Sunday, March 19, 2023

मिसेस चटर्जी वर्सेस नार्वे - फ़िल्म की समीक्षा

मिसेस चटर्जी वर्सेस नार्वे - सच्ची घटना पर आधारित काल्पनिक कहानी पर बनी हिन्दी फिल्म है। यह बहुत अच्छी है और सबको देखनी चाहिए। 


इस फ़िल्म का सबसे सशक्त पहलू है इस से जुड़ी घटना की सच्चाई। झकझोर देता है यह सत्य कि ऐसा हो चुका है। यह फ़िल्म सिर्फ़ डराती नहीं है कि कभी हो सकता है बल्कि बहुत ही प्रभावशाली तरीक़े से बताती है कि इतना जघन्य अपराध हो चुका है और आपके साथ भी हो सकता है। 


जैसा देस, वैसा भेस। यह कहावत तो सुनी थी और कमोबेश इस पर अमल भी करना चाहिए। लेकिन किस हद तक? क्या बच्चे अपने माता-पिता के साथ एक ही पलंग पर नहीं सो सकते? क्या हाथ से खाना खाना या खिलाना ग़लत है? क्या घर में दीपक जलाना ग़लत है? घंटी बजाना, शंख बजाना, स्वास्तिक बनाना, हवन करना, अखंड रामायण का पाठ करना, धोती पहनना, नंगे पाँव रहना, ग़लत है?


इन्हीं सब प्रश्नों पर यह कहानी विचार करने पर मजबूर करती है। कई पति तो शायद असहज भी महसूस करें। क्योंकि इसमें ये प्रश्न भी उठाए गए हैं कि वे घर के काम में पत्नी का हाथ क्यों नहीं बँटाते? क्या कमा लेने से ही उनकी ज़िम्मेदारी पूरी हो जाती हैं?


सागरिका भट्टाचार्य के साथ जो हुआ बहुत बुरा हुआ। लगता है कि उसे कहीं से कोई राहत नहीं मिली। स्वयं उसके पति, देवर, सास-ससुर निर्दयी निकले। इस हद तक कि प्रेम चोपड़ा के सारे किरदार फीके पड़ जाए। इन तमाम हरकतों के बावजूद सागरिका ने अभी तक तलाक़ नहीं लिया है। जबकि इस कहानी को घटे दस साल हो चुके हैं। उन दोनों के बीच कोई सम्पर्क भी नहीं है। कोई बातचीत नहीं। कोई धन राशि का आदान-प्रदान भी नहीं। 


कुछ महीनों बाद वे तलाक़ की कार्यवाही शुरू करेंगी। अभी वे नोएडा में सॉफ़टवेयर इंजीनियर हैं। जब वे काम पर जाती हैं तो उनके माता-पिता बच्चों की देखभाल करते हैं। 


इस फ़िल्म में रानी मुखर्जी का अभिनय बहुत ही बढ़िया है। हर फ़्रेम में वे बच्चों की माँ ही नज़र आती हैं। सागरिका के सामने रानी मुखर्जी की उम्र ज़्यादा लगती है पर वे अपने अभिनय से इस कमी को पूरी कर लेती हैं। 


सोशियल वर्कर्स का अभिनय भी विश्वसनीय है। पति का भी। 


फ़िल्म में गीत-संगीत का कोई स्थान नहीं है और उचित भी है। 


फ़िल्म को विश्वसनीय बनाने के लिए कई सीन हैं जिनमें संवाद अंग्रेज़ी में हैं। शायद कई लोगों को समझने में दिक़्क़त आए। मेरे विचार में यदि ये संवाद हिन्दी में होते तो यह फ़िल्म अधिक दर्शकों तक पहुँच सकती थी। 


यह समस्या एनआरआई लोगों की है। उन्हें ही समझ आ सकती है। लेकिन अधिकांश एनआरआई भी अपने बबल में रहते हैं। उन्हें भी अपने देश-समाज के नियम ठीक से मालूम नहीं होते हैं। 


यह फ़िल्म उन्हें शायद प्रेरित कर सकती है कि वे जानकारी इकट्ठा करें। यह सिर्फ़ नार्वे की समस्या नहीं है। और न ही पश्चिमी गोलार्द्ध की। 


अमेरिका के स्कूलों में भी यदि शिक्षक या अन्य अधिकारी चाहें तो सोशियल वर्कर्स को सूचित कर सकते हैं कि बच्चे के घर के रहन-सहन पर निगरानी रखी जाए। और कौन सा ऐसा परिवार होगा जहां कभी भी कुछ ग़लत न होता होगा। एक बार फँस गए तो फँसते ही चले जाते हैं। 


राहुल उपाध्याय । 19 मार्च 2023 । सिएटल 

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