Friday, April 30, 2021

श्रवण राठौड़

1990 में, मेरी पहली नौकरी लगी। तब तक मैं 27 वर्ष का हो चुका था। यह बात मुझे बहुत बुरी लगती थी। मैं बहुत जल्दी अपने पाँव पर खड़ा होना चाहता था। स्नातक होना मजबूरी थी। वो मैं चार साल पहले, 1986 में, 23 वर्ष की आयु में, आय-आय-टी, वाराणसी से, हो चुका था। 


उसमें भी बाक़ी रिश्तेदारों और परिचितों के मुक़ाबले में देरी कर दी थी। केन्द्रीय विद्यालय में 10+2 सिस्टम था। जबकि रतलाम-सैलाना में तब भी ग्यारहवीं के बाद कॉलेज में प्रवेश कर जाते थे। और बीए-बीएससी 3 साल में ही ख़त्म हो जाती है । आय-आय-टी में चार साल लगते हैं। यहाँ 16 साल और वहाँ 14। बहुत बेइंसाफ़ी थी। 


16 साल की पढ़ाई 21 वर्षीय व्यक्ति पूरी कर सकता है। मुझे 23 लगे, चूँकि पहले तो नवीं में सफल न होने के कारण वह दोहरानी पड़ी। दूसरा, 12 वीं के बाद कहीं नम्बर नहीं लगा सो एक साल बीएससी की कलकत्ता के प्रेसिडेंसी कॉलेज से। 


वाराणसी से मेटलर्जी ब्रांच से इंजीनियरिंग की थी। नौकरी, जैसी चाहिए थी, मिल गई थी। बोकारो स्टील प्लांट में मैनेजमेंट ट्रैनी। लेकिन जैसी कि आम प्रथा है आय-आय-टी के अंतिम वर्ष में सब अमेरिका में पढ़ाई के लिए आवेदन भरते हैं। मैंने भी भर दिए थे। टोफल-जी-आर-ई के इम्तिहान भी दे दिए थे। शिक्षकों से रिकमेंडेशन लेटर्स भी लिखवा लिए थे। 


मुझे जल्दी थी नौकरी की। अमेरिका में पढ़ने के लिए आवेदन तो बैकअप प्लान था। जबसे नवीं में असफल हुआ तब से हर परीक्षा से मन उठ गया था। क्या पता कब फिर से असफलता का सामना करना पड़ जाए?


और कहानी में ट्विस्ट आ गया। बोकारो की नौकरी का ऑफ़र लेटर आने के तुरंत बाद, और बोकारो जाने से पहले,  सिनसिनाटी से मास्टर्स में दाख़िले की मंज़ूरी आ गई। छात्रवृत्ति के साथ। 


मेरा मन को बोकारो जा चुका था। वहाँ की टाऊनशिप में आईसक्रीम खाते हुए फ़िल्में देख रहा था।


बाऊजी पीछे पड़ गए। अभी नहीं पढ़ोगे तो कभी नहीं पढ़ोगे।


तो फिर दिक़्क़त क्या है? मुझे तो पढ़ना ही नहीं है। 


झक मार कर चला आया। क्या करने? मेटलर्जी में मास्टर्स करने! करेला, वो भी नीम चढ़ा। 


मेटलर्जी से जी छुड़ाया ही था कि फिर पीछे लग गई। 


दो साल जैसे तैसे पूरे किए। मन बिलकुल नहीं लगा। लेकिन रिसर्च करते-करते फोरट्रान सीख चुका था। कम्प्यूटर में दिलचस्पी बढ़ने लगी थी। सो इन्फ़ॉर्मेशन सिस्टम्स से एमबीए के लिए आवेदन भर दिया। सिनसिनाटी विश्वविद्यालय से। फिर से छात्रवृत्ति मिल गई। 


एमएस और एमबीए में जिस आसानी से छात्रवृत्ति मिल गई, मुझे लगा कि सबको ही मिल रही होगी। बाद में पता चला यह उतना आसान नहीं है और अमेरिका में पढ़ाई बहुत महँगी है। 


इस प्रकार 23 वर्ष में ग्रेजुएट होने के बावजूद मैंने चार साल तक और पढ़ाई की और 27 की उम्र में नौकरी ढूँढ रहा था। और उधर रिश्तेदार, सहपाठी सब बहुत पहले से नौकरी कर रहे थे। 


जीई से ऑफ़र आ गया। जो कि दूसरे ही दिन फ़ोन द्वारा वापस ले लिया गया। कारण? मैं अमेरिका का नागरिक नहीं था। 


मैंने फोरट्रान रिसर्च प्रोजेक्ट के कारण सीखी थी। एमबीए के लिए जो मासिक राशि खाने-पीने-रहने के लिए मिलती थी, उसकी शर्त थी कि मैं बीबीए के छात्रों को पास्कल पढ़ाऊँ। मुझे यह भाषा आती नहीं थी। रूममेट, श्रीनिवास, ने पास्कल मैनुअल हाथ में पकड़ाया। कहा कि इसमें कुछ नहीं रखा है। कुल तीस-चालीस पन्नों की पतली पुस्तिका। 


