Tuesday, April 20, 2021

नरेंद्र कोहली

दिसम्बर 2004 में जब मैं सेन फ़्रांसिस्को से सिएटल आया माइक्रोसॉफ़्ट की नौकरी करने, तब मैं अकेला ही आया। प्रेरक का स्कूल जून में ख़त्म होने वाला था। घर भी बेचना था। सबवे दुकान भी। सो मैं पाँच रात सिएटल रहता। दो रात सेन फ़्रांसिस्को। 


माइक्रोसॉफ़्ट में ज़्यादा तो नहीं पर ठीक-ठाक मात्रा में भारतीय काम कर रहे थे। परचूनी सामान की केवल तीन दुकानें थीं। मन्दिर एक ही था। वो भी मन्दिर की शक्ल में नहीं। अब सोलह मन्दिर हैं। 32 दुकानें। 


ऐसे माहौल में अगस्त्य कोहली हिन्दी नाटक के लिए कलाकार ढूँढ रहे थे। मैंने भी आडिशन दिया। चुना नहीं गया। लेकिन किसी और द्वारा निर्देशित अंग्रेज़ी नाटकों के आडिशन में सफल हो गया। क़िस्मत से एक में अगस्त्य ने भी साथ में अभिनय किया। 


2005 में मंजू और बच्चे सिएटल आ चुके थे। तभी अगस्त्य के माता-पिता भी सिएटल आए। तब पता चला अगस्त्य नरेन्द्र कोहली के सुपुत्र हैं। मैंने कलकत्ता में, 1977 के आसपास, धर्मयुग में कोहली जी की रामकथा धारावाहिक के रूप में पढ़ी थी। बहुत प्रभावित था उनकी लेखनी से। 


उन्हें घर पर रात्रिभोज के लिए आमन्त्रित किया। उन्होंने हमें अभ्युदय, महासमर, और 'तोड़ो कारा तोड़ा' भेंट में दीं। देर रात तक बातें हुईं। 


मंजू बहुत पढ़ती है। और जो पढ़ती है वह याद भी रह जाता है। शिवाजी सावन्त के 'मृत्युंजय' को पढ़ कर कर्ण से बहुत प्रभावित थी। कोहली जी ने कहा कि महाभारत के अनुसार कर्ण में कोई गुण नहीं। उसे शिवाजी ने अपनी लेखनी से महिमामण्डित कर दिया है, जिसका कोई आधार नहीं है। 


कोहली जी की बात मान ली गई। फिर गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित भावार्थ युक्त जिल्द वाली महाभारत भारत की अगली यात्रा पर लाई गई। जो कि मोटे-मोटे पाँच खण्डों में है। बात की पुष्टि हो गई। 


स्थानीय पुस्तकालय में गोष्ठी आयोजित हुई। मैंने 'अमेरिका के चुनाव' सुनाई। 


https://mere--words.blogspot.com/2014/11/blog-post.html?m=1


काफ़ी पसन्द की गई। उन्होंने पूछा अहमियत का क्या अर्थ है? मैंने कहा महत्वपूर्ण या प्राथमिकता। उन्होंने कहा तो वही लिखो जो कहना चाहते हो। 


किसी ने कहा कि 'आप बुरा न मानें तो एक बात कहूँ', उनका उत्तर था कि कहना हो तो कहो, न कहना है तो मत कहो। ये बेकार के जुमले क्यों बोलते हो?


घर पर बात यह भी चली थी कि कैसे चतुर्थी, एकादशी आदि की समझ कम होती जा रही है। बहुत परेशानी होती है कि आज है या कल या कि कल हो गई। वग़ैरह। उन्होंने कहा कि साधारण सा उपाय है। सब की तनख़्वाह महीने की 1 तारीख़ की बजाय एकादशी पर तय कर दो। कोई दुविधा नहीं होगी। सब जान जाएँगे कब एकादशी है। 


यदि जीवन का हिस्सा है तो आसान है। वरना मुश्किल। 


मैंने यही तरकीब व्यायाम के साथ लगाई। जिम जीवन का हिस्सा नहीं है। महीने में दो बार भी हो जाए तो बहुत है। 


इसीलिए मैं दफ़्तर, जो कि 6 मील दूर है, पैदल आने-जाने लगा। चलना मेरे जीवन का हिस्सा बन गया। जब तक दस दंड-बैठक न हो कुछ खाओ नहीं। बस रोज़ की दस दंड-बैठक तय हो गई। जब तक पाँच पुश-अप न कर लो कोई मेल नहीं भेज सकते।


