Saturday, March 25, 2023

भीड़ फ़िल्म की समीक्षा

'भीड़' - अनुभव सिन्हा द्वारा लिखी और निर्देशित एक बहुत अच्छी हिन्दी फिल्म है। कुछ दृश्य और संवाद ऐसे हैं जो शायद परिवार के साथ देखने के योग्य न हो। 


फ़िल्म कोरोना काल पर आधारित है और  उन मानवीय भावनाओं की ओर ध्यान आकर्षित करती है जो शाश्वत हैं। यही इस फिल्म की सबसे बड़ी शक्ति है। और यही हर कहानी का मज़बूत पहलू भी होता है। 


यह कहानी कई मूलभूत प्रश्न उठाती है। दर्शकों को पर्याप्त समय देती है उन प्रश्नों का उत्तर देने के लय। सोचने के लिए। कि ये समस्या कैसे हल की जाए। फिर फ़िल्म स्वयं ही कोई समाधान ढूँढती है। जो गले उतरता है। 


फ़िल्म श्वेत-श्याम हैं किंतु सकारात्मक है। आशावादी है। निराशावादी नहीं। 


सबके अभिनय उम्दा हैं। कोई किसी से कम नहीं। राजकुमार राव, भूमि पेंडनेकर, आशुतोष राणा, पंकज कपूर। सब बढ़िया हैं। 


फ़िल्म की शुरुआत में कोरोना काल की नाटकीयता उतनी विश्वसनीय नहीं लगती। हमने सच्चाई देख रखी है और अभी भूले नहीं हैं। तब मन खिन्न होता है कि ये क्या चल रहा है? अभिनेता लिए ही क्यूँ? क्यों नहीं असली टीवी फ़ुटेज दिखा देते हैं। बस इस कमजोरी को जाने दे तो बाद में फ़िल्म बहुत अच्छी रफ़्तार से चलती है और कहानी का असली रंग नज़र आता है। 


टाईटल्स से पहले की रील हिचकाक की याद दिलाती है। बिना कुछ बताए सब बता देना। 


राहुल उपाध्याय । 25 मार्च 2023 । सिएटल 


Sunday, March 19, 2023

मिसेस चटर्जी वर्सेस नार्वे - फ़िल्म की समीक्षा

मिसेस चटर्जी वर्सेस नार्वे - सच्ची घटना पर आधारित काल्पनिक कहानी पर बनी हिन्दी फिल्म है। यह बहुत अच्छी है और सबको देखनी चाहिए। 


इस फ़िल्म का सबसे सशक्त पहलू है इस से जुड़ी घटना की सच्चाई। झकझोर देता है यह सत्य कि ऐसा हो चुका है। यह फ़िल्म सिर्फ़ डराती नहीं है कि कभी हो सकता है बल्कि बहुत ही प्रभावशाली तरीक़े से बताती है कि इतना जघन्य अपराध हो चुका है और आपके साथ भी हो सकता है। 


जैसा देस, वैसा भेस। यह कहावत तो सुनी थी और कमोबेश इस पर अमल भी करना चाहिए। लेकिन किस हद तक? क्या बच्चे अपने माता-पिता के साथ एक ही पलंग पर नहीं सो सकते? क्या हाथ से खाना खाना या खिलाना ग़लत है? क्या घर में दीपक जलाना ग़लत है? घंटी बजाना, शंख बजाना, स्वास्तिक बनाना, हवन करना, अखंड रामायण का पाठ करना, धोती पहनना, नंगे पाँव रहना, ग़लत है?


इन्हीं सब प्रश्नों पर यह कहानी विचार करने पर मजबूर करती है। कई पति तो शायद असहज भी महसूस करें। क्योंकि इसमें ये प्रश्न भी उठाए गए हैं कि वे घर के काम में पत्नी का हाथ क्यों नहीं बँटाते? क्या कमा लेने से ही उनकी ज़िम्मेदारी पूरी हो जाती हैं?


