Tuesday, June 29, 2021

29 जून 2021

आज यहाँ दोपहर में तापमान 43 डिग्री सेल्सियस था। इतनी गर्मी पहले कभी नहीं हुई। त्राहि-त्राहि मच गई। दुकानों से पंखे और ए-सी साफ़ हो गए। 


मैंने जीवन में कभी पंखे का उपयोग नहीं किया। 


भारत में चाहे कितनी गर्मी रही हो, मैंने पंखे से परहेज़ किया। कृत्रिम हवा मुझे अजीब लगती है। ए-सी कहीं था नहीं। 


अमेरिका के पूर्वी तट पर बहुत गर्मी होती है। वहाँ अपार्टमेंट में सेन्ट्रल ए-सी था। गाड़ी में, दफ़्तर में, दुकानों में, बस में, सब जगह ए-सी था। 


पश्चिमी तट पर सेन फ़्रांसिस्को और सिएटल में इतनी गर्मी नहीं होती इसलिए घरों में ए-सी नहीं होते हैं। गाड़ी में, दफ़्तर में, दुकानों में, बस में, सब जगह ए-सी होते हैं। 


हर साल तीन-चार दिन ऐसे आ जाते हैं जब ए-सी की ज़रूरत महसूस होने लगती है। 


लेकिन मुझे यह गर्मी कष्टकर नहीं लगती। थोड़ा पसीना आ जाए तो भी थोड़ी देर में हवा से ठंडक पड़ जाती है, बहुत सुकून मिलता है। 


अब रात होते ही तापमान 22 डिग्री हो गया। मेरा पलंग खिड़की के क़रीब है। खिड़की बंद करने के बाद ही सो पाऊँगा। 


दु:ख जभी भी होता है, सुख क़रीब ही होता है। 


राहुल उपाध्याय । 29 जून 2021 । सिएटल 



Sunday, June 27, 2021

समीक्षा समिति

हालाँकि हर ख़ुशी क्षणभंगुर होती है। लेकिन क्षणिक ही सही, है तो सही। 

मुझ जैसे दसवीं तक हिंदी पढ़े इंसान को, जिसे अभी भी बहुवचन क्रियाओं पर कब बिन्दी लगनी चाहिए ठीक से नहीं पता, और अपने पाठकों से पूछ-पूछ कर वर्तनियाँ सही करता है, उसे बिना साक्षात्कार के, बिना रूचि ज़ाहिर किए, एक पत्रिका के सम्पादकीय मंडल की समीक्षा समिति में शामिल कर लेना मेरे लिए अत्यंत प्रसन्नता का विषय है। 


चाहे वह निजी निर्णय रहा हो, चाहे वह स्नेहवश रहा हो, कोई भी वजह हो मुझे बहुत खुशी है। एक बार फिर से यह बात सच साबित हुई कि बिन माँगे मोती मिले, माँगे मिले न भीख। 

जानता हूँ कि मेरी ज़िम्मेदारी बढ़ेगी। मुझसे अपेक्षाएँ भी बढ़ेंगी। कोशिश करूँगा कि कसौटी पर खरा उतरूँ। 

न उतर पाया, और यह सम्मान वापस ले भी लिया जाए, तो भी कोई ग़म नहीं। 

शिखर से उतरने का क्या दुख? कम से कम, क्षण दो क्षण के लिए शिखर पर तो था। 

राहुल उपाध्याय । 27 जून 2021 । सिएटल

Sunday, June 20, 2021

20 जून 2021

1966 में लिया गया बाऊजी के साथ यह मेरा पहला फ़ोटो है। कितनी अजीब बात है कि ग़रीबी में पलते हुए बच्चे का पहला फ़ोटो बम्बई के एयरपोर्ट का है, और वह भी तब जब बाऊजी लंदन जा रहे हैं, एल-एल-एम करने। वे 30 के हैं, शादी को 11 वर्ष हो चुके हैं। भाई साब 8 के हैं और मैं दो महीने में तीन साल का होने वाला था। 


