Friday, April 30, 2021

श्रवण राठौड़

1990 में, मेरी पहली नौकरी लगी। तब तक मैं 27 वर्ष का हो चुका था। यह बात मुझे बहुत बुरी लगती थी। मैं बहुत जल्दी अपने पाँव पर खड़ा होना चाहता था। स्नातक होना मजबूरी थी। वो मैं चार साल पहले, 1986 में, 23 वर्ष की आयु में, आय-आय-टी, वाराणसी से, हो चुका था। 


उसमें भी बाक़ी रिश्तेदारों और परिचितों के मुक़ाबले में देरी कर दी थी। केन्द्रीय विद्यालय में 10+2 सिस्टम था। जबकि रतलाम-सैलाना में तब भी ग्यारहवीं के बाद कॉलेज में प्रवेश कर जाते थे। और बीए-बीएससी 3 साल में ही ख़त्म हो जाती है । आय-आय-टी में चार साल लगते हैं। यहाँ 16 साल और वहाँ 14। बहुत बेइंसाफ़ी थी। 


16 साल की पढ़ाई 21 वर्षीय व्यक्ति पूरी कर सकता है। मुझे 23 लगे, चूँकि पहले तो नवीं में सफल न होने के कारण वह दोहरानी पड़ी। दूसरा, 12 वीं के बाद कहीं नम्बर नहीं लगा सो एक साल बीएससी की कलकत्ता के प्रेसिडेंसी कॉलेज से। 


वाराणसी से मेटलर्जी ब्रांच से इंजीनियरिंग की थी। नौकरी, जैसी चाहिए थी, मिल गई थी। बोकारो स्टील प्लांट में मैनेजमेंट ट्रैनी। लेकिन जैसी कि आम प्रथा है आय-आय-टी के अंतिम वर्ष में सब अमेरिका में पढ़ाई के लिए आवेदन भरते हैं। मैंने भी भर दिए थे। टोफल-जी-आर-ई के इम्तिहान भी दे दिए थे। शिक्षकों से रिकमेंडेशन लेटर्स भी लिखवा लिए थे। 


मुझे जल्दी थी नौकरी की। अमेरिका में पढ़ने के लिए आवेदन तो बैकअप प्लान था। जबसे नवीं में असफल हुआ तब से हर परीक्षा से मन उठ गया था। क्या पता कब फिर से असफलता का सामना करना पड़ जाए?


और कहानी में ट्विस्ट आ गया। बोकारो की नौकरी का ऑफ़र लेटर आने के तुरंत बाद, और बोकारो जाने से पहले,  सिनसिनाटी से मास्टर्स में दाख़िले की मंज़ूरी आ गई। छात्रवृत्ति के साथ। 


मेरा मन को बोकारो जा चुका था। वहाँ की टाऊनशिप में आईसक्रीम खाते हुए फ़िल्में देख रहा था।


बाऊजी पीछे पड़ गए। अभी नहीं पढ़ोगे तो कभी नहीं पढ़ोगे।


तो फिर दिक़्क़त क्या है? मुझे तो पढ़ना ही नहीं है। 


झक मार कर चला आया। क्या करने? मेटलर्जी में मास्टर्स करने! करेला, वो भी नीम चढ़ा। 


मेटलर्जी से जी छुड़ाया ही था कि फिर पीछे लग गई। 


दो साल जैसे तैसे पूरे किए। मन बिलकुल नहीं लगा। लेकिन रिसर्च करते-करते फोरट्रान सीख चुका था। कम्प्यूटर में दिलचस्पी बढ़ने लगी थी। सो इन्फ़ॉर्मेशन सिस्टम्स से एमबीए के लिए आवेदन भर दिया। सिनसिनाटी विश्वविद्यालय से। फिर से छात्रवृत्ति मिल गई। 


एमएस और एमबीए में जिस आसानी से छात्रवृत्ति मिल गई, मुझे लगा कि सबको ही मिल रही होगी। बाद में पता चला यह उतना आसान नहीं है और अमेरिका में पढ़ाई बहुत महँगी है। 


इस प्रकार 23 वर्ष में ग्रेजुएट होने के बावजूद मैंने चार साल तक और पढ़ाई की और 27 की उम्र में नौकरी ढूँढ रहा था। और उधर रिश्तेदार, सहपाठी सब बहुत पहले से नौकरी कर रहे थे। 


जीई से ऑफ़र आ गया। जो कि दूसरे ही दिन फ़ोन द्वारा वापस ले लिया गया। कारण? मैं अमेरिका का नागरिक नहीं था। 


मैंने फोरट्रान रिसर्च प्रोजेक्ट के कारण सीखी थी। एमबीए के लिए जो मासिक राशि खाने-पीने-रहने के लिए मिलती थी, उसकी शर्त थी कि मैं बीबीए के छात्रों को पास्कल पढ़ाऊँ। मुझे यह भाषा आती नहीं थी। रूममेट, श्रीनिवास, ने पास्कल मैनुअल हाथ में पकड़ाया। कहा कि इसमें कुछ नहीं रखा है। कुल तीस-चालीस पन्नों की पतली पुस्तिका। 


आत्मविश्वास जगा। फिर भी कहीं कोई कमी न रह जाए, मैं डीन की कक्षा में बैठ कर ध्यान देता था कि कौन सा विषय कैसे पढ़ाया जाता है। बीबीए के आठ सेक्शन थे। हर सेक्शन को पास्कल पढ़ाई जा रही थी। एक को मैं, एक को डीन, बाक़ी छ: को बाक़ी मेरी तरह ही छात्रवृत्ति पाने के लिए पढ़ा रहे थे। संयोग से डीन की कक्षा सोम और बुध को लगती थी। मेरी मंगल और गुरू को। जो सोम को वे पढ़ाते थे मैं मंगल को पढ़ा देता था। बुध वाला गुरू को।  


डीन की निगाहें मुझ पर पड़ जाती थीं। वे कुछ नहीं कहते थे। 


जब जीई की नौकरी हाथ में आकर भी चली गई, डीन ने मुझे कहा कि इण्डियना राज्य में फ्रेंकलिन कॉलेज में कम्प्यूटर साईंस के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर की जगह ख़ाली है, एक साल के लिए। क्या तुम वहाँ पढ़ाना चाहोगे?


मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि डीन मुझे खुद रिकमेंड कर रहे हैं। मैं क्यों मना करता। कहते हैं ना कि भागते भूत की लँगोटी भली! यहाँ तो मेरे वारे-न्यारे हो रहे थे। जिस पद की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था वो मुझे मिल रहा था, या दिया जा रहा था। इससे पहले भी मैं मानता था, और तब तो पक्का ही हो गया कि मन की हो तो अच्छा, न हो तो और भी अच्छा!


मैंने कार चलाना सीख लिया था एक सहृदय मैनेजर, शैरी, से, जो बाद में मेरी बहुत अच्छी दोस्त भी बनी। मैनेजर ऐसे कि मेरे रूममेट, राजीव ने मुझे सुझाव दिया कि तुम्हें जो छात्रवृत्ति मिल रही है, तुम इसके अलावा भी कमा सकते हो थोड़ा बहुत काम कर के। उसी ने बताया कि कैटरिंग लैबोरेटरी की लायब्रेरी में जगह ख़ाली है। आवेदन भर दो। मुझे नौकरी मिल गई। रोज़ चार घंटे की। किताबें शेल्फ में जमाना। किसी प्रोफेसर को किसी पत्रिका के किसी लेख की फ़ोटोकॉपी चाहिए तो फ़ोटोकॉपी करना। 


तब इन्टरनेट नहीं था। ई-मेल नहीं था। आन्सरिंग मशीन भी नहीं थी। 


वहीं शैरी से पहली बार मुलाक़ात हुई। मैनेजर थी मेरी। बाद में बहुत गहरी दोस्ती हो गई। उसी के साथ पहली बार किसी अमेरिकी शादी में शरीक हुआ। चर्च में। 


उसी ने अपनी कार में मुझे कार चलाना सीखाया। 


इंटरव्यू के लिए फ़्रेंकलिन जाना था। मुझसे एक साल जूनियर एमबीए के छात्र, दीपक, के पास अपनी कार थी। उसने दे दी। नौकरी मिल गई। मैंने अपनी कार ख़रीदी। 


1982 की हाण्डा सिविक। $2700 में। इसमें रेडियो था। कैसेट प्लेयर नहीं। मैं तो हिंदी फ़िल्म गीतों का दीवाना हूँ। $300 में कैसेट प्लेयर के साथ नया आडियो सिस्टम लगवाया।


उस गाड़ी में आशिक़ी फ़िल्म के गाने अनगिनत बार सुने। कभी बोर नहीं हुआ। फ़ुल वाल्यूम पर। खिड़की खोलकर। हवा में उड़ते बाल और 'नज़र के सामने और जिगर के पास' !!! उस आनन्द की बस कल्पना ही की जा सकती है। 


जब पता चला कि श्रवण राठौड़ नहीं रहे, बहुत दुख हुआ। हालाँकि वे बहुत समय से सक्रिय नहीं थे। नदीम के साथ उनकी जोड़ी जब से टूटी उन्होंने कोई धुन नहीं बनाई। लेकिन उनके संगीत का जो मेरे जीवन में योगदान रहा उसे मैं नहीं भूल सकता। 


मेरे लिए हिन्दी फ़िल्म, और हिन्दी फ़िल्म संगीत, रोटी, कपड़ा, और मकान के बाद चौथे नम्बर पर आते हैं। 


हर काम, हर पढ़ाई, हर परीक्षा, हर यात्रा, हर सुख, हर दुख, हर प्यार, हर ब्रेकअप में हिन्दी फ़िल्म संगीत ने मेरा साथ दिया है। 


श्रवण जी की याद में मैंने उन्हीं के इस मशहूर गीत का प्रतिगीत लिखा है जो कि आज की और किसी भी विषम परिस्थिति से जूझने को शायद प्रेरित करें। 


https://youtu.be/rix35QSPlhg 


अकल से काम लें

सबर  के साथ

जो भी होना है

वो होगा शुभ


नादानी जो होती है

होती है हर एक से

कभी-कभी ही होती है

शुक्र करें हम सब ये

वरना सोचो ज़रा

होता कितना बुरा


तन्हाई जीने ना दे 

बेचैनी तड़पाए

दुख हज़ारों दिल में हैं

आस मगर न जाए

अब हमें प्यार से

जीतनी है ये जंग


राहुल उपाध्याय । 30 अप्रैल 2021 । सिएटल 



Monday, April 26, 2021

हिन्दी अलेक्सा और फ़ोन पर

भाषा सिर्फ़ कविता, कहानी और यूट्यूब तक ही सीमित नहीं रहनी चाहिए। उसे रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा भी होना चाहिए, बनाना चाहिए और बनाया जा सकता है। 


हम रविवारीय सामूहिक भ्रमण करने वाले हिन्दी में बातचीत करने में ही सहज होते हैं। स्वाभाविक रूप से हिंदी में ही बोल पाते हैं। 


लेकिन जब व्हाट्सेप पर संदेशों का आदान-प्रदान होता है तो सौ प्रतिशत अंग्रेज़ी में। 


यह सब क्यों? क्योंकि लिखने का अभ्यास नहीं रहा। कॉलेज की पढ़ाई अंग्रेज़ी में हुई। आवेदन पत्र सारे अंग्रेज़ी में भरे। बैंक का कामकाज अंग्रेज़ी में। बिल भुगतान अंग्रेज़ी में। प्लेन का टिकट अंग्रेज़ी में। 


अब चूँकि समय बदल रहा है एवं प्लेन में टीवी पर हिंदी में सूचनाएँ उपलब्ध हैं। जितने भी स्मार्टफ़ोन हैं, सब में हिन्दी उपलब्ध है, सिर्फ़ लिखने के लिए ही नहीं, बल्कि फ़ोन की भाषा भी हिंदी की जा सकती है। ऐसे में हिंदी में न लिखना महज़ आलसीपन है। न कोई फाँट डाउनलोड करना है न कोई भागीरथी प्रयास। सिर्फ़ देवनागरी कीबोर्ड जोड़ना है। मात्र 30 सेकण्ड की मेहनत। 


मैंने अपने परिचितों का मार्गदर्शन किया है एवं कुछ अब हिन्दी में संदेश लिखने लगे हैं। 


