Saturday, September 30, 2023

September 29, 1966

I have already written at length about the story behind this photo that was taken on September 29, 1966 at Bombay airport when he was leaving for his LLM from University of London. He ended up getting a PhD as well. 


I do not have any recollection of this day. I was not even three. I am in my mother's arms. 


I vividly remember the day he returned. Ironically I don't know the exact date. We often remember when we start a journey. Not when we returned. Moon landing? July 20, 1969. Back to earth? Search on the internet. It's a footnote. 


A sizable crowd had gathered at Ratlam station to receive him. Usually we would take 'Tanga' - a horse driven carriage - to go home. (Not the fancy one you find at Central Park in New York.) This time some senior government official had also decided to welcome back my father. So we came home in his Jeep. 


That was my first ride in a Jeep. I loved it so much, I dreamt of owning it one day. I was in US when I could afford one. Weather changed my mind. Now between four of us, we have four Prius'


There was so much food for dinner that night that steel bowls - katoris- covered the entire huge thaali- (steel plate). 


He asked me to join him. I had already eaten. We usually ate dinner around sunset. I joined him anyway. 


Since that day, until I went to Varanasi for B. Tech, we ate together from the same plate. 


(Read the earlier thread here: https://rahul-upadhyaya.blogspot.com/2023/09/september-29.html?m=1)





Friday, September 29, 2023

September 29

It has been 68 months since my father passed away, December 4, 2013. Merely 8 days after my 50th birthday. In fact, I had not even yet told him about all the birthday gifts I had received. I used to call him just once a week, every Tuesday. Looking back, that was a huge mistake. But that's how it was. There was always a distance between us. Plus we only lived together for a total of 8 years. 


We barely spoke to each other.


Only time he spoke to me at length was in 2010, when he was recuperating from a surgery.  I sat next to his bedside in a nearby hospital. He agreed to be recorded on my blackberry. Just the audio. 


He recounted his life. His was a remarkable journey. Not from rags to riches. But from an illiterate till the age of 10, to secure a Ph.D from London at the age of 33. That was quite an achievement, considering my grandfather never went to school and thoughts of sending his kids to school never occurred to him for the simple reason that there was no school in the village. The village had a population of about 500. 


My father received no formal education until he was 10 year old. He learned it all from a Maulavi (a traveling religious teacher) under a tree. 


He had a photogenic memory. This helped him earn the highest grades ever, and earning a gold medal in LLB - Bachelor of Law. 


Later on, he earned a scholarship to do LLM from University of London. This was unheard of in 1966. How is it possible for a kid from a small village to go to London?


But he did go. He returned with LLM and PhD within 3 years in 1969. 


He went on to be Dean of Law College, Calcutta University at the age of 41.  It was a very prestigious post at a very highly regarded law school.



Wednesday, September 27, 2023

राहुल… नाम तो सुना होगा

राहुल? नाम तो सुना होगा 


मेरा पासपोर्ट मुझे देते हुए यूनाइटेड एयरलाइंस के गेट एजेंट ने कहा। और मुझे जो ज़ोर की हँसी छूटी कि सेन फ़्रांसिस्को एयरपोर्ट का पूरा ए-9 गेट रात साढ़े ग्यारह बजे के सन्नाटे में गूँज उठा। 


मैं हवाई जहाज़ की तरफ़ बढ़ गया और वह दूसरे यात्री बोर्ड कराने में व्यस्त हो गया। 


ज़माना बदल रहा है और प्लेन से आने-जाने के तौर तरीक़े भी बदल रहे हैं। मैं अब कहीं भी जाता हूँ तो बैक-पैक में ही निकल जाता हूँ। चाहे कितने ही दिन का सफ़र हो। चार जोड़ी कपड़े बहुत हैं। एक लैपटॉप। बाक़ी चार्जर्स और पॉवर बैंक। 


चैक - यानी सामान किसी के सुपुर्द करना नहीं है। बोर्डिंग पास फ़ोन में है। धड़ल्ले से बैक-पैक स्क्रीनिंग की लाईन में लग जाओ। मेरे पास क्लियर सुविधा है जिससे स्क्रीनिंग के पहले वाली लाइन में नहीं लगना पड़ता। 


