किसी पाठक ने कहा कि मेरी शब्दावली वृहद एवं अच्छी है। यह स्नेहवश कहा या यह सच है, नहीं जानता।
जो रचनाएं हम सुनते हैं, उनमें प्रयुक्त शब्दों के अर्थ से अनभिज्ञ होते हुए भी प्रभावित हो जाते हैं। कभी उनका अर्थ खोजने का समय नहीं निकाल पाते हैं। जैसे कि 'कभी-कभी मेरे दिल में खयाल आता है'। रचना सुने चालीस साल से अधिक वर्ष हो गए हैं। शायद ही कभी सोचा हो कि शादाब और शुआओं का क्या मतलब है।
फ़िल्म में कई बार कुछ फेरबदल कर दिया जाता है, कथानक को ध्यान में रखते हुए। कभी-कभी में भी ऐसा ही हुआ। प्रस्तुत है, मूल कविता। आप उसे साहिर की आवाज़ में यहाँ सुन सकते हैं।
कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है
कि ज़िन्दगी तेरी ज़ुल्फों की नर्म छांव में गुज़रने पाती
तो शादाब (हरी-भरी) हो भी सकती थी
ये तीरगी (अँधेरा) जो मेरी ज़ीस्त (जिंदगी) का मुक़द्दर है
तेरी नज़र की शुआओं (रश्मियों) में खो भी सकती थी
अजब न था कि मैं बेगाना-ए-अलम (दु:ख से अनजान) रहकर
तेरे जमाल (सौन्दर्य) की रानाईयों (सुन्दरता) में खो रहता
तेरा गुदाज़ (मुलायम) बदन, तेरी नीमबाज़ (अधखुली) आँखें
इन्हीं हसीन फ़सानों में महव (तल्लीन) हो रहता
पुकारती मुझे जब तल्खियाँ (कड़वाहट) ज़माने की
तेरे लबों से हलावत (मीठे) के घूंट पी लेता
हयात (ज़िन्दगी) चीखती फिरती बरहना (नंगे) सर
और मैं घनेरी जुल्फों के साए में छुप के जी लेता
मगर ये हो न सका और अब ये आलम (हाल) है
कि तू नहीं, तेरा ग़म, तेरी जुस्तजू (तलाश) भी नहीं
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िन्दगी
जैसे इसे किसी के सहारे की आरज़ू भी नहीं
ज़माने भर के दुखों को लगा चुका हूँ गले
गुज़र रहा हूँ कुछ अनजानी रहगुज़ारों (राहों) से
मुहीब (भयानक) साए मेरी सिम्त (दिशा में) बढ़ते आते हैं
हयात-ओ-मौत (ज़िन्दगी और मौत) के पुरहौल (डरावने) ख़ारज़ारों (काँटों भरी जगह) से
न कोई जादा (पगडंडी), न मंजिल, न रोशनी का सुराग
भटक रही है खलाओं (शून्य) में ज़िन्दगी मेरी
इन्हीं ख़लाओं (शून्य) में रह जाऊँगा कभी खो कर
मैं जानता हूँ मेरी हमनफ़स (दोस्त) मगर यूँ ही
कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है
मुकेश द्वारा गाए गए गीत के शब्द तो अलग थे, लेकिन जब राखी अमिताभ से बात करती है टीवी पर तब भी इस नज़्म के शब्द बदल दिए जाते हैं: https://www.youtube.com/watch?v=lGfxSNDQ3CI
कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है
कि ज़िन्दगी तेरी ज़ुल्फों की नर्म छांव में गुज़रने पाती
तो शादाब (हरी-भरी) हो भी सकती थी
ये रंज-ओ-ग़म की सियाही जो दिल पे छाई है
तेरी नज़र की शुआओं (रश्मियों) में खो भी सकती थी
मगर ये हो न सका और अब ये आलम (हाल) है
कि तू नहीं, तेरा ग़म, तेरी जुस्तजू (तलाश) भी नहीं
गुज़र रही है ज़िन्दगी कुछ इस तरह जैसे
इसे किसी के सहारे की आरज़ू भी नहीं
न कोई राह, न मंजिल, न रोशनी का सुराग
भटक रही है अँधेरों में ज़िन्दगी मेरी
इन्हीं अँधेरों में रह जाऊँगा मैं कभी खो कर
मैं जानता हूँ मेरी हमनफ़स (दोस्त) मगर यूँ ही
कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है
राहुल उपाध्याय । 16 अगस्त 2020 । सिएटल
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Rahul
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