Friday, April 23, 2021

मेरठ

आज से पचास साल पहले, 1971 में, मैं मेरठ में था। 


बाऊजी लंदन से पी-एच-डी प्राप्त कर कुछ महीनों दिल्ली में काम करने के बाद मेरठ लॉ कॉलेज में पढ़ा रहे थे। मैंने सैलाना के दासाब (मेरे नाना) के स्कूल से चौथी ख़त्म कर ली थी। 


मेरठ में हम साकेत में रहते थे। मुझे आज भी पता अच्छी तरह से याद है। 101 साकेत, मेरठ। वह इसलिए कि उससे पहले वाले पते इसके पास, उसके सामने, ज़िला फ़लाना होते थे। 


पाँचवीं कक्षा का दाख़िला साकेत के ही अंग्रेज़ी माध्यम वाले प्रायमरी स्कूल में किया गया। मुझे ए-बी-सी-डी तक का ज्ञान नहीं था। और यहाँ सब धड़ाधड़ अंग्रेज़ी में बतिया रहे थे। उम्र ही कुछ ऐसी थी कि मुझमें कोई हीनभावना नहीं जागी। घर में भी किसी को चिन्ता नहीं थी कि स्कूल कैसा चल रहा है। मम्मी ने 1947 में चौथी पास की, उसके बाद कोई पढ़ाई नहीं की। उन्हें क्या पता कि होमवर्क क्या होता है, टेस्ट क्या होते हैं। बाऊजी दूसरे छोर पर थे। लॉ कॉलेज में व्यस्त। 


मुझे अच्छी तरह से याद है कि अंग्रेज़ी की वार्षिक परीक्षा के दिन स्कूल जाते वक़्त न जाने मुझे क्या सूझी और मैंने उनसे पूछ लिया कि नाऊन क्या होता है। वे तब अख़बार पढ़ रहे थे। वे अख़बार नियमित रूप से पढ़ते थे। शुरू से लेकर आख़िर तक। कोई भी ख़बर, कोई भी विज्ञापन उनसे छूटता नहीं था। तभी वे दुनिया भर को सलाह दे पाते थे कि तुम यह पढ़ सकते हो, तुम वहाँ दाख़िला ले सकते हो, इस नौकरी के लिए आवेदन भर दो आदि। 


बाऊजी ने अख़बार रखा और कहा कि कॉपी या कोई काग़ज़ दो। उस काग़ज़ पर उन्होंने नाऊन की परिभाषा लिख दी। और फिर अख़बार पढ़ने लगे। 


मैं स्कूल तक पहुँचते-पहुँचते उसे रटने लगा। लेकिन अफ़सोस मुझे रटना नहीं आता। कोई फ़ायदा नहीं हुआ। सारे पर्चे अदिति ने ही दिए थे। 


मैं बक़ायदा यूनिफ़ॉर्म पहन बालों में बायीं ओर माँग निकाल कर राजा बेटा बन कर रोज़ स्कूल जाता था। पहली बार घर से बाहर के किसी स्कूल में गया। सैलाना में एक हॉल में कक्का से तीसरी तक की चार कक्षाएँ चलती थीं। टाटपट्टियाँ तय करती थीं आप किस कक्षा में हैं। चौथी और पाँचवीं कक्षा हॉल के बाहरी भाग में लगती थीं। मेरठ में कमरें थे। कुर्सियाँ थीं। डेस्क थीं। यूनिफ़ॉर्म थीं। एक से ज़्यादा अध्यापिकाएँ थीं। गणित की अलग। ड्राइंग की अलग। वग़ैरह। 


प्रिंसिपल को बहुत बुरा लग रहा होगा कि अंग्रेज़ी मीडियम के पाँचवीं कक्षा के छात्र को ए-बी-सी-डी तक नहीं आती। सो वे लंच के समय मुझे अपने दफ़्तर में बिठा कर सिखाने लगीं। और मैं सीख गया। 


मेरा यह दुर्भाग्य रहा कि मैंने जब भी कोई शहर छोड़ा, वहाँ वापिस जा न सका। मेरठ, शिमला, कलकत्ता, बनारस। जब जो छोड़ दिया सो छोड़ दिया। 


उस स्कूल की याद तरोताज़ा है। बहुत बार कोशिश की गुगल के नक़्शे में ढूँढने की। नहीं मिला। क्या पता नाम बदल गया। या कुछ और बन गया। 


संतोष, एक कवयित्री एवं मेरी रचनाओं की पाठिका, ने एक दिन कहा वो मेरठ जा रही है किसी कार्यक्रम में। मैं पुलकित हो उठा। अनुरोध किया कि वो साकेत के 'कृष्ण सहाय शांति निकेतन ' का फ़ोटो खींच कर भेजे। 


उसने फ़ोटो ही नहीं, पूरा वीडियो भेजा। जबकि स्कूल बन्द था। कोविड के चक्कर में। अब वह हाई स्कूल बन चुका है। मेरी पाँचवीं कक्षा सबसे बाई ओर होती थी। 


स्कूल का नाम मुझे ठीक से याद नहीं था। इसलिए ढूँढ नहीं पा रहा था। सही नाम है - कृष्ण सहाय शिशु निकेतन। 


पचास साल की क्षुधा शांत हुई। संतोष ने इतना किया मेरे लिए? मैं भाव-विभोर हो गया। कौन किस के लिए क्यों क्या कुछ करता है? मेरी समझ के बाहर है। 


संतोष के इस भागीरथी प्रयास के साथ-साथ यहाँ दाद देना चाहूँगा 

इंटरनेट की, सोशियल मीडिया की। 7 हज़ार मील दूर बैठे कोरोना काल में यह सम्भव हो गया जिसके लिए पिछले 35 वर्ष से मैं तरस रहा था। 


इसका कुछ श्रेय उन पाठकों की रूचि को भी देना चाहूँगा जिन पर मेरी रचनाओं ने असर किया और वे मेरे सम्पर्क में आएँ। इन दिनों इतना कुछ है पढ़ने को, उसमें कोई मेरा क्यों पढेगा? क्यों पढ़ता है? यह भी मेरी समझ से परे है। 


रिश्तेदारों, सहपाठियों और दो-चार दोस्तों को छोड़कर सब से सम्पर्क के पीछे वजह मेरी रचनाएँ रही हैं। 


राहुल उपाध्याय । 23 अप्रैल 2021 । सिएटल 



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