Thursday, March 24, 2022

सुधा शर्मा

मेरा सौभाग्य है कि मेरे परिवार में प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं है। मेरे बड़े भाई आकाशवाणी में निदेशक रहें। मेरे नाना स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार, स्कूल संस्थापक एवं नगर प्रमुख रहें। पूरे क़स्बे की क़रीब तीन पीढ़ियों ने शिक्षा उन्हीं से प्राप्त की। मेरे पिता 1966 में लंदन गए और लॉ में पी-एच-डी हासिल की। मेरे जीजाजी प्रतिष्ठित समाचार पत्र नईदुनिया के सबसे कम उम्र के सम्पादक रहे। 


आज उसी श्रृंखला में परिवार का नाम रोशन किया, मेरे मामा श्री गोपाल जी शुक्ला (नानी की बहन के बेटे) की बेटी सुधा शर्मा ने। वे आकाशवाणी इन्दौर की उद्घोषक एवं प्रसारणकर्ता हैं। 


श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति, साहित्य अकादमी मध्यप्रदेश, और संस्कृति परिषद, भोपाल ने उन्हें आज हिन्दी सेवी सम्मान से सम्मानित किया। 


देश में इतनी समितियाँ, इतने संस्थान, इतने परिषद हैं, मुझे पता ही न था। कहीं इन सबकी एक सूची हो तो पता तो चले कि कहाँ कब क्या हो रहा है, कौन-कौन क्या-क्या कर रहा है। लगता है हर दिन कहीं न कहीं कोई न कोई आयोजन हो ही रहा होगा। 


(अच्छा लगा यह देखकर कि कहीं भी अंतरराष्ट्रीय विशेषण नहीं था। वरना आजकल हर मोहल्ले में एक अंतरराष्ट्रीय संस्था जन्म ले लेती है।)


जितने भी लोग इन इकाइयों से जुड़े हैं सब प्रतिभावान हैं। प्राय: सब साहित्यकार हैं एवं हिन्दी सेवी। 


और लोग नाहक ही चिन्ता करते हैं हिन्दी की दशा और दिशा की। 


इतने सारे नाम जुड़े इस तीन दिवसीय आयोजन में कि मैं आश्चर्यचकित रह गया। छ: नाम जाने-पहचाने निकले।


श्री प्रेम जनमेजय 

श्री प्रह्लाद सिंह टिपानिया

श्री युनूस खान

श्रीमती ममता कालिया 

श्री सुशील दोषी 


श्री युनूस खान की आवाज़ में विविध भारती पर रोज़ ही सुनता हूँ। आवाज़ के तो धनी हैं ही जानकारी भी अथाह है। 


श्री सुशील दोषी की हिन्दी में क्रिकेट कमेंट्री कितने ही अविस्मरणीय क्षणों की साथी रही। बहुत ही सरल एवं उपयुक्त हिन्दी के नवीन प्रयोग से वे सबके चहेते बन गए थे। 


टिपानिया जी का गायन देश-विदेश में प्रसिद्ध है। 


राहुल उपाध्याय । 24 मार्च 2022 ।सिएटल 



Wednesday, March 23, 2022

23 मार्च 2022

36 साल से अमेरिका में हूँ, और हर बार यही देखा है कि यहाँ मौसम कैलेंडर देख कर बदलता है। 21 मार्च का दिन आया नहीं कि सारे फूल-कलियाँ भड़भड़ा कर निकल पड़ते हैं। मानो देर हो गई तो बहुत डाँट पड़ेगी। 


ये फ़ोटो आज के हैं।  


ये चैरी पेड़ पर निकले फूल हैं। बाद में फल भी आने चाहिए। पर नहीं आते। शहर के सारे पेड़ फल रहित हैं या कर दिए गए हैं। 


यहाँ का वाशिंगटन विश्वविद्यालय प्रसिद्ध है लहलहाते खूबसूरत चैरी पेड़ों के लिए। 


ये दृश्य मेरे दफ़्तर के पार्किंग लॉट के हैं। यहाँ जिधर नज़र डालो, स्वर्ग नज़र आता है। कहीं दूर जाने की ज़रूरत नहीं। 