उनके साथ मेरा अंतिम फ़ोटो अगस्त 2013 का है। जैसे कि हमें पता था कि यह हमारी अंतिम मुलाक़ात होगी। इससे पहले सामूहिक परिवार सहित फ़ोटो नहीं खिंचवाया था। बाऊजी बहुत चाहते थे कि हम सब का साथ में एक फ़ोटो हो। 


मैं बाऊजी के साथ पूरी ज़िंदगी में से, होश सम्हालने के बाद, कुल आठ वर्ष रहा। 


बम्बई एयरपोर्ट का फ़ोटो अवश्य है। लेकिन याद बिलकुल नहीं। 


***


1970 में जिस रात वे लौटे, वह अच्छी तरह से याद है। तब मैं छ: साल का था। तब तक उनके लंदन से भेजे रंगीन पोस्टकार्डों से परिचित था। छोटी मौसी पढ़कर सुनाती थीं। भाईसाब से शायद लिखवाती भी थीं कि 'सात समंदर पार से, गुड़ियों के बाज़ार से, बाऊजी जल्दी आ जाना।'


रतलाम स्टेशन पर खूब भीड़ थी। आमतौर पर ताँगे से घर जाते थे। उस दिन किसी सरकारी जीप से गए। पहली बार बैठा था जीप में। तब मन में इच्छा हुई थी कि एक दिन मेरी भी जीप हो तो कितना अच्छा हो। अमेरिका आने के बाद यहाँ की आब-ओ-हवा को देखकर वह विचार त्याग दिया। अब घर में चार प्राणी हैं, और चार टोयोटा प्रियस। 


घर पहुँच कर भोजन हुआ। इतनी सारी कटोरियाँ थीं कि बड़ी सी थाली भर गई। बाऊजी एक कटोरी ख़त्म कर दूसरी खाते थे। डालने वाले ख़ाली कटोरी भरते जाते थे। बाऊजी कह रहे थे, अभी नहीं। जब सब ख़त्म हो जाए तब और ले लूँगा। 


मैं तो पहले ही खा चुका था। हमारे यहाँ आमतौर पर सूर्यास्त के आसपास ही खाना खा लिया जाता था। नौ बजे तक सब सो जाते थे। आकाशवाणी से पौने नौ पर हिन्दी में पन्द्रह मिनट के समाचार आते थे। उसके ख़त्म होते ही सारी रोशनियाँ बन्द। 


बाऊजी ने कहा आजा साथ बैठ जा। मैं बैठ गया। थोड़ा बहुत उनकी थाली से खा लिया। 


जब तक बनारस बी-टेक के लिए नहीं गया तब तक जब भी बाऊजी के साथ रहा, हमने एक ही थाली में खाना खाया। 


***


बनारस में सत्र समाप्त होने के बाद ही मैं कलकत्ता वापस घर जाता था। बीच में कभी होली-दीवाली-राखी पर घर नहीं गया। बाऊजी के साथ कोई त्योहार कभी मनाया ही नहीं। कलकत्ता, मेरठ, शिमला- कहीं भी त्योहार नहीं मने। सारी रौनक़ सैलाना में ही थीं और वहीं छूट गई। बहन कोई थी नहीं सो राखी कभी नहीं मनाई। उन्हें रंगों से चिढ़ थी, सो होली कभी नहीं खेली। सैलाना में पिचकारी भर-भर कर बहुत खेली। दीवाली कलकत्ता में मनाई नहीं जाती। दीवाली से पहले दुर्गा पूजा इतनी धूमधाम से हो चुकी होती है कि दीवाली यानी काली पूजा नाम की और बहुत फीकी होती है।

दीवाली पर काजू-बदाम-किशमिश आदि से भरे षट्कोणीय डब्बे ज़रूर लाते थे अतिथिगण भेंट स्वरूप। उन्हें खाना यानी त्योहार मनाना। दुर्गा पूजा पांडाल से बजते थे आधुनिक गीत जिनमें किशोर-लता के जाने-पहचाने हिन्दी गीत बंगाली में सुनाई देते थे। उन्हें सुनना यानी त्योहार मनाना। देर रात तक पांडालों की साज-सजावट देखना। उन्हें देखना यानी त्योहार मनाना। 