सागरिका भट्टाचार्य के साथ जो हुआ बहुत बुरा हुआ। लगता है कि उसे कहीं से कोई राहत नहीं मिली। स्वयं उसके पति, देवर, सास-ससुर निर्दयी निकले। इस हद तक कि प्रेम चोपड़ा के सारे किरदार फीके पड़ जाए। इन तमाम हरकतों के बावजूद सागरिका ने अभी तक तलाक़ नहीं लिया है। जबकि इस कहानी को घटे दस साल हो चुके हैं। उन दोनों के बीच कोई सम्पर्क भी नहीं है। कोई बातचीत नहीं। कोई धन राशि का आदान-प्रदान भी नहीं। 


कुछ महीनों बाद वे तलाक़ की कार्यवाही शुरू करेंगी। अभी वे नोएडा में सॉफ़टवेयर इंजीनियर हैं। जब वे काम पर जाती हैं तो उनके माता-पिता बच्चों की देखभाल करते हैं। 


इस फ़िल्म में रानी मुखर्जी का अभिनय बहुत ही बढ़िया है। हर फ़्रेम में वे बच्चों की माँ ही नज़र आती हैं। सागरिका के सामने रानी मुखर्जी की उम्र ज़्यादा लगती है पर वे अपने अभिनय से इस कमी को पूरी कर लेती हैं। 


सोशियल वर्कर्स का अभिनय भी विश्वसनीय है। पति का भी। 


फ़िल्म में गीत-संगीत का कोई स्थान नहीं है और उचित भी है। 


फ़िल्म को विश्वसनीय बनाने के लिए कई सीन हैं जिनमें संवाद अंग्रेज़ी में हैं। शायद कई लोगों को समझने में दिक़्क़त आए। मेरे विचार में यदि ये संवाद हिन्दी में होते तो यह फ़िल्म अधिक दर्शकों तक पहुँच सकती थी। 


यह समस्या एनआरआई लोगों की है। उन्हें ही समझ आ सकती है। लेकिन अधिकांश एनआरआई भी अपने बबल में रहते हैं। उन्हें भी अपने देश-समाज के नियम ठीक से मालूम नहीं होते हैं। 


यह फ़िल्म उन्हें शायद प्रेरित कर सकती है कि वे जानकारी इकट्ठा करें। यह सिर्फ़ नार्वे की समस्या नहीं है। और न ही पश्चिमी गोलार्द्ध की। 


अमेरिका के स्कूलों में भी यदि शिक्षक या अन्य अधिकारी चाहें तो सोशियल वर्कर्स को सूचित कर सकते हैं कि बच्चे के घर के रहन-सहन पर निगरानी रखी जाए। और कौन सा ऐसा परिवार होगा जहां कभी भी कुछ ग़लत न होता होगा। एक बार फँस गए तो फँसते ही चले जाते हैं। 


राहुल उपाध्याय । 19 मार्च 2023 । सिएटल 

Saturday, March 11, 2023

इतवारी पहेली: 2023/03/12


इतवारी पहेली:


रवि से कहा तू #### #

जब वो आया तब ## # #


इन दोनों पंक्तियों के अंतिम शब्द सुनने में एक जैसे ही लगते हैं। लेकिन जोड़-तोड़ कर लिखने में अर्थ बदल जाते हैं। हर # एक अक्षर है। हर % आधा अक्षर। 


जैसे कि:


