कई बार लगता है कि सारे पदक, सारे ख़िताब बेमानी हैं। क्षणभंगुर हैं।
इन्हें बेच कर न गाड़ी, न बंगला लिया जा सकता है। न डॉक्टर की फ़ीस, न बच्चों के स्कूल की फ़ीस दी जा सकती है।
किस काम की ये लगन, मेहनत, जद्दोजहद?
कितने लोग हर साल न जाने कितनी प्रतियोगिताओं में प्रथम आते हैं। कौन पूछता है उन्हें? उनके नाम तक पढ़ने की हमें फ़ुरसत नहीं है।
क्या है जो इन्हें इतने वर्षों तक अथक परिश्रम करने को प्रेरित करता है? पैसा मिलेगा यह तो किसी ने नहीं सोचा होगा। सच्चाई किसी से छुपी नहीं है। सब जानते हैं सारे स्वर्ण पदक विजेता अंततः हाशिये पर ही रह जाते हैं।
कल एक व्यक्ति से मिला। बातों-बातों में मैंने बताया कि मैं 35 वर्ष पहले सिनसिनाटी विश्वविद्यालय में था। तब उसने बताया कि 32 वर्ष पहले तो वह पैदा हुआ था। वह सिनसिनाटी के ज़ेवियर कॉलेज के लिए बास्केटबॉल खेल चुका है। कॉलेज के लिए खेलनेवाले भी बहुत मेहनत करते हैं। कुछ जो बहुत अच्छे होते हैं एन-बी-ए के लिए चुन लिए जाते हैं। ये उतना अच्छा नहीं था, सो इसे यूरोप में जाकर खेलना पड़ा। छ: साल तक खेलने के बाद उम्र हो गई। खेल छोड़ना पड़ा। अब शहर के पुलिस कार्यालय में रिकॉर्ड्स विभाग में काम करता है। कोरोना काल में भी रोज़ दफ़्तर से ही काम किया। अपराधियों की जानकारी घर पर देखने में यह ख़तरा है कि घर वाले एवं अन्य लोग भी देख सकते हैं। जो कि जघन्य अपराध है। यहाँ सबकी प्रायवेसी की सुरक्षा की जाती है। चाहे वह अपराधी ही क्यों न हो।
इतने साल मेहनत करने के बाद अब नौ से पाँच की नौकरी जिसका खेलकूद से कोई लेना-देना नहीं।
चाहे जो भी हो, लेकिन एक अकेले मिल्खा सिंह ने भारत को एक नई पहचान दी। उसकी गरिमा को बड़ाया। जबकि उनकी कोई दौड़ मैंने कभी देखी नहीं।
चाहे उन्हें कोई फ़ायदा हुआ, नहीं हुआ। मुझे तो हुआ है। मेरा तो सर ऊँचा हुआ है।
राहुल उपाध्याय । 18 जून 2021 । सिएटल
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