2008 में जब सेवानिवृत्त हो फ़ुरसत से था तो दीवाली बाऊजी-मम्मी के साथ दिल्ली में बीताने का तय किया। तब तक मुझे भारत छोड़े 22, और घर छोड़े 26 साल हो चुके थे।


अजीब सा लग रहा था। जिनके साथ कभी कोई त्योहार नहीं मनाया, उनके साथ दीवाली कैसी होगी? कई तरह के भाव उमड़ रहे थे। 


कई कविताओं में मैं सच और सोच मिलाकर अपने दर्द उतार चुका था। 


उम्मीद कुछ ज़्यादा भी नहीं रखी थी मैंने। न ही मैंने कोई हंगामा किया था कि मैं 25 साल बाद पहली दीवाली मनाने घर आ रहा हूँ। यह तो मेरी आदत है दिन, महीने, साल गिनना। सब मेरी तरह नहीं होते हैं। होने भी नहीं चाहिए। 


दीवाली तो आई और गई। लेकिन उसी यात्रा के दौरान मम्मी के जन्मदिन जितना ख़ुश मैंने बाऊजी और मम्मी को देखा, उतना ख़ुश उन्हें न पहले, न बाद में देखा। 


***


बाऊजी से दिल से दिल की बात 2010 में हुई। जिसे अंग्रेज़ी में वन-ऑन-वन कहते हैं। 


2010 में बाऊजी दिल्ली में एमिटी विश्वविद्यालय में पढ़ा रहे थे। सीड़ी उतरते वक़्त पाँव फिसल गया। 


बैठक की जगह पर बॉल बीयरिंग रिप्लेस करनी पड़ी। ख़ून की ज़रूरत पड़ी। मुझे पता ही नहीं था कि भारत में ख़ून लेने के लिए पहले ख़ून देना पड़ता है। मेरे बहुत ही अज़ीज़ दोस्त, राजेश, ने मदद की।


मैं अमेरिका से भागा दिल्ली के लिए। सर्जरी हुई। फिर इंफ़ेक्शन हो गया। दो हफ़्ते अस्पताल में गुज़रे। 


उन दो हफ़्तों में बस वो थे और मैं। कोई आने-जाने वाला नहीं। पूर्ण शांति। तब उन्होंने मुझे अपनी जीवन गाथा सुनाई 


मैंने ब्लैकबेरी पर आडियो रिकार्ड किया। वीडियो की सुविधा तब नहीं थी।


उनकी कहानी अत्यंत प्रेरणादायी है। 


नवम्बर 1936 में उनका जन्म हुआ। दस वर्ष तक स्कूल नहीं गए। जाते भी कैसे। जिस गाँव (शिवगढ़, ज़िला रतलाम, मध्य प्रदेश) में रहते थे, वहाँ कोई स्कूल नहीं था। तीन सन्तानों में वे सबसे बड़े थे। सो घर के कामकाज में हाथ बँटाते रहे। ब्राह्मण थे सो नदी किनारे शिव मन्दिर की देख-रेख करते थे। कहीं सत्यनारायण कथा भी कह आते थे। घर में गाय थीं। उन्हें चराने भी ले जाते थे। 


क़िस्मत से कोई मौलवी साहब एक पेड़ के नीचे कच्चा-पक्का स्कूल चलाने लगे। 


बाऊजी उनसे सीखने लगे। जो सुनते थे याद हो जाता था। कहीं लिखने की आवश्यकता नहीं। अंग्रेज़ी लिखना/पढ़ना/बोलना फटाफट सीख गए। यहाँ तक कि गाँव के पोस्ट ऑफिस में उनसे मदद ली जाने लगी अंग्रेज़ी के कामकाज में। 


किसी ने कहा मैट्रिक कर लो। कर ली। किसी ने कहा मास्टर बन जाओ। सो बन गए। पड़ोस के गाँव में पढ़ाने लगे। 