हे हनुमान, राम, जानकी

रक्षा करो मेरी जान की


ऐसे कई और उदाहरण/पहेलियाँ हैं। जिन्हें आप यहाँ देख सकते हैं। 


Https://tinyurl.com/RahulPaheliya



आज की पहेली का हल आप मुझे भेज सकते हैं। या यहाँ लिख सकते हैं। 

सही उत्तर न आने पर मैं अगले रविवार - 19 मार्च 2023 को - उत्तर बता दूँगा। 


राहुल उपाध्याय । 12 मार्च 2023 । सिएटल 




Wednesday, March 8, 2023

तू झूठी मैं मक्कार - समीक्षा

'तू झूठी मैं मक्कार' - लव रंजन की पाँचवीं फ़िल्म है जिसका उन्होंने निर्देशन किया है और लिखी भी हैं। और यह जानकर अच्छा लगा कि यह उनकी बाक़ी फ़िल्मों जैसी मनोरंजक है। इनमें उनकी अपनी एक छाप है। उनके हस्ताक्षर है। जो कि हर कलाकार के साथ होता है, होना भी चाहिए। कई बार लगता है कि वह कलाकार एक खाँचे में बँध गया है। पर क्या बुरा है अगर वो इस खाँचे में ही अपना विस्तार खोजता है। 


यह फ़िल्म बहुत अच्छी है। और ख़ास कर अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के दिन रिलीज़ करना एक अच्छा संयोग है। यह फ़िल्म एक कॉमर्शियल फ़िल्म होते हुए भी उन सब मुद्दों को छूती है जिनका ज़िक्र तस्लीमा नसरीन अपनी किताब 'औरत के हक़' में करती हैं। मेरी नज़र में यह किताब हर किसी को अवश्य पढ़नी चाहिए और महिला दिवस के दिन फिर से बार-बार हर साल पढ़नी चाहिए। 


यह एक पारिवारिक फ़िल्म है। बस कुछ लोगों को किस/चुम्बन की प्रचुर मात्रा से एतराज़ हो सकता है। जैसे कि एक ज़माने में बॉबी देखने से बच्चों को मना इसलिए किया जाता था कि उसमें डिम्पल के कपड़े छोटे थे।


मुझे तुमसे प्यार है - यह कहना जितना मुश्किल है उससे भी मुश्किल है किसी से प्यार करने के बाद यह कहना कि अब मुझे तुमसे प्यार नहीं है। यानी ब्रेकअप करना। बस इसी विषय को मुद्दा बनाकर फ़िल्म चलती है और फिर कई अन्य विषयों को छूते हुए समाप्त होती है। 


फ़िल्म है तो कुछ तो ग़लतियाँ होती ही है। कुछ कलात्मकता की दृष्टि से भी छूट जायज़ है। एयरपोर्ट वाली भागाभागी कुछ को परेशान कर सकती है तो कुछ का मनोरंजन। 


प्यार का पंचनामा से लेकर इस फ़िल्म तक लव रंजन ने लम्बे-लम्बे संवादों का इस्तेमाल बखूबी किया है। पर लगभग हर किरदार से लम्बे संवाद बुलवाना थोड़ी ज़्यादती लगी। 


कार्तिक और नूसरत का तड़का भी पसन्द आया। दोनों अब अपनी अच्छी पहचान बना चुके हैं। 


फ़िल्म में हर सीन सौन्दर्य से ओतप्रोत है। बहुत ही मनोहारी फ़िल्म बनी है। एडिटिंग बहुत अच्छी है। एक अच्छी रफ़्तार से फ़िल्म चलती रहती है। इंटरवल न होता तो अच्छा होता। होता तो किसी दूसरी जगह होता तो ज़्यादा अच्छा होता। 


इंटरवल के बाद की बाद की फ़िल्म पहले भाग से ज़्यादा अच्छी है। इंटेन्स सीन्स, ख़ासकर संवाद हीन सीन, बहुत ही बढ़िया है। पृष्ठभूमि में चलता संगीत उन सीन्स को और भी इंटेन्स बनाता है। 


जो इंसान आनन्द को देख रोता है वह इसमें भी अपनी आँखें गीली करेगा। बहुत ही संवेदनशील फ़िल्म है। राजश्री की नहीं है पर उन्हीं की भावनाओं को नये अंदाज़ में प्रस्तुत करने की कोशिश करता है। 


