कर देता हूँ। ऐसा नहीं कि सहयोग देने में असमर्थ हूँ। पर इस सोच में पड़ जाता हूँ कि जब इसे दे रहा हूँ तो उसे क्यों नहीं? इन सबको इसलिए दूँ कि ये मेरी रचनाएँ छापते हैं या मुझे जानते हैं? 


सबका अपना शग़ल है और वह शग़ल एक जज़्बे की वजह से जीवित है। आर्थिक समस्याएँ किसी जज़्बे को रोक नहीं सकती। 


वैसे भी सब मेरे जैसा नहीं सोचते हैं। यह अच्छी बात है। विविधता से ही दुनिया चलती है। आगे बढ़ती है। 


उन्हें सहायता मिल ही जाती है। 


राहुल उपाध्याय । 23 अक्टूबर 2023 । लंगकावी (मलेशिया)


Saturday, October 21, 2023

खुफिया- एक समीक्षा

खुफिया एक थ्रिलर मूवी है। शुरू से ही रहस्यमयी घटनाएँ होती रहती हैं। कुछ मौजूदा समय में। कुछ अतीत में। कई बार उन्हें एक दूसरे से अलग करना मुश्किल हो जाता है। 


यह विशाल भारद्वाज की फ़िल्म है और नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध है। 


विशाल भारद्वाज अलग तरह की फ़िल्में बनाते है। राहुल देव बर्मन के गुज़र जाने के बाद गुलज़ार की रचनाएँ को अधिकतर विशाल ने ही संगीत में पिरोया है। उनकी पत्नी रेखा भारद्वाज एक अच्छी गायिका हैं और अक्सर उनकी फ़िल्मों के गीत गाती हैं। 


विशाल को शेक्सपियर के नाटक भी प्रिय हैं और उन पर आधारित फ़िल्में भी बनाई है। जैसे कि औंकारा (ओथेलो), मक़बूल (मैक्बेथ), हैदर (हैमलेट)। 


खुफिया 2004 के आसपास की पृष्ठभूमि पर लिखी गई है और भारत-पाकिस्तान-बांग्लादेश-अमेरिका की राजनीति से ओतप्रोत है। इसमें कई और पहलू भी जोड़ दिए गए हैं जो कि घिसे-पीटे हैं। माँ का बेटे के प्रति हद से ज़्यादा लगाव। बेटे का माँ से अलगाव। बेटे का माँ के प्रति स्नेह। पति-पत्नी की तलाक़ के बाद की दोस्ती। काम की व्यस्तता से परिवार का उपेक्षित महसूस करना। समलैंगिक रिश्ते। बेटी का पिता के कैंसर का इलाज कराना। अमेरिका सोने की खान है पर गुलाब की सेज नहीं। संभ्रांत दिल्ली के गुरुओं की सच्चाई। आदि। 


इतने पहलू एक साथ होने से कई बार फ़िल्म खींच दी गई लगती है। हिचकॉक को भी माथा टेका गया है। क्लाईमेक्स में हास्यास्पद सीन अटपटा लगा। 


पर कुल मिलाकर घर बैठकर देखने लायक़ अच्छी फिल्म लगी। बैकग्राउंड स्कोर बहुत ही बढ़िया है। ख़ासकर व्हीस्लिंग वाला। 


खुफिया एजेंसी के खुफिया तरीक़े फ़िल्मी हैं। रीयल लाईफ़ में शायद ऐसा नहीं है। 


तबू और वामिका का अभिनय शानदार है। नवीन्द्रा बहल की अदायगी ओवर द टॉप है पर बहुत ही विश्वसनीय है। राहुल राम एक बहुत ही अच्छे कलाकार है। लग ही नहीं रहा था कि वे एक गुरू का किरदार निभा रहे हैं। 


गीत गुलज़ार के हैं लेकिन कोई असर नहीं छोड़ते। 


फरहाद अहमद दहेलवी की सिनेमेटोग्राफ़ी बहुत ही बढ़िया है। ख़ासकर कनाडा के सीन बहुत ही सुन्दर है। फिल्म में उन्हें अमेरिका बताया गया है। 


फ़िल्म की कहनी विशाल और रोहण नरूला ने लिखी है जो कि अमर भूषण के उपन्यास पर आधारित है। 


राहुल उपाध्याय । 22 अक्टूबर 2023 । सिंगापुर 



Monday, October 16, 2023

रामचरितमानस दोहा 121 से 240


बालकाण्ड के 110वें दोहे में पार्वती जी शंकर भगवान से रामकथा सुनाने का अनुरोध करती हैं, तब श्री महादेवजी के हृदय में सारे रामचरित्र आ गए। प्रेम के मारे उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में जल भर आया। श्री रघुनाथजी का रूप उनके हृदय में आ गया, जिससे स्वयं परमानन्दस्वरूप शिवजी ने भी अपार सुख पाया। शिवजी दो घड़ी तक ध्यान के रस (आनंद) में डूबे रहे, फिर उन्होंने मन को बाहर खींचा और तब वे प्रसन्न होकर श्री रघुनाथजी का चरित्र वर्णन करने लगे॥ 