मेरे पास अलेक्सा भी है। उसे भी हिन्दीमय कर रखा है। वह बहुत अच्छी तरह से हिन्दी समझती एवं बोलती है। उससे यदि कहो कि परचूनी सामान की सूची में गुड़, उड़द दाल, मिश्री, पापड़ जोड़ दें तो वह सहर्ष जोड़ देती है। 


आईफ़ोन को हिन्दीमय करने का यह फ़ायदा हुआ कि हिन्दी के नए शब्दों की जानकारी हुई। 


अद्यतन = अपडेट 

स्थापित = इन्सटाल

गीतमालिका = प्लेलिस्ट 


मेरे दफ़्तर के कुछ काम आईफ़ोन पर हो जाते हैं। कैलेंडर, ईमेल मैं आईफ़ोन से चैक कर लेता हूँ। 


आज एक सर्वे आया। मैंने उसे भर कर सबमिट कर दिया। 


मुझे धन्यवाद दिया गया प्रतिसाद के लिए। मेरे लिया नया शब्द था। गुगल ने बताया प्रतिसाद यानी सर्वे में दिए प्रश्नों के उत्तर। 


अच्छा लगा। हास्यास्पद नहीं। नया शब्द देखने पर शब्दकोश देख लेना कोई बुरी बात नहीं। 


राहुल उपाध्याय । 26 अप्रैल 2021 । सिएटल 



25 अप्रैल 2021

पिछले दो रविवार मैं सामूहिक रविवारीय भ्रमण में शरीक नहीं हो सका। मम्मी के स्वास्थ्य के कारण दिनचर्या व्यवस्थित नहीं हो पा रही है। कभी देर से सोता हूँ। कभी देर से उठता हूँ। 


भ्रमण के लिए नियमित रूप से उपस्थित रहने वाले शोभित ने कहा कि जब जैसे जहाँ हो सके मैं आपके साथ चलने को तैयार हूँ। मुझे उसका यह कहना गहरे तक छू गया। 


मैंने कहा तुमने इतना सोचा मेरे बारे में मुझे बहुत अच्छा लगा। देखते हैं कैसे होगा। आ जाना मेरे यहाँ सात बजे। हो सकता है मैं मम्मी के साथ व्यस्त रहूँ सो पन्द्रह बीस मिनट देर से भ्रमण शुरू कर सकते हैं। उसने हामी भर दी। 


वह भी मेरी तरह समय का पाबंद है। सात बजे आ गया। मैंने मम्मी से 5:30 पर बात की थीं। वे सोना चाहती थीं। सोने दिया। मैं नहा-धो कर तैयार था। निकलते वक़्त देखा तो सो रही थीं। 


कोई मार्ग तय नहीं था। कभी इधर मुड़ गए। कभी उधर। 


जिधर गए उधर विविध नज़ारे दिखे। मन तृप्त हो गया। 


घर आया तो मम्मी अब भी सो रही थीं। मन को संतोष हुआ कि समय पर गएँ और समय पर आएँ। 


रात सोने से पहले इतवारी पहेली भेजने के तुरंत बाद नवीं कक्षा के सहपाठी का एक संदेश आया। उसका एक चचेरा भाई, अनु, जो उससे केवल एक साल बड़ा था, कोविड की चपेट में आ गया। वो चाहता था कि मैं इस हादसे पर कुछ लिखूँ। 


मैं असमंजस में पड़ गया। अभी हाल में मेरी मौसेरी बहन गुज़री। मैंने कुछ नहीं लिखा। 


अनु को मैं जानता भी नहीं। क्या लिखूँ। 


सोचते-सोचते सो गया। 


भ्रमण कर के लौटा तो सहपाठी का संदेश था - कुछ लिखा?


वैसे तो घड़ी में नौ घंटे गुज़र चुके थे। लेकिन वो सोने में, नहाने में, भ्रमण में गुज़र गएँ। समय ही कहाँ मिला कुछ सोचने का?


मन से जो लिखता हूँ उसके लिए समय नहीं चाहिए। वो तो साँस लेने जैसा है। 


लेकिन किसी विषय पर? अनुरोध पर? अलग से तो सोचना ही था। 


ये पंक्तियाँ लिखीं। उसे पसन्द आई। 


यह कोई पहर नहीं 

यह कोई उमर नहीं 

जाने की थी न बात कोई 

जो होनी थी हुई वो सहर नहीं 


तू गया कहाँ 

मैं जानूँ कहाँ 

तेरे बिना 

मैं तन्हा यहाँ 


तेरी याद के 

सुनहरे पल

करें कल-कल

आजकल 


अनु था

अणु था

वृहत ब्रह्माण्ड का

अंश तू लघु था


जो भी था

तू खूब था

वक़्त न ऐसा 

मनहूस था


यह कोई पहर नहीं 

यह कोई उमर नहीं 

जाने की थी न बात कोई 

जो होनी थी हुई वो सहर नहीं 


राहुल उपाध्याय । 25 अप्रैल 2021 । सिएटल 


पुनश्च: मम्मी के साथ ली दो साल पुरानी तस्वीर देखी। और फिर कल वाली। दो साल में कितना कुछ बदल गया। 


और छोटे बेटे अबोश के साथ ली 11 वर्ष पुरानी तस्वीर भी हाथ लग गई। मम्मी के साथ वाली तस्वीर में वो लम्बे बालों वाला है। 





Friday, April 23, 2021

मेरठ

आज से पचास साल पहले, 1971 में, मैं मेरठ में था। 


बाऊजी लंदन से पी-एच-डी प्राप्त कर कुछ महीनों दिल्ली में काम करने के बाद मेरठ लॉ कॉलेज में पढ़ा रहे थे। मैंने सैलाना के दासाब (मेरे नाना) के स्कूल से चौथी ख़त्म कर ली थी। 


मेरठ में हम साकेत में रहते थे। मुझे आज भी पता अच्छी तरह से याद है। 101 साकेत, मेरठ। वह इसलिए कि उससे पहले वाले पते इसके पास, उसके सामने, ज़िला फ़लाना होते थे। 