राहुल उपाध्याय । 23 मार्च 2022 । सिएटल 



Tuesday, March 15, 2022

जिस्म का बोझ उठाये नहीं उठता तुमसे

कवि का कोई भरोसा नहीं। आज कुछ कह दे, कल ठीक उसका उल्टा। 


मोहब्बत ही सब कुछ है। मोहब्बत कुछ नहीं। 


ज़िन्दगी खूबसूरत है। ज़िन्दगी नर्क है। 


दरअसल ये हर व्यक्ति की मन:स्थिति है। भाव बदलते रहते हैं। आज कुछ। कल कुछ। 


इन्हीं भावों की अभिव्यक्ति कविताओं में मिलती हैं। 


साहिर ने एक तरफ़ तो यह लिखा कि तुझे ज़मीं पर उतारा गया है मेरे लिए। और इस गीत में कमाल ही कर दिया:


जिस्म का बोझ उठाये नहीं उठता तुमसे


और फिर:


कोई रूकता नहीं ठहरे हुए राही के लिये


कोटि-कोटि प्रणाम इस रचनात्मकता को। 


पूरा गीत यह रहा:


इतनी नाज़ुक ना बनो, हाय, इतनी नाज़ुक ना बनो

हद के अन्दर हो नज़ाकत तो अदा होती है

हद से बढ़ जाये तो आप अपनी सज़ा होती है


जिस्म का बोझ उठाये नहीं उठता तुमसे

ज़िंदगानी का कड़ा बोझ सहोगी कैसे

तुम जो हल्की सी हवाओं में लचक जाती हो

तेज़ झोंकों के थपेड़ों में रहोगी कैसे


ये ना समझो के हर इक राह में कलियां होंगी

राह चलनी है तो कांटों पे भी चलना होगा

ये नया दौर है इस दौर में जीने के लिये

हुस्न को हुस्न का अन्दाज़ बदलना होगा 


कोई रूकता नहीं ठहरे हुए राही के लिये

जो भी देखेगा वो कतरा के गुज़र जायेगा

हम अगर वक़्त के हमराह ना चलने पाये

वक़्त हम दोनों को ठुकरा के गुज़र जायेगा


मोहम्मद रफ़ी ने गाया भी कमाल का है। 


https://youtu.be/RuMfBo17vgk


राहुल उपाध्याय । 15 मार्च 2022 । सिएटल 


Tuesday, March 8, 2022

गंगुबाई

एक मसालेदार व्यंजन की तरह बहुत ही स्वादिष्ट फ़िल्म बनी है 'गंगुबाई'। मुझे संजय भंसाली की अब तक सिर्फ़ 'हम दिल दे चुके सनम' पसन्द आई थी। बाक़ी फ़िल्में जानबूझकर भव्य बनाई गई लगी और ज़बरदस्ती की ड्रामेबाज़ी भी। 


'गंगुबाई' में हर मसाला उचित मात्रा में है। न कम, न ज़्यादा। 


शादी है, प्यार है, टूटे दिल हैं, समाज का अत्याचार है, दोस्ती है, दगा है, पीड़ा है, आनंद है, चुनाव है, प्रतिद्वंद्वी हैं, भाषणबाज़ी है, धमाकेदार संवाद है! सब कुछ है। नेहरू हैं, नेहरू का गुलाब है। 


कहानी सच है या झूठी, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। किरदार विश्वसनीय है। 


हर भाग अपने आप में एक सुन्दर कृति है। मज़े की बात ये कि एक भाग का दूसरे भाग से कोई लेना देना नहीं है। जैसे कि हर भाग एक अलग ही प्लॉट हो। किरदार इधर के उधर नहीं होते। 


सीमा पाहना और विजय राज़ के किरदार अविस्मरणीय है। दोनों ने शानदार अभिनय किया है। 


आलिया भट्ट ने तो कमाल ही कर दिया। कई सीन बहुत लम्बे हैं और एक ही शॉट में लिए हैं। शुरू का नृत्य, अंत का नृत्य, फ़ोन पर माँ से बात करना, सब बेहतरीन। 