किसी ने कहा, बी-ए कर लो। सो कर लिया। किसी ने कहा, रेलवे में क्लर्क बन जाओ। सो बन गए। किसी ने कहा, ईवनिंग क्लासें लेकर एल-एल-बी कर लो, कर ली। 


एल-एल-बी उन्होंने रतलाम से की। जो विक्रम विश्वविद्यालय से जुड़ा था। उन्हें सबसे अधिक अंक मिले। स्वर्ण पदक मिला। 


जो दूसरे नम्बर पर आया, उस छात्र ने शिकायत की कि इतने अंक आ ही नहीं सकते। ज़रूर कोई धाँधली हुई है। 


उस ज़माने में, और शायद आज भी, परीक्षापत्र में निर्देश होते थे कि सात प्रश्नों में से किन्हीं पाँच का उत्तर दें। दूसरे छात्र को शक था कि बाऊजी ने सातों प्रश्नों के उत्तर दे दिए हैं। इसीलिए उन्हें सबसे अधिक अंक मिले हैं। 


जब दुबारा जाँच की गई, उसका शक सही निकला। लेकिन यह भी पुष्टि हो गई कि अंक सिर्फ पाँच के ही जोड़े गए। 


सो स्वर्ण पदक के असली हक़दार बाऊजी ही रहें। लेकिन अब क्या? 


रेलवे में इस डिग्री और स्वर्ण पदक की कोई अहमियत नहीं थी। वही की वही नौ से पाँच की क्लर्क की नौकरी। 


एक दिन शिवगढ़ के राजा के एक मंत्री बाऊजी के दफ़्तर कार से आए। आकर एक फ़ार्म दिया कि इसे भर दो। लंदन विश्वविद्यालय से एल-एल-एम करने का सुनहरा मौक़ा है पूर्ण छात्रवृत्ति के साथ। हवाई जहाज़ से आने-जाने का ख़र्चा भी दिया जाएगा। 


बाऊजी बहुत ख़ुश। यह तो कमाल हो गया। कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि शिवगढ़ का गाय चराने वाला कभी विदेश जाएगा। 


फ़ार्म भरने बैठे तो होश उड़ गए। छात्रवृत्ति के लिए जो तीन शर्तें थीं, उन सब पर बाऊजी खरे नहीं उतरते थे। 


निराश हो गए। मौक़ा भी हाथ आया तो ऐसा कि खेल शुरू होने से पहले ही हार गए। 


फिर उन्होंने सोचा कि नियति भी कोई चीज़ होती है। क्या ज़रूरत थी मंत्री जी को उनके दफ़्तर तक आने की? क्यों उन्होंने बाऊजी के बारे में सोचा? बाऊजी न तो उनके परिवार के सदस्य थे, न पड़ोसी, न जान-पहचान, न रोज़ का उठना-बैठना। अख़बार में उनके स्वर्ण पदक की ख़बर थी। बस उतना ही काफ़ी था उनके लिए अपने गाँव के एक होनहार छात्र की मदद करने के लिए। 


सो बाऊजी ने मंत्री जी के परिश्रम का निरादर न करते हुए फ़ार्म भरकर भेज दिया। बाऊजी का चयन हो गया। पूर्ण छात्रवृत्ति के साथ। 


राहुल उपाध्याय । 20 जून 2021 । सिएटल 


 


Friday, June 18, 2021

मिल्खा सिंह

कई बार लगता है कि सारे पदक, सारे ख़िताब बेमानी हैं। क्षणभंगुर हैं। 


इन्हें बेच कर न गाड़ी, न बंगला लिया जा सकता है। न डॉक्टर की फ़ीस, न बच्चों के स्कूल की फ़ीस दी जा सकती है। 


किस काम की ये लगन, मेहनत, जद्दोजहद? 


