हालाँकि हर ख़ुशी क्षणभंगुर होती है। लेकिन क्षणिक ही सही, है तो सही।
मुझ जैसे दसवीं तक हिंदी पढ़े इंसान को, जिसे अभी भी बहुवचन क्रियाओं पर कब बिन्दी लगनी चाहिए ठीक से नहीं पता, और अपने पाठकों से पूछ-पूछ कर वर्तनियाँ सही करता है, उसे बिना साक्षात्कार के, बिना रूचि ज़ाहिर किए, एक पत्रिका के सम्पादकीय मंडल की समीक्षा समिति में शामिल कर लेना मेरे लिए अत्यंत प्रसन्नता का विषय है।
चाहे वह निजी निर्णय रहा हो, चाहे वह स्नेहवश रहा हो, कोई भी वजह हो मुझे बहुत खुशी है। एक बार फिर से यह बात सच साबित हुई कि बिन माँगे मोती मिले, माँगे मिले न भीख।
जानता हूँ कि मेरी ज़िम्मेदारी बढ़ेगी। मुझसे अपेक्षाएँ भी बढ़ेंगी। कोशिश करूँगा कि कसौटी पर खरा उतरूँ।
न उतर पाया, और यह सम्मान वापस ले भी लिया जाए, तो भी कोई ग़म नहीं।
शिखर से उतरने का क्या दुख? कम से कम, क्षण दो क्षण के लिए शिखर पर तो था।
राहुल उपाध्याय । 27 जून 2021 । सिएटल
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