आत्मविश्वास जगा। फिर भी कहीं कोई कमी न रह जाए, मैं डीन की कक्षा में बैठ कर ध्यान देता था कि कौन सा विषय कैसे पढ़ाया जाता है। बीबीए के आठ सेक्शन थे। हर सेक्शन को पास्कल पढ़ाई जा रही थी। एक को मैं, एक को डीन, बाक़ी छ: को बाक़ी मेरी तरह ही छात्रवृत्ति पाने के लिए पढ़ा रहे थे। संयोग से डीन की कक्षा सोम और बुध को लगती थी। मेरी मंगल और गुरू को। जो सोम को वे पढ़ाते थे मैं मंगल को पढ़ा देता था। बुध वाला गुरू को।  


डीन की निगाहें मुझ पर पड़ जाती थीं। वे कुछ नहीं कहते थे। 


जब जीई की नौकरी हाथ में आकर भी चली गई, डीन ने मुझे कहा कि इण्डियना राज्य में फ्रेंकलिन कॉलेज में कम्प्यूटर साईंस के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर की जगह ख़ाली है, एक साल के लिए। क्या तुम वहाँ पढ़ाना चाहोगे?


मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि डीन मुझे खुद रिकमेंड कर रहे हैं। मैं क्यों मना करता। कहते हैं ना कि भागते भूत की लँगोटी भली! यहाँ तो मेरे वारे-न्यारे हो रहे थे। जिस पद की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था वो मुझे मिल रहा था, या दिया जा रहा था। इससे पहले भी मैं मानता था, और तब तो पक्का ही हो गया कि मन की हो तो अच्छा, न हो तो और भी अच्छा!


मैंने कार चलाना सीख लिया था एक सहृदय मैनेजर, शैरी, से, जो बाद में मेरी बहुत अच्छी दोस्त भी बनी। मैनेजर ऐसे कि मेरे रूममेट, राजीव ने मुझे सुझाव दिया कि तुम्हें जो छात्रवृत्ति मिल रही है, तुम इसके अलावा भी कमा सकते हो थोड़ा बहुत काम कर के। उसी ने बताया कि कैटरिंग लैबोरेटरी की लायब्रेरी में जगह ख़ाली है। आवेदन भर दो। मुझे नौकरी मिल गई। रोज़ चार घंटे की। किताबें शेल्फ में जमाना। किसी प्रोफेसर को किसी पत्रिका के किसी लेख की फ़ोटोकॉपी चाहिए तो फ़ोटोकॉपी करना। 


तब इन्टरनेट नहीं था। ई-मेल नहीं था। आन्सरिंग मशीन भी नहीं थी। 


वहीं शैरी से पहली बार मुलाक़ात हुई। मैनेजर थी मेरी। बाद में बहुत गहरी दोस्ती हो गई। उसी के साथ पहली बार किसी अमेरिकी शादी में शरीक हुआ। चर्च में। 


उसी ने अपनी कार में मुझे कार चलाना सीखाया। 


इंटरव्यू के लिए फ़्रेंकलिन जाना था। मुझसे एक साल जूनियर एमबीए के छात्र, दीपक, के पास अपनी कार थी। उसने दे दी। नौकरी मिल गई। मैंने अपनी कार ख़रीदी। 


1982 की हाण्डा सिविक। $2700 में। इसमें रेडियो था। कैसेट प्लेयर नहीं। मैं तो हिंदी फ़िल्म गीतों का दीवाना हूँ। $300 में कैसेट प्लेयर के साथ नया आडियो सिस्टम लगवाया।


उस गाड़ी में आशिक़ी फ़िल्म के गाने अनगिनत बार सुने। कभी बोर नहीं हुआ। फ़ुल वाल्यूम पर। खिड़की खोलकर। हवा में उड़ते बाल और 'नज़र के सामने और जिगर के पास' !!! उस आनन्द की बस कल्पना ही की जा सकती है। 


जब पता चला कि श्रवण राठौड़ नहीं रहे, बहुत दुख हुआ। हालाँकि वे बहुत समय से सक्रिय नहीं थे। नदीम के साथ उनकी जोड़ी जब से टूटी उन्होंने कोई धुन नहीं बनाई। लेकिन उनके संगीत का जो मेरे जीवन में योगदान रहा उसे मैं नहीं भूल सकता। 


मेरे लिए हिन्दी फ़िल्म, और हिन्दी फ़िल्म संगीत, रोटी, कपड़ा, और मकान के बाद चौथे नम्बर पर आते हैं। 


हर काम, हर पढ़ाई, हर परीक्षा, हर यात्रा, हर सुख, हर दुख, हर प्यार, हर ब्रेकअप में हिन्दी फ़िल्म संगीत ने मेरा साथ दिया है। 


श्रवण जी की याद में मैंने उन्हीं के इस मशहूर गीत का प्रतिगीत लिखा है जो कि आज की और किसी भी विषम परिस्थिति से जूझने को शायद प्रेरित करें। 


https://youtu.be/rix35QSPlhg 


अकल से काम लें

सबर  के साथ

जो भी होना है

वो होगा शुभ


नादानी जो होती है

होती है हर एक से

कभी-कभी ही होती है

शुक्र करें हम सब ये

वरना सोचो ज़रा

होता कितना बुरा


तन्हाई जीने ना दे 

बेचैनी तड़पाए

दुख हज़ारों दिल में हैं

आस मगर न जाए

अब हमें प्यार से

जीतनी है ये जंग


राहुल उपाध्याय । 30 अप्रैल 2021 । सिएटल 



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