आलिया के किरदार को समझने में दर्शक को मेहनत करनी पड़ती है। जो भागना चाहती थी, भागती क्यों नहीं है? बाक़ी सब भी उतनी बंधक नहीं हैं जितनी दिखती है। और उतनी आज़ाद भी नहीं जितनी दिखती हैं। और यह बात जितनी अटपटी है उतनी ही सच भी यदि हम अपने जीवन में झांक कर देखे तो। और यही इस फ़िल्म की खूबी है कि जो हमसे कोसों दूर है वह अपना सा लगता है। कई बार तो अपना ही जीवन लगता है। 


राहुल उपाध्याय । 8 मार्च 2022 । सिएटल 



Monday, March 7, 2022

उठ मेरी जान!

कैफी आज़मी जाने-माने शायर हैं जिन्होंने बहुत ही उम्दा गीत लिखे हैं हिन्दी फ़िल्मों के लिए। फ़िल्मों के अलावा भी उनकी कुछ रचनाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं। उनमें से एक है - उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे 


इस रचना में कई उर्दू के ऐसे शब्द हैं जिनका अर्थ शायद सबको न पता हो। उनके अर्थ कविताकोष में दिए गए हैं। मैंने वह रचना यहाँ ज्यों का त्यों ही प्रस्तुत कर दी है। लेकिन बार-बार अर्थ देखने में प्रवाह में बाधा आती हो तो उसे अंत में ऐसे लिख दी है कि अर्थ की आवश्यकता ही न पड़े। 


लेकिन इन सबके पहले एक नायाब रचना सुनें और पढ़ें। कठिन शब्दों की जगह आसान शब्दों में इसे स्वरबद्ध कर गीत के रूप में प्रस्तुत किया गया 1997 की फ़िल्म 'तमन्ना' में। सोनू निगम ने अत्यंत भावपूर्ण तरीक़े से गाया है। 


https://youtu.be/3Ozdf3puHQ4


गीत के शब्द:

ज़िन्दगी तो है अमल,

सब्र के काबू में नहीं

नब्ज़ का गर्म लहू ठण्डे से आंसू में नहीं

उड़ने-खुलने में है ख़ुशबू, ख़म-ए-गेसू में नहीं

जन्नत एक और है जो मर्द के पहलू में नहीं

उसकी आज़ाद रविश पर ही

मचलना है तुझे

जिस में जलता हूँ उसी आग में जलना है तुझे

उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे


तेरे आँचल में हैं किरणें भी, अँधेरा ही नहीं

तुझसे रातें भी महकती हैं, सवेरा ही नहीं

दिल में अरमान भी हैं, ग़म का बसेरा ही नहीं

ग़म के घनघोर अँधेरे से निकलना है तुझे


क़द्र अब तक तेरी तारीख़ ने जानी ही नहीं

रोशनी भी तेरी आँखों में है पानी ही नहीं

हार तूने कभी तक़दीर से मानी ही नहीं

तू हक़ीक़त भी है, दिलचस्प कहानी ही नहीं

हर अदा तेरी क़यामत है, जवानी ही नहीं

अपनी तारीख़ का उन्वान बदलना है तुझे


—-

कविताकोष की प्रस्तुति:


http://kavitakosh.org/kk/औरत_/_कैफ़ी_आज़मी

https://youtu.be/_wX8qCH_xAM


उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे 


क़ल्ब-ए-माहौल[1] में लर्ज़ां[2] शरर-ए-जंग[3] हैं आज 

हौसले वक़्त के और ज़ीस्त[4] के यक-रंग हैं आज 

आबगीनों[5] में तपाँ[6] वलवला-ए-संग[7] हैं आज 

हुस्न और इश्क़ हम-आवाज़[8] ओ हम-आहंगल[9] हैं आज 

जिस में जलता हूँ उसी आग में जलना है तुझे 

उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे


तेरे क़दमों में है फ़िरदौस-ए-तमद्दुन[10] की बहार 

तेरी नज़रों पे है तहज़ीब ओ तरक़्क़ी का मदार[11] 

तेरी आग़ोश है गहवारा-ए-नफ़्स-ओ-किरदार[12] 

ता-बा-कै[13] गिर्द तिरे वहम ओ तअय्युन[14] का हिसार[15] 

कौंद कर मज्लिस-ए-ख़ल्वत[16] से निकलना है तुझे 

उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे


तू कि बे-जान खिलौनों से बहल जाती है 

तपती साँसों की हरारत[17] से पिघल जाती है 

पाँव जिस राह में रखती है फिसल जाती है 

बन के सीमाब[18] हर इक ज़र्फ़[19] में ढल जाती है 

ज़ीस्त[20] के आहनी[21] साँचे में भी ढलना है तुझे 

उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे


ज़िंदगी जोहद[22] में है सब्र के क़ाबू में नहीं 

नब्ज़-ए-हस्ती का लहू काँपते आँसू में नहीं 

उड़ने खुलने में है निकहत[23] ख़म-ए-गेसू[24] में नहीं 

जन्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं 

उस की आज़ाद रविश[25] पर भी मचलना है तुझे 

उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे


गोशे-गोशे[26] में सुलगती है चिता तेरे लिए 

फ़र्ज़ का भेस बदलती है क़ज़ा[27] तेरे लिए 

क़हर[28] है तेरी हर इक नर्म अदा तेरे लिए 

ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिए 

रुत बदल डाल अगर फूलना फलना है तुझे 

उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे


क़द्र अब तक तेरी तारीख़[29] ने जानी ही नहीं 

तुझ में शोले भी हैं बस अश्क-फ़िशानी[30] ही नहीं 

तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं 

तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं 

अपनी तारीख़ का उनवान[31] बदलना है तुझे 

उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे


तोड़ कर रस्म का बुत बंद-ए-क़दामत[32] से निकल 

ज़ोफ़-ए-इशरत[33] से निकल वहम-ए-नज़ाकत[34] से निकल

नफ़्स[35] के खींचे हुए हल्क़ा-ए-अज़्मत[36] से निकल 

क़ैद बन जाए मोहब्बत तो मोहब्बत से निकल 

राह का ख़ार[37] ही क्या गुल[38] भी कुचलना है तुझे 

उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे


तोड़ ये अज़्म-शिकन[39] दग़दग़ा-ए-पंद[40] भी तोड़ 

तेरी ख़ातिर है जो ज़ंजीर वो सौगंद[41] भी तोड़ 

तौक़[42] ये भी है ज़मुर्रद[43] का गुलू-बंद भी तोड़ 

तोड़ पैमाना-ए-मर्दान-ए-ख़िरद-मंद[44] भी तोड़ 

बन के तूफ़ान छलकना है उबलना है तुझे 

उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे


तू फ़लातून[45] ओ अरस्तू है तू ज़ेहरा[46] परवीं[47] 

तेरे क़ब्ज़े में है गर्दूं

[48] तिरी ठोकर में ज़मीं 

हाँ उठा जल्द उठा पा-ए-मुक़द्दर[49] से जबीं[50] 

मैं भी रुकने का नहीं वक़्त भी रुकने का नहीं 

लड़खड़ाएगी कहाँ तक कि सँभलना है तुझे 

उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे


शब्दार्थ:

1 मर्मस्थल, ह्रदय

2 कंपित

3 युद्ध की चिंगारियाँ

4 जीवन

5 शराब की बोतल

6 धड़कन

7 पत्थर की उमंग

8 एक स्वर

9 एक लय रखनेवाले

10 सभ्यता, शहरों का बाग

11 धुरी

12 आकांक्षा का पालना

13 कहाँ तक, कब तक, ताकि

14 निश्चय करना, आस्तित्व

15 नगर का परकोटा, क़िला

16 तन्हाई की महफ़िल

17 तपिश

18 पारा

19 पात्र

20 जीवन

21 लोहा

22 संघर्ष

23 महक

24 बालों का घुमाव

25 रंग-ढंग

26 कोने-कोने

27 मृत्यु

28 प्रलय, विनाश

29 इतिहास

30 आँसू बहाना

31 शीर्षक

32 प्राचीनता के बन्धन

33 ऐश्वर्य की दुर्बलता

34 कोमलता का भ्रम

35 इच्छा, कामना

36 महानता का घेरा

37 काँटा

38 फूल

39 संकल्प भंग करने वाला

40 उपदेश की आशंका

41 कसम

42 हार, हँसली

43 पन्ना

44 समझदार पुरुषों के मापदंड

45 प्लेटो

46 शुक्र ग्रह (सुन्दरता का प्रतीक)

47 कृतिका नक्षत्र (सुन्दरता का प्रतीक)

48 आकाश

49 भाग्य के चरण

50 माथा


—-

शब्दार्थ के साथ:


दिल में दहकती हुई आग है आज 

हौसले वक़्त के और जीवन के एक रंग में हैं आज 

पैमानों में बसी पत्थरों की उमंग है आज 

हुस्न और इश्क़ एक सुर और एक लय में हैं आज 

जिस में जलता हूँ उसी आग में जलना है तुझे 

उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे


तेरे क़दमों में हैं बागों की बहार 

तेरी नज़रों पे है तहज़ीब ओ तरक़्क़ी का आधार 

तेरी बाँहें हैं आकांक्षाओं का पालना

कब तक तेरे इर्द-गिर्द रहेंगे वहम के क़िले 

कौंद कर तन्हाई की महफ़िल से निकलना है तुझे


तू कि बे-जान खिलौनों से बहल जाती है 

तपती साँसों की हरारत से पिघल जाती है 

बन के पारा चाहे जैसे ढल जाती है 

जीवन के लोहों के साँचों में भी ढलना है तुझे 


ज़िंदगी संघर्ष में है सब्र के क़ाबू में नहीं 

अस्तित्व की रगों का लहू काँपते आँसू में नहीं 

उड़ने-खुलने में है ख़ुशबू बालों को बांधने में नहीं 

उस की आज़ाद तबियत पर भी मचलना है तुझे 


कोने-कोने में सुलगती है चिता तेरे लिए 

फ़र्ज़ के भेस आती है मौत तेरे लिए 

क़हर है तेरी हर इक नर्म अदा तेरे लिए 

ज़हर ही ज़हर है दुनिया की हवा तेरे लिए 

रुत बदल डाल अगर फूलना फलना है तुझे 


क़द्र अब तक तेरी वक़्त ने जानी ही नहीं 

तुझ में शोले भी हैं बस पानी ही नहीं 

तू हक़ीक़त भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं 

तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं 

अपनी कहानी का शीर्षक बदलना है तुझे 


तोड़ कर रस्म के बुत रिवाजों से निकल 

ऐश्वर्य की झूठी शान-ओ-शौक़त से निकल 

कोमलता के वहम से निकल

इच्छाओं के खींचे हुए घेरों से निकल 

क़ैद बन जाए मोहब्बत तो मोहब्बत से निकल 

राह का काँटा ही नहीं गुल भी कुचलना है तुझे


तोड़ ये संकल्प भंग करने वाले उपदेश भी तोड़ 

तेरी ख़ातिर है जो ज़ंजीर वो सौगंध भी तोड़ 

हीरे-पन्ने के हार गुलू-बंद भी तोड़ 

तोड़ समझदार पुरुषों के मापदंड भी तोड़ 

बन के तूफ़ान छलकना है उबलना है तुझे 


तू फ़लातून और अरस्तू है, तू ज़ेहरा-परवीं

तेरे क़ब्ज़े में है आसमाँ, तेरी ठोकर में ज़मीं 

हाँ उठा, जल्द उठा किस्मत की चौखट से माथा

मैं भी रुकने का नहीं वक़्त भी रुकने का नहीं 

लड़खड़ाएगी कहाँ तक, कि सँभलना है तुझे 


—-

राहुल उपाध्याय । 7 मार्च 2022 । सिएटल