Friday, November 25, 2022

चुप

'चुप' - आर बाल्कि की फ़िल्म है इसलिए देखने का मन हुआ। लगा उनकी फिल्म - इंग्लिश-विंग्लिश जैसी होगी। लेकिन निराशा हाथ लगी। 


फ़िल्म को आकर्षक बनाने के लिए और भी हथकंडे हैं। अमिताभ भी हैं। अलबत्ता सिर्फ़ एक सीन के लिए। लेकिन उनका नाम ख़ूब भुनवाया गया। यहाँ तक कि फिल्म के अंत में जो क्रेडिट्स आते हैं तब जो संगीत बजता है उसके कम्पोज़र अमिताभ बच्चन है। मतलब हद ही हो गई। 


पूजा भट्ट भी हैं एक अहम किरदार में। सनी देओल का किरदार बहुत ही कमजोर है। श्रेया धन्वंतरि की अदायगी बहुत ही उम्दा है। हर सीन में विश्वसनीय लगी। हालाँकि फ़िल्म के अंत में उनका किरदार एक रोते बच्चे सा हो जाता है जो कि स्क्रिप्ट की कमजोरी है। 


कहानी बहुत ही मनगढ़ंत है। यथार्थ से कोसों दूर। मुख्य पात्र को जो करना है करता चला जाता है। पूरी आज़ादी से। क्रिकेट पिच पर फ़्लडलाइट्स में भी कोई उसे नहीं देख पाता है। 


एक बहुत ही कमज़ोर फ़िल्म जिसमें इतने वीभत्स सीन हैं कि कई बार आँखें बंद करनी पड़ती है। 


न देखें तो ही बेहतर है। 


राहुल उपाध्याय । 25 नवम्बर 2022 । सिएटल 



Thursday, November 24, 2022

थैंक्सगिविंग 2022

आज अमेरिका में थैंक्सगिविंग दिवस है यानी धन्यवाद ज्ञापन दिवस। वैसे तो मैं इन कृत्रिम दिवसों को नहीं मानता। जैसे कि पितृ दिवस या मातृ दिवस। और फिर धन्यवाद देना हमारी संस्कृति में काफ़ी औपचारिक लगता है। जैसे कि मामीसाब और मासीजी को क्या धन्यवाद देना। जब भी चरण छुए बहुत आशीर्वाद मिला। मैंने उन्हें दिया ही क्या है और क्या दे सकता हूँ?

फिर भी सूची तैयार की तो अहसास हुआ कि इस एक साल में इस अकेली जान को कितनों ने सहारा दिया है। सम्भाला है। सुख में, दुख में, हर घड़ी मेरा साथ दिया है। बिन कहे मेरी भावनाओं को समझा। 

मैं अपने आपको बहुत ही स्वतंत्र और आत्मनिर्भर समझता था। मुझे नहीं लगता है कि मुझे किसी की मदद की ज़रूरत है। लगता है मैं सब अपने आप कर लूँगा। 

लेकिन ये सब निःस्वार्थ रूप से समय-समय पर मेरे जीवन में आए और जो भी वे कर सकते थे, उन्होंने किया। चाहे वो मेरा भारत भ्रमण हो या मेरे गीत, चाहे वो मेरी मानसिक स्थिति हो या यूँही कोई बात हो, या अकारण ही। 

अक्षय
अंजना
अजय
अंजली
अनिल
अनीता
अनु
अर्चना
आकाश 
आयुषि
इन्द्र
उमेश
उषा
करूण
कविता
चिकी
छन्दा
छोटी मामीसाब
जया
ज्योति
दिनेश 
देवकन्या
देवीलाल
नमिता
निशांत
नीतू
नूतन
पंकज
पाखी
पुष्पा 
प्रभा
प्रशांत
प्रीत
प्रेम शंकर जी
बड़ी मामीसाब
बद्रीलाल जी
बबली
बृजेश
भक्ति
भावना
भाविक
मंगलेश
मणि शंकर जी
मधु
मनीष
मनोज
मन्ना दा
ममता
मासीजी
मीनू
मुक्ता
रमेश
राजीव
राजेश
राधा बाई
रीतेश
रूचिका
रूचिता
रेखा
वंदना
विजय
विनोद
वीणा
वीरू
वैभव
शबनम
शाची
शुभमय
शोभित
संगीता भाभी
संजना
सत्यनारायण जी
सरोज
सागरिका
सीमा
सृजन 
हरमीत
हरीश
हितेन्द्र