पाँचवीं कक्षा का दाख़िला साकेत के ही अंग्रेज़ी माध्यम वाले प्रायमरी स्कूल में किया गया। मुझे ए-बी-सी-डी तक का ज्ञान नहीं था। और यहाँ सब धड़ाधड़ अंग्रेज़ी में बतिया रहे थे। उम्र ही कुछ ऐसी थी कि मुझमें कोई हीनभावना नहीं जागी। घर में भी किसी को चिन्ता नहीं थी कि स्कूल कैसा चल रहा है। मम्मी ने 1947 में चौथी पास की, उसके बाद कोई पढ़ाई नहीं की। उन्हें क्या पता कि होमवर्क क्या होता है, टेस्ट क्या होते हैं। बाऊजी दूसरे छोर पर थे। लॉ कॉलेज में व्यस्त। 


मुझे अच्छी तरह से याद है कि अंग्रेज़ी की वार्षिक परीक्षा के दिन स्कूल जाते वक़्त न जाने मुझे क्या सूझी और मैंने उनसे पूछ लिया कि नाऊन क्या होता है। वे तब अख़बार पढ़ रहे थे। वे अख़बार नियमित रूप से पढ़ते थे। शुरू से लेकर आख़िर तक। कोई भी ख़बर, कोई भी विज्ञापन उनसे छूटता नहीं था। तभी वे दुनिया भर को सलाह दे पाते थे कि तुम यह पढ़ सकते हो, तुम वहाँ दाख़िला ले सकते हो, इस नौकरी के लिए आवेदन भर दो आदि। 


बाऊजी ने अख़बार रखा और कहा कि कॉपी या कोई काग़ज़ दो। उस काग़ज़ पर उन्होंने नाऊन की परिभाषा लिख दी। और फिर अख़बार पढ़ने लगे। 


मैं स्कूल तक पहुँचते-पहुँचते उसे रटने लगा। लेकिन अफ़सोस मुझे रटना नहीं आता। कोई फ़ायदा नहीं हुआ। सारे पर्चे अदिति ने ही दिए थे। 


मैं बक़ायदा यूनिफ़ॉर्म पहन बालों में बायीं ओर माँग निकाल कर राजा बेटा बन कर रोज़ स्कूल जाता था। पहली बार घर से बाहर के किसी स्कूल में गया। सैलाना में एक हॉल में कक्का से तीसरी तक की चार कक्षाएँ चलती थीं। टाटपट्टियाँ तय करती थीं आप किस कक्षा में हैं। चौथी और पाँचवीं कक्षा हॉल के बाहरी भाग में लगती थीं। मेरठ में कमरें थे। कुर्सियाँ थीं। डेस्क थीं। यूनिफ़ॉर्म थीं। एक से ज़्यादा अध्यापिकाएँ थीं। गणित की अलग। ड्राइंग की अलग। वग़ैरह। 


प्रिंसिपल को बहुत बुरा लग रहा होगा कि अंग्रेज़ी मीडियम के पाँचवीं कक्षा के छात्र को ए-बी-सी-डी तक नहीं आती। सो वे लंच के समय मुझे अपने दफ़्तर में बिठा कर सिखाने लगीं। और मैं सीख गया। 


मेरा यह दुर्भाग्य रहा कि मैंने जब भी कोई शहर छोड़ा, वहाँ वापिस जा न सका। मेरठ, शिमला, कलकत्ता, बनारस। जब जो छोड़ दिया सो छोड़ दिया। 


उस स्कूल की याद तरोताज़ा है। बहुत बार कोशिश की गुगल के नक़्शे में ढूँढने की। नहीं मिला। क्या पता नाम बदल गया। या कुछ और बन गया। 


संतोष, एक कवयित्री एवं मेरी रचनाओं की पाठिका, ने एक दिन कहा वो मेरठ जा रही है किसी कार्यक्रम में। मैं पुलकित हो उठा। अनुरोध किया कि वो साकेत के 'कृष्ण सहाय शांति निकेतन ' का फ़ोटो खींच कर भेजे। 


उसने फ़ोटो ही नहीं, पूरा वीडियो भेजा। जबकि स्कूल बन्द था। कोविड के चक्कर में। अब वह हाई स्कूल बन चुका है। मेरी पाँचवीं कक्षा सबसे बाई ओर होती थी। 


स्कूल का नाम मुझे ठीक से याद नहीं था। इसलिए ढूँढ नहीं पा रहा था। सही नाम है - कृष्ण सहाय शिशु निकेतन। 


पचास साल की क्षुधा शांत हुई। संतोष ने इतना किया मेरे लिए? मैं भाव-विभोर हो गया। कौन किस के लिए क्यों क्या कुछ करता है? मेरी समझ के बाहर है। 


संतोष के इस भागीरथी प्रयास के साथ-साथ यहाँ दाद देना चाहूँगा 

इंटरनेट की, सोशियल मीडिया की। 7 हज़ार मील दूर बैठे कोरोना काल में यह सम्भव हो गया जिसके लिए पिछले 35 वर्ष से मैं तरस रहा था। 


इसका कुछ श्रेय उन पाठकों की रूचि को भी देना चाहूँगा जिन पर मेरी रचनाओं ने असर किया और वे मेरे सम्पर्क में आएँ। इन दिनों इतना कुछ है पढ़ने को, उसमें कोई मेरा क्यों पढेगा? क्यों पढ़ता है? यह भी मेरी समझ से परे है। 


रिश्तेदारों, सहपाठियों और दो-चार दोस्तों को छोड़कर सब से सम्पर्क के पीछे वजह मेरी रचनाएँ रही हैं। 


राहुल उपाध्याय । 23 अप्रैल 2021 । सिएटल 



Wednesday, April 21, 2021

मयूर शेल्के

यह समाचार शायद सबको मिल चुका होगा। सब ने यह क्लिप देखी भी होगी। 


लेकिन कोई एक भी वंचित रह गया हो तो इसे अवश्य देखें। 


https://youtu.be/sYY4cO2rJ98 


मयूर का साक्षात्कार भी सुनें। 


https://youtu.be/fR9C9ncp0zs 


राहुल उपाध्याय । 21 अप्रैल 2021 । सिएटल 


Tuesday, April 20, 2021

आक्सीजन

अजब संयोग है। या विडम्बना। 


कल पहली बार नर्स घर आई। हर हफ़्ते सोमवार की दोपहर 12 बजे आना तय हुआ था। अस्पताल से छुट्टी देने पर यह बताया गया था कि मम्मी को कोई तकलीफ़ न हो इसलिए नर्स आती रहेंगी। कोई ज़रूरत होने पर 24 घंटो खुली हॉट लाईन भी है। 