गोद भराई पर फ़िल्माया गया गाना अनावश्यक है।


पूरी फ़िल्म में कोई भी ऐसा किरदार नहीं है जिसे खलनायक कहा जा सके या जिसके विचार से असहमति हो। सब रईस हैं पर अच्छे हैं। बस छोटी को पीते हुए देखना अच्छा नहीं लगा। 


राहुल उपाध्याय । 8 मार्च 2023 । सिएटल 


Monday, March 6, 2023

जूडी ह्यूमन

कल 1947 में न्यू यॉर्क में जन्मी जूडी ह्यूमन का देहांत हो गया। 

उन्हें डेढ़ साल की उम्र में ही पोलियो हो गया था। वे व्हीलचैयर का इस्तेमाल करती थी। प्राथमिक स्कूल ने उन्हें स्कूल आने से मना कर दिया, यह कह कर कि आग लगने पर वे स्कूल से निकल नहीं पाएँगी। ख़ुद की भी जान जाएगी और अन्य लोगों को भी हानि पहुँच सकती है। तीन साल तक स्कूल से एक शिक्षक घर पर पढ़ाने आ जाता था। हफ़्ते में दो बार। मात्र एक घंटे के लिए। 

इसे डिस्क्रिमिनेशन कहा जा सकता है। यानी भेदभाव। लेकिन यह व्यक्तिगत भेदभाव नहीं है। यह सिस्टमेटिक डिस्क्रिमिनेशन है। और इसी व्यवस्थागत भेदभाव के खिलाफ उनकी माँ ने और बाद में उन्होंने स्वयं एक लम्बी लड़ाई लड़ी। और उनके प्रयासों की वजह से आज हर किसी के लिए अब हर जगह सुविधाएँ मौजूद हैं। छोटा रेस्टोरेन्ट हो या पाँच सितारा होटल, लायब्रेरी हो या एयरपोर्ट, हर जगह जहां सीड़ी है वहाँ एक रैम्प या लिफ्ट आवश्यक है ताकि व्हीलचैयर वाले बिना किसी इंसान की मदद के अंदर-बाहर आ जा सके। 

माँ ने स्कूल वालों से अपील की, लगातार प्रयास किया और को चौथी कक्षा में उन्हें स्कूल आने की अनुमति दे दी। बाद में हाई स्कूल ने फिर मना कर दिया। कॉलेज में भी यही अड़चन आई। वहाँ भी अपील की, और अनुमति हासिल की। होस्टल वालों ने भी मना कर दिया। वहाँ भी उन्होंने हार न मानी और होस्टल में रहीं। बाद में नौकरी में भी यही आपत्ति आई। प्रयास किए, सफल हुई और एक शिक्षक की नौकरी की। 

1977 में शिक्षा मंत्रालय के साथ भी भिड़ गईं। धरने पर बैठ गई कुछ समर्थकों के साथ। कि जब तक हमारी माँगे नहीं मानेंगे हम यहीं बैठे रहेंगे। 

मंत्री महोदय ने उस बिल्डिंग में मौजूद कैफे को बंद करवा दिया। जूडी ने जनता से अपील की। साल्वेशन आर्मी - जो कि ग़रीबों के लिए काम करती है - ने दूसरे दिन सबके लिए भोजन भेजा। दवाईयाँ भी भेजी। क्योंकि कोई कर्मचारी ब्लडप्रेशर आदि की दवाईयाँ लेता था तो कोई कुछ और। बाद में एक दूसरी संस्था- ब्लैक पेंथर - ने यह ज़िम्मा लिया कि वे रोज़ भोजन भेजती रहेगी। 

यह धरना 28 दिन तक चला जो कि अमेरिका की किसी सरकारी बिल्डिंग में सबसे लम्बा चलनेवाला धरना है। 

