Monday, November 6, 2023

जाने जाँ- समीक्षा

हर फ़िल्मी कहानी फ़िल्मी ही होती है। लेकिन सुजोय घोष द्वारा निर्देशित जाने जाँ कुछ ज़्यादा ही फ़िल्मी है। श्रीराम राघवन की अंधाधुन भी हद से ज़्यादा फ़िल्मी थी पर इतनी मनोरंजक और तेज गति की कि यह सोचने का समय ही नहीं मिला कि ये क्या हो रहा है। 


बहुत ही डार्क टोन है इस फ़िल्म की। कोई खुल के हँसता ही नहीं है। किसी के भाई-बहन-माँ-बाप नहीं हैं। सब स्वयं भू हैं। 


इतनी डार्क है कि शुरू के एक सीन में तो मन किया बंद करो इस फिल्म को। कोई कब तक वध और दृश्यम के ढर्रे पर बनी फ़िल्म देखता रहेगा। क्या उद्देश्य है ऐसे दृश्यों का जिनसे आदमी परेशान हो जाए। क्या वो नारे लगाने लगे। एक पिटीशन अभियान छेड़ दे? या निर्देशक, पटकथा लेखन और अभिनेताओं की प्रशंसा करे?


अभी हाल ही में भारत के एक विश्वविद्यालय में अप्रिय घटना घटी। सब बड़ चढ़ कर बोल रहे हैं। ये होना चाहिए, वो होना चाहिए। ये माफ़ी माँगे, वो माफ़ी माँगे। समस्या को सार्वभौमिक रूप से जड़ से कोई नहीं मिटाना चाहता। बस हमारे कॉलेज में रामराज्य आ जाए। बाक़ी तो अख़बार भरे ही रहते हैं ऐसी घटनाओं से। कब किसी ने कुछ किया है। जैसे भ्रष्टाचार है, वैसे अप्रिय घटनाएँ हैं। हमारे जीवन का हिस्सा है। 


वध की तरह इस फिल्म में भी खलनायक का किरदार दमदार है और सौरभ सचदेव का अभिनय शानदार है। वे ही इस फिल्म की जान है। वध फ़िल्म का किरदार जैसे फिर से दोहराया गया। 


बाक़ी किरदार बहुत ही बनावटी हैं। कौन टीचर को टीचर कहता है? कौन इतना अकेला होता है? कौन इतना पागल होता है? जयदीप अहलावत हमेशा दुखी ही रहते हैं। कोई बदलाव नहीं। अभिनय करने का कोई मौक़ा नहीं मिला। 


विजय वर्मा ने अपनी नेगेटिव इमेज को सही करने की कोशिश की है। लेकिन वे न अमोल पालेकर हैं, न गोविंदा, न मिठुन, न शाहरुख़ खान। मुझे नहीं लगता वे लम्बी रेस का घोड़ा है। 


दृश्यम को कॉपी करने की हज़ार कोशिश की गई लेकिन असफल रहे। मूल मूल होती है। नक़ल नक़ल ही रहती है। 


करीना का अभिनय ठीक-ठाक है। गीत-संगीत यादगार नहीं हैं। 


राहुल उपाध्याय । 7 नवम्बर 2023 । सिंगापुर से दिल्ली जाते हुए



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