लेकिन आज मंगलवार की शाम साढ़े पाँच बजे सिएटल एयरपोर्ट पर कहीं कोई लाइन नहीं थी। मुझे ख़ुश होना चाहिए कि दुखी, मैं तय नहीं कर पाया। 


प्लेन में घुसते वक्त या कहीं भी सिएटल में मेरा पासपोर्ट चैक नहीं किया गया। ड्राइवर लायसेंस से काम चल गया। सिएटल से जा तो सेन फ़्रांसिस्को रहा था पर गंतव्य तो सिंगापुर था। यह तो देखना चाहिए था कि पूरी यात्रा की तैयारी है या नहीं। मेरे रविवारीय सामूहिक प्रातः भ्रमण के साथी के माता-पिता एक बार अमेरिका आने-जाने थे, भोपाल से दिल्ली पहुँच गए और तब पता चला कि पासपोर्ट तो लाए नहीं। कोई और व्यक्ति अगले दिन पासपोर्ट लेकर आया तब बात आगे बढ़ी। 


प्लेन में दाखिल होने से पहले सेन फ़्रांसिस्को एयरपोर्ट पर यात्री कैमरे के सामने खड़ा हो जाता है और वह पास कर देता है कि आप ही पासपोर्ट धारक है। गेट पर खड़ा एजेंट सिर्फ़ पासपोर्ट हाथ में लेता है, नाम पढ़ता है और वापस दे देता है। 


उसके ये चार अतिरिक्त शब्द दिल को छू गए। 


शायद वह सारे राहुलों से ऐसा कहता होगा। आज मंगलवार के दिन इस पूरी यात्रा में एक भी भारतीय नहीं है। न सिएटल से था। न सेन फ़्रांसिस्को से। 


मेरी दादी मेरा नाम कभी नहीं बोल पाईं। हमेशा रावल ही निकलता था। नानी भी राहुलिया कहती थीं। 


जन्मपत्री के हिसाब से मेरा नाम ड से होना था सो डाढ़म चंद लिख दिया गया। बाद में उसे धीरेंद्र कर दिया गया। जब बाऊजी लंदन जा रहे थे एल-एल-एम करने तब उन्होंने मेरा नाम राहुल कर दिया था। तब मैं तीन साल का था। तब की बातें मुझे नहीं पता। मुझे बताई गई हैं। 


जब तीसरी-चौथी में था तब मुझसे सब पूछते थे मेरे नाम का मतलब। मुझे नहीं पता था। आज भी नहीं है। बस सबसे कहता था कि मेरे नाम की तीन महान हस्तियाँ हैं। राहुल सांस्कृत्यायन। राहुल बारपुते। राहुल देव बर्मन। 


तब नहीं पता था कि मासूम देखते वक्त मेरा नाम पूरे थियेटर में बार-बार गूंजेगा। शाहरुख़ खान मुझे मशहूर कर देगा। 


(राहुल नाम का कोई अर्थ नहीं है। शब्दकोश में सिर्फ़ यह लिखा है - सिद्धार्थ का पुत्र। बाद में लोग अटकलें लगाने लगे कि वह जो बेड़ियाँ बन जाता है। या वह जो बंधन से मुक्त कर देता है। बाऊजी मुक्त हो गए थे। शिवगढ़ से। गाँव से। रतलाम से।)


राहुल उपाध्याय । 28 सितम्बर 2023 । सिंगापुर के बेहद क़रीब 



हड़ताल अमेरिका में

हड़ताल? और वह भी अमेरिका में? ये सब तो भारत में शोभा देता है। अमेरिका जैसे पूँजीवादी देश में हड़ताल कैसे हो सकती है। 


लेकिन एक नहीं, दो हड़तालें इन दिनों चर्चा में रहीं। एक ख़त्म हो गई है। दूसरी चल रही है। 


जो चल रही है उसमें कल, 26 सितम्बर को, हंगामा हो गया। अमेरिका के पदासीन राष्ट्रपति हड़ताल करने वाले मज़दूरों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हो गए। भला ऐसा भी कहीं होता है। क्या राष्ट्रपति को शोभा देता है यह कहना कि हमारी माँगें पूरी करो? वह तो स्वयं सक्षम है। 


