Monday, November 29, 2021

राजनेता और कविता

https://youtu.be/cUvLY0M7O6A


यह अच्छी बात है कि राजनेता कविताएँ याद करके सुना रहे हैं। यह तो और भी अच्छी बात है कि गाँधी परिवार की नई पीढ़ी भी ऐसा कर रही है। वरना इन्हें अक्सर अंग्रेज़ीदां समझा जाता रहा है। दयनीय यह है कि सुनने वालों को समझाने का प्रयास किया गया। कविता समझानी पड़े तो कविता कमज़ोर पड़ जाती है। 


इस वीडियो की शुरुआत में ही कविता सुनाई जा रही है। कवि का नाम नहीं लिया। लेकिन यह ज़रूर कहा कि एक कवि ने कहा है। जैसे कि शेर सब सुनाते हैं यह कह कर कि किसी शायर ने क्या ख़ूब कहा है। शायर के नाम कौन बताता है और कौन जानता है। 


जैसे कि अलका अग्रवाल जी कह रही हैं - हंगामा है क्यूँ बरपा। 


अलका जी कौन है? 


इससे पहले मिलिए पुष्यमित्र उपाध्याय जी से। 

http://news10india.com/my-poetry-is-not-for-poor-politics


फिर मिलिए अलका जी से:

https://youtu.be/pvssluV7giM


राहुल उपाध्याय । 29 नवम्बर 2021 । सिएटल 




Thursday, November 25, 2021

धन्यवाद ज्ञापन 2021

हर वर्ष नवम्बर के चौथे गुरुवार को अमेरिका में धन्यवाद ज्ञापन दिवस के रूप में मनाया जाता है। 


इस वर्ष मुझे जिन्होंने सहारा दिया, सम्बल बढ़ाया, अकेला महसूस न होने दिया, उनके प्रति मैं धन्यवाद प्रकट करना चाहता हूँ। 


उनमें से प्रमुख हैं सुहानी, प्रांशु, मीना, मधु, ममता, अनीता, मनीष-छंदा, राजेश, हरमीत-नीतू, मीनू, चिकी, नूतन, अजय, बृजेश, तरूण, अनिल, रवि जी-रेखा जी, हिन्दबाला मासीजी, बबली, जयू, पंकज, बिट्टू, उमेश और मेरी सहकर्मी डेब। 


मार्च में जब मम्मी ने खाना-पीना बंद कर दिया था, मैंने दफ़्तर से एक हफ़्ते की छुट्टी ले ली थी। काम तो घर से ही कर रहा था लेकिन फिर भी चिंता ज़्यादा बढ़ गई थी सो हर पल उनके साथ ही बिताना चाहता था। छुट्टी की ई-मेल जब भेजी तो डेब ने स्वयं मुझसे बातचीत की और एक राह दिखाई जिससे मम्मी की हालत थोड़ी सुधरी और मई के महीने में व्हीलचैयर पर घर से बाहर निकल कर खिलते फूल और चहकते पक्षियों के बीच बैठ सकीं। 


सुहानी, प्रांशु और मीना के फ़ोन लगातार आते रहें। हालात का अंदाज़ा लगाते रहें। मुझे ढाँढस बँधाते रहें। बाद में पीथमपुर जा कर रहना, वहाँ का स्वादिष्ट भोजन और जानापाव जाना हमेशा याद रहेगा। 


मधु ने भी हर कदम साथ दिया। दोस्ती इतनी बढ़ गई कि जीवन में पहली बार संगम की भी सैर हो गई। 


ममता बहुत पहले से मुझसे जुड़ी है और इसी की मुनक्के के नुस्ख़े से मम्मी की न रूकने वाली उल्टी अंततः रूकी। 


अनीता से भी पुराना सम्बन्ध है। मम्मी अनीता से बात करके बहुत ख़ुश होती थीं। सबसे कहती थी मेरे पास चीन से भी फ़ोन आते हैं। इन दोनों की फ़ोन पर हुई बात की वीडियो रिकार्डिंग एक दुर्लभ धरोहर और सुखद याद है। 


राजेश जो यहाँ रहते हैं, उस राजेश की याद दिलाते हैं जो अब नहीं है। जितना राजेश ने किया उसे लिखा नहीं जा सकता। 