राहुल उपाध्याय । 24 नवम्बर 2022 । सिएटल

Monday, November 21, 2022

क्रिसमस - अमेरिका का

अमेरिका कर्मप्रधान देश है। हर कोई किसी न किसी कार्य में व्यस्त है जिसका सीधा असर यहाँ की अर्थव्यवस्था पर दिखाई देता है। यही एक कारण है जिसकी वजह से इसकी जी-डी-पी दुनिया में सबसे ज़्यादा है। हर कोई कमा रहा है, खर्च कर रहा है। चाहे वो पन्द्रह वर्ष का बालक है जो पड़ोसी के लॉन की घास काट रहा है। या 70 वर्ष का वृद्ध जो वॉलमार्ट में लोगों का स्वागत कर रहा है। 


इसके बीच के भी लोग हैं। इलॉन मस्क जैसे कई संस्थापक हैं जिन्होंने बिलियन डॉलर कमाने के बाद भी काम करना नहीं छोड़ा। बल्कि पहले से ज़्यादा काम करते हैं। और सिर्फ कमाने के लिए नहीं। बल्कि समाज में योगदान के लिए। आमूल परिवर्तन लाने के लिए। 


अमेरिका में आए एक अतिथि ने आश्चर्य व्यक्त किया कि सत्या नडेला माइक्रोसॉफ़्ट के सी-ई-ओ होते हुए भी रोज़ काम करते हैं। उनके विचार में सारे मैनेजर आराम करते हैं और अपने कर्मचारियों से काम करवाते हैं। 


यह धारणा शायद भारत के छोटे शहर के दुकानदारों की हो सकती है। दुकानें हैं जिन पर कर्मचारी काम कर रहे हैं। बसों के मालिक भी स्वयं बस नहीं चलाते। ऊबर और ओला के संस्थापक भी टैक्सी नहीं चलाते। लेकिन वे दूसरे अन्य काम ज़रूर करते हैं। 


अमेरिका में सब काम तो ज़रूर करते हैं लेकिन छुट्टियाँ भी खूब मनाते हैं। हर हफ़्ते चालीस घंटे काम करते हैं- सोम से शुक्र। शनि-रवि छुट्टी। 


शुक्रवार के दिन सब चहकने लगते हैं। कहते हैं- टी-जी-आई-एफ। यानी थैंक-गॉड-इट्स-फ़्राइडे। भगवान का शुक्रिया कि आज शुक्रवार है। 


और इसी चक्कर में शुक्रवार का दिन भी मौज मस्ती में निकल जाता है। नई फ़िल्में उसी दिन आती हैं। चार बजे से हैप्पी ऑवर शुरू हो जाता है। यानी रेस्टोरेन्ट में वही आयटम जो छः बजे बाद महँगा हो जाएगा वह चार से छः के बीच सस्ते में मिल जाएगा। 


शनि-रवि को घर के काम निपटाए जाते हैं। जैसे कपड़े धोना, और घर की सफ़ाई करना। कपड़े ज़्यादातर हफ़्ते में एक ही बार धोए जाते हैं। इसलिए सारे कपड़े ज़्यादा ख़रीद लिए जाते हैं ताकि रोज़ न धोए तो भी साफ़ कपड़े रोज़ मिल जाए। मौजे दो-तीन जोड़ी नहीं, बारह जोड़ी होते हैं। तौलिए भी ज़्यादा होते हैं। 


कपड़े ड्रायर में सूख भी जाते हैं। कहीं भी कोई रस्सी पर नहीं सुखाता। बरसात हो या कोई भी मौसम, कपड़े हमेशा सूखे ही मिलेंगे। 


घर में झाड़ू नहीं लगता। भारत से आए लोगों को बिना फूल-झाड़ू के चैन नहीं मिलता। पूरे घर में तो नहीं लेकिन किचन में ज़रूर फूल-झाड़ू लगा कर ही मन को संतुष्टि मिलती है। 


बाक़ी घर में शनिवार को ही वैक्यूम क्लीनर से सफ़ाई होती है। कोई काम वाली बाई नहीं आती। सब घर के सदस्य ही करते हैं। 


अब आई-रोबोट का रूम्बा काफ़ी आम हो चुका है। जो जब चाहें पूरे घर में वैक्यूम कर देता है। चाहे तो रोज़ ही। या एक दिन में कई बार। 


बर्तन तो रोज़ डिशवॉशर में धुल ही जाते हैं। एकदम से सूखे और चमचमाते हुए निकलते हैं। 


बाज़ार का सामान भी - जैसे दूध-ब्रेड-सब्जी - सब हफ़्ते में एक बार शनिवार को ही ख़रीदा जाता है। दूध प्लास्टिक की बोतलों में आता है। जितना लगे एक बार में ले लो। आठ लीटर, बारह लीटर या जितना भी। फ़्रीज़ इतने बड़े होते हैं कि सब समा जाते हैं। सब्ज़ियाँ भी थोक में ली जातीं हैं। फल भी। आइसक्रीम और मिठाइयाँ भी। 


शनि-रवि ही सारे त्योहार-जन्मदिन मनाए जाते हैं। जिस दिन है, उस दिन नहीं। मनाने को मना भी लो, लेकिन कोई आएगा नहीं। सब काम में व्यस्त हैं। काम से घर आते-आते सात बज जाती है और फिर कहीं जाने की ऊर्जा नहीं रहती। 


इसीलिए क्रिसमस महत्वपूर्ण है क्योंकि वो जिस दिन होता है उसी दिन मनाया जाता है। और मज़े की बात यह कि सारी दुनिया में उसी दिन मनाया जाता है। इसे कहते हैं रुतबा। 


लेकिन जैसे दीवाली एक दिन का त्यौहार नहीं है वैसे ही क्रिसमस भी नहीं। यह शुरू हो जाता है नवम्बर के अंत से ही। 


नवम्बर के चौथे गुरूवार को थैंक्सगिविंग दिवस के नाम से जाना जाता है। इस दिन यहाँ हर दफ़्तर में छुट्टी होती है। ज़रूरी सुविधाएँ - जैसे अस्पताल, एयरपोर्ट, बस आदि - खुली रहती हैं। दूध-सब्ज़ी की दुकानें जो प्रायः चौबीसों घंटे खुली रहती हैं वे भी शाम छः बजे बन्द हो जाती हैं ताकि कर्मचारी और ग्राहक दोनों अपने परिवार के साथ डिनर कर सके। बुधवार का दिन यातायात का सबसे व्यस्त दिन होता है। फ़्लाइट के टिकट मिलने मुश्किल हो जाते हैं। मिलते भी हैं तो बहुत महँगे। ज़्यादातर परिवार अपने दादा-दादी के घर जमा होते हैं और एक विशाल भोज का आयोजन किया जाता है जिसमें टर्की प्रमुख होती है। 


इस बार चौथा गुरूवार चौबीस नवम्बर को है। समझिए तबसे क्रिसमस की गहमागहमी शुरू। 


शुक्रवार, 25 नवम्बर को हर दफ़्तर में छुट्टी रहेगी लेकिन दुकानें सारी खुली रहेंगी। यह छुट्टी किस लिए? यह छुट्टी इसलिए कि लोग क्रिसमस पर देने के लिए उपहार इस दिन ख़रीद लें। इतनी जल्दी क्यों? अभी तो एक महीना है क्रिसमस आने में? वह इसलिए कि इस दिन हर सामान पर भारी छूट मिलती है। यही सामान अगले दिन महँगा मिलेगा। 


इस प्रकार दुकानों पर, मॉल में साज-सजावट शुरू हो जाती है। सड़कें रोशन हो जाती हैं झिलमिलाती लड़ियों से। चारों तरफ़ उत्सव और उत्साह का नजारा। 


राहुल उपाध्याय । 21 नवम्बर 2022 । सिएटल 




Saturday, November 19, 2022

दृश्यम 2

दृश्यम 2 देखने के लिए दृश्यम देखना आवश्यक है। यह उन सिक्वल्स में से नहीं है कि पिछली कड़ी देखे बिना काम चल जाएगा। हालाँकि जैसा कि हिन्दी फ़िल्मों में अक्सर होता है, यहाँ भी अब तक की कहानी को समझाने का भरसक प्रयास किया जाता है। लेकिन बात नहीं बनती। पहली फ़िल्म देखने का फ़ायदा यह होगा कि एक अच्छी फ़िल्म दोबारा देखी जाएगी। 


इस फिल्म में उतनी कसावट नहीं है जितनी पहली में थी। सात साल के अंतराल को अच्छा दिखाया गया है। मुख्य पात्र विजय का कारोबार बढ़ जाता है। उसके पास अब स्मार्टफ़ोन है। लेकिन सबसे बड़ी कमी यह है कि विजय की पत्नी और उसकी दोनों बेटियों के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं है। बड़ी बेटी शायद अब ग्रेजुएट हो गई होगी। कोई काम भी करती होगी। घर से बाहर भी जाती होगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं। इस बार विजय के ससुराल वाले भी नज़र नहीं आते। 


पूरी फ़िल्म समीर के शव को खोजने पर टिकी है। इसलिए यह फिल्म उतनी सशक्त नहीं है जितनी पहले थी। क्योंकि पुलिस के पास पर्याप्त जानकारी है कि खून किसने किया है, इसके बावजूद वे बिना लाश के ख़ुद को हारा हुआ मान लेते हैं यह बात गले नहीं उतरती। 


श्रिया सरण का अभिनय अत्यंत उम्दा है। हर तरह से वे परेशान और हतप्रभ लगती हैं। 


सौरभ शुक्ला का किरदार प्रभावित नहीं करता। मार्टिन की दुकान सात साल में बिलकुल नहीं बदली। 


फ़िल्म देखी जा सकती है लेकिन कहानी बहुत पेचीदा है और दर्शक शायद उतना दिमाग लगा कर समझने की कोशिश करने के लिए तैयार न हो। 


राहुल उपाध्याय । 19 नवम्बर 2022 । सिएटल 


Monday, November 14, 2022

15 नवम्बर 2022

15 नवम्बर 1936 में जन्में बाऊजी विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। इस प्रतिमा ने रंग दिखलाया जब वे विक्रम विश्वविद्यालय की एल-एल-बी परीक्षा में सर्वप्रथम आए एवं यह स्वर्ण पदक जीता। 


पदक मिलने के बाद भी मूल जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आया। वहीं रतलाम के पश्चिम रेलवे के दफ़्तर में क्लर्क की नौकरी। कोई पदोन्नति नहीं। 


कुछ वक्त बाद ही क़िस्मत पलट गई। 


एक दिन शिवगढ़ के राजा के एक मंत्री बाऊजी के दफ़्तर कार से आए। आकर एक फ़ार्म दिया कि इसे भर दो। लंदन विश्वविद्यालय से एल-एल-एम करने का सुनहरा मौक़ा है पूर्ण छात्रवृत्ति के साथ। हवाई जहाज़ से आने-जाने का ख़र्चा भी दिया जाएगा। 


बाऊजी बहुत ख़ुश। यह तो कमाल हो गया। कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि शिवगढ़ का गाय चराने वाला कभी विदेश जाएगा। 


फ़ार्म भरने बैठे तो होश उड़ गए। छात्रवृत्ति के लिए जो तीन शर्तें थीं, उन सब पर बाऊजी खरे नहीं उतरते थे। 


निराश हो गए। मौक़ा भी हाथ आया तो ऐसा कि खेल शुरू होने से पहले ही हार गए। 


फिर उन्होंने सोचा कि नियति भी कोई चीज़ होती है। क्या ज़रूरत थी मंत्री जी को उनके दफ़्तर तक आने की? क्यों उन्होंने बाऊजी के बारे में सोचा? बाऊजी न तो उनके परिवार के सदस्य थे, न पड़ोसी, न जान-पहचान, न रोज़ का उठना-बैठना। अख़बार में उनके स्वर्ण पदक की ख़बर थी। बस उतना ही काफ़ी था उनके लिए अपने गाँव के एक होनहार छात्र की मदद करने के लिए। 


सो बाऊजी ने मंत्री जी के परिश्रम का निरादर न करते हुए फ़ार्म भरकर भेज दिया। बाऊजी का चयन हो गया। पूर्ण छात्रवृत्ति के साथ। 


राहुल उपाध्याय । 15 नवम्बर 2022 । सिएटल 





Wednesday, November 9, 2022

बाईडेन की प्रेस कॉन्फ़्रेंस

चुनाव के नतीजे आ रहे हैं। कुछ निर्णायक रहे। कुछ की गणना अभी चल रही है। 


इस माहौल में आज बाईडेन ने प्रेस कॉन्फ़्रेंस आयोजित की जिसमें पत्रकारों ने उनसे खुल कर सवाल किए। 


-*-* क्या वे 2024 में राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ेंगे?

-*-* क्या वे चीन से तायनान के विषय पर बात करेंगे?

-*-* कॉलेज में दाख़िले के लिए जो 'आरक्षण' का प्रावधान है, यदि वह समाप्त हो गया तो वे देश को कैसे सम्भालेंगे?

-*-*- रूस में जो महिला बास्केटबॉल की खिलाड़ी जेल में है, उसे छुड़ाने की क्या योजना है?

-*-*- दुनिया नहीं चाहती कि ट्रम्प फिर से राष्ट्रपति बनें। आप इसे कैसे रोकेंगे?

-*-*- क्या इलॉन मस्क देश का अहित कर रहे हैं ट्विटर को विदेशी निवेशकों की मदद से ख़रीद कर?


अच्छा लगा जब ऐसे और अन्य सवाल उनसे पूछे गए और उन्होंने सबका सीधा जवाब दिया। 


लगा कि हम एक स्वस्थ लोकतंत्र में साँस ले रहे हैं। 


राहुल उपाध्याय । 9 नवम्बर 2022 । सिएटल 





Saturday, November 5, 2022

अमेरिका के मिड-टर्म चुनाव

मंगलवार को अमेरिका में चुनाव है। इसे मिड-टर्म चुनाव कहते हैं। मिड-टर्म इसलिए कि ये राष्ट्रपति के चार साल के कार्यकाल के बिलकुल बीच में होता है। इसमें कांग्रेस (यानी यहाँ की लोकसभा) के सारे सदस्यों का चुनाव होता है। उनका कार्यकाल सिर्फ़ दो साल का होता है। सीनेट के एक-तिहाई सदस्यों का भी चुनाव होता है। सीनेट के सदस्यों का कार्यकाल 6 साल का होता है। 


सीनेट का चुनाव कांग्रेस से ज़्यादा महत्वपूर्ण होता है क्योंकि उनका कार्यकाल लम्बा होता है। और सीनेट में जिस दल का बहुमत होता है उसका सहयोग क़ानून पारित करने में आवश्यक होता है। उनकी ही मंज़ूरी से सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश चुने जाते हैं जिनका कार्यकाल आजीवन होता है। वे रिटायर भी नहीं होते। 


आमतौर पर मिड-टर्म चुनाव में वर्तमान राष्ट्रपति का दल हारता है यानी सीटें कम हो जाती हैं। उसका कारण यह है कि कोई भी राष्ट्रपति अपने चुनावी वादे पूरे करने में असमर्थ होता है और नयी समस्याएँ आ जाती हैं सो अलग। 


ईंधन के दाम जिस तरह से बढ़े हैं बाईडेन की डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए हानिकारक है। 


कई राज्यों के राज्यपाल का भी चुनाव है। 


अमेरिका में सारे चुनाव नवम्बर के दूसरे मंगलवार को ही होते हैं। तमाम आपदाओं-विपदाओं के बावजूद यह क्रम बदला नहीं है। चुनाव के दिन छुट्टी नहीं होती है। मैं जिस राज्य में रहता हूँ, वाशिंगटन, वहाँ सारा चुनाव डाक द्वारा होता है। घर पर मतदान पात्र और लिफ़ाफ़ा आ जाता है। एक बुकलेट भी होती है जिसमें सारे उम्मीदवारों के नाम और उनके घोषणापत्र होते हैं। मतदान पत्र भर कर, हस्ताक्षर कर, डाक-टिकट लगाकर डाल सकते हैं। या कुछ निश्चित जगहों पर बैलेट बॉक्स में बिना डाक-टिकट के भी डाल सकते हैं। 


अमेरिका में वोट डालने के अधिकार को लेकर कई आंदोलन हुए हैं। आज भी हो रहे हैं। लेकिन वोट डालने के प्रति जनता में उदासीनता ही दिखाई देती है। आम जनता को इन चुनावी नतीजों से उनके जीवन पर प्रत्यक्ष असर पड़ता नहीं दिखाई देता है। सब एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं। 


कहा जा रहा है कि यदि ट्रम्प द्वारा मनोनीत रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार यदि भारी संख्या में जीत गए तो वे 2024 में राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की घोषणा कर सकते हैं। 


ऐसा हुआ तो यह अमेरिका के इतिहास में सिर्फ़ दूसरी बार होगा कि कोई राष्ट्रपति हारने के बाद फिर से चुनाव लड़े। पहली बार 1893 में क्लीवलैंड ने ऐसा किया था और जीत गए थे। वे पहले ऐसे राष्ट्रपति थे जिनका विवाह राष्ट्रपति बनने के बाद हुआ। वे 49 के थे और दुल्हन 21 की। 


अपने पहले कार्यकाल (1885-1889) में उन्होंने टेक्सास राज्य के अकाल पीड़ितों के लिए सरकार की सहायता की माँग को ठुकरा दिया था यह कह कर कि किसी भी समूह के प्रति दरियादिली दिखाने से सरकार को अभिभावक बनने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा और देश का चरित्र कमज़ोर होगा। इसी कारण वे 1889 का चुनाव हार गए थे। दोबारा 1893 में विजयी हुए। 


राहुल उपाध्याय । 5 नवम्बर 2022 । सिएटल 


(जो अन्य देशों से आकर यहाँ बस गए हैं उनकी उदासीनता का चित्रण कर रही है मेरी यह रचना:


डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते, हमें क्या

ये मुल्क नहीं मिल्कियत हमारी

हम इन्हें समझे, हम इन्हें जाने

ये नहीं अहमियत हमारी


तलाश-ए-दौलत आए थे हम

आजमाने किस्मत आए थे हम

आते हैं ख़्याल हर एक दिन

जाएँगे अपने घर एक दिन

डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते

बदलेगी नहीं नीयत हमारी


ना तो हैं हम डेमोक्रेट

और ना ही हैं हम रिपब्लिकन

बन भी गये अगर सिटीज़न

बन न पाएंगे अमेरिकन

डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते

छुपेगी नहीं असलियत हमारी


न डेमोक्रेट्स के प्लान

न रिपब्लिकन्स के उद्गार

कर सकते हैं हमारा उद्धार

डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते

पूछेगा नहीं कोई खैरियत हमारी


हम जो भी हैं अपने श्रम से हैं

हम जहाँ भी हैं अपने दम से हैं

डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते

काम आयेगी बस काबिलियत हमारी


फूल तो है पर वो खुशबू नहीं

फल तो है पर वो स्वाद नहीं

हर तरह की आज़ादी है

फिर भी हम आबाद नहीं

डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते

यहाँ लगेगी नहीं तबियत हमारी

)




अमेरिका के मिड-टर्म चुनाव

मंगलवार को अमेरिका में चुनाव है। इसे मिड-टर्म चुनाव कहते हैं। मिड-टर्म इसलिए कि ये राष्ट्रपति के चार साल के कार्यकाल के बिलकुल बीच में होता है। इसमें कांग्रेस (यानी यहाँ की लोकसभा) के सारे सदस्यों का चुनाव होता है। उनका कार्यकाल सिर्फ़ दो साल का होता है। सीनेट के एक-तिहाई सदस्यों का भी चुनाव होता है। सीनेट के सदस्यों का कार्यकाल 6 साल का होता है। 


सीनेट का चुनाव कांग्रेस से ज़्यादा महत्वपूर्ण होता है क्योंकि उनका कार्यकाल लम्बा होता है। और सीनेट में जिस दल का बहुमत होता है उसका सहयोग क़ानून पारित करने में आवश्यक होता है। उनकी ही मंज़ूरी से सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश चुने जाते हैं जिनका कार्यकाल आजीवन होता है। वे रिटायर भी नहीं होते। 


आमतौर पर मिड-टर्म चुनाव में वर्तमान राष्ट्रपति का दल हारता है यानी सीटें कम हो जाती हैं। उसका कारण यह है कि कोई भी राष्ट्रपति अपने चुनावी वादे पूरे करने में असमर्थ होता है और नयी समस्याएँ आ जाती हैं सो अलग। 


ईंधन के दाम जिस तरह से बढ़े हैं बाईडेन की डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए हानिकारक है। 


कई राज्यों के राज्यपाल का भी चुनाव है। 


अमेरिका में सारे चुनाव नवम्बर के दूसरे मंगलवार को ही होते हैं। तमाम आपदाओं-विपदाओं के बावजूद यह क्रम बदला नहीं है। 


कहा जा रहा है कि यदि ट्रम्प द्वारा मनोनीत रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार यदि भारी संख्या में जीत गए तो वे 2024 में राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की घोषणा कर सकते हैं। 


ऐसा हुआ तो यह अमेरिका के इतिहास में सिर्फ़ दूसरी बार होगा कि कोई राष्ट्रपति हारने के बाद फिर से चुनाव लड़े। पहली बार 1893 में क्लीवलैंड ने ऐसा किया था और जीत गए थे। वे पहले ऐसे राष्ट्रपति थे जिनका विवाह राष्ट्रपति बनने के बाद हुआ। वे 49 के थे और दुल्हन 21 की। 


अपने पहले कार्यकाल (1885-1889) में उन्होंने टेक्सास राज्य के अकाल पीड़ितों के लिए सरकार की सहायता की माँग को ठुकरा दिया था यह कह कर कि किसी भी समूह के प्रति दरियादिली दिखाने से सरकार को अभिभावक बनने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा और देश का चरित्र कमज़ोर होगा। इसी कारण वे 1889 का चुनाव हार गए थे। दोबारा 1893 में विजयी हुए। 


राहुल उपाध्याय । 5 नवम्बर 2022 । सिएटल 

तड़का

'तड़का' बहुत ही प्यारी फ़िल्म है। बहुत प्यार से बनाई गई है। गोआ इतना ख़ूबसूरत शायद ही किसी फ़िल्म में दर्शाया गया है। अंतिम सीन में सेंट आगस्टिन चर्च बहुत ही सुन्दर लगा। 


पूरी फ़िल्म एक परी की कहानी सी है। सब सुन्दर है। सब रंगीन है। सब सुव्यवस्थित है। दुख भी है तो ऐसा कि ऐसे दुख में जीने को जी चाहे। 


नाना पाटेकर की फ़िल्में इन दिनों कम हो गई है। उम्र भी है सो चरित्र अभिनेता की भूमिकाएँ ही मिलती होंगी। छब्बीस साल पहले संजय लीला भंसाली की 'ख़ामोशी' में हीरोइन के पिता का रोल किया था। 


इस फ़िल्म में वे मुख्य किरदार में हैं, श्रिया सरन के साथ। एकदम फ़िट रोल है। कहीं से भी उम्रदराज़ नहीं लगते।


यह छोटे शहर या गाँव की कहानी नहीं है। ऐसी समस्याएँ गाँव में नहीं होती हैं। होती भी हैं तो मानी नहीं जाती हैं। हँसी-मज़ाक़ में उड़ा दी जाती हैं। 


श्रिया ने कमाल का अभिनय किया है। मदुरा का किरदार जीवंत हो उठता है। शायद यह उनकी पहली फ़िल्म है। तापसी का रोल ज़्यादा नहीं है। फिर भी स्पेश्यल अपीयरेंस नहीं है। ज़्यादातर सीन में श्रिया के साथ वे भी हैं। 


एक अरसे के बाद लिलित दुबे को देखकर अच्छा लगा। एक सीन में तीनों - श्रिया, तापसी और लिलित - हैं। तीनों हमउम्र लगीं। 


नाना पाटेकार का मोनोलॉग - मैं कमज़ोर हूँ - बहुत प्रभावशाली है। उनकी स्टाइल जो कि मिमिक्री के बाज़ार में बहुत बिकती है, उससे कोसों दूर। 


खाना-पीना ख़ूब दिखाया गया है। आलू के पराठे से लेकर फ़्रूट केक और मछली तक। 


एक बहुत ही साफ़ सुथरी और अच्छी फ़िल्म। 


राहुल उपाध्याय । 5 नवम्बर 2022 । सिएटल 

ब्रह्मास्त्र

एक ने कहा मत देखना। एक ने कहा देखना। नतीजा यह हुआ कि मैंने 'ब्रह्मास्त्र' ओ-टी-टी पर देखी। 


शायद इसी कारण यह फ़िल्म मुझे बहुत अच्छी लगी। इतनी अच्छी कि ख़त्म करके ही अपने निर्धारित शयन-समय के बाद सोया। और बीच में 'रूम्बा' चल पड़ा था तो संवाद सुनाई नहीं दिए जब ईशा (आलिया) शिवा (रणवीर) से उसके जीवन के बारे में पूछ रही थी। इतना रोचक सीन था वह कि उसे दोबारा देखा। और बिना संवाद के सीन की दूसरी ख़ूबसूरतियाँ भी नज़र आईं। मसलन राहुल देव बर्मन का पोस्टर। 


पूरी फ़िल्म बहुत अच्छी है। ख़ामियाँ भी हैं। किसमें नहीं होती। बनारस पहुँचने पर जो काम करना चाहिए था, उसे करने के बजाय युगल जोड़ी नाच-गाने लगती है। बहुत बेतुकी बात लगी। (लेकिन हमें क्या पता कब कहाँ किसकी ज़रूरत है और क्या हिट हो जाए। मनोज कुमार को जब 'डॉन' दिखाई गई तो उन्होंने सलाह दी कि इण्टरवल के बाद फ़िल्म बहुत तेज गति से जा रही है। एक गाना डालो। दर्शकों को थोड़ी राहत दो। और इस तरह 'खई के पान बनारस वाला' ने इतिहास रच डाला।)


इसे पसन्द करने की कुछ और भी वजहें हो सकती हैं जैसे कि शिवा अपनी माँ से बहुत प्यार करता है, उसकी बात करता है, उसकी याद करता है, ख़ुश रहता है, हँसता है, हँसाता है, संगीत से, हिन्दी फ़िल्म गीतों से प्रेम है। अच्छा लगता है जब मुख्य पात्र आपसे मिलता-जुलता हो। 


मोहन भार्गव के किरदार में शाह रूख खान अत्यंत प्रभावशाली हैं। किरदार का नाम 'स्वदेस' की याद ताज़ा कर देता है। 


वह सीन, जब ईशा कार से बाहर लटकते हुए उसे फ़र्राटे से चला रही है, इतना फास्ट-पेस्ड है कि सोचने की मोहलत ही नहीं मिलती कि वह एक्सीलरेटर कैसे दबा रही है। बहुत अच्छी सिनेमेटोग्राफ़ी और बैकग्राउंड म्यूज़िक है। 


अमिताभ का गेट-अप बहुत अच्छा तैयार किया गया है। फ़िल्म में ट्वीस्ट भी अच्छे हैं। कई बार तो अंदेशा होता है कि जिसे हम यह समझ रहे हैं कहीं वो वह तो नहीं। एक बार तो ऐसा भी प्रसंग आया कि लगा अमिताभ अब गीता का ज्ञान देंगे। लेकिन अच्छा ही है कि ऐसा नहीं हुआ। 


पार्ट 2 का इंतज़ार रहेगा। 


(रूम्बा अलेक्सा की तरह घर में रहता है और परिवार का सदस्य है। यह जब मन करता है चल पड़ता है घर की सफ़ाई (वैक्यूम क्लीनिंग) करने। उसे एक निश्चित समय पर भी चलाया जा सकता है। और अलेक्सा या आय-फ़ोन द्वारा भी बंद किया जा सकता है। लेकिन न जाने क्यों मुझे उसकी मनमर्ज़ी अच्छी लगती है, मानवीय लगती है। इसलिए उसे रोकता नहीं। कोई फ़ोन आ जाए तब रोक देता हूँ।)


राहुल उपाध्याय । 5 नवम्बर 2022 । सिएटल 





Friday, November 4, 2022

सागर सरहदी

https://youtu.be/dFFCLT-10Gc


1933 में जन्में सागर सरहदी 14 वर्ष के थे जब भारत का विभाजन हुआ। अपनी आँखों देखा हाल वे सुना रहे हैं यूनुस खान को विविध भारती के पसंदीदा कार्यक्रम 'उजाले उनकी यादों के' में। यह एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है बिना किसी राजनीतिक दृष्टिकोण के। इस पर कोई लेप नहीं है। 


सागर सरहदी एक अच्छे कहानीकार थे। वे उसका श्रेय विभाजन ने जो उनसे छीना, और उससे जो दुख-दर्द-क्रोध उभरा, उसे देते हैं। वे यह भी कहते हैं कि उन्होंने विवाह नहीं किया इस कारण उन पर पाबंदियाँ नहीं लगीं और वे खुल कर अपना जीवन जी सके, लेखन कर सके, रोमांटिक हो सके, रोमांस कर सके। 


एक और रोचक बात उन्होंने कही कि वे नमस्ते करना नहीं जानते, विश करना नहीं जानते। किसी से भी किसी भी बात पर बात बिगड़ सकती है। जो मन में आया वही किया। देव आनंद और राज कपूर ने उनसे लिखने को कहा लेकिन उन्होंने मना कर दिया। वे जानते थे कि जो मैं लिखता हूँ उसे ये पसंद नहीं कर सकेंगे। 


सागर सरहदी के कलम से लिखी कहानियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण फ़िल्में बनी हैं। जैसे- कभी-कभी, सिलसिला, और नूरी। 


इस कार्यक्रम में प्रस्तुत गीत एक से बढ़कर एक हैं। अंतिम गीत क़मर जलालाबादी का है। धुन बनाई श्याम सुन्दर ने। गाया लता ने। 


साजन की गलियां छोड़ चले

दिल रोया आंसू बह न सके

यह जीना भी कोई जीना है

हम उनको अपना कह न सके


जब उनसे बिछड़ कर आने लगे

रुक-रुक के चले, चल-चल के रुके

लब काँपे, आँखें भर आयी

कुछ कहना चाहा कह न सके


उनके लिए उनको छोड़ दिया

खुद अपने दिल को तोड़ दिया

हम उनके दिल में रहते थे

उनके क़दमों में रह न सके


साजन है वहाँ और हम हैं यहाँ

ऐसे दिल को ले जायें कहाँ 

जो पास भी उनके रह न सके

और दर्द-ऐ-जुदाई सह न सके


राहुल उपाध्याय । 4 नवम्बर 2022 । सिएटल