अंततः मंत्री महोदय ने हार मान ली। और नये क़ानून पारित हुए। 

जूडिथ के जीवन से हमें प्रेरणा मिलती है कि एक अकेला इंसान भी अगर चाहें तो समाज में बदलाव ला सकता है। 

उनकी बदौलत ही आज हर बच्चा स्कूल जा सकता है चाहे उसे कितनी ही विशेष सुविधाएँ प्रदान करनी पड़े। कई बार तो एक छात्र के लिंए एक अटेंडेंट नियुक्त किया जाता है जो उसकी हर ज़रूरत का ध्यान रखता है जैसे कि कब कौनसी दवाई देनी है, कब क्या खिलाना-पिलाना है, कब बाथरूम ले जाना है। छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी चीज़ का ध्यान रखा जाता है। मॉक ड्रील की जाती है यानी प्रैक्टिस कि अगर कभी आग लगी तो अटेंडेंट स्वयं को और छात्र को बचा पाएगा या नहीं। नहीं तो बिल्डिंग में बदलाव लाए जाते हैं ताकि वे दोनों सुरक्षित बाहर निकल पाए। 

कई बार बनी बनाई बिल्डिंग ध्वस्त कर दी जाती हैं इसलिए कि यह एक विशेष वर्ग के लोगों के लिए सुरक्षित नहीं है। 

सिनेमाघरों में व्हीलचैयर वालों के लिए बक़ायदा अलग जगह है जहाँ वे व्हीलचैयर में बैठे-बैठे ही फ़िल्म देख सकती हैं। नेत्रहीन भी फ़िल्म देख सकते हैं। जैसे हमें तेलुगु समझ न आए तो हम सबटाइटल से समझ जाते हैं। वैसे ही नेत्रहीन देख नहीं सकते हैं तो क्या हुआ, सुन तो सकते हैं। उन्हें एक विशेष हेडफ़ोन दिया जाता है जिसमें फ़िल्म के हर सीन का आँखों देखा हाल सुनाया जाता रहता है। जैसे एक ज़माने में हम क्रिकेट की कमेंट्री से कपिल देव के चौके-छक्के 'देखा' करते थे, वैसे ही ये फ़िल्म 'देखते' हैं।

व्हीलचैयर वाले हर बस में, हर ट्रेन में चढ़ सकते हैं, उतर सकते हैं। 

राहुल उपाध्याय । 6 मार्च 2023 । सिएटल

Friday, March 3, 2023

नोबेल पुरस्कार में नेपोटिज़म?


अब तक आठ अभिभावक-संतान की जोड़ियों को नोबेल पुरस्कार दिया जा चुका है। 


क्या इसे नेपोटिज़म माना जाए?


हो भी सकता है। पर यह तो स्वाभाविक है कि जो जहां पैदा होता है वो वही से आगे या पीछे हो जाता है। इसका नेपोटिज़म से कोई लेना देना नहीं है। 


जो बांग्लादेश में पैदा होगा उसके लिए अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान होना उतना आसान नहीं है जितना इंग्लैंड या अमेरिका में पैदा होने वाले के लिए। 


उसी तरह से एक वैज्ञानिक के बेटे को विज्ञान में रुचि लेना स्वाभाविक है। डॉक्टर के बेटे को डॉक्टरी में। वकील के बेटे को वकालत में। गायक के बेटे को गायकी में। 


यह भी स्वाभाविक है कि जिस घर में जो पैदा होता है उसे वे सारी सुविधाएँ आसानी से मिल जाती हैं जो घर में पहले से ही मौजूद हैं। स्टेथोस्कोप। माइक्रोस्कोप। टेलीस्कोप। टेलीविजन। वाद्ययंत्र। कम्प्यूटर। फोन। कार। कैमिकल्स। तराज़ू। इंटरनेट। वाईफ़ाई। 