हरमीत और उसकी पत्नी नीतू जितने पास में रहते हैं, उतने ही दिल के क़रीब हैं। बहुत बहुत बहुत मदद की। इतनी मदद कि परिवार के सदस्य बन गए हैं। अब मदद, मदद नहीं लगती। प्रेम। बस प्रेम। 


मनीष और उनकी पत्नी छंदा। छंदा व्यस्त होते हुए भी आते-जाते घर पर कुछ न कुछ रख जाती। घर खुला ही रहता था। जब आ कर देखता तो चेहरा खिल उठता था तरह-तरह के व्यंजन देख कर। 


दिल्ली से मीनू मेरे साथ हरिद्वार तक आई। बाद में बेटे-बहू चिकी-नूतन ने मेरे दिल्ली आवास में हर ज़रूरत का प्रेमपूर्वक ध्यान रखा। 


दिल्ली में ही तरूण ने सिम का इंतज़ाम किया ताकि मैं भारत से भी काम कर सकूँ। उसकी मम्मी ने खान-पान का ख़्याल रखा। 


अजय, गुजरात से दिल्ली आए। मेरे साथ हरिद्वार तक अस्थि विसर्जन में साथ देने के लिए। 


बृजेश, मेरे सहृदय पाठक, जो कि अब परिवार का हिस्सा बन गए हैं। वे भी दिल्ली आए हरिद्वार तक मेरा साथ देने के लिए। 


अनिल की वजह से ही मैं भारत भ्रमण कर पाया। उसे कहने की देर थी कि मेरा ट्रेन का टिकट तैयार हो जाता था। 


35 साल बाद भोपाल गया। रवि जी और रेखा जी ने आत्मीयता से स्वागत किया। हर तरह की सुविधा प्रदान की। यादगार दिन। 


रतलाम में मासीजी के निर्देशन में बबली और जयू हर रोज़ मुझे नए-नए व्यंजन खिलाती-पिलाती रहीं।  डायबीटीज़ होने के बावजूद इतनी बढ़िया बंगाली मिठाई लाती थी कि मैं मना नहीं कर पाया। बिना दलिये का नमकीन दलिया हमेशा याद रहेगा। 


तराना में पंकज का आतिथ्य और शर्ट। इंदौर में बिट्टू का प्रेम और पिंक शर्ट। 


उमेश, जिन्होंने मेरे बेजान शब्दों को आवाज़ दी, संगीत दिया, पंख दिए। 


धन्यवाद ज्ञापन दिवस के बारे में और जानकारी के लिए इसे पढ़ें:


https://rahul-upadhyaya.blogspot.com/2020/10/3.html?m=1


राहुल उपाध्याय । 25 नवम्बर 2021 । सिएटल 







Tuesday, November 23, 2021

सिएटल

सिएटल शहर ओलंपिक और केस्केड पर्वत शृंखलाओं के बीच फैली वादी में बसा हुआ है। यह बहुत ही खूबसूरत शहर है। मैं तो इसे दुनिया का सर्वश्रेष्ठ शहर मानता हूँ। इंदौर भारत का सबसे स्वच्छ शहर है। और अमेरिका में प्रायः सारे शहर साफ़ है। तो इस तरह की प्रतिस्पर्धा तो यहाँ नहीं है। 


लेकिन फिर भी कुछ तो है इस शहर में जिनकी वजह से मैं इसे सर्वश्रेष्ठ मानता हूँ। 


सबसे बड़ी वजह तो यह कि दुनिया के सबसे धनी व्यक्ति इसी शहर में रहते हैं। वे कहीं भी रह सकते हैं। स्विट्ज़रलैंड। नेपाल। आस्ट्रेलिया। जहाँ चाहे वहाँ। लेकिन नहीं। वे यहीं रहते हैं। और बरसों से रह रहे हैं। वे हैं बिल गेट्स और जेफ़ बेज़ोस। 


मेरे लिए तीन कारण हैं। 


पहला, मौसम। इससे बेहतर मौसम कहीं नहीं है। न ज़्यादा गर्मी। न ज़्यादा सर्दी। बर्फ़ गिरती है। पर इतनी नहीं कि सरदर्द बन जाए। सिर्फ़ एक या दो बार। इतनी कि बच्चों के स्कूल की और बड़ों के दफ़्तर में छुट्टी हो जाए। ख़ूब मज़े लो। और पतझड़ तो इतना सुन्दर कि आँखें हटाए न बने। 