मामला पेचीदा है। अमेरिका में जितने भी कारख़ाने हैं उन सब में यूनियन है। क्यों? क्योंकि उन्हें ब्लू कॉलर वर्कर्स कहा जाता है। उन्हें मासिक वेतन नहीं मिलता। उन्हें प्रति घंटे की दर से मेहनताना मिलता है। काम नहीं करो तो पैसा नहीं। कोई छुट्टी का लफड़ा नहीं। काम करो, पैसा लो। कोई और रिश्ता नहीं। सुविधाएँ नहीं। 


दूसरी तरफ़ है बाबू लोग जिन्हें व्हाइट कॉलर वर्कर्स कहा जाता है। उन्हें तय राशि का मासिक वेतन मिलता है। न कम, न ज़्यादा। बीमार हो जाओ, तनख़्वाह उतनी ही मिलेगी। छुट्टी के दिन भी काम करो। तनख़्वाह उतनी ही मिलेगी। भत्ते अलग से मिलते हैं। पर कोई ओवरटाइम नहीं। 


ब्लू कॉलर वर्कर छुट्टी लेना पसन्द नहीं करता। वह चाहता है कि वह हर रोज़ काम करे। चौबीसों घंटे काम करे। ताकि ज़्यादा से ज़्यादा पैसा कमा सके। दिन में आठ घंटे से ज़्यादा काम करता है तो डेढ़ गुना ओवरटाइम भी मिलता है। 


ऐसे हालात में जीवन नर्क हो जाता है जब पैसा कमाने के अलावा और कोई प्रयोजन नहीं रह जाता है। ऐसे वर्कर्स के बीच अक्सर कोई इन बातों का संज्ञान लेता है, उन्हें संगठित करता है, यूनियन बनाता है और यदा-कदा अपनी आवाज़ पहुँचाने के लिए हड़ताल भी करता है। 


यूनाइटेड ऑटो वर्कर्स एक ऐसी यूनियन है जो कि सिर्फ़ एक कम्पनी के वर्कर्स की नहीं है। इसमें अमेरिका की तीन बड़ी कार कम्पनियों के वर्कर्स शामिल हैं। और आजकल इस यूनियन ने हड़ताल कर रखी है। उनका मानना है कि महंगाई बढ़ रही है और वर्कर्स की तनख़्वाह नहीं बढ़ रही है। मालिक और धनवान होते जा रहे हैं। मज़दूर और ग़रीब। 


अमेरिका में मूलतः दो राजनीतिक दल हैं। डेमोक्रेट्स और रिपब्लिकन्स। डेमोक्रेट्स का रूझान समाजवादी है। वे मानते हैं कि समाज के गरीब तबके का सरकार को ख़याल रखना चाहिए। जबकि रिपब्लिकन्स का कहना है कि सब अपना ख़याल स्वयं रख सकते हैं। सरकार मदद करेगी तो फिर समाज सरकार पर निर्भर हो जाएगा और समाज की प्रगति शिथिल हो जाएगी। 


इस हड़ताल के प्रति वर्तमान राष्ट्रपति की सहानुभूति है। डेमोक्रेट हैं तो होनी भी चाहिए। लेकिन हड़ताल के मोर्चे पर जाकर उनका साथ देना यह पदासीन राष्ट्रपति के लिए अभूतपूर्व है। कोई कह सकता है कि मदद करनी ही है तो कम्पनियों से क्यों नहीं कहते कि तनख़्वाह बढ़ाओ। तब पूँजीवाद रास्ते में आ जाता है कि ये सब मामले बाज़ार तय करता है। सरकार हस्तक्षेप नहीं कर सकती। 


केन्द्र सरकार ने न्यूनतम प्रति घंटा मेहनताने की राशि तय कर रखी है। हर पाँच-दस साल में बढ़ जाती है। 1986 में जब मैं यहाँ आया था तब $3.35 थी। आज 2023 में $7.25 है। राज्य सरकारें चाहें तो इसे बढ़ा सकती हैं। शहर की सरकार भी। मेरे शहर सिएटल में $15 है। 