कितने लोग हर साल न जाने कितनी प्रतियोगिताओं में प्रथम आते हैं। कौन पूछता है उन्हें? उनके नाम तक पढ़ने की हमें फ़ुरसत नहीं है। 


क्या है जो इन्हें इतने वर्षों तक अथक परिश्रम करने को प्रेरित करता है? पैसा मिलेगा यह तो किसी ने नहीं सोचा होगा। सच्चाई किसी से छुपी नहीं है। सब जानते हैं सारे स्वर्ण पदक विजेता अंततः हाशिये पर ही रह जाते हैं। 


कल एक व्यक्ति से मिला। बातों-बातों में मैंने बताया कि मैं 35 वर्ष पहले सिनसिनाटी विश्वविद्यालय में था। तब उसने बताया कि 32 वर्ष पहले तो वह पैदा हुआ था। वह सिनसिनाटी के ज़ेवियर कॉलेज के लिए बास्केटबॉल खेल चुका है। कॉलेज के लिए खेलनेवाले भी बहुत मेहनत करते हैं। कुछ जो बहुत अच्छे होते हैं एन-बी-ए के लिए चुन लिए जाते हैं। ये उतना अच्छा नहीं था, सो इसे यूरोप में जाकर खेलना पड़ा। छ: साल तक खेलने के बाद उम्र हो गई। खेल छोड़ना पड़ा। अब शहर के पुलिस कार्यालय में रिकॉर्ड्स विभाग में काम करता है। कोरोना काल में भी रोज़ दफ़्तर से ही काम किया। अपराधियों की जानकारी घर पर देखने में यह ख़तरा है कि घर वाले एवं अन्य लोग भी देख सकते हैं। जो कि जघन्य अपराध है। यहाँ सबकी प्रायवेसी की सुरक्षा की जाती है। चाहे वह अपराधी ही क्यों न हो। 


इतने साल मेहनत करने के बाद अब नौ से पाँच की नौकरी जिसका खेलकूद से कोई लेना-देना नहीं। 


चाहे जो भी हो, लेकिन एक अकेले मिल्खा सिंह ने भारत को एक नई पहचान दी। उसकी गरिमा को बड़ाया। जबकि उनकी कोई दौड़ मैंने कभी देखी नहीं। 


चाहे उन्हें कोई फ़ायदा हुआ, नहीं हुआ। मुझे तो हुआ है। मेरा तो सर ऊँचा हुआ है। 


राहुल उपाध्याय । 18 जून 2021 । सिएटल 




Sunday, June 13, 2021

बिलकुल या बिल्कुल

भाषा के साथ यह सुविधा/दिक्कत है कि एक ही शब्द की कई प्रचलित वर्तनियाँ हो जाती हैं। 


बिलकुल और बिल्कुल दोनों ही मान्य हैं। 


गुगल ने दोनों के अर्थ थोड़े अलग बताए। 


जब शब्दकोश देखा तो बिलकुल और बिल्कुल दोनों के लिए बिलकुल की प्रविष्टि ही दिखा रहा है। मानो बिल्कुल की प्रविष्टि ही नहीं है। जबकि चटियल का अर्थ समझाने में बिल्कुल का इस्तेमाल किया है बिलकुल का नहीं। 


http://www.hindi2dictionary.com/बिलकुल-meaning-hindi.html


http://www.hindi2dictionary.com/search.html?q=बिल्कुल


संयोगवश यहाँ गोलक पर भी नज़र पड़ गई। शब्दकोश भी कमाल की चीज़ है, जिसके लिए कभी किसी शब्द की आवश्यकता नहीं हुई, उसके लिए भी एक शब्द है। 


राहुल उपाध्याय । 13 जून 2021 । सिएटल 




Friday, June 11, 2021

11 जून 2021

प्राणुषा की माँ, कला, ने कहा था कि पानिक्कम सिर्फ़ रामनवमी को ही बनता है। मैंने कहा था कि मेरे लिए एक दिन और बनाना, उसे हम राहुलदशमी कहेंगे। 


आज राहुलदशमी थी। 


पानिक्कम में सिर्फ़ पानी, गुड़ और काली मिर्च होते हैं। मन को बहुत शांति पहुँचाने वाला शीतल पेय। 