और यह भी स्वाभाविक है कि उन्हें वह सब जानकारी मिल जाती हैं आसानी से जो दूसरों को नहीं मिलती। जैसे कि स्कालरशिप कहाँ से मिल सकती है। आवेदन की प्रक्रिया क्या है। 


मैं स्वयं कलकत्ता में था इसलिए आयआयटी के बारे में जान पाया। सैलाना में रहता तो खबर ही नहीं लगती। आयआयटी में था इसलिए विदेश में पढ़ने के लिए स्कालरशिप जुटा पाया। कलकत्ता के किसी विश्वविद्यालय से पढ़ता तो शायद नहीं। 


नोबेल पुरस्कार के आवेदन की भी कुछ प्रक्रिया होगी। या सिफ़ारिश की। जो लोग इन्हें मनोनीत करते हैं उनकी जानकारी में आने के लिए कुछ करना होता होगा। नेचर जैसी पत्रिकाओं में लेख छापने होते होंगे। विश्व भर की प्रतिष्ठित सेमिनारों में हिस्सा लेना होता होगा। 


ये सब जानकारी माता-पिता अपने बच्चों को आसानी से दे सकते हैं, बता सकते हैं, मदद कर सकते हैं। 


इन्हीं सब कारणों से शायद इन संतानों को कुछ फ़ायदा हुआ होगा जो अन्य लोगों को नहीं मिल पाया। 


फिर भी सिर्फ़ आठ ही ऐसी जोड़ियाँ हैं। 954 में से 16 निकाल दें और कुछ पति-पत्नी/भाई-भतीजे वाले भी निकाल दें तो नौ सौ प्राणी ऐसे हैं जिन्होंने अपने बलबूते पर नोबेल पुरस्कार हासिल किया। 


एक और बात। ये सारी जोड़ियाँ विज्ञान के क्षेत्र में ही हैं। शांति पुरस्कार और साहित्य के क्षेत्र में नहीं। शायद इसकी वजह दो हैं। एक तो विज्ञान के क्षेत्र में ज़्यादा विजेता हैं क्योंकि विषय ज़्यादा है और लोग एक टीम के तौर पर भी काम करते हैं। साहित्य में एक अकेला ही रचनाकार होता है। दूसरी वजह यह कि साहित्य के क्षेत्र में उतनी सुविधाएँ आवश्यक भी नहीं होती कि रचनाकार की संतान को बाक़ी लोगों से ज़्यादा फ़ायदा मिले। काग़ज़-क़लम तक़रीबन सबके पास हैं। उच्च शिक्षा शायद न मिल पाए। लेकिन उच्च शिक्षा का अच्छे साहित्यकार से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। 


राहुल उपाध्याय । 3 मार्च 2023 । सिएटल 



सेल्फ़ी फिल्म की समीक्षा

सेल्फ़ी बहुत अच्छी और साफ़-सुथरी फ़िल्म है। बॉक्स ऑफिस पर हिट या फ़्लॉप रही इससे हमें कोई सरोकार नहीं होना चाहिए। 


यह मलयालम फ़िल्म - ड्राइविंग लायसेंस - का हिन्दी रूपांतर है। 


इस फ़िल्म में यह दिखाया गया है कि हालात के हाथों आदमी कैसे अपना आपा खो देता है, खुद का नुक़सान कर लेता है, वो जैसा नहीं है वैसा बन जाता है। 


फ़िल्म की शुरुआत में ही दो गाने डाल दिए हैं चूँकि बाद में गानों का कोई स्कोप नहीं है। पहले दो गाने नहीं होते तो फ़िल्म चुस्त बन सकती थी। 


फ़िल्म में अंत तक रोमांच बना रहता है। दो नायकों के बीच तनातनी चलती रहती है। कभी एक का पलड़ा भारी तो कभी दूसरे का। 


