Sunday, June 20, 2021

20 जून 2021

1966 में लिया गया बाऊजी के साथ यह मेरा पहला फ़ोटो है। कितनी अजीब बात है कि ग़रीबी में पलते हुए बच्चे का पहला फ़ोटो बम्बई के एयरपोर्ट का है, और वह भी तब जब बाऊजी लंदन जा रहे हैं, एल-एल-एम करने। वे 30 के हैं, शादी को 11 वर्ष हो चुके हैं। भाई साब 8 के हैं और मैं दो महीने में तीन साल का होने वाला था। 


उनके साथ मेरा अंतिम फ़ोटो अगस्त 2013 का है। जैसे कि हमें पता था कि यह हमारी अंतिम मुलाक़ात होगी। इससे पहले सामूहिक परिवार सहित फ़ोटो नहीं खिंचवाया था। बाऊजी बहुत चाहते थे कि हम सब का साथ में एक फ़ोटो हो। 


मैं बाऊजी के साथ पूरी ज़िंदगी में से, होश सम्हालने के बाद, कुल आठ वर्ष रहा। 


बम्बई एयरपोर्ट का फ़ोटो अवश्य है। लेकिन याद बिलकुल नहीं। 


***


1970 में जिस रात वे लौटे, वह अच्छी तरह से याद है। तब मैं छ: साल का था। तब तक उनके लंदन से भेजे रंगीन पोस्टकार्डों से परिचित था। छोटी मौसी पढ़कर सुनाती थीं। भाईसाब से शायद लिखवाती भी थीं कि 'सात समंदर पार से, गुड़ियों के बाज़ार से, बाऊजी जल्दी आ जाना।'


रतलाम स्टेशन पर खूब भीड़ थी। आमतौर पर ताँगे से घर जाते थे। उस दिन किसी सरकारी जीप से गए। पहली बार बैठा था जीप में। तब मन में इच्छा हुई थी कि एक दिन मेरी भी जीप हो तो कितना अच्छा हो। अमेरिका आने के बाद यहाँ की आब-ओ-हवा को देखकर वह विचार त्याग दिया। अब घर में चार प्राणी हैं, और चार टोयोटा प्रियस। 


घर पहुँच कर भोजन हुआ। इतनी सारी कटोरियाँ थीं कि बड़ी सी थाली भर गई। बाऊजी एक कटोरी ख़त्म कर दूसरी खाते थे। डालने वाले ख़ाली कटोरी भरते जाते थे। बाऊजी कह रहे थे, अभी नहीं। जब सब ख़त्म हो जाए तब और ले लूँगा। 


मैं तो पहले ही खा चुका था। हमारे यहाँ आमतौर पर सूर्यास्त के आसपास ही खाना खा लिया जाता था। नौ बजे तक सब सो जाते थे। आकाशवाणी से पौने नौ पर हिन्दी में पन्द्रह मिनट के समाचार आते थे। उसके ख़त्म होते ही सारी रोशनियाँ बन्द। 


बाऊजी ने कहा आजा साथ बैठ जा। मैं बैठ गया। थोड़ा बहुत उनकी थाली से खा लिया। 


जब तक बनारस बी-टेक के लिए नहीं गया तब तक जब भी बाऊजी के साथ रहा, हमने एक ही थाली में खाना खाया। 


***


बनारस में सत्र समाप्त होने के बाद ही मैं कलकत्ता वापस घर जाता था। बीच में कभी होली-दीवाली-राखी पर घर नहीं गया। बाऊजी के साथ कोई त्योहार कभी मनाया ही नहीं। कलकत्ता, मेरठ, शिमला- कहीं भी त्योहार नहीं मने। सारी रौनक़ सैलाना में ही थीं और वहीं छूट गई। बहन कोई थी नहीं सो राखी कभी नहीं मनाई। उन्हें रंगों से चिढ़ थी, सो होली कभी नहीं खेली। सैलाना में पिचकारी भर-भर कर बहुत खेली। दीवाली कलकत्ता में मनाई नहीं जाती। दीवाली से पहले दुर्गा पूजा इतनी धूमधाम से हो चुकी होती है कि दीवाली यानी काली पूजा नाम की और बहुत फीकी होती है।