संतोष ओझा का यह आलेख मुझे पसन्द आया। मैं साझा कर रहा हूँ। 


https://tinyurl.com/Kohli20210420 


जानेमाने हिंदी साहित्यकार नरेंद्र कोहली से हमारे परिवार के बहुत करीबी रिश्ते थे। वह कहा करते थे, बल्कि निर्देश देते थे कि हम हमेशा संस्कृतनिष्ठ हिंदी का प्रयोग करें। मैं बेंगलुरु में रहता हूं। एक बार वह सपरिवार आए मैसूर घूमने के लिए। हमने उन्हें रात के भोजन पर अपने घर बुलाया। अच्छी-खासी गपशप हुई। लेकिन उस समय भी वह भाषा के बारे में कुछ कहने से नहीं चूके। मैंने उनसे पूछा कि क्या मैं अपनी बीवी को खाना परोसने को कह दूं? नरेंद्र भाई साहब मुझ पर बरस पड़े, 'पत्नी नहीं कह सकते तुम? बीवी क्यों?' इतने पर ही नहीं रुके वह। कहा, 'अभी हमने रास्ते में विधान सौध देखा। सौध का अर्थ है भवन। जब यहां के वासी संस्कृतनिष्ठ भाषा में लिख, बोल सकते हैं, तो हम क्यों नहीं?' मुझे लगता है कि उनका यह रुख कुछ अधिक ही कठोर था। बहरहाल, ये उनके विचार थे, हिंदी के प्राध्यापक, प्रेमी और लेखक के नाते।


ने इंटर और स्नातक की पढ़ाई उसी कॉलेज में की। उस समय कॉलेज नया ही खुला था। शिक्षकों और छात्रों की उम्र में अधिक अंतर नहीं था। कोहली मेरे पिता से सिर्फ 15 साल छोटे थे। मेरे पिता बाद में अक्सर कहते थे, 'नरेंद्र तो इतना आगे बढ़ गया है साहित्य क्षेत्र में कि अब गुरु गुड़ और चेला चीनी हो गया है। और ऐसा होना भी चाहिए।' लेकिन कोहली ने गुरु-शिष्य की परंपरा हमेशा निभाई।


कोहली को मैं नरेंद्र भाई साहब कहा करता था। एक बार मैंने किसी मामले में उन्हें लिखा था, 'मेरा आरंभिक बौद्धिक निर्माण हिंदी के माध्यम से हुआ है और अब हिंदी में उचित शब्दावली के साथ नहीं लिख पाना चुभ रहा है। अब सोच रहा हूं कि अंग्रेजी के साथ हिंदी में भी लिखूं। शायद कुछ महीने निरंतर लिखूं तो अभ्यास हो जाएगा और पुनः हिंदी में लिख पाऊंगा। इस मामले में आपसे कुछ दिनों पहले भी बात हुई थी। सोचा आज की बात आपको बता दूं। इस पत्र में भी भाषा की त्रुटियां निश्चित होंगी, उनके लिए क्षमा करेंगे।'


कुछ ही घंटों में उनका उत्तर आया, 'यह जानकर प्रसन्नता हुई कि तुम हिंदी में लिखने की आकांक्षा पाल रहे हो और कुछ असुविधा होने पर उद्विग्न होते हो। यह सारा विषय तो अभ्यास का है। मैं प्राय: अंग्रेज़ी नहीं बोलता, अत: बोलने या लिखने के समय वे शब्द भी मस्तिष्क में नहीं आते, जिनका मुझे अच्छा खासा ज्ञान है। अत: अभ्यास करो। तुम्हारी मेल में कोई विशेष त्रुटि नहीं है। मन से संकोच निकाल दो।'


फिर मैं नौकरी और गृहस्थी में ऐसा फंसा कि कई साल कुछ नहीं लिखा। लेकिन अब जब साल भर से हिंदी में लेख लिख रहा हूं तो उनकी बातें याद आ रही हैं।


विशुद्ध हिंदी पर उनके इस जोर के पीछे एक छोटा सा इतिहास है जो शायद कम ही लोग जानते होंगे। कोहली का जन्म सियालकोट में हुआ था। शुरुआती पढ़ाई लाहौर में हुई। ज़ाहिर है, पढ़ाई उर्दू माध्यम में हुई। भारत-पाकिस्तान बंटवारे के बाद उनका परिवार जमशेदपुर आकर बस गया। उर्दू माध्यम से शिक्षा जारी रही। मेरे पिता के अमृत महोत्सव में उनके पुराने विद्यार्थियों ने एक पुस्तक प्रकाशित की थी 'प्रणति'। इसमें उनके साथ के शिक्षकों, छात्रों और कुछ संबंधियों ने संस्मरण लिखे। कोहली ने भी एक लंबा लेख लिखा। इसमें उन्होंने चर्चा की थी कि स्कूल के बाद उन्हें हिंदी में ग्रैजुएशन करने की बहुत इच्छा थी। जब उन्होंने कॉलेज में फॉर्म भरा तो अंकों के आधार पर उन्हें उर्दू में प्रवेश मिलना चाहिए था। लेकिन जो कर्मचारी फॉर्म छांट रहा था, उसे विश्वास नहीं हुआ कि कोई हिंदू व्यक्ति उर्दू में दाखिला कैसे ले सकता है। लिहाजा कोहली का नाम मुख्य उर्दू (Principal Urdu) के बजाय मुख्य हिंदी (Principal Hindi) में दर्ज हो गया। शुरू में उन्हें काफी दिक्कतें हुईं। लेकिन उन्होंने ठान लिया था हिंदी में ही पढ़ाई करेंगे और विशुद्ध ही लिखेंगे यानी उर्दू और अंग्रेजी के 'बुरे असर' से बिल्कुल दूर।


