Wednesday, September 14, 2022

कोहबर की शर्त

'कोहबर की शर्त' कृति 'गुनाहों का देवता' नहीं है। पर उससे कम भी नहीं है। इस बात एक सबूत तो यह है कि इस कृति पर दो सफल फ़िल्में बन चुकी हैं - 'नदिया के पार' और 'हम आपके हैं कौन'। (जबकि गुनाहों के देवता पर बनी फ़िल्म और टीवी सीरियल, असफल रहें।)


और ख़ास बात यह कि दोनों फ़िल्में इस कृति के आधे हिस्से तक ही बनी हैं। जहाँ फ़िल्म ख़त्म होती है वहीं से यह रचना महान बनती है। इतनी त्रासदी है कि बयान नहीं की जा सकती। लेकिन सब सहज भाव से। जैसे कि जो नियति ने तय कर लिया वही सही है। जाहि बिधि राखें राम ताहि बिधि रहिए। 


लेखक केशवप्रसाद मिश्र का नाम जाना-पहचाना नहीं है। गाँव की सच्ची तस्वीर इस कृति में मिलती है। बाला के चरित्र से सबको हैरानी हो सकती है। ऐसा किरदार शायद ही कहीं मिले। अपवाद स्वरूप हो सकता है। 


गुनाहों का देवता में चन्दर है तो यहाँ चन्दन। वहाँ चन्दर सब तय करता है या चन्दन कुछ नहीं करता। दूसरों के हाथ का खिलौना बन जाता है। वह आहत भी होता है। दूसरों को दोषी ठहराने से बाज भी नहीं आता। वह महानायक तो क्या नायक भी नहीं है। अमोल पालकर के किरदारों से भी कमज़ोर है। 


और यही इस रचना की ख़ासियत है कि सब कुछ साधारण है। घर साधारण। लोग साधारण। गाँव साधारण। भाषा साधारण। मुहावरे साधारण। जैसे कि गंगा में खड़े धोबी का दुर्भाग्य ही है कि वह प्यासा ही रहे। और यह भी कि गंगा में खड़े होने के बाद नाले का पानी क्यों त्याज्य हो जाना चाहिए। 


चन्दन की गुंजा, चन्दन की ही रही या ओंकार की हो गई? यह रहस्य ही रहा और अच्छा ही है कि यह रहस्य ही रहा। कुछ बातें न जानने में ही भलाई है। 


लेखक की लेखन कला इतनी सशक्त है कि पहला भाग विश्वसनीय ख़ुशियों से भरा है। और दूसरा भाग उतनी ही विश्वसनीयता से दुख से भरा है। यह रचना 1965 में प्रकाशित हुई। 


यह पूरा उपन्यास यहाँ पढ़ा जा सकता है। 


https://ia903401.us.archive.org/24/items/20210206_20210206_2026/कोहबर%20की%20शर्त.pdf


राहुल उपाध्याय । 14 सितम्बर 2022 । सिएटल 





Friday, September 9, 2022

Sunrise at Mt Rainier

To see beautiful colors of the morning sun rays reflecting from the ice on Mt Rainier, head to Sunrise Visitor Center just before sunset. Enjoy the sunset and the onset of stars as the sky darkens. You can see the Milky Way directly above your head. Also depending on the day of the year you can see Jupiter, Saturn and Mars. (Download Sky View app)


You can then sleep for a few hours in your car. Wake up at 5:30am. Use the very clean and well maintained restrooms and hike up a little to get a better and closer look at Mt Rainier. 


Then just wait to enjoy the pretty sight. 


Make sure you download maps to get directions when you are offline since your phone may not have any signal there. My phone worked most of the time. But the download copy was helpful. 


Pack enough flashlights or headlights so that you can walk in the dark. 


Pack layers and layers of warm clothing. It may be blistering hot in the day and biting cold at night or in the morning. 


Take an ample amount of snacks or munchies. You would be surprised how hungry you can get when you are awake. 


Good idea to have camping or soccer chairs that are easily foldable and can be carried on shoulders. 


Car camping: It's best to have a hatchback car (I have a Toyota Prius) in which if you flatten the seats in the back, two can sleep as comfortably as at home. Take enough blankets and bed sheets. 


On the way back, you can head to Lake Tipsoo and Lake Reflection. 