दीवाली पर काजू-बदाम-किशमिश आदि से भरे षट्कोणीय डब्बे ज़रूर लाते थे अतिथिगण भेंट स्वरूप। उन्हें खाना यानी त्योहार मनाना। दुर्गा पूजा पांडाल से बजते थे आधुनिक गीत जिनमें किशोर-लता के जाने-पहचाने हिन्दी गीत बंगाली में सुनाई देते थे। उन्हें सुनना यानी त्योहार मनाना। देर रात तक पांडालों की साज-सजावट देखना। उन्हें देखना यानी त्योहार मनाना। 


2008 में जब सेवानिवृत्त हो फ़ुरसत से था तो दीवाली बाऊजी-मम्मी के साथ दिल्ली में बीताने का तय किया। तब तक मुझे भारत छोड़े 22, और घर छोड़े 26 साल हो चुके थे।


अजीब सा लग रहा था। जिनके साथ कभी कोई त्योहार नहीं मनाया, उनके साथ दीवाली कैसी होगी? कई तरह के भाव उमड़ रहे थे। 


कई कविताओं में मैं सच और सोच मिलाकर अपने दर्द उतार चुका था। 


उम्मीद कुछ ज़्यादा भी नहीं रखी थी मैंने। न ही मैंने कोई हंगामा किया था कि मैं 25 साल बाद पहली दीवाली मनाने घर आ रहा हूँ। यह तो मेरी आदत है दिन, महीने, साल गिनना। सब मेरी तरह नहीं होते हैं। होने भी नहीं चाहिए। 


दीवाली तो आई और गई। लेकिन उसी यात्रा के दौरान मम्मी के जन्मदिन जितना ख़ुश मैंने बाऊजी और मम्मी को देखा, उतना ख़ुश उन्हें न पहले, न बाद में देखा। 


***


बाऊजी से दिल से दिल की बात 2010 में हुई। जिसे अंग्रेज़ी में वन-ऑन-वन कहते हैं। 


2010 में बाऊजी दिल्ली में एमिटी विश्वविद्यालय में पढ़ा रहे थे। सीड़ी उतरते वक़्त पाँव फिसल गया। 


बैठक की जगह पर बॉल बीयरिंग रिप्लेस करनी पड़ी। ख़ून की ज़रूरत पड़ी। मुझे पता ही नहीं था कि भारत में ख़ून लेने के लिए पहले ख़ून देना पड़ता है। मेरे बहुत ही अज़ीज़ दोस्त, राजेश, ने मदद की।


मैं अमेरिका से भागा दिल्ली के लिए। सर्जरी हुई। फिर इंफ़ेक्शन हो गया। दो हफ़्ते अस्पताल में गुज़रे। 


उन दो हफ़्तों में बस वो थे और मैं। कोई आने-जाने वाला नहीं। पूर्ण शांति। तब उन्होंने मुझे अपनी जीवन गाथा सुनाई 


मैंने ब्लैकबेरी पर आडियो रिकार्ड किया। वीडियो की सुविधा तब नहीं थी।


उनकी कहानी अत्यंत प्रेरणादायी है। 


नवम्बर 1936 में उनका जन्म हुआ। दस वर्ष तक स्कूल नहीं गए। जाते भी कैसे। जिस गाँव (शिवगढ़, ज़िला रतलाम, मध्य प्रदेश) में रहते थे, वहाँ कोई स्कूल नहीं था। तीन सन्तानों में वे सबसे बड़े थे। सो घर के कामकाज में हाथ बँटाते रहे। ब्राह्मण थे सो नदी किनारे शिव मन्दिर की देख-रेख करते थे। कहीं सत्यनारायण कथा भी कह आते थे। घर में गाय थीं। उन्हें चराने भी ले जाते थे। 


