Thursday, September 8, 2022

गुनाहों का देवता

'गुनाहों का देवता' यदि प्रसिद्ध कृति न होती तो मैं शायद बीच में ही पढ़ना छोड़ देता। अच्छा हुआ कि नहीं छोड़ी। शुरूआत की कमियाँ दूर हुई। एक अच्छी साहित्यिक कृति साबित हुई। 


शुरू के कुछ पन्नों में लगा कि ज़बरदस्ती किरदार घुसेड़े जा रहे हैं। सुधा हिन्दू है, गैसू मुस्लिम, पम्मी ईसाई और बिनती गाँव का प्रतिनिधित्व कर रही है। और चन्दर इनसे या ये चन्दर से प्रभावित हैं। 


सुधा और चन्दर बहुत अच्छे दोस्त हैं। घनिष्ठ मित्र हैं। लेकिन जैसा प्रायः फ़िल्मों और कहानियों में होता है, दोस्ती दोस्ती तक ही नहीं रहती है। प्यार हो ही जाता है लेकिन पवित्र प्यार जिसमें सेक्स, सम्भोग, और वासना का कोई स्थान नहीं है। 


और यही इस कृति का मर्म है। धर्मवीर भारती अनेक दृष्टिकोणों से इस विषय को कुरेदते हैं, खोदते हैं, गड्डे करते हैं और उन गड्डों को भरने का कोई प्रयास नहीं करते हैं। क्योंकि वे ऐसा कर ही नहीं सकते। वो क्या कोई नहीं कर सकता। यह विषय बहुत जटिल है और जब तक दिल, दिमाग़, और मन रहेंगे यह विषय सुलझेगा नहीं, अपितु और उलझता जाएगा। चन्दर भी जो कि इतना सधा हुआ, शिक्षित और विवेक से भरपूर है, अपने विचार कई बार बदलता है। पम्मी का भाई बर्टी से जब भी वह मिलता है उसे एक नया ज्ञान प्राप्त होता है। लगता है जैसे कि उसे निर्वाण मिल गया। जबकि असलियत में वह भटक जाता है। बर्टी आजकल का व्हाट्सएप है जहाँ हर पल एक दूसरे से मेल न खाती हिदायतें दी जाती हैं। जो कि कुछ पल के लिए तर्कसंगत और रामबाण दवा लगती हैं। 


सारे पात्र नाटकीय हैं, कृत्रिम हैं, यथार्थ से कोसों दूर। उनके माँ-बाप नहीं हैं, भाई-बहन नहीं हैं। डायलॉग बोलते हैं तो बोलते चले जाते हैं। धाराप्रवाह। वह भी साहित्यिक भाषा में। ऐसा भी कहीं होता है?


लेकिन यही धर्मवीर भारती की विशेषता है कि वे इन्हीं पैंतरों से दिल जीत लेते हैं। मन करता है सुधा, चन्दर, बिनती, पम्मी बस बोलते ही रहें। वे रूक क्यों गए? बात तो अभी तक साफ़ नहीं हुई। इतना बोल लेने के बाद भी कुछ है जो अनकहा रह जाता है। 


मन करता है कि वे एक दूसरे को कस कर गले लगाए, जी भर के प्यार करें और साधारण इंसान बन जाए। महानता के चक्कर में ना फँसे। पर न जाने किस मिट्टी के बने हैं। सब मानो भीष्म प्रतिज्ञा लिए बैठे हैं कि हमारे दामन पर कभी कोई दाग नहीं लगेगा। 


यह पुस्तक बार-बार पढ़ी जानी चाहिए। जबकि यह बहुत पुरानी रचना है लेकिन पुरानी नहीं हुई। पाँचवाँ संस्करण 1959 में निकला था। 77 वाँ संस्करण 2021 में। 


इसमें इलाहाबाद हैं, इलाहाबाद विश्वविद्यालय है, इलाहाबाद की गलियाँ हैं, सिविल लाईन्स है, गंगा है, इलाहाबाद की उमस, बरसात और मिट्टी है। लेकिन जैसे-जैसे कथानक विकसित होता है शहर का महत्व नहीं रह जाता है। यह कहीं की भी कहानी हो सकती है। 


पम्मी एक चिट्ठी में बहुत गहरी बात लिखती है। लिखती है कि स्त्री आज़ाद नहीं रह सकती। उसे हमेशा एक टू-डू लिस्ट चाहिए। ज़िम्मेदारियों से भरपूर। और इसीलिए हिन्दू धर्म सबसे अच्छा है जो उसे प्यार की इजाज़त नहीं देता। शादी के बंधन में बहुत जल्दी ही बाँध देता है। बंधन में ही नारी सुखी रह सकती है। आज़ाद रहना उसकी फ़ितरत नहीं। 


यह बात हमें चुभ सकती है और चुभनी भी चाहिए। यह रचना ख़ुद इस बात का प्रमाण है कि शादी बर्बादी है। 


हालाँकि उपन्यास के अंतिम पन्ने पर भी एक शादी होती है। उसका क्या हश्र हुआ इस पर शायद मैं कभी लिखूँ। भारती जी ने तो सिक्वल नहीं लिखा। 


कुछ हद तक यह रचना उनकी आत्मकथा सी भी लगती है। हालाँकि उनके निजी जीवन के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। यह जानकर ताज्जुब हुआ कि यह रचना इनके कुँआरेपन में लिखी गई और छप भी गई। 


राहुल उपाध्याय । 8 सितम्बर 2022 । सिएटल 

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