भारत के ड्राइविंग लाइसेंस लेने के क्या नियम-क़ानून हैं, पता हो तो और भी रोमांचक हो सकती है। नहीं पता हो तो भी। मुझे नहीं पता फिर भी भरपूर आनन्द आया। बच्चों को तो प्रायः पता नहीं होते लेकिन उन्हें भी पसन्द आएगी यह फ़िल्म। 


भोपाल वासियों के लिए यह फ़िल्म और भी महत्वपूर्ण है चूँकि इसमें ज़्यादातर आउटडोर शूटिंग भोपाल की है। राजा भोज की मूर्ति, वहाँ के पुल, वहाँ का एयरपोर्ट, वहाँ की झील। सब इस फिल्म में देखे जा सकते हैं। 


फ़िल्म के संवाद बहुत अच्छे हैं। पटकथा भी बढ़िया है। हर बात गले उतरती है। नुसरत भरूचा का रोल कुछ ख़ास नहीं है फिर भी अभिनय जीवंत है। अच्छी अभिनेत्री हैं। फ़िल्म बहुत ही यथार्थवादी है। कोई बंदूक़-वंदूक नहीं। सब सहज लोग हैं। 


अंतिम दृश्य में क्लाईमेक्स के बाद एक जगह कन्टिन्यूटी में ग़लती हुई है वरना बेहतरीन फिल्म है। 


राहुल उपाध्याय । 2 मार्च 2023 । सिएटल 

Wednesday, March 1, 2023

फ़रवरी 2023

फ़रवरी माह छोटा है। और यह बताते हुए मुझे ख़ुशी हो रही है कि इस छोटे से महीने ने मुझे कितनी बड़ी ख़ुशियाँ दी हैं। 


  1. 'रूमा' कहानी पाठ्यपुस्तक में शामिल की गई

  2. सिंहली में मेरी कविता - अमर प्रेम - अनुवाद की गई और फ़ेसबुक पर पोस्ट की गई ताकि ज़्यादा लोगों तक वह कविता पहुँच सके

  3. आगरा से प्रकाशित 'संस्थान संगम' पत्रिका में मेरी कविता छपी

  4. 'गर्भनाल' में मेरा आलेख छपा


कुछ लोगों को ये चारों उपलब्धियाँ कोई बड़ी बात नहीं लग सकती है। मेरे लिए ये बहुत महत्वपूर्ण हैं। क्योंकि ये रचनाएँ मेरे बिना आग्रह के, सम्बंधित व्यक्तियों ने स्वेच्छा से प्रकाशित की हैं। 


*रूमा कहानी*

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मुझे पता चला कि डॉ राजीव सिंह एक पाठ्यपुस्तक पर काम कर रहे हैं। तो मैंने कहा कि मेरी कविता - मौसम - पहले ही एक पाठ्यक्रम-सहायक पुस्तिका में आ चुकी है। आप चाहें तो उसे ले लीजिए। 


उन्होंने वह नहीं ली। फिर मैंने कहा कि मेरी इतवारी पहेलियों में से दो-चार ले लीजिए। 


उन्होंने वे भी नहीं ली। उन्होंने कहा कि आप कुछ ऐसा लिखें जो स्वयं आप ही लिख सकते हैं अपने परिवेश के बारे में जो बच्चों की समझ में भी आ जाए और ज्ञानवर्धक हो। 


मैंने ज़्यादातर कविताएँ ही लिखी हैं। कभी-कभी संस्मरण भी लिखे हैं। 2022 में मैंने तीन कहानियाँ लिखी: 22 जनवरी को - कभी-कभी। 25 जनवरी को - आदर्श। 27 जनवरी को - रूमा। 


रूमा लिखी राजीव जी के सुझाव को ध्यान में रखकर। लेकिन क्या वे इसे अपनी पाठ्यपुस्तक में शामिल करेंगे? मुझे भरोसा नहीं था। जब मेरी सर्वाधिक पसंद की जानेवाली - मौसम - नहीं ली। मेरी इतवारी पहेलियाँ ठुकरा दी गईं। तब मुझे लगने लगा था कि मैं बच्चों के लायक़ रचनाएँ लिखने लायक़ नहीं हूँ। सारी आशाएँ छोड़ दी थीं। ऐसे में जब उनकी स्वीकृति आ गई तो अवश्य ही मेरी ख़ुशियों की कोई सीमा नहीं रही। 