If you are not in a rush to head home, you can do Tanner Landing, Gold Creek Pond and Lake Kachess as well. 


How to get there:

Sunrise Visitor Center

(360) 569-2400

https://maps.app.goo.gl/EYeLZhmFYRhvYnPk7?g_st=ic


Tipsoo Lake

https://maps.app.goo.gl/jrEt27WDUwoYyomP8?g_st=ic


Reflection Lake

https://maps.app.goo.gl/JhD7KvdpVSCqo8wS9?g_st=ic


Tanner Landing Park

https://maps.app.goo.gl/oJnn8sGRZfYdZECz6?g_st=ic


Gold Creek Pond

https://maps.app.goo.gl/SGuFoVDatTW3UL8KA?g_st=ic


Kachess Campground

(509) 852-1100

https://maps.app.goo.gl/XRiePxA9itLjVCtY7?g_st=ic



Thursday, September 8, 2022

गुनाहों का देवता

'गुनाहों का देवता' यदि प्रसिद्ध कृति न होती तो मैं शायद बीच में ही पढ़ना छोड़ देता। अच्छा हुआ कि नहीं छोड़ी। शुरूआत की कमियाँ दूर हुई। एक अच्छी साहित्यिक कृति साबित हुई। 


शुरू के कुछ पन्नों में लगा कि ज़बरदस्ती किरदार घुसेड़े जा रहे हैं। सुधा हिन्दू है, गैसू मुस्लिम, पम्मी ईसाई और बिनती गाँव का प्रतिनिधित्व कर रही है। और चन्दर इनसे या ये चन्दर से प्रभावित हैं। 


सुधा और चन्दर बहुत अच्छे दोस्त हैं। घनिष्ठ मित्र हैं। लेकिन जैसा प्रायः फ़िल्मों और कहानियों में होता है, दोस्ती दोस्ती तक ही नहीं रहती है। प्यार हो ही जाता है लेकिन पवित्र प्यार जिसमें सेक्स, सम्भोग, और वासना का कोई स्थान नहीं है। 


और यही इस कृति का मर्म है। धर्मवीर भारती अनेक दृष्टिकोणों से इस विषय को कुरेदते हैं, खोदते हैं, गड्डे करते हैं और उन गड्डों को भरने का कोई प्रयास नहीं करते हैं। क्योंकि वे ऐसा कर ही नहीं सकते। वो क्या कोई नहीं कर सकता। यह विषय बहुत जटिल है और जब तक दिल, दिमाग़, और मन रहेंगे यह विषय सुलझेगा नहीं, अपितु और उलझता जाएगा। चन्दर भी जो कि इतना सधा हुआ, शिक्षित और विवेक से भरपूर है, अपने विचार कई बार बदलता है। पम्मी का भाई बर्टी से जब भी वह मिलता है उसे एक नया ज्ञान प्राप्त होता है। लगता है जैसे कि उसे निर्वाण मिल गया। जबकि असलियत में वह भटक जाता है। बर्टी आजकल का व्हाट्सएप है जहाँ हर पल एक दूसरे से मेल न खाती हिदायतें दी जाती हैं। जो कि कुछ पल के लिए तर्कसंगत और रामबाण दवा लगती हैं। 


सारे पात्र नाटकीय हैं, कृत्रिम हैं, यथार्थ से कोसों दूर। उनके माँ-बाप नहीं हैं, भाई-बहन नहीं हैं। डायलॉग बोलते हैं तो बोलते चले जाते हैं। धाराप्रवाह। वह भी साहित्यिक भाषा में। ऐसा भी कहीं होता है?


लेकिन यही धर्मवीर भारती की विशेषता है कि वे इन्हीं पैंतरों से दिल जीत लेते हैं। मन करता है सुधा, चन्दर, बिनती, पम्मी बस बोलते ही रहें। वे रूक क्यों गए? बात तो अभी तक साफ़ नहीं हुई। इतना बोल लेने के बाद भी कुछ है जो अनकहा रह जाता है। 


मन करता है कि वे एक दूसरे को कस कर गले लगाए, जी भर के प्यार करें और साधारण इंसान बन जाए। महानता के चक्कर में ना फँसे। पर न जाने किस मिट्टी के बने हैं। सब मानो भीष्म प्रतिज्ञा लिए बैठे हैं कि हमारे दामन पर कभी कोई दाग नहीं लगेगा। 


