Saturday, November 13, 2021

फ़िल्म थियेटर में

पिछली फ़िल्म सिनेमाघर में जो मैंने देखी थी, वह थी 'छिछोरे'। मम्मी के साथ। 


अमेरिका में हर वर्ग की ज़रूरतों का ध्यान रखा जाता है। यहाँ तक कि अंधे लोग भी फ़िल्में 'देखने' सिनेमाघर जाते हैं। 


मम्मी वॉकर लेकर चलती थीं। पीछे की क़तार तक जाने के लिए साड़ियाँ चढ़ नहीं पातीं। इसलिए एक विशेष क़तार थी जिसमें व्हीलचैयर और वॉकर वाले आराम से बैठ सकते थे। 


आराम तो सारा था। पर फ़िल्म का क्या किया जाए। मम्मी को बिलकुल पसन्द नहीं आई। मैं फ़िल्म की समीक्षा आदि पढ़ कर फिल्म नहीं देखता। वैसे ही अधिकांश हिन्दी फ़िल्मों की कहानी घिसीपिटी होती है। पहले ही से पता हो तो फ़िल्म का आधा मज़ा ऐसे ही ख़राब हो जाता है। 


हाँ, कई फ़िल्में बार-बार देखने का मन भी करता है। जैसे- दीवार, आनन्द, थ्री इडियट्स, हम दिल दे चुके सनम, वीर ज़ारा, दिल वाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे, स्वदेस। 


उसके बाद ही कोरोना काल आरम्भ हो गया। सिनेमाघर बंद हो गए। बाद में जबसे मम्मी अस्पताल गईं, टीवी देखना भी बंद हो गया। वरना टीवी पर कभी-कभी फ़िल्म या वेब सीरीज़ देख लेता था। 


भारत यात्रा से लौटने के बाद थोड़ा दिनचर्या बदलने का सोचा। एक दिन मन हुआ सिनेमाघर जाकर कोई फ़िल्म देखूँ। अब सिनेमाघर पूरी तरह से खुल गए हैं। कोई पाबंदी नहीं है। बस टीके का प्रमाण दिखाना आवश्यक है। वो भी केवल ख़ानापूर्ति है। फ़ोटो दिखा दो टीके के कार्ड का। उस पर जो नाम है आपका है या किसी और का, इसकी वे जाँच-पड़ताल नहीं करते। 


अमेरिका में एक ही चीज़ के कई दाम हैं। भारत में भी हैं।  सड़क पर समोसा दस रूपये में मिल जाएगा। रेस्टोरेन्ट में 50 का। पाँच सितारा में शायद 250 का। 


लेकिन यहाँ तो एक ही सिनेमाघर में, एक ही फ़िल्म के अलग-अलग दाम हैं। और यह सीट नम्बर के हिसाब से नहीं। कि आगे वाले सस्ते, पीछे वाले महँगे। यहाँ सीट के हिसाब से वर्गीकरण नहीं है। 


यहाँ सोम से शुक्र सुबह के शो सस्ते होते हैं। क्योंकि तब सब काम पर होते हैं। सस्ते यानि आधे दाम पर।  शाम का $14.50 तो सुबह का $6.75। 


मंगलवार के शाम के शो भी $6.75 के होते हैं। इसका क्या तर्क है, मालूम नहीं। फिर भी मंगलवार को ख़ास भीड़ नहीं होती। यहाँ आमतौर पर फ़िल्में हाउसफुल नहीं जातीं। 


कुछ साल पहले एक कम्पनी ने मूवीपास के नाम से क्रेडिट कार्ड निकाला था। जो कि आपके बैंक से हर महीने सिर्फ़ $10 लेता था और महीने में हर रोज़ एक फ़िल्म देखने की सुविधा प्रदान करता था। ज़ाहिर है बहुत से ग्राहक बन गए और कम्पनी का दीवालिया निकल गया। 


अब हर सिनेमाघर अपनी एक स्कीम निकाल रहा है और कोई भी आकर्षित नहीं कर पा रही है। 


अब ऑनलाइन का ज़माना है। सो वे चाहते हैं कि आप टिकट घर बैठे ही ख़रीद लें। मैंने भी टिकट ख़रीदना चाहा। कहने लगा अगर मैं लॉगिन करूँ तो आधा डॉलर बच जाएगा। मैंने लॉगिन किया तो कहता है कि अब ऑनलाइन प्रॉसेसिंग फ़ीस भी लगेगी। जो कि $1.67 थी। यानी ऑनलाइन ख़रीदने में नुक़सान। हाँ यह फ़ायदा है कि सीट अच्छी मिल सकती है। 


अंग्रेज़ी फ़िल्म देखने के लिए सीट नम्बर नहीं होते। जो जहाँ चाहे बैठ जाए। हम भारतवंशियों को सबसे पीछे और बीच वाली सीट पसन्द है। तो हम सब जितनी जल्दी हो सके जाकर सीट रोक लेते थे। आख़िर में आनेवालों का मूड ख़राब होता था। ऐसी स्थिति में सिनेमाघर वाले आपको टिकट का पैसा वापस भी दें देते हैं। यहाँ तक कि अगर आधा घंटा देखने के बाद आप को कोई आपत्ति हो तो भी वो आपको पूरे पैसे वापस कर देते हैं। 


अब इन सिनेमाघरों ने सीट नम्बर चयन करने का ज़िम्मा आपके हाथ में दे दिया है। पूरे हॉल का नक्शा आपके सामने होता है। जो सीट ख़ाली है उसका रंग अलग होता है। उनमें से किसी पर भी उँगली रख दो, वह आपकी। 


ऑनलाइन में ख़ाली सीटें ज़्यादा मिलने के अवसर हैं। जब तक थियेटर पहुँचें कुछ भर सकती है। 


मुझे शाम 6:40 की अच्छी सीट मिल रही थी। लेकिन मैं ऑनलाइन फ़ीस देने के मूड में नहीं था। थियेटर चला गया। वहाँ पता चला शाम 5:55 का भी शो है। अभी 5:15 ही बजे थे। मैंने 5:55 के शो का टिकट लिया। आधा डॉलर कम भी लगा, ऑनलाइन फ़ीस भी नहीं लगी, जल्दी का शो भी मिल गया, मनचाही सीट भी। अंतिम क़तार, बिलकुल बीचोंबीच। 


पूरा थियेटर ख़ाली। एक इंसान नहीं। 


यह है ऑनलाइन सेवा की सुविधा और दुर्दशा। 


राहुल उपाध्याय । 13 नवम्बर 2021 । सिएटल 


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