*सिंहली में कविता*

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मैं व्हाट्सएप के एक ऐसे ग्रुप में स्वेच्छा से शामिल हो गया जिससे प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों के दिग्गज अध्यापक जुड़े हैं। वहाँ बातें होती हैं इतिहास की। इतिहास से जुड़े सृजन की। जिन्हें इतिहास ने उपेक्षित कर दिया उन्हें सामने लाने की। वहाँ कविताओं का कोई स्थान नहीं है। कविताएँ शेयर करना ठीक भी नहीं माना जाता है। मेरी जान-पहचान भी किसी से नहीं है। एडमिन से शुरू में बात की थी। बस इतना ही। वेलेण्टाइन डे पर एक सदस्य ने अपना पॉडकास्ट भेजा प्रेम पर केन्द्रित कि प्रेम भाव जो उत्पन्न होता है उसका विज्ञान क्या है। यह एक साल पुराना पॉडकास्ट था। मुझसे रहा न गया और उस पोस्ट की प्रतिक्रिया में अपनी कविता - अमर प्रेम - शेयर कर दी। सोच रहा था कि एडमिन डीलिट कर देंगे। लेकिन उसी रचना पर अनुषा सल्वतुर जी की नज़र पड़ी और उन्होंने जवाब दिया कि मैंने इसका सिंहली में अनुवाद किया है। इससे पहले मैं अनुषा जी से अपरिचित था और अनुषा जी मुझसे। 


https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=pfbid037Z3PWZYCvJhdGizQPKsEAKKfz4xacBRkGQ8mtyZkA8bWzkeBxsfBo92HgpPYZ5jel&id=100000417296327&mibextid=qC1gEa



*संस्थान संगम' में मेरी रचना*

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जब भी मैं देखता हूँ कि उन्हें साहित्य में या कविता में रूचि है तो मैं उन्हें अपनी एक सूची में शामिल कर लेता हूँ ताकि उन्हें मेरी हर नई रचना मिल सके। उस सूची में कुछ आगरा के सदस्य हैं जो संगम पत्रिका हर माह की सात तारीख़ को निकालते हैं। उन्हें मेरी रचना - किताबें - अच्छी लगी और कहा कि इसे हम प्रकाशित कर रहे हैं। मुझे बड़ी ख़ुशी हुई कि कविताएँ तो क़रीब-क़रीब मैं रोज़ ही भेजता हूँ, लेकिन उनमें से एक न सिर्फ़ पढ़ी गई बल्कि प्रकाशन के लायक़ भी समझी गई। 


*गर्भनाल में लेख*

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आत्माराम शर्मा जी से बहुत पुराना परिचय है। शायद पन्द्रह वर्ष पुराना। उन्हीं के आग्रह से मैंने गद्य लिखना प्रारम्भ किया। पहले मैं उन्हें भेजा करता था कि शायद वे ये रचना छाप दें या वो रचना छाप दें। फिर मुझे लगा कि बहुत सारे लिखनेवाले हैं, मैं ही आग्रह करता रहूँगा तो बाक़ी को स्थान नहीं मिल पाएगा। सो मैंने भेजना बंद कर दिया। अब जब कभी उनकी निगाह मेरी पोस्ट पर पड़ जाती है तो वे स्वयं आग्रह करते हैं कि इसे थोड़ा विस्तार दें। इसे गर्भनाल में प्रकाशित करना चाहते हैं। यही इस माह हुआ। 


https://www.garbhanal.com/kharee-kharee



राहुल उपाध्याय । 1 मार्च 2023 । सिएटल