और तुलसीदास जी ने शंकर भगवान के मुख से रामचरितमानस की यह सुप्रसिद्ध चौपाई कहलवाई -


मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥बालकाण्ड 112.2॥

भावार्थ:-मैं उन्हीं श्री रामचन्द्रजी के बाल रूप की वंदना करता हूँ, जिनका नाम जपने से सब सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं। मंगल के धाम, अमंगल के हरने वाले और श्री दशरथजी के आँगन में खेलने वाले (बालरूप) श्री रामचन्द्रजी मुझ पर कृपा करें॥बालकाण्ड 112.2॥


यह जानकर तो मेरे रोमांच की कोई सीमा ही नहीं रही कि न सिर्फ़ हम बल्कि भगवान शंकर भी यह चाहते हैं कि श्रीरामजी भक्तों पर कृपा करें। गोस्वामी तुलसीदास जी के कवित्त और साहस का कोई सानी नहीं। 

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और 140.3 में यह भी भगवान शंकर ही कह रहे हैं पार्वती जी से कि:

* हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥बालकाण्ड 140.3॥

भावार्थ:-श्री हरि अनंत हैं (उनका कोई पार नहीं पा सकता) और उनकी कथा भी अनंत है। ॥बालकाण्ड 140.3॥

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द्वादशाक्षर मंत्र क्या है, यहाँ देखें:


द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।

बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग॥बालकाण्ड 143॥

भावार्थ:-और द्वादशाक्षर मन्त्र (ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय) का प्रेम सहित जप करते थे। भगवान वासुदेव के चरणकमलों में उन राजा-रानी का मन बहुत ही लग गया॥बालकाण्ड 143॥


नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा॥

संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥बालकाण्ड 144.3॥

भावार्थ:-जिन्हें वेद 'नेति-नेति' (यह भी नहीं, यह भी नहीं) कहकर निरूपण करते हैं। जो आनंदस्वरूप, उपाधिरहित और अनुपम हैं एवं जिनके अंश से अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु भगवान प्रकट होते हैंबालकाण्ड 144.3॥


अब लगि मोहि न मिलेउ कोउ मैं न जनावउँ काहु।

लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु॥बालकाण्ड 161 क॥

भावार्थ:-अब तक न तो कोई मुझसे मिला और न मैं अपने को किसी पर प्रकट करता हूँ, क्योंकि लोक में प्रतिष्ठा अग्नि के समान है, जो तप रूपी वन को भस्म कर डालती हैबालकाण्ड 161 क॥


बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं॥

जलधि अगाध मौलि बह फेनू। संतत धरनि धरत सिर रेनू॥बालकाण्ड 167.4॥

भावार्थ:-बड़े लोग छोटों पर स्नेह करते ही हैं। पर्वत अपने सिरों पर सदा तृण (घास) को धारण किए रहते हैं। अगाध समुद्र अपने मस्तक पर फेन को धारण करता है और धरती अपने सिर पर सदा धूलि को धारण किए रहती है॥बालकाण्ड 167.4॥


प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा॥

बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं॥बालकाण्ड 237.4॥

भावार्थ:-(उधर) पूर्व दिशा में सुंदर चन्द्रमा उदय हुआ। श्री रामचन्द्रजी ने उसे सीता के मुख के समान देखकर सुख पाया। फिर मन में विचार किया कि यह चन्द्रमा सीताजी के मुख के समान नहीं है॥4॥

दोहा :

* जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक।

सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक॥बालकाण्ड 237॥

भावार्थ:-खारे समुद्र में तो इसका जन्म, फिर (उसी समुद्र से उत्पन्न होने के कारण) विष इसका भाई, दिन में यह मलिन (शोभाहीन, निस्तेज) रहता है, और कलंकी (काले दाग से युक्त) है। बेचारा गरीब चन्द्रमा सीताजी के मुख की बराबरी कैसे पा सकता है?॥बालकाण्ड 237॥

चौपाई :

* घटइ बढ़इ बिरहिनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई॥

कोक सोकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही॥बालकाण्ड 238.1॥

भावार्थ:-फिर यह घटता-बढ़ता है और विरहिणी स्त्रियों को दुःख देने वाला है, राहु अपनी संधि में पाकर इसे ग्रस लेता है। चकवे को (चकवी के वियोग का) शोक देने वाला और कमल का बैरी (उसे मुरझा देने वाला) है। हे चन्द्रमा! तुझमें बहुत से अवगुण हैं (जो सीताजी में नहीं हैं।)॥बालकाण्ड 238.1॥

* बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोषु बड़ अनुचित कीन्हे॥

सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुर पहिं चले निसा बड़ि जानी॥बालकाण्ड 238.2॥

भावार्थ:-अतः जानकीजी के मुख की तुझे उपमा देने में बड़ा अनुचित कर्म करने का दोष लगेगा। इस प्रकार चन्द्रमा के बहाने सीताजी के मुख की छबि का वर्णन करके, बड़ी रात हो गई जान, वे गुरुजी के पास चले॥2॥



राहुल उपाध्याय । 15 अक्टूबर 2021 । सिंगापुर