क़िस्मत से कोई मौलवी साहब एक पेड़ के नीचे कच्चा-पक्का स्कूल चलाने लगे। 


बाऊजी उनसे सीखने लगे। जो सुनते थे याद हो जाता था। कहीं लिखने की आवश्यकता नहीं। अंग्रेज़ी लिखना/पढ़ना/बोलना फटाफट सीख गए। यहाँ तक कि गाँव के पोस्ट ऑफिस में उनसे मदद ली जाने लगी अंग्रेज़ी के कामकाज में। 


किसी ने कहा मैट्रिक कर लो। कर ली। किसी ने कहा मास्टर बन जाओ। सो बन गए। पड़ोस के गाँव में पढ़ाने लगे। 


किसी ने कहा, बी-ए कर लो। सो कर लिया। किसी ने कहा, रेलवे में क्लर्क बन जाओ। सो बन गए। किसी ने कहा, ईवनिंग क्लासें लेकर एल-एल-बी कर लो, कर ली। 


एल-एल-बी उन्होंने रतलाम से की। जो विक्रम विश्वविद्यालय से जुड़ा था। उन्हें सबसे अधिक अंक मिले। स्वर्ण पदक मिला। 


जो दूसरे नम्बर पर आया, उस छात्र ने शिकायत की कि इतने अंक आ ही नहीं सकते। ज़रूर कोई धाँधली हुई है। 


उस ज़माने में, और शायद आज भी, परीक्षापत्र में निर्देश होते थे कि सात प्रश्नों में से किन्हीं पाँच का उत्तर दें। दूसरे छात्र को शक था कि बाऊजी ने सातों प्रश्नों के उत्तर दे दिए हैं। इसीलिए उन्हें सबसे अधिक अंक मिले हैं। 


जब दुबारा जाँच की गई, उसका शक सही निकला। लेकिन यह भी पुष्टि हो गई कि अंक सिर्फ पाँच के ही जोड़े गए। 


सो स्वर्ण पदक के असली हक़दार बाऊजी ही रहें। लेकिन अब क्या? 


रेलवे में इस डिग्री और स्वर्ण पदक की कोई अहमियत नहीं थी। वही की वही नौ से पाँच की क्लर्क की नौकरी। 


एक दिन शिवगढ़ के राजा के एक मंत्री बाऊजी के दफ़्तर कार से आए। आकर एक फ़ार्म दिया कि इसे भर दो। लंदन विश्वविद्यालय से एल-एल-एम करने का सुनहरा मौक़ा है पूर्ण छात्रवृत्ति के साथ। हवाई जहाज़ से आने-जाने का ख़र्चा भी दिया जाएगा। 


बाऊजी बहुत ख़ुश। यह तो कमाल हो गया। कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि शिवगढ़ का गाय चराने वाला कभी विदेश जाएगा। 


फ़ार्म भरने बैठे तो होश उड़ गए। छात्रवृत्ति के लिए जो तीन शर्तें थीं, उन सब पर बाऊजी खरे नहीं उतरते थे। 


निराश हो गए। मौक़ा भी हाथ आया तो ऐसा कि खेल शुरू होने से पहले ही हार गए। 


फिर उन्होंने सोचा कि नियति भी कोई चीज़ होती है। क्या ज़रूरत थी मंत्री जी को उनके दफ़्तर तक आने की? क्यों उन्होंने बाऊजी के बारे में सोचा? बाऊजी न तो उनके परिवार के सदस्य थे, न पड़ोसी, न जान-पहचान, न रोज़ का उठना-बैठना। अख़बार में उनके स्वर्ण पदक की ख़बर थी। बस उतना ही काफ़ी था उनके लिए अपने गाँव के एक होनहार छात्र की मदद करने के लिए। 


सो बाऊजी ने मंत्री जी के परिश्रम का निरादर न करते हुए फ़ार्म भरकर भेज दिया। बाऊजी का चयन हो गया। पूर्ण छात्रवृत्ति के साथ। 


राहुल उपाध्याय । 20 जून 2021 । सिएटल 


 


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