साथ ही लाई थी पर्वअन्नम। यानी चावल की खीर। पर्वअन्नम यानी पर्व का भोजन। कितना सुन्दर नाम है। उतनी ही स्वादिष्ट यह खीर थी। 


कला की सबसे अच्छी बात मुझे यह लगती है कि वह बिना खटखटाए दरवाज़ा खोल अंदर आ जाती है। (मैंने कितने लोगों से कहा कि मेरा घर खुला रहता है, अंदर आ जाया करो। फिर भी सब खटखटा कर आते हैं। हाँ, कुछ लोग मेरी ग़ैर हाज़िरी में दरवाज़ा खोल घर के अंदर सामान रखकर अवश्य गए हैं, जब मैं मम्मी के साथ अस्पताल में था।)


आज भी ऐसा ही हुआ। पाँचों - कला, पानिक्कम, पर्वअन्नम, प्राणुषा और  खिचड़ी - प्रेम से बिना कुछ खटखटाए अंदर आए। मैं ख़ुशी से फूला न समाया। आज मैंने तब तक कुछ नहीं पकाया था। ना ही सलाद काटा था। मैंने प्राणुषा को खिचड़ी परोसी। उसने और मैंने प्रेम से खाई। 


बड़ी देर तक हम दोनों फ़्रीज़ पर ए-बी-सी-डी चिपकाते रहे, उतारते रहे, बेतरतीब से शब्द बनाते रहे, बिगाड़ते रहे। एक अपना संसार रचते रहे, जिनमें जाने-अनजाने शब्द आते रहे, जाते रहे। 


जब वे जाने लगीं तो दरवाज़े पर डी-एच-एल का पैकेज देखा। काकीनाड़ा से था। मेरा ही नाम लिखा था। मैं वहाँ किसी को नहीं जानता। 


अमेरिका में विश्वास न करने के बड़े नुकसान हैं। पैकेज देकर हस्ताक्षर लेने में समय लगता है, इसलिए अब पैकेज दरवाज़े पर ही छोड़ दिए जाते हैं। लूटने वाले लोग वैसे भी कम है। किसी ने उठा भी लिया तो कम्पनी दूसरा सामान भेज देगी। इससे जो कम्पनी को नुक़सान होगा वह उतना नहीं होता जितना उस समय से जो कि हस्ताक्षर लेने में लगता, या दो-तीन चक्कर लगाने में लगता, या फ़ोन कर पूछताछ करने में लगता। 


कम्पनी दूसरा सामान भेज तो देगी पर उसे आने में एक-दो दिन तो लगेंगे। और उस पर ग्राहक को ग्राहक सेवा केंद्र से कहना होगा कि सामान नहीं मिला। इसलिए लोगों ने स्वयं अपने घर के दरवाज़े पर इलेक्ट्रॉनिक आँख लगा रखी है जो कि दरवाज़े पर क्या हो रहा है दुनिया के किसी भी कोने में स्मार्ट फ़ोन पर वीडियो द्वारा दिखा देगी। पिछले 72 घंटे के एक-एक क्षण की छान-बीन की जा सकती है।  


जब ग्राहक स्वयं इतना सचेत हैं तो कम्पनी के नुक़सान का ख़तरा और कम हो जाता है। 


मैं बहुत जल्दी, बहुत छोटी-छोटी चीज़ों पर ख़ुश हो जाता हूँ। 


पैकेज देख कर बहुत ख़ुशी हुई। मेरे लिए किसी ने कुछ भेजा। वह भी सरप्राइज़! सरप्राइज़ देना भी मुझे पसन्द है और सरप्राइज़ पाना भी। 


खोला तो एक सुन्दर सा टी-शर्ट था, थैंक्यू कार्ड के साथ, माइक्रोसॉफ़्ट से! धन्यवाद इसलिए कि इतने असाधारण समय में भी हम सब मुस्तैदी से डटे रहे, काम पर आँच न आने दी। 