सरकार ने कई संस्थाएँ और एजेंसियाँ भी बनाई हैं जो निगरानी रखती है ताकि मज़दूरों के मानवाधिकारों का उल्लंघन न हो। उन्हें समुचित सम्मान मिले। काम का वातावरण सुरक्षित हो। सफ़ाई हो। कहीं भी ज़्यादती न हो। 


इसीलिए आय-फोन डिज़ाइन अमेरिका में होता है लेकिन बनता कहीं और है। अमेरिका में बनेगा तो तीन गुना महँगा पड़ेगा। यहाँ इसीलिए कोई भी चीज ख़राब हो जाए तो सही नहीं होती। उसे कबाड़ में फेंक नई ले लेते हैं। सुधरवाने की क़ीमत कोई दे नहीं दे पाएगा। 


यहाँ घड़ीसाज नहीं है। मोची नहीं है। दर्ज़ी नहीं है। घड़ी-जूते-चप्पल-कपड़े सब नए ले लो। सुधारने वाला कोई नहीं है। 


घर के काम भी इसीलिए ख़ुद करने पड़ते हैं। कोई भी इतना रईस नहीं है कि ड्राइवर रखे, बावर्ची रखे, कामवाली बाई रखे। दफ़्तर में भी कोई चाय बना कर नहीं देता है। सब अपने आप करो। जहां इंसान की ज़रूरत आ पहुँचती है दाम बढ़ जाते हैं। 


अगले साल राष्ट्रपति चुनाव है। इसलिए भी बाईडेन हड़ताल में पहुँच गए कि कोई तो कारण हो सुर्ख़ियों में आने का। यहाँ भक्त मीडिया नहीं है कि उनके आगे-पीछे घुमता रहे। 


जिस राज्य में यह हड़ताल हो रही है उस राज्य का अमेरिका के चुनाव में बहुत बड़ा हाथ है। यह राज्य उतना बड़ा नहीं है जितना न्यू यॉर्क है, या टेक्सास है, या कैलिफ़ोर्निया है। लेकिन यह इसलिए महत्वपूर्ण है कि यह पहले से तय नहीं है कि ये किस दल को वोट देगा। अमेरिका में पचास राज्य हैं। अड़तीस राज्यों ने पहले से ही तय कर रखा है कि वे किसे वोट देंगे और यह सर्वविदित है। इसलिए वहाँ सही मायने में कोई चुनाव है ही नहीं। टक्कर की लड़ाई मिशिगन, विस्कांसिन, ओहायो और फ़्लोरिडा जैसे बारह राज्यों में है। यहाँ पासा कभी भी पलट सकता है। जितने भी तटीय राज्य है वहाँ बाहर से आए बसे लोग ज़्यादा है। उन्हें डेमोक्रेट पसन्द है क्योंकि उन्हें सरकार के सहारे की ज़रूरत है। ताकि वे जल्दी से जल्दी यहाँ अपने पाँव जमा सके। ग्रीनकार्ड मिल सके। सिटीज़न बन सके। जितने भी अंदरूनी राज्य हैं वे बरसों से यहाँ बसे हुए हैं, आत्मनिर्भर हैं, ख़ैरात नहीं चाहिए। मिशिगन जैसे राज्य जहां कारख़ाने हैं वे दोनों से मदद चाहते हैं। उन्हें सरकार के मदद की आवश्यकता है ताकि ऐसी नीतियाँ बनाई जाए कि नौकरियाँ देश से बाहर न जाए। ऐसे में डेमोक्रेट काम आते हैं। लेकिन यही डेमोक्रेट उन्हें पसन्द नहीं आते हैं जब बाहर से लोग काम करने आते हैं और इनकी नौकरियाँ हड़प लेते हैं। जबकि यह सच नहीं है। जो बाहर से आते हैं वे  कुछ और काम करते हैं। इन कारख़ानों में नहीं। पर जब किसी विदेशी को देखते हैं तो लगता है मेरी ही नौकरी लेने आया है। 


बाईडेन और ट्रम्प दोनों ही मिशिगन आते रहेंगे। 2020 के चुनाव में यूनियन ने बाईडेन को समर्थन दिया था। अगले साल का पता नहीं। 


दूसरी हड़ताल जो अभी ख़त्म हुई, वह थी स्क्रीन राइटर्स की। ये लोग कौन हैं? ये वो लोग हैं जो स्क्रिप्ट लिखते हैं, डॉयलॉग लिखते हैं जिन्हें हमारे चहेते टॉक शो होस्ट, स्टैंडअप कॉमेडियन और फ़िल्मी सितारे अभिनीत करते हैं। क्या आप जानते हैं कि कौन बनेगा करोड़पति शो पर जो अमिताभ बातें करते लगते हैं वे वास्तव में एक स्क्रिप्ट के अनुसार कर रहे हैं? जी। पूरी लेखकों की टीम है हर शो के पीछे। कपिल शर्मा भी अपनी लाइनें नहीं, किसी और की बोल रहे हैं। 


ये लेखक मज़दूरों जैसे गरीब तो नहीं हैं। हॉलीवुड में रहते हैं। इन्हें क्या दिक्कत है? इनकी दिक्कत यह है कि ये नहीं चाहते कि असली काम ए-आई (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) करे, और ये सिर्फ उसे सुधारे। सबकी अपनी जंग है। उन्हें अपनी रचनात्मकता को प्रखर रखना है। 


ख़ैर यह हड़ताल तो निपट गई और इसमें कोई राजनेता नहीं उतरा। 


अमेज़ॉन का जबसे प्रादुर्भाव हुआ है नई समस्या पैदा हो गई है। ये हैं तो आई-टी कम्पनी जिसमें काम करने वाले व्हाइट कॉलर वर्कर्स करोड़ों कमाते हैं। पर ब्लू कॉलर वर्कर्स भी हैं जो न्यूनतम दर पर तनख़्वाह पाते हैं। ये वो लोग हैं जो सामान डब्बे में डाल कर ट्रक लोड करते हैं। ये ब्लू कॉलर वर्कर्स यूनियन बना चाहते हैं पर मैनेजमेंट किसी न किसी तरह से बहला-फुसलाकर मना लेता है मज़दूरों को और बात टल जाती है। 


स्टारबक्स की भी अपनी यूनियन है। बड़ी मशक़्क़त से बनी है। पर कोई ख़ास काम नहीं कर पाई है। 


राहुल उपाध्याय । 27 सितम्बर 2023 । अमेरिका से सिंगापुर की 16 घंटे की फ़्लाइट से


Tuesday, September 26, 2023

सुविधाएँ एयरपोर्ट पर

मैं हवाई यात्राएँ करता रहता हूँ। करनी ही पड़ती है। दूरियाँ जो इतनी है। हर बार कुछ न कुछ नया दिख जाता है। 


आज देखा कि सिएटल एयरपोर्ट के हर गेट पर जो बैठने की जगह है वहाँ हर दो सीट के बीच यूएसबी चार्जर और तीन पिन वाले प्लग की सुविधा है। दिल्ली एयरपोर्ट पर मैंने देखा था लोगों को एक खम्बे के इर्द-गिर्द खड़े हुए क्योंकि उस खम्बे पर ये सुविधा थी। शायद अब दिल्ली की कुर्सियाँ भी इतनी सुविधापूर्ण हो जाए। 


दूसरी बात यह कि चार फ़ीट गुणा चार फीट गुणा आठ फ़ीट के चलते फिरते दफ्तर जब चाहो तब उपलब्ध हैं। ये पुराने ज़माने के फ़ोन बूथ की शकल में हैं। बस फ़ोन नहीं है। टीवी मॉनिटर है। कुर्सी है। टेबल है। इंटरनेट है। किराया दस डॉलर पन्द्रह मिनट के लिए। तीन घंटे के लिए नब्बे डॉलर। बूथ के अंदर सम्पूर्ण शांति है काम या मीटिंग करने के लिए। 


राहुल उपाध्याय । 26 सितम्बर 2023 । सिएटल