यह पुस्तक बार-बार पढ़ी जानी चाहिए। जबकि यह बहुत पुरानी रचना है लेकिन पुरानी नहीं हुई। पाँचवाँ संस्करण 1959 में निकला था। 77 वाँ संस्करण 2021 में। 


इसमें इलाहाबाद हैं, इलाहाबाद विश्वविद्यालय है, इलाहाबाद की गलियाँ हैं, सिविल लाईन्स है, गंगा है, इलाहाबाद की उमस, बरसात और मिट्टी है। लेकिन जैसे-जैसे कथानक विकसित होता है शहर का महत्व नहीं रह जाता है। यह कहीं की भी कहानी हो सकती है। 


पम्मी एक चिट्ठी में बहुत गहरी बात लिखती है। लिखती है कि स्त्री आज़ाद नहीं रह सकती। उसे हमेशा एक टू-डू लिस्ट चाहिए। ज़िम्मेदारियों से भरपूर। और इसीलिए हिन्दू धर्म सबसे अच्छा है जो उसे प्यार की इजाज़त नहीं देता। शादी के बंधन में बहुत जल्दी ही बाँध देता है। बंधन में ही नारी सुखी रह सकती है। आज़ाद रहना उसकी फ़ितरत नहीं। 


यह बात हमें चुभ सकती है और चुभनी भी चाहिए। यह रचना ख़ुद इस बात का प्रमाण है कि शादी बर्बादी है। 


हालाँकि उपन्यास के अंतिम पन्ने पर भी एक शादी होती है। उसका क्या हश्र हुआ इस पर शायद मैं कभी लिखूँ। भारती जी ने तो सिक्वल नहीं लिखा। 


कुछ हद तक यह रचना उनकी आत्मकथा सी भी लगती है। हालाँकि उनके निजी जीवन के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। यह जानकर ताज्जुब हुआ कि यह रचना इनके कुँआरेपन में लिखी गई और छप भी गई। 


राहुल उपाध्याय । 8 सितम्बर 2022 । सिएटल 

Wednesday, September 7, 2022

लाल सिंह चड्ढा

शनिवार, 3 सितम्बर को अमेरिका में राष्ट्रीय सिनेमा दिवस था। और इस उपलक्ष्य में सारे दिन सारे शो तीन डॉलर में थे। आमतौर पर यह 15 डॉलर के होते हैं। 


मेरे एक मित्र ने मेरी एक पोस्ट से अंदाज़ा लगा लिया था कि मैं लाल सिंह चड्ढा देखना चाहता हूँ पर वह मेरे चहेते थियेटर से उतर चुकी थी। उसने दूसरा थियेटर ढूँढ लिया और रात के नौ बजे के शो के दो टिकट ले लिए। मैं माउंट रेनियर की यात्रा से भागा-भागा घर पहुँचा। नहा कर तुरंत टॉको बेल रेस्टोरेन्ट पर चलुपा खा कर भागते-भागते थियेटर पहुँचें। थियेटर खचाखच भरा था। पहली क़तार में भी लोग बैठे थे जहाँ से फ़िल्म देखने में गर्दन अकड़ जाती है। 


मुझे फ़िल्में देखने का बेहद शौक़ है। पागलपन भी कह सकते हैं। लाल सिंह चड्ढा देखना इस कारण से भी चाहता था कि इसे बॉयकॉट करने का अभियान चल रहा था। 


फ़िल्म बिलकुल ही वाहियात है। न बॉयकॉट करते तो भी बेमौत मर जाती। न कहानी है, न गाने हैं, न निर्देशन है। बस अंग्रेज़ी फ़िल्म की हू-ब-हू नक़ल करती जाती है। 


नक़ल भी अच्छी हो सकती है। इसके उदाहरण हैं ऐतबार और सत्ते पे सत्ता।


लेकिन इस फ़िल्म ने सिर्फ़ कॉपी/पेस्ट किया है। काया पर ध्यान दिया, रूह पर नहीं। 


कहानी कहीं से भी विश्वसनीय या तर्कसंगत नहीं लगती। जाने कहाँ से ऐसे पात्र आते हैं। 


माना कि बाहुबली भी अतिशयोक्तिपूर्ण है। लेकिन पूरी प्रस्तुति एक ऐसा माहौल तैयार करती है कि सब मानने को जी करने लगता है। यहाँ कोई भी ऐसी कोशिश नहीं की गई कि दर्शक जुड़ सके। 


मसलन गाने हैं पर एक भी ऐसा नहीं जो मन में रह सके, भा सके, पाँव थिरकने लगे, होंठ गुनगुनाने लगे। 


फ़िल्म ख़त्म हो जाने पर भी ख़त्म नहीं हुई। ज़बरदस्ती खींची गई। नीरसता बढ़ती गई। 


कई बार कोशिश की गई कि लोग भावुक हो जाए। जैसे कि पगड़ी बाँधते हुए पूरा एक ओंकार सुनाना। 


लेकिन सबमें बनावटीपन था। 


राहुल उपाध्याय । 7 सितम्बर 2022 । सिएटल 


Thursday, September 1, 2022

नारी शिक्षा

सत्या नडैला के परदादा बहुत कम उम्र में गुज़र गए। परदादी को परिवार चलाने के लिए शहर आना पड़ा और वे कामवाली बाई बन गई। 


फिर भी कमाई इतनी नहीं थी कि दोनों बेटे स्कूल जा सकें। सो एक जो बदमाश और शरारती था उसे स्कूल भेजा। दूसरा जो ज़िम्मेदार स्वभाव का था उसे काम पर लगा दिया। वह श्रमिक मज़दूर बन कर काम करने लगा। ज़िन्दगी भर वही करता रहा। 


जो स्कूल गया उसने सरकारी नौकरी की और पुलिस ऑफ़िसर बन गया। उसने अपने बेटे को भी पढ़ाया-लिखाया। वे भारत सरकार के उच्च पद पर आसीन हुए। उन्होंने भी अपने बेटे को शिक्षा की सुविधाएँ प्रदान कीं। और वे ही आज माइक्रोसॉफ़्ट के सी-ई-ओ हैं। 


तात्पर्य यह है कि जिसे शिक्षा मिली वह उत्तरोत्तर प्रगति करता चला गया। 


ध्यान देने की बात है कि यहाँ हम पुरूष की ही बात कर रहे हैं। जबकि यह बात दोनों - महिला और पुरूष - पर बराबर लागू होनी चाहिए। पर ऐसा नहीं है। 


मेरी माँ उतना नहीं पढ़ीं जितना मेरे मामा पढ़ें। 


नब्बे के दशक में पैदा हुए बच्चों में भी माता-पिता यह भेद रखते हैं। ख़ासकर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में। 


कई बार कारण वही होते हैं जो कि सत्या की परदादी के थे। आर्थिक। 


लेकिन ज़्यादातर सामाजिक होते हैं। लड़की इंजीनियरिंग नहीं पढ़ सकती। चूँकि घर से बाहर होस्टल में रहना होगा। जबसे निर्भया काण्ड हुआ है दिल्ली जाने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। भले घर की लड़कियाँ मुम्बई तो जाती ही नहीं है। हाँ अगर इन महानगरों में कोई परिचित अभिभावक बन सके तब तो सोचा भी जा सकता है। 


और भी कारण हैं। मसलन लड़की ज़्यादा पढ़ जाए तो वर ढूँढना मुश्किल। वर मिल भी गया तो परिवार वाले शायद उसे घर से बाहर काम न करने दें। सब जगह यही मानसिकता कि सारा समाज नारी को नोचने का मौक़ा देख रहा है। सबसे ज़्यादा सुरक्षित वह घर में ही है। 


माना कि कुछ आशिक़ मिज़ाज लोग समाज में अवश्य हैं। हर दफ़्तर में हैं। हर स्कूल में हैं। हर संस्था में हैं। लेकिन सब मर्यादा में रहते हैं। सब टूट ही नहीं पड़ते हैं। आजकल हर जगह व्यावहारिक नीतियाँ बनाई गई हैं ताकी नारी बेफ़िक्र हो कर काम कर सकें और कर रहीं हैं। 


यह जानते हुए भी कि शिक्षा ही विकास का सहायक है माता-पिता क्यों लड़कियों के साथ ऐसा बर्ताव करते हैं समझ नहीं आता। यदि यही व्यवहार चलता रहा तो हममें और तालिबान में क्या फ़र्क़ रह जाएगा?


राहुल उपाध्याय । 1 सितम्बर 2022 । सिएटल