यह सरप्राइज़ मेरे लिए और भी हसीन था, क्योंकि मैं तो उस ग्रुप का सदस्य भी नहीं हूँ, जिस ग्रुप ने अपने कर्मचारियों को यह टी-शर्ट भेजा। शायद ग़लती से मैं उस ग्रुप से जुड़ गया।


ऐसी ग़लतियाँ मुझे बहुत अच्छी लगती हैं। 


राहुल उपाध्याय । 11 जून 2021 । सिएटल 




Friday, June 4, 2021

प्राथमिक शिक्षा

अमेरिका में प्राथमिक विद्यालय में शिक्षा का वृहद् विस्तार होता है। अक्षर ज्ञान एवं गणित के अलावा संगीत, खेल-कूद और व्यायाम से भी जोड़ा जाता है। अन्य तमाम तरह की गतिविधियाँ होती हैं जिनसे वह जिस भी विधा से जुड़ना चाहे जुड़ सकता है। यदि कोई विधा आरम्भ करना चाहे तो वह भी कर सकता है। जैसे कि शतरंज खेलना, सुडोकू करना, वर्ग पहेली हल करना आदि। 


स्कूल में ही एक पुस्तकालय होता है। पुस्तकालय का भी अलग से पीरियड होता है। पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। कितनी किताबें पढ़ीं, उसके हिसाब से रंग-बिरंगे स्टिकर दिए जाते हैं। किताबें घर भी लाई जा सकती हैं। 


संगीत के पीरियड में कई तरह के वाद्य यंत्र उपलब्ध होते हैं। जिसका जो मन चाहे बजा सकता है। कोई यदि वीडियोग्राफ़ी का शौक़ीन हैं तो वह भी कर सकता है। 


स्कूल में प्रायः लाउड स्पीकर द्वारा सूचनाएँ प्रसारित की जाती हैं। उन्हें भी कोई छात्र पढ़ सकता है। 


कुछ बच्चे स्कूल स्कूल-बस से आते हैं तो कुछ को उनके अभिभावक कार से छोड़ते हैं, तो कुछ पैदल आते हैं। 


स्कूल जाते वक्त बच्चों और कार में कोई हादसा न हो जाए इसलिए कुछ माता-पिता स्वयंसेवक बन कर ट्रैफ़िक नियंत्रित करते हैं। उसमें भी बच्चे सहयोग कर सकते हैं। ऐसे बच्चों में बचपन से ही ज़िम्मेदारी और नेतृत्व का बीज पड़ जाता है। 


पश्चिम में पियानो बजाने के लिए एक अद्भुत तरीक़ा बनाया गया है। एक अक्षर प्रणाली निकाली गई, जिसे समझ लिया जाए और अभ्यस्त हो जाए तो कौन सी 'की' कब और कितनी देर तक बजानी है आसानी से समझ आ जाती है। 


बॉलीवुड फ़िल्मों के गीतों की धुन भी इस अक्षर प्रणाली में उपलब्ध है। मैंने मेरे छोटे बेटे, अबोश, के पियानो अध्यापक को दी तो उन्होंने एकदम से बजा दिया। जबकि उन्होंने गीत कभी सुना नहीं था। हू-ब-हू वैसा। 


पाँच साल पहले अबोश वियोला और पियानो दोनों सीख रहा था। शुरूआत स्कूल से हुई। 


उसमें थोड़ी रूचि देखी तो निजी तौर पर एक अध्यापक तय किया। जिनके यहाँ वो हफ़्ते में एक बार आधे घंटे के लिए जाता था। पूरे हफ़्ते घर पर अभ्यास भी करता था। 


सत्र समाप्त होने पर किसी सार्वजनिक स्थल पर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन भी होता था। 


सुनिए। 


पियानो- 12 फ़रवरी 2017 - मूनलाईट सोनाटा 

https://youtu.be/ArR_nD_-5M0 


वियोला - 4 जून 2016

https://youtu.be/pu-U6la8Vr0 


राहुल उपाध्याय । 4 जून 2021 । सिएटल