उसने ब्लड प्रेशर लिया, 122/78। दिल की धड़कन, 143। आक्सीजन, 90%


उसने डॉक्टर से फ़ोन पर बात की। आक्सीजन आर्डर किया। दो घंटे में घर पर मशीन आ गई। जिससे दिन-रात लगातार जितनी मात्रा में आक्सीजन चाहिए उतनी ली जा सकती है। 57 फ़ीट की नली भी साथ में। ताकि उसे मरीज़ से दूर कहीं लगा दिया जाए और मरीज़ मशीनी शोर से परेशान न हो। 


साथ ही दो टैंक। ताकि यदि बिजली चली जाए या मशीन काम करना बंद कर दे तो 12 घंटे तक निर्बाध रूप से जितनी आक्सीजन चाहिए ली जा सके। 


मम्मी के नथुनों में जब नली टिकाई जाने लगी मम्मी ने मना कर दिया। बहुत ज़ोर से झिड़क दिया। टैंक और मशीन अब भी यही है। क्या पता कब ज़रूरत पड़ जाए इसलिए छोड़ गए। 


मैं आक्सीमीटर ख़रीद कर ले आया। मम्मी का आक्सीजन स्तर 96 था। 


और उसी समय उज्जैन में कृष्णा के लिए परिजन भटक रहे थे एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल आक्सीजन के लिए। 


राहुल उपाध्याय । 20 अप्रैल 2021 । सिएटल 







नरेंद्र कोहली

दिसम्बर 2004 में जब मैं सेन फ़्रांसिस्को से सिएटल आया माइक्रोसॉफ़्ट की नौकरी करने, तब मैं अकेला ही आया। प्रेरक का स्कूल जून में ख़त्म होने वाला था। घर भी बेचना था। सबवे दुकान भी। सो मैं पाँच रात सिएटल रहता। दो रात सेन फ़्रांसिस्को। 


माइक्रोसॉफ़्ट में ज़्यादा तो नहीं पर ठीक-ठाक मात्रा में भारतीय काम कर रहे थे। परचूनी सामान की केवल तीन दुकानें थीं। मन्दिर एक ही था। वो भी मन्दिर की शक्ल में नहीं। अब सोलह मन्दिर हैं। 32 दुकानें। 


ऐसे माहौल में अगस्त्य कोहली हिन्दी नाटक के लिए कलाकार ढूँढ रहे थे। मैंने भी आडिशन दिया। चुना नहीं गया। लेकिन किसी और द्वारा निर्देशित अंग्रेज़ी नाटकों के आडिशन में सफल हो गया। क़िस्मत से एक में अगस्त्य ने भी साथ में अभिनय किया। 


2005 में मंजू और बच्चे सिएटल आ चुके थे। तभी अगस्त्य के माता-पिता भी सिएटल आए। तब पता चला अगस्त्य नरेन्द्र कोहली के सुपुत्र हैं। मैंने कलकत्ता में, 1977 के आसपास, धर्मयुग में कोहली जी की रामकथा धारावाहिक के रूप में पढ़ी थी। बहुत प्रभावित था उनकी लेखनी से। 


उन्हें घर पर रात्रिभोज के लिए आमन्त्रित किया। उन्होंने हमें अभ्युदय, महासमर, और 'तोड़ो कारा तोड़ा' भेंट में दीं। देर रात तक बातें हुईं। 


मंजू बहुत पढ़ती है। और जो पढ़ती है वह याद भी रह जाता है। शिवाजी सावन्त के 'मृत्युंजय' को पढ़ कर कर्ण से बहुत प्रभावित थी। कोहली जी ने कहा कि महाभारत के अनुसार कर्ण में कोई गुण नहीं। उसे शिवाजी ने अपनी लेखनी से महिमामण्डित कर दिया है, जिसका कोई आधार नहीं है। 


कोहली जी की बात मान ली गई। फिर गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित भावार्थ युक्त जिल्द वाली महाभारत भारत की अगली यात्रा पर लाई गई। जो कि मोटे-मोटे पाँच खण्डों में है। बात की पुष्टि हो गई। 


स्थानीय पुस्तकालय में गोष्ठी आयोजित हुई। मैंने 'अमेरिका के चुनाव' सुनाई। 


https://mere--words.blogspot.com/2014/11/blog-post.html?m=1


काफ़ी पसन्द की गई। उन्होंने पूछा अहमियत का क्या अर्थ है? मैंने कहा महत्वपूर्ण या प्राथमिकता। उन्होंने कहा तो वही लिखो जो कहना चाहते हो। 


किसी ने कहा कि 'आप बुरा न मानें तो एक बात कहूँ', उनका उत्तर था कि कहना हो तो कहो, न कहना है तो मत कहो। ये बेकार के जुमले क्यों बोलते हो?


घर पर बात यह भी चली थी कि कैसे चतुर्थी, एकादशी आदि की समझ कम होती जा रही है। बहुत परेशानी होती है कि आज है या कल या कि कल हो गई। वग़ैरह। उन्होंने कहा कि साधारण सा उपाय है। सब की तनख़्वाह महीने की 1 तारीख़ की बजाय एकादशी पर तय कर दो। कोई दुविधा नहीं होगी। सब जान जाएँगे कब एकादशी है। 


यदि जीवन का हिस्सा है तो आसान है। वरना मुश्किल। 


मैंने यही तरकीब व्यायाम के साथ लगाई। जिम जीवन का हिस्सा नहीं है। महीने में दो बार भी हो जाए तो बहुत है। 


इसीलिए मैं दफ़्तर, जो कि 6 मील दूर है, पैदल आने-जाने लगा। चलना मेरे जीवन का हिस्सा बन गया। जब तक दस दंड-बैठक न हो कुछ खाओ नहीं। बस रोज़ की दस दंड-बैठक तय हो गई। जब तक पाँच पुश-अप न कर लो कोई मेल नहीं भेज सकते।


संतोष ओझा का यह आलेख मुझे पसन्द आया। मैं साझा कर रहा हूँ। 


https://tinyurl.com/Kohli20210420 


जानेमाने हिंदी साहित्यकार नरेंद्र कोहली से हमारे परिवार के बहुत करीबी रिश्ते थे। वह कहा करते थे, बल्कि निर्देश देते थे कि हम हमेशा संस्कृतनिष्ठ हिंदी का प्रयोग करें। मैं बेंगलुरु में रहता हूं। एक बार वह सपरिवार आए मैसूर घूमने के लिए। हमने उन्हें रात के भोजन पर अपने घर बुलाया। अच्छी-खासी गपशप हुई। लेकिन उस समय भी वह भाषा के बारे में कुछ कहने से नहीं चूके। मैंने उनसे पूछा कि क्या मैं अपनी बीवी को खाना परोसने को कह दूं? नरेंद्र भाई साहब मुझ पर बरस पड़े, 'पत्नी नहीं कह सकते तुम? बीवी क्यों?' इतने पर ही नहीं रुके वह। कहा, 'अभी हमने रास्ते में विधान सौध देखा। सौध का अर्थ है भवन। जब यहां के वासी संस्कृतनिष्ठ भाषा में लिख, बोल सकते हैं, तो हम क्यों नहीं?' मुझे लगता है कि उनका यह रुख कुछ अधिक ही कठोर था। बहरहाल, ये उनके विचार थे, हिंदी के प्राध्यापक, प्रेमी और लेखक के नाते।


ने इंटर और स्नातक की पढ़ाई उसी कॉलेज में की। उस समय कॉलेज नया ही खुला था। शिक्षकों और छात्रों की उम्र में अधिक अंतर नहीं था। कोहली मेरे पिता से सिर्फ 15 साल छोटे थे। मेरे पिता बाद में अक्सर कहते थे, 'नरेंद्र तो इतना आगे बढ़ गया है साहित्य क्षेत्र में कि अब गुरु गुड़ और चेला चीनी हो गया है। और ऐसा होना भी चाहिए।' लेकिन कोहली ने गुरु-शिष्य की परंपरा हमेशा निभाई।


कोहली को मैं नरेंद्र भाई साहब कहा करता था। एक बार मैंने किसी मामले में उन्हें लिखा था, 'मेरा आरंभिक बौद्धिक निर्माण हिंदी के माध्यम से हुआ है और अब हिंदी में उचित शब्दावली के साथ नहीं लिख पाना चुभ रहा है। अब सोच रहा हूं कि अंग्रेजी के साथ हिंदी में भी लिखूं। शायद कुछ महीने निरंतर लिखूं तो अभ्यास हो जाएगा और पुनः हिंदी में लिख पाऊंगा। इस मामले में आपसे कुछ दिनों पहले भी बात हुई थी। सोचा आज की बात आपको बता दूं। इस पत्र में भी भाषा की त्रुटियां निश्चित होंगी, उनके लिए क्षमा करेंगे।'


कुछ ही घंटों में उनका उत्तर आया, 'यह जानकर प्रसन्नता हुई कि तुम हिंदी में लिखने की आकांक्षा पाल रहे हो और कुछ असुविधा होने पर उद्विग्न होते हो। यह सारा विषय तो अभ्यास का है। मैं प्राय: अंग्रेज़ी नहीं बोलता, अत: बोलने या लिखने के समय वे शब्द भी मस्तिष्क में नहीं आते, जिनका मुझे अच्छा खासा ज्ञान है। अत: अभ्यास करो। तुम्हारी मेल में कोई विशेष त्रुटि नहीं है। मन से संकोच निकाल दो।'


फिर मैं नौकरी और गृहस्थी में ऐसा फंसा कि कई साल कुछ नहीं लिखा। लेकिन अब जब साल भर से हिंदी में लेख लिख रहा हूं तो उनकी बातें याद आ रही हैं।


विशुद्ध हिंदी पर उनके इस जोर के पीछे एक छोटा सा इतिहास है जो शायद कम ही लोग जानते होंगे। कोहली का जन्म सियालकोट में हुआ था। शुरुआती पढ़ाई लाहौर में हुई। ज़ाहिर है, पढ़ाई उर्दू माध्यम में हुई। भारत-पाकिस्तान बंटवारे के बाद उनका परिवार जमशेदपुर आकर बस गया। उर्दू माध्यम से शिक्षा जारी रही। मेरे पिता के अमृत महोत्सव में उनके पुराने विद्यार्थियों ने एक पुस्तक प्रकाशित की थी 'प्रणति'। इसमें उनके साथ के शिक्षकों, छात्रों और कुछ संबंधियों ने संस्मरण लिखे। कोहली ने भी एक लंबा लेख लिखा। इसमें उन्होंने चर्चा की थी कि स्कूल के बाद उन्हें हिंदी में ग्रैजुएशन करने की बहुत इच्छा थी। जब उन्होंने कॉलेज में फॉर्म भरा तो अंकों के आधार पर उन्हें उर्दू में प्रवेश मिलना चाहिए था। लेकिन जो कर्मचारी फॉर्म छांट रहा था, उसे विश्वास नहीं हुआ कि कोई हिंदू व्यक्ति उर्दू में दाखिला कैसे ले सकता है। लिहाजा कोहली का नाम मुख्य उर्दू (Principal Urdu) के बजाय मुख्य हिंदी (Principal Hindi) में दर्ज हो गया। शुरू में उन्हें काफी दिक्कतें हुईं। लेकिन उन्होंने ठान लिया था हिंदी में ही पढ़ाई करेंगे और विशुद्ध ही लिखेंगे यानी उर्दू और अंग्रेजी के 'बुरे असर' से बिल्कुल दूर।


कोहली ने 1963 में पोस्ट ग्रैजुएशन करने के लिए दिल्ली के रामजस कॉलेज में दाखिला लिया। बाद में पीएचडी डिग्री भी हासिल की। कई वर्ष पढ़ाने के बाद समय से पहले उन्होंने रिटायरमेंट ले लिया और साहित्य-साधना में पूरी तरह रम गए। रामायण और महाभारत पर लिखे उनके उपन्यास क्लासिक माने जाते हैं। स्वामी विवेकानंद से वह बहुत प्रभावित थे। उन पर लिखी जीवनी 'तोड़ो कारा तोड़ो' भी काफी लोकप्रिय रही।


मेरे पिता को 1960-61 में पीएचडी की उपाधि मिली। शोध का विषय था 'भोजपुरी कहावतें- एक सांस्कृतिक अध्ययन'। दशकों तक इसकी टाइपराइट की हुई एक प्रति घर में रखी थी। मुझे यह शोधग्रंथ काफी रोचक लगता था। एक बार सोचा कि इसे छपवा दूं ताकि आने वाली पीढ़ियों को इसका पता तो रहे। लेकिन फिर लगा कि इतना पुराना शोध ग्रंथ और वह भी भोजपुरी कहावतों पर, कौन छापेगा? योजना थी सेल्फ-पब्लिशिंग की। बात 2006 की है। तब मेरे पिता 81 साल के हो चुके थे। नरेंद्र भाई साहब तक बात पहुंची। सुनते ही उन्होंने कहा, 'संतोष, यह मैं क्या सुन रहा हूं? गुरुदेव ने अपने जीवन के कई वर्ष इस कार्य को दिए। एक प्रामाणिक शोध आया है। उसकी सेल्फ-पब्लिशिंग तो इसका घनघोर अपमान है। मैं अपने प्रकाशक से बात करता हूं।' फिर पुस्तक की 500 प्रतियां छपीं, पूरी साज-सज्जा के साथ।


मैंने एक बार नरेंद्र भाई साहब से चर्चा की थी कि मैं रामायण और महाभारत पर आधारित उनके सारे उपन्यासों के सभी खंड खरीदने वाला हूं। जवाब आया, 'तुम्हें तो जिल्दबंद पुस्तकें चाहिए। महंगी हैं, इतना पैसा व्यय मत करो। मैं अपने प्रकाशक से कम दाम पर इनका इंतज़ाम करवाता हूं। जब पढ़ लेना तो हम उन पर चर्चा करेंगे।' कुछ ही दिनों में पुस्तकें मिल गईं। लेकिन मुझे अफसोस रहेगा कि नरेंद्र भाई साहब अब हमारे बीच नहीं हैं और उन किताबों के बारे में मैं उनके साथ कभी चर्चा नहीं कर सकूंगा।


एक और बात याद आ रही है गुरु-शिष्य वाली। शायद 10-12 साल पहले की बात है। मुझे पता चला कि नरेंद्र भाई साहब बेंगलुरु आए हैं और उनका व्याख्यान होने वाला है। संयोगवश उन दिनों मेरे माता-पिता भी जमशेदपुर से हमारे पास आए थे। वे भी आयोजन में जाने को तैयार हो गए। हम थोड़ी देर से पहुंचे। म लोग सभागार के पीछे की ओर जहां भी कुर्सी खाली दिखी, बैठ गए। सभी लोग ध्यान से नरेंद्र भाई साहब की बातें सुन रहे थे। अचानक वह रुक गए। लोग हैरान कि हुआ क्या? पता नहीं कैसे उस भीड़ में भी नरेंद्र भाई साहब की नज़रें मेरे पिता पर पड़ गईं। उन्होंने मंच से ही आयोजकों से कहा कि उनके गुरुदेव डॉ सत्यदेव ओझा को मंच पर लाया जाए। मंच पर ही उन्होंने पिताजी के चरण स्पर्श किए और फिर अपना भाषण शुरू किया।


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कृष्णा

बाऊजी के एक भाई और दो बहनें थीं। काकासाब 25 अक्टूबर 2020 को गुज़रे। छोटी बुआ लम्बी बीमारी के बाद दिल्ली में बाऊजी के घर गुज़रीं। बड़ी बुआ चार साल पहले सैलाना में गुज़री। 


बड़ी बुआ, मम्मी और मामासाब- इन तीनों की शादी एक ही दिन हुई थी। 5/5/55। 


बड़ी बुआ की चार बेटियाँ हैं। कृष्णा, देवकन्या, सीमा और अन्नपूर्णा। 


मेरा बचपन ननिहाल में गुज़रा। कक्का से लेकर चौथी तक की पढ़ाई सैलाना में दासाब (मेरे नाना) के ही घर के स्कूल में हुई। बड़ी बुआ का घर 25 कदम दूरी पर था। किसी कारणवश हमारा आना-जाना नहीं था। 


बाद में जम्मू में और रतलाम में बुआजी हमारे साथ लम्बे समय तक रहीं। लेकिन बेटियाँ सैलाना में ही रहीं। 


मेरा बेटियों से मिलना-जुलना 2015 से शुरू हुआ, जब बाऊजी के गुज़रने के बाद मम्मी ने सैलाना के ब्राह्मण समाज के एक मन्दिर का जीर्णोद्धार का बीड़ा उठा लिया। सीमा और उनके पति सत्यनारायण जी ने बहुत मदद की। तब कृष्णा भी सैलाना में थी। उसकी तीन बेटियाँ उज्जैन में पति के साथ रहती थी। आती-जाती रहती थीं। 


अगस्त 2018 में कृष्णा ने मम्मी को उज्जैन के 84 महादेव के दर्शन, पूजा और परिक्रमा करवाई। मम्मी इतनी गदगद हुईं जैसे कि जीते जी स्वर्ग हो आई हों। 


अक्टूबर 2018 में मम्मी मुझे भी ले गईं उज्जैन। मैंने कृष्णा के यहाँ दो रातें बिताईं। दाल बाटी खाई। महाकाल के दर्शन किए। ख़ूब पैदल घूमा। क्षिप्रा में कुम्भ के अवसर पर पिछली यात्रा में डुबकी लगा चुका था। 


मम्मी के अमेरिका आने के बाद भी फ़ोन से निरन्तर सम्पर्क रहा। कभी उसके फ़ोन पर तो कभी बेटियों के व्हाट्सेप पर। मम्मी की तबियत बिगड़ने के बाद भी बात करवाई थी मैंने। उसने नया घर बनवाया था। बड़े प्रेम से वीडियो कॉल पर पूरा घर दिखाया। ऊपर-नीचे, आँगन, अड़ोस-पड़ोस। बहुत खुश थी। 


15 अप्रैल को मम्मी अस्पताल से घर आई। शनिवार, 17 अप्रैल को वो मम्मी से बात करना चाहती थी। मम्मी सो गईं थीं। नहीं हो पाई। 


आज, मंगलवार, 20 अप्रैल 2021, को वो चल बसी। 


अचानक, इतनी जल्दी सब ख़त्म हो गया। अनुष्का का मेसेज आया कि मम्मी गईं। मैं समझ ही नहीं पाया कि कौन? मुझे लगा शायद अपनी सास की बात कर रही है। 


पता चला 12 घंटे के अंदर सब हो गया। आक्सीजन लगातार गिरता रहा और गुज़र गई। कोरोना नहीं था। फिर क्या हुआ?


लॉकडाऊन के कारण कोई भी बहन सैलाना या रतलाम से नहीं जा पाईं। मिलने या अंतिम संस्कार में। 


राहुल उपाध्याय । 20 अप्रैल 2021 । सिएटल 






Sunday, April 18, 2021

18 अप्रैल 2021

मेरे ऊपर एक नए दम्पति आए हैं। चन्द्र कला, और उसका पति। ढाई साल की बेटी भी है। 


जैसा कि मैं सबसे कहता हूँ, मैंने चन्द्र कला से भी कहा कि मेरे अपार्टमेंट का दरवाज़ा हमेशा खुला रहता है। 24 घंटे। कभी ताला नहीं लगाया। सो जब चाहे आ जाना। मम्मी से भी मिल लेना। 


सब के अपने-अपने गुट होते हैं। उसका भी है। उसके जैसी ही किसी तीन साल की बच्ची की माँ। उसके साथ वो आसपास टहलने निकल जाती है। बाक़ी वक़्त बच्ची को नहलाने-धुलाने-खिलाने-सुलाने में निकल जाता है। किस के पास कभी कोई वक़्त बचता है किसी और को अपने से जोड़ने का? 


आज रविवार है। कल और आज, दो दिन, तापमान शिमला से लेकर कलकत्ता तक का हो गया। सुबह सात डिग्री, दोपहर 26 डिग्री। सिएटल में 26 होते ही त्राहि-त्राहि मच जाती है। ऐसे दिन साल में ले-दे कर सात-आठ ही होते हैं। इसलिए ज़्यादातर अपार्टमेंट में एयरकंडिशनर नहीं होता है। सेन्ट्रल हीटिंग तो अनिवार्य है और वह हर जगह होती है। एयरकंडिशनर हर दफ़्तर, मन्दिर, दुकान, बस, सिनेमाघर, पुस्तकालय में होता है। यानी हर सार्वजनिक स्थल पर। सो अधिकांश जनता किसी रमणीक जगह घूमने निकल जाती हैं या किसी सार्वजनिक स्थल को कूच कर जाती हैं। इन दिनों कोरोना के चक्कर में सारे सार्वजनिक स्थलों पर एकत्रित होना ठीक नहीं। 


सो चन्द्र कला का गुट आज भंग हो गया। या तो उसकी सहेली घर में व्यस्त है या बाहर घूमने-घामने गई है। चन्द्र कला का पति सो रहा था। सो वो बच्ची को लेकर मेरे यहाँ आ गई। 


कहने लगी घर पर ताला क्यों नहीं लगाते? मैंने सुना है यहाँ बहुत चोरी होती है। 


मैंने कहा कि चोरी कहाँ नहीं होती? खून ख़राबा कहाँ नहीं होता? एयरपोर्ट से आधी रात को टैक्सी में लूटपाट कहाँ नहीं हुई?


सब बुरे काम सब जगह होते हैं। फिर भी हम विश्वास करते है। ट्रेन में जब सहयात्री अपना भोजन साझा करता है तो उसका विश्वास करते हैं। 


विश्वास न हो तो दुनिया चल ही न पाए। 


वैसे भी मेरे घर में चोरी लायक़ कुछ भी नहीं है। जो है सब फ़्री का है। कोई ले जाएगा तो फ़्री में दूसरा आ जाएगा।


जो फ़्री की वस्तुएँ नहीं हैं उन्हें कोई नहीं ले जाएगा। मेरे फ़ोटो। मम्मी-बाऊजी  का कैनवास पर फ़ोटो। चम्मच। बर्तन। प्लेटें।  


मेरे पास बच्चों को बहलाने का कोई साधन नहीं है। टेबल टेनिस का शौक़ है। सो उसकी गेंद और पैडल है। बच्ची को गेंद दी। वह कुछ देर तक उलझी रही। फिर फ़्रीज़ पर चिपकने वाले चुम्बकीय अल्फाबेट्स दिए। उसे 26 में से 23 की पक्की पहचान है। चाहे आड़ा-तिरछा-घुमा-फिरा के कैसे भी पड़ा हो पहचान लेती है। रंग भी सारे पता हैं। 


भुने हुए चने दिए मुरमुरे के साथ। बैठकर एक-एक दाना शांति से खा गई। 


मैं खाने में सिर्फ़ सब्ज़ी और सलाद खाता हूँ। सलाद में खीरा-टमाटर-शिमला मिर्च-अवाकाडो-नींबू का रस लेता हूँ। काट कर बनाया। बच्ची है इसलिए शिमला मिर्च छोड़ दी। 


मुझे भरोसा नहीं था कि वो खाएगी। बड़े सलाद पसन्द नहीं करते हैं तो यह क्यों करेगी। 


चन्द्र कला भी लगातार शिकायत कर रही थी ये कुछ खाती नहीं है। आज सुबह दो घंटे तक लगी रही तब जाकर आधा डोसा खाया। न दाल खाती है, न चावल। दूध भी चम्मच से पीती है। वह भी तब जब हर घूँट में ब्रिटानिया बिस्किट का टुकड़ा हो। 


मैंने एक बोल में सलाद दिया चम्मच के साथ। वह ख़ुश हो कर खाने लगी। खाती ही रही। 


चन्द्र कला ने पुलाव बनाया था। मैंने कहा कि मैं कोई अनाज नहीं खाता। लेकिन कोई प्रेम से बनाता है तो मना भी नहीं करता। 


उसने कहा कि मैं लेकर आती हूँ। पति को बता भी दूँगी कि मैं यहाँ हूँ। 


मुझे लगा कि माँ के जाते ही बच्ची रोने लगेगी। 


लेकिन यह तो बहुत ख़ुश थी। 


हम दोनों एक दूसरे को देख-देख कर हँसते जा रहे थे। 


लग ही नहीं रहा था कि हम आज पहली बार मिले हैं। वह पहली बार इस अपार्टमेंट में आई है। पहली बार यह सलाद खा रही है। 


बाद में उसने माँ के हाथ का पुलाव भी खाया। मेरा बनाया दही भी। 


राहुल उपाध्याय । 18 अप्रैल 2021 । सिएटल