आज दांतों की सफ़ाई कराने के बाद लौट रहा था तो खूबसूरत सूर्यास्त का नज़ारा सामने आ गया। गाड़ी रोकने से खुद को रोक नहीं पाया। और कुछ फ़ोटो ले ही लिए। 


यहाँ कई झीलें हैं। उनमें से एक है समामिश झील। जिसके एक तरफ माईक्रोसॉफ्ट स्थित है। 


ये फ़ोटो उसी झील के हैं। 


दूसरा कारण है, रोज़गार के अवसर। माइक्रोसॉफ़्ट, अमेज़ॉन, स्टारबक्स, आर-ई-आई, नार्डस्ट्रोम, बोईंग जैसी बड़ी कंपनियों के मुख्य कार्यालय यहीं है। इनके अलावा फ़ेसबुक और गुगल की भी बड़ी उपस्थिति है। हर क्षेत्र के प्राणी के लिए यहाँ पर्याप्त रोज़गार है। 


तीसरा कारण है, विद्यालय और विश्वविद्यालय। सब उम्दा है। मैं बाक़ी राज्यों में रह चुका हूँ। वहाँ के सरकारी विद्यालयों का स्तर उतना अच्छा नहीं है जितना यहाँ के विद्यार्थियों का। हाँ बॉस्टन और सेन फ्राँसिस्को के आसपास बहुत ही बढ़िया विश्वविद्यालय हैं। लेकिन सिएटल का वॉशिंगटन विश्वविद्यालय भी कम नहीं है। 


राहुल उपाध्याय । 23 नवम्बर 2021 । सिएटल 




Thursday, November 18, 2021

कार्तिक पूर्णिमा

आज कार्तिक पूर्णिमा है या कल, कुछ ठीक से नहीं पता। लेकिन कला के लिए आज है। चूँकि मम्मी की वजह से मेरे पास दो फलती-फूलती हरी-भरी तुलसी हैं, वह तुलसी की पूजा करने आई। 


पूजा की थाली बहुत ही आकर्षक थी। पहली बार चावल के आटे के दो सुन्दर सफ़ेद दीपक देखे। बिलकुल मोम के लग रहे थे। गेहूँ के आटे के चौमुखी दीपक तो मैंने भी लगाए हैं दीवाली के दिनों में। चावल के पहली बार सुनें और देखें। 


और फिर एक विचित्र दीपक। दीपक के ऊपर दीपक। वह दीपक पूजनीय है इसलिए उसे सीधे थाली में नहीं रख सकते। 


इस विशेष दीपक की बाती भी विशेष है। यह 365 पतली-पतली बत्तियों को मिलाकर बनती है। पतली-पतली बत्तियाँ गड्डमड्ड नहीं हो गईं थीं। बहुत बारीकी से जोड़ी गईं थीं। और एक बाती से बाँधी गईं थीं। 


तीनों दीपक मुझसे ही जलवाए। बहुत अच्छा लगा। मैं भी पूजा का हिस्सा बन गया। 


आज दिनभर मैंने न कुछ खाया न पिया। काम में इतना मशगूल था कि समय का भी ध्यान नहीं रहा। वो तो किसी ने पूछा व्हाट्सएप पर कि आज क्या खाया तो ध्यान आया कि आज तो कुछ खाया-पीया नहीं। पानी भी नहीं। रोज़ सुबह मम्मी की आदत के अनुसार तुलसी को जल देता हूँ एक ताम्बे के लौटे से। लौटे दो हैं। एक मैं ख़ाली कर देता हूँ ग्लास में अपने लिए। वह गिलास वैसे ही पड़ा मेरा मुँह ताक रहा था। 


पता चला कला ने भी आज कुछ खाया-पीया नहीं। निर्जला व्रत रखा है। 


मेरा भी अनजाने में व्रत हो गया। 


दक्षिण में करवा चौथ की जगह वरा-लक्ष्मी का निर्जला व्रत रखा जाता है। उस दिन कला ने पानी पी लिया था। 


राहुल उपाध्याय । 18 नवम्बर 2021 । सिएटल 



Monday, November 15, 2021

मन्नू भंडारी

मन्नू भंडारी से मेरा परिचय कक्षा 3 में ही हो गया था, जब बाऊजी के साथ मम्मी और हम दो भाई पहली बार एक इकाई परिवार के रूप में मध्य प्रदेश से बहुत दूर दिल्ली में रह रहे थे। 


तब तक हम दो भाई पिछले चार साल से सैलाना में दासाब (नाना) के घर में ही रह रहे थे। और मैं दासाब के ही स्कूल में पढ़ रहा था। दिल्ली में हमारा किसी स्कूल में दाख़िला नहीं हुआ। एक-दो महीने बाद हम वापस सैलाना आ गए। तब बाऊजी इण्डियन लॉ इन्स्टिट्यूट में पढ़ा रहे थे। शायद वे वह नौकरी छोड़कर फिर कहीं बाहर चले गए थे। शायद न्यूज़ीलैण्ड। 


दिल्ली में जितने भी दिन रहा, स्कूल तो नहीं गया, पर सीखा बहुत। जीवन के कई पहलुओं पर पहली बार निगाह पड़ी। माता-पिता को नज़दीक से देखा। उनके बीच होती खटपट का हिस्सा बना। 


सैलाना में यह सब कभी नहीं देखा। 7 बच्चे थे। 8 बड़े। घर भी दिल्ली की अपेक्षा लम्बा-चौड़ा था। आगे स्कूल था। पीछे बगीचा था, कुआँ था। ऊपर भी एक हिस्सा था। 


शायद इस वजह से न देखा हो। सब सदैव सुचारू रूप से चलते देखा। समय पर सोना, उठना, स्नान, और भोजन। उससे ज़्यादा कुछ चाहिए भी नहीं था। 


दिल्ली में तनाव देखा। मम्मी को रोते देखा। दुख में देखा। 


तभी धर्मयुग में प्रकाशित मन्नू भंडारी द्वारा रचित धारावाहिक उपन्यास 'आपका बंटी' में मम्मी की रूचि देखी। मम्मी चौथी तक पढ़ी थीं पर नईदुनिया और पत्रिकाओं को पढ़ती रहती थीं। दासाब पत्र-पत्रिकाओं के विक्रेता भी थे। जिन्हें परिवार के सब लड़के साईकल से पूरे सैलाना में बाँटने जाते थे। मैं इस अनुभव से वंचित रह गया। चौथी कक्षा के बाद मैं सैलाना में नहीं रहा, इसलिए। (और इसी वजह से साईकल चलाना भी नहीं सीख पाया जब तक कि मैं बनारस काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ने न गया। तब तक मैं 20 वर्ष का हो चुका था।)


मैंने भी उनकी देखा-देखी 'आपका बंटी' के कुछ अंश पढ़ें। कुछ समझ आया, कुछ नहीं। 


लेकिन उनका नाम हमेशा याद रहा। 


बाद में उनकी पटकथा पर आधारित फ़िल्म 'स्वामी' देखी। बहुत खुशी हुई। दसवीं के पाठ्यक्रम में उनकी कहानी 'कमरे, कमरा और कमरे' पढ़ी। अच्छा लगा। फिर राजेंद्र यादव जी के साथ उनके कटु अनुभवों के बारे में पढ़ा। बहुत-बहुत दु:ख हुआ। यह जानकर और दु:ख हुआ कि इतनी सफल लेखिका होने के बावजूद वे एक असहाय सी नज़र आईं। 


उनके जीवन और लेखन पर यह 25 मिनट का वीडियो बहुत ही बढ़िया है। समग्र एवं स्पष्ट। 


https://youtu.be/0S5oyo53JAo


राहुल उपाध्याय । 15 नवम्बर 2021 । सिएटल 


——


'महाभोज' विद्रोह का राजनीतिक उपन्यास है. यह उपन्यास भ्रष्ट भारतीय राजनीति के नग्न यथार्थ को प्रस्तुत करता है. 


'बन्दी', 'मैं हार गई', 'तीन निगाहों की एक तस्वीर', 'एक प्लेट सैलाब', 'यही सच है', 'आंखों देखा झूठ' और 'त्रिशंकु' संग्रहों की कहानियों से उनके व्यक्तित्व की झलक मिलती है. 'एक कहानी यह' भी मन्नूजी की आत्मकथ्यात्मक कृति है. बिना दिवारों के घर, उजली नगरी चतुर राजा उनके प्रसिद्ध नाटक हैं.


बच्चों के लिए उन्होंने 'आसमाता', 'आंखों देखा झूठ' और 'कलावा' जैसी रचनाएं रचीं. पति राजेंद्र यादव के साथ लिखा गया उपन्यास 'एक इंच मुस्कान' दुखभरी प्रेमगाथा की कहानी है.



Sunday, November 14, 2021

देवोत्थानी एकादशी

देवोत्थानी एकादशी- यानी

  1. देवताओं का नींद से जागना

  2. विवाह के मुहूर्त आरम्भ 

  3. मेरा जन्मदिन 


जन्मदिन तो है पर सबको नहीं मालूम। जिनको मालूम है वो है 26 नवम्बर। 


मम्मी और राजेश दोनों को हमेशा याद रहता था। फ़ोन आता था। अब दोनों नहीं हैं। 2018 से मैं मम्मी के साथ ही रहा। सो मैं स्वयं ही मना लेता था। 


अब मम्मी और राजेश दोनों नहीं है। 


हरीश के पिताजी का भी देवोत्थानी एकादशी का जन्मदिन है। सो वह जब उन्हें याद करता है तो मुझे भी कर लेता है। आज भी किया और अपने घर बुला लिया। 


मुझे नहीं पता था कि इस दिन कोई ख़ास पूजा होती है और ख़ास फल-फूल अर्पित किए जाते हैं। हरीश के माँ ने कोई विशेष गीत भी गाया। 


केक हरीश के बेटे ने काटा। फ़ोन पर दादाजी को खिलाने का अभिनय किया और असलियत में मैंने खाया। 


बहुत ही स्वादिष्ट भोजन बना। आईसक्रीम भी खाई। एक पड़ोसी परिवार भी जुड़ गया था। 


हरीश के बेटे को मैंने थोड़ा जोड़ना-घटाना भी सिखाया। 


कुल मिलाकर एक अच्छा दिन और जन्मदिन। 


राहुल उपाध्याय । 14 नवम्बर 2021 । सिएटल 



Re: देवोत्थानी एकादशी- 2021



रवि, 14 नव॰ 2021 को अ 10:55 पर को Rahul Upadhyaya <kavishavi@gmail.com> ने लिखा:

देवोत्थानी एकादशी- यानी

  1. देवताओं का नींद से जागना

  2. विवाह के मुहूर्त आरम्भ 

  3. मेरा जन्मदिन 


जन्मदिन तो है पर सबको नहीं मालूम। जिनको मालूम है वो है 26 नवम्बर। 


मम्मी और राजेश दोनों को हमेशा याद रहता था। फ़ोन आता था। अब दोनों नहीं हैं। 2018 से मैं मम्मी के साथ ही रहा। सो मैं स्वयं ही मना लेता था। 


अब मम्मी और राजेश दोनों नहीं है। 


हरीश के पिताजी का भी देवोत्थानी एकादशी का जन्मदिन है। सो वह जब उन्हें याद करता है तो मुझे भी कर लेता है। आज भी किया और अपने घर बुला लिया। 


मुझे नहीं पता था कि इस दिन कोई ख़ास पूजा होती है और ख़ास फल-फूल अर्पित किए जाते हैं। हरीश के माँ ने कोई विशेष गीत भी गाया। 


केक हरीश के बेटे ने काटा। फ़ोन पर दादाजी को खिलाने का अभिनय किया और असलियत में मैंने खाया। 


बहुत ही स्वादिष्ट भोजन बना। आईसक्रीम भी खाई। एक पड़ोसी परिवार भी जुड़ गया था। 


हरीश के बेटे को मैंने थोड़ा जोड़ना-घटाना भी सिखाया। 


कुल मिलाकर एक अच्छा दिन और जन्मदिन। 


राहुल उपाध्याय । 14 नवम्बर 2021 । सिएटल 



Saturday, November 13, 2021

फ़िल्म थियेटर में

पिछली फ़िल्म सिनेमाघर में जो मैंने देखी थी, वह थी 'छिछोरे'। मम्मी के साथ। 


अमेरिका में हर वर्ग की ज़रूरतों का ध्यान रखा जाता है। यहाँ तक कि अंधे लोग भी फ़िल्में 'देखने' सिनेमाघर जाते हैं। 


मम्मी वॉकर लेकर चलती थीं। पीछे की क़तार तक जाने के लिए साड़ियाँ चढ़ नहीं पातीं। इसलिए एक विशेष क़तार थी जिसमें व्हीलचैयर और वॉकर वाले आराम से बैठ सकते थे। 


आराम तो सारा था। पर फ़िल्म का क्या किया जाए। मम्मी को बिलकुल पसन्द नहीं आई। मैं फ़िल्म की समीक्षा आदि पढ़ कर फिल्म नहीं देखता। वैसे ही अधिकांश हिन्दी फ़िल्मों की कहानी घिसीपिटी होती है। पहले ही से पता हो तो फ़िल्म का आधा मज़ा ऐसे ही ख़राब हो जाता है। 


हाँ, कई फ़िल्में बार-बार देखने का मन भी करता है। जैसे- दीवार, आनन्द, थ्री इडियट्स, हम दिल दे चुके सनम, वीर ज़ारा, दिल वाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे, स्वदेस। 


उसके बाद ही कोरोना काल आरम्भ हो गया। सिनेमाघर बंद हो गए। बाद में जबसे मम्मी अस्पताल गईं, टीवी देखना भी बंद हो गया। वरना टीवी पर कभी-कभी फ़िल्म या वेब सीरीज़ देख लेता था। 


भारत यात्रा से लौटने के बाद थोड़ा दिनचर्या बदलने का सोचा। एक दिन मन हुआ सिनेमाघर जाकर कोई फ़िल्म देखूँ। अब सिनेमाघर पूरी तरह से खुल गए हैं। कोई पाबंदी नहीं है। बस टीके का प्रमाण दिखाना आवश्यक है। वो भी केवल ख़ानापूर्ति है। फ़ोटो दिखा दो टीके के कार्ड का। उस पर जो नाम है आपका है या किसी और का, इसकी वे जाँच-पड़ताल नहीं करते। 


अमेरिका में एक ही चीज़ के कई दाम हैं। भारत में भी हैं।  सड़क पर समोसा दस रूपये में मिल जाएगा। रेस्टोरेन्ट में 50 का। पाँच सितारा में शायद 250 का। 


लेकिन यहाँ तो एक ही सिनेमाघर में, एक ही फ़िल्म के अलग-अलग दाम हैं। और यह सीट नम्बर के हिसाब से नहीं। कि आगे वाले सस्ते, पीछे वाले महँगे। यहाँ सीट के हिसाब से वर्गीकरण नहीं है। 


यहाँ सोम से शुक्र सुबह के शो सस्ते होते हैं। क्योंकि तब सब काम पर होते हैं। सस्ते यानि आधे दाम पर।  शाम का $14.50 तो सुबह का $6.75। 


मंगलवार के शाम के शो भी $6.75 के होते हैं। इसका क्या तर्क है, मालूम नहीं। फिर भी मंगलवार को ख़ास भीड़ नहीं होती। यहाँ आमतौर पर फ़िल्में हाउसफुल नहीं जातीं। 


कुछ साल पहले एक कम्पनी ने मूवीपास के नाम से क्रेडिट कार्ड निकाला था। जो कि आपके बैंक से हर महीने सिर्फ़ $10 लेता था और महीने में हर रोज़ एक फ़िल्म देखने की सुविधा प्रदान करता था। ज़ाहिर है बहुत से ग्राहक बन गए और कम्पनी का दीवालिया निकल गया। 


अब हर सिनेमाघर अपनी एक स्कीम निकाल रहा है और कोई भी आकर्षित नहीं कर पा रही है। 


अब ऑनलाइन का ज़माना है। सो वे चाहते हैं कि आप टिकट घर बैठे ही ख़रीद लें। मैंने भी टिकट ख़रीदना चाहा। कहने लगा अगर मैं लॉगिन करूँ तो आधा डॉलर बच जाएगा। मैंने लॉगिन किया तो कहता है कि अब ऑनलाइन प्रॉसेसिंग फ़ीस भी लगेगी। जो कि $1.67 थी। यानी ऑनलाइन ख़रीदने में नुक़सान। हाँ यह फ़ायदा है कि सीट अच्छी मिल सकती है। 


अंग्रेज़ी फ़िल्म देखने के लिए सीट नम्बर नहीं होते। जो जहाँ चाहे बैठ जाए। हम भारतवंशियों को सबसे पीछे और बीच वाली सीट पसन्द है। तो हम सब जितनी जल्दी हो सके जाकर सीट रोक लेते थे। आख़िर में आनेवालों का मूड ख़राब होता था। ऐसी स्थिति में सिनेमाघर वाले आपको टिकट का पैसा वापस भी दें देते हैं। यहाँ तक कि अगर आधा घंटा देखने के बाद आप को कोई आपत्ति हो तो भी वो आपको पूरे पैसे वापस कर देते हैं। 


अब इन सिनेमाघरों ने सीट नम्बर चयन करने का ज़िम्मा आपके हाथ में दे दिया है। पूरे हॉल का नक्शा आपके सामने होता है। जो सीट ख़ाली है उसका रंग अलग होता है। उनमें से किसी पर भी उँगली रख दो, वह आपकी। 


ऑनलाइन में ख़ाली सीटें ज़्यादा मिलने के अवसर हैं। जब तक थियेटर पहुँचें कुछ भर सकती है। 


मुझे शाम 6:40 की अच्छी सीट मिल रही थी। लेकिन मैं ऑनलाइन फ़ीस देने के मूड में नहीं था। थियेटर चला गया। वहाँ पता चला शाम 5:55 का भी शो है। अभी 5:15 ही बजे थे। मैंने 5:55 के शो का टिकट लिया। आधा डॉलर कम भी लगा, ऑनलाइन फ़ीस भी नहीं लगी, जल्दी का शो भी मिल गया, मनचाही सीट भी। अंतिम क़तार, बिलकुल बीचोंबीच। 


पूरा थियेटर ख़ाली। एक इंसान नहीं। 


यह है ऑनलाइन सेवा की सुविधा और दुर्दशा। 


राहुल उपाध्याय । 13 नवम्बर 2021 । सिएटल 


Tuesday, November 2, 2021

2 नवम्बर 2021

मम्मी का जन्म 2 नवम्बर 1939 को सैलाना में हुआ था। तब तक दासाब (मेरे नाना) का प्राथमिक विद्यालय आरम्भ हो चुका था। उसी विद्यालय में मैं भी चौथी तक पढ़ा। और संयोग से मम्मी भी चौथी तक ही पढ़ पाईं। लड़की होने की वजह से दासाब नहीं चाहते थे कि वे घर से बाहर कहीं पढ़ने जाए। गांधीवादी थे। लेकिन क्यों इस क्षेत्र में इतनी खुली सोच नहीं हो पाई, नहीं जानता। मम्मी की सबसे छोटी बहन, जिनका जन्म 1954 में हुआ, उन्होंने एम-ए और बी-एड भी किया। तब तक शायद ज़माना बदल चुका था, और शायद मामासाब का भी सहयोग रहा होगा। 


मम्मी का जन्मदिन शायद ही कभी मना हो। 2008 में मैंने सेवानिवृत्त होकर पहली बार एक वयस्क के रूप में बाऊजी-मम्मी के साथ दिल्ली में दीवाली मनाई। तब संयोग से मम्मी का जन्मदिन भी आ गया। 


उस दिन की ख़ुशी की बात ही अलग है। 


उसके बाद मैंने उनके साथ 2018, 2019, 2020 के जन्मदिन मनाए। 


मम्मी के पास साड़ियाँ बहुत थी। आज भी अमेरिका में मेरे पास उनकी साड़ियाँ हैं। मैंने उन्हें कभी शॉपिंग करते नहीं देखा। हाँ सब्ज़ी लेने ज़रूर जाती थीं। परचूनी सामान फ़ोन करने से ही घर पर आ जाता था। उसके अलावा कभी जूते या पर्स या कपड़े या श्रृंगार का सामान ख़रीदते नहीं देखा। साड़ियाँ कहाँ से आ गईं? शादी-ब्याह में देने के लिए ख़रीदती थीं। तो वापस मिल भी जाती थीं। 


मैं उनके लिए अमेरिका से जैकेट लेकर जाता और वे किसी को पसन्द आ जाते थे, तो उन्हें दे देती थीं। उनके पास कोई चीज़ टिकती नहीं थी। 


बहुत ही सादा जीवन था। घूमने-फिरने का शौक़ था। पर तीर्थ स्थानों का। शायद ही कोई जगह जहाँ वे ना गईं हो। 


राहुल उपाध्याय । 2 नवम्बर 2021 । सिएटल