कोहली ने 1963 में पोस्ट ग्रैजुएशन करने के लिए दिल्ली के रामजस कॉलेज में दाखिला लिया। बाद में पीएचडी डिग्री भी हासिल की। कई वर्ष पढ़ाने के बाद समय से पहले उन्होंने रिटायरमेंट ले लिया और साहित्य-साधना में पूरी तरह रम गए। रामायण और महाभारत पर लिखे उनके उपन्यास क्लासिक माने जाते हैं। स्वामी विवेकानंद से वह बहुत प्रभावित थे। उन पर लिखी जीवनी 'तोड़ो कारा तोड़ो' भी काफी लोकप्रिय रही।


मेरे पिता को 1960-61 में पीएचडी की उपाधि मिली। शोध का विषय था 'भोजपुरी कहावतें- एक सांस्कृतिक अध्ययन'। दशकों तक इसकी टाइपराइट की हुई एक प्रति घर में रखी थी। मुझे यह शोधग्रंथ काफी रोचक लगता था। एक बार सोचा कि इसे छपवा दूं ताकि आने वाली पीढ़ियों को इसका पता तो रहे। लेकिन फिर लगा कि इतना पुराना शोध ग्रंथ और वह भी भोजपुरी कहावतों पर, कौन छापेगा? योजना थी सेल्फ-पब्लिशिंग की। बात 2006 की है। तब मेरे पिता 81 साल के हो चुके थे। नरेंद्र भाई साहब तक बात पहुंची। सुनते ही उन्होंने कहा, 'संतोष, यह मैं क्या सुन रहा हूं? गुरुदेव ने अपने जीवन के कई वर्ष इस कार्य को दिए। एक प्रामाणिक शोध आया है। उसकी सेल्फ-पब्लिशिंग तो इसका घनघोर अपमान है। मैं अपने प्रकाशक से बात करता हूं।' फिर पुस्तक की 500 प्रतियां छपीं, पूरी साज-सज्जा के साथ।


मैंने एक बार नरेंद्र भाई साहब से चर्चा की थी कि मैं रामायण और महाभारत पर आधारित उनके सारे उपन्यासों के सभी खंड खरीदने वाला हूं। जवाब आया, 'तुम्हें तो जिल्दबंद पुस्तकें चाहिए। महंगी हैं, इतना पैसा व्यय मत करो। मैं अपने प्रकाशक से कम दाम पर इनका इंतज़ाम करवाता हूं। जब पढ़ लेना तो हम उन पर चर्चा करेंगे।' कुछ ही दिनों में पुस्तकें मिल गईं। लेकिन मुझे अफसोस रहेगा कि नरेंद्र भाई साहब अब हमारे बीच नहीं हैं और उन किताबों के बारे में मैं उनके साथ कभी चर्चा नहीं कर सकूंगा।


एक और बात याद आ रही है गुरु-शिष्य वाली। शायद 10-12 साल पहले की बात है। मुझे पता चला कि नरेंद्र भाई साहब बेंगलुरु आए हैं और उनका व्याख्यान होने वाला है। संयोगवश उन दिनों मेरे माता-पिता भी जमशेदपुर से हमारे पास आए थे। वे भी आयोजन में जाने को तैयार हो गए। हम थोड़ी देर से पहुंचे। म लोग सभागार के पीछे की ओर जहां भी कुर्सी खाली दिखी, बैठ गए। सभी लोग ध्यान से नरेंद्र भाई साहब की बातें सुन रहे थे। अचानक वह रुक गए। लोग हैरान कि हुआ क्या? पता नहीं कैसे उस भीड़ में भी नरेंद्र भाई साहब की नज़रें मेरे पिता पर पड़ गईं। उन्होंने मंच से ही आयोजकों से कहा कि उनके गुरुदेव डॉ सत्यदेव ओझा को मंच पर लाया जाए। मंच पर ही उन्होंने पिताजी के चरण स्पर्श किए और फिर अपना भाषण शुरू किया।


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