Friday, January 28, 2022

भाषा

भाषा का समाज में, संविधान में, सरकार में क्या दर्जा है और इसके क्या दूरगामी परिणाम होते हैं यह जानना हो तो लंदन का आज का ताज़ा समाचार पढ़ लें। 


सांकेतिक भाषा यानी वह भाषा जो ज़बान से नहीं बल्कि हाथों के इशारे से बोली जाती है, उस भाषा को आज ब्रिटिश पार्लियामेंट ने एक बिल पारित कर उसे सरकार की और से मान्यता प्राप्त भाषा घोषित कर दिया गया। 


ब्रिटेन में सांकेतिक भाषा को आधिकारिक भाषा का दर्जा 2003 में ही मिल गया था। लेकिन उससे वो लाभ नहीं मिल पा रहे थे जो कि अब मिलेंगे। 


ब्रिटेन के सरकारी अस्पतालों में मान्यता प्राप्त भाषा बोलने वाले मरीज़ों को यह अधिकार प्राप्त है कि वह एक इन्टरप्रेटर या दुभाषिये की सुविधा की माँग कर सकते हैं। और अस्पताल को यह सुविधा प्रदान करनी होती है। अब तक सांकेतिक भाषा बोलने वालों को किसी अपने सगे को या मित्र को साथ ले जाना पड़ता था। इससे मरीज़ को हिचकिचाहट होती थी। अपनी बीमारी के बारे में डॉक्टर से खुल कर बात नहीं कर पाते थे। इसी चक्कर में सही उपचार भी नहीं हो पाता था। 


अब यह समस्या दूर होगी। 


ऐसी और भी कई समस्याएँ होंगी जिनका हमें कोई अंदाज़ा नहीं है। 


लेकिन यह तो है कि यदि कोई जज़्बा हो तो सफलता अवश्य हाथ लगती है। 


यह जो सफलता आज मिली है इसके पीछे जज़्बा था एक ऐसे सांसद का जिनके माँ-बाप जन्म से बधिर हैं। 


राहुल उपाध्याय । 28 जनवरी 2022 । सिएटल 


Thursday, January 27, 2022

सुप्रीम कोर्ट

कई बार कई बातें इतनी साफ़ होते हुए भी समझ नहीं आतीं। और कई बार यह समझ में नहीं आता है कि जब सब बराबर है और संविधान में भी लिखा है कि सब बराबर है फिर यह क्यों सोचा जाता है कि अब तक कोई महिला अमेरिका की राष्ट्रपति क्यों नहीं बन सकी? और सब क्यों हाथ धो के पीछे पड़ जाते हैं कि इस बार तो बनना ही चाहिए। बहुत हो गया। जब तक ओबामा नहीं बनें, तब भी यह चर्चा का विषय था। जब कमला हैरिस उपराष्ट्रपति बनीं, तब फूलों की वर्षा की गई कि चलो यहाँ तक तो बात पहुँची। 


अब सुप्रीम कोर्ट के जज के पद पर इस तरह की चर्चा हो रही है। बाईडेन किसे जज बनाएँगे? सुनने में आया है कि जैसे उन्होंने उपराष्ट्रपति के लिए एक अश्वेत महिला का वादा किया था, और पूरा किया। वैसा ही कुछ जज के साथ भी होगा। 


क्यों? क्यों कोई किसी पद पर क़ाबिलियत के बल पर नहीं चुना जाता है? क्या कोटा भरना ज़रूरी है?


और एक और अजीब बात।  न सिर्फ़ लिंग और रंग देखा जाता है, बल्कि विचारधारा की और रूझान भी देखा जाता है। साफ़ शब्दों में कहूँ तो कांग्रेसी राष्ट्रपति कांग्रेसी जज को चुनेगा। भारतीय जनता पार्टी वाला अपना जज ढूँढेगा। और यह खुले आम होता है। ट्रम्प के शासनकाल के अंतिम महीनों में वे अपनी पसंद का जज बैठा कर चले गए। 


और एक और अजीब बात। जब कोई जज बन जाता है तो वो आजीवन उस पद पर आसीन रहता है। चाहे कुछ हो जाए। यदि 50 वर्षीय व्यक्ति को जज कोई बना दे तो अगले 40 साल तक वो आपके पक्ष में ही फ़ैसला लिखेगा। नौ जज होते हैं। एक भी कम-ज़्यादा हो जाए तो दूसरे पक्ष का पलड़ा भारी हो जाता है। 


अब जो भागा-दौड़ी हो रही है वह इसीलिए हो रही है कि एक जज साहब ने स्वेच्छा से सेवानिवृत्ति का फ़ैसला ले लिया है। तो उस पद को अब भरना है। बाईडेन के लिए यह सुनहरा मौक़ा है। 


ट्रम्प के समय में जज साहिबा की मृत्यु हो गई थी। इसलिए उन्हें भी एक मौक़ा मिल गया था। 


है ना अजीबोग़रीब बातें। 


मैं तो सोचता था कि अमेरिका में पिछले 200 साल से लोकतंत्र है यहाँ तो सब आँख मूँद कर होता होगा। लेकिन नहीं। यहाँ भी कुछ बातें समझ से परे हैं। 


यहाँ किसी भी मसले को सड़क पर नहीं अदालत में हल किया जाता है। समलैंगिक विवाह की मान्यता भी अदालत से ही ली गई। स्वेच्छा से गर्भपात होना चाहिए या नहीं, इसका निर्णय भी अदालत ही लेती है। मास्क पहनने चाहिए या नहीं, अदालत तय करती है। टीका लगाना है या नहीं, अदालत तय करती है।


इसीलिए जज की अहमियत यहाँ कई ज़्यादा है। 


जबकि जज को अपनी विचारधारा छोड़ क़ानून के मुताबिक़ फ़ैसला देना चाहिए। लेकिन नहीं। यहाँ विचारधारा ज़्यादा मायने रखते हैं। यदि जज गर्भपात के विरोध में है तो वह क़ानून की व्याख्या उसी सन्दर्भ में करेगा। क़ानून भी दूध का दूध और पानी का पानी नहीं करता। सब गड्डमड्ड होता रहता है। आज यह सही है तो कल यही ग़लत है। 


राहुल उपाध्याय । 27 जनवरी 2022 । सिएटल 






Wednesday, January 26, 2022

चॉकलेट

कितनी बार कहूँ कि मैं कितना ख़ुशक़िस्मत हूँ। लेकिन फिर भी कहने से कतराता नहीं और कहते थकता नहीं। वैसे ही जैसे कोई वही भजन रोज़ गाता है, उसी का नाम रोज़ रटता है। 


मैं मध्य प्रदेश के एक छोटे से क़स्बे में गरीब माहौल में पैदा होकर आज अमेरिका में उस कम्पनी में पिछले सत्रह साल से काम कर रहा हूँ जिसकी पिछले तीन महीने की कमाई 50 बिलियन डॉलर थी। यानी चार लाख रूपये प्रति सेकण्ड।


और उसमें आज का दिन अत्यंत रोमांचक रहा। काम तो मज़ेदार है ही। आज हमें एक विशेष कार्यक्रम के दौरान चॉकलेट टेस्ट करना यानी चखना सिखाया गया।


एक बाहरी संस्था जो कि ख़ास तरह के चॉकलेट बनाती है, उसे बुलाया गया और हमें सात विभिन्न प्रकार के चॉकलेट के बारे में बताया गया, उनमें क्या अंतर है समझाया गया और कैसे उन्हें खाना चाहिए सिखाया गया। 


चॉकलेट कैसे बनता है यह भी बताया गया। पहली बार पता चला कि कोई फल पेड़ के तने से भी उग सकता है। 


और यह भी कि कोको फल खीरे से भी बड़ा और मोटा होता है। उसके अंदर सीताफल जैसा पदार्थ होता है। बीज होते हैं। जिन्हें फ़र्मेंट किया जाता है। फिर धूप में सुखाया जाता है।  आग पर भूना जाता है। चूरा बनाया जाता है। फिर पिघलाकर चीनी आदि मिलाकर डॉर्क चॉकलेट के रूप में बाज़ार में बेचा जाता है। 


कितनी ख़ुशी की बात है कि इतना सुखद दिन मेरी ज़िन्दगी में आया कि न सिर्फ़ चॉकलेट खाने को मिली, बल्कि उसके बारे में अनूठी जानकारी भी मिली। 


एक बार फिर मैं अपने आपको ख़ुशक़िस्मत कहने से रोक नहीं पाता हूँ। 


राहुल उपाध्याय । 26 जनवरी 2022 । सिएटल 



Tuesday, January 25, 2022

ग्रामीण अंचल का वीडियो

https://youtu.be/CanLD_KkwIQ


यह दो वर्ष पहले पोस्ट किया गया वीडियो शायद उत्तर प्रदेश के जौनपुर का है। 


अद्भुत वीडियो है। मंच पर छ: बालिकाएँ किसी फ़िल्म गीत पर नृत्य कर रहीं हैं। शायद 26 जनवरी का आयोजन है। वे अपने नृत्य में मस्त हैं। जो स्टेप्स उन्हें उनकी माँ ने या शिक्षक ने सिखाएँ हैं वे उन्हें यहाँ दोहरा रहीं हैं। उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि कोई उन्हें देख भी रहा है या नहीं। कैमरे वाला तो देख ही रहा है ज़ूम कर के। लेकिन मंच पर कोई व्यक्ति किसी इंतज़ाम में इतना व्यस्त है कि इतने पास होते हुए भी इतना दूर। एक फूटी आँख नहीं देखा इन्हें। और इन बालिकाओं की एकाग्रता की भी प्रशंसा करनी होगी। ख़ासकर पीछे की क़तार में बीच वाली की। उसके इतने क़रीब से वह व्यक्ति गुज़रा और यह अपने स्टेप्स में मशगूल रही। 


एक सज्जन तो मंच की बाईं और बैठे हैं। उन्हें कोई काम भी नहीं है। फिर भी नहीