15 नवम्बर 1936 में जन्में बाऊजी विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। इस प्रतिमा ने रंग दिखलाया जब वे विक्रम विश्वविद्यालय की एल-एल-बी परीक्षा में सर्वप्रथम आए एवं यह स्वर्ण पदक जीता।
पदक मिलने के बाद भी मूल जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आया। वहीं रतलाम के पश्चिम रेलवे के दफ़्तर में क्लर्क की नौकरी। कोई पदोन्नति नहीं।
कुछ वक्त बाद ही क़िस्मत पलट गई।
एक दिन शिवगढ़ के राजा के एक मंत्री बाऊजी के दफ़्तर कार से आए। आकर एक फ़ार्म दिया कि इसे भर दो। लंदन विश्वविद्यालय से एल-एल-एम करने का सुनहरा मौक़ा है पूर्ण छात्रवृत्ति के साथ। हवाई जहाज़ से आने-जाने का ख़र्चा भी दिया जाएगा।
बाऊजी बहुत ख़ुश। यह तो कमाल हो गया। कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि शिवगढ़ का गाय चराने वाला कभी विदेश जाएगा।
फ़ार्म भरने बैठे तो होश उड़ गए। छात्रवृत्ति के लिए जो तीन शर्तें थीं, उन सब पर बाऊजी खरे नहीं उतरते थे।
निराश हो गए। मौक़ा भी हाथ आया तो ऐसा कि खेल शुरू होने से पहले ही हार गए।
फिर उन्होंने सोचा कि नियति भी कोई चीज़ होती है। क्या ज़रूरत थी मंत्री जी को उनके दफ़्तर तक आने की? क्यों उन्होंने बाऊजी के बारे में सोचा? बाऊजी न तो उनके परिवार के सदस्य थे, न पड़ोसी, न जान-पहचान, न रोज़ का उठना-बैठना। अख़बार में उनके स्वर्ण पदक की ख़बर थी। बस उतना ही काफ़ी था उनके लिए अपने गाँव के एक होनहार छात्र की मदद करने के लिए।
सो बाऊजी ने मंत्री जी के परिश्रम का निरादर न करते हुए फ़ार्म भरकर भेज दिया। बाऊजी का चयन हो गया। पूर्ण छात्रवृत्ति के साथ।
राहुल उपाध्याय । 15 नवम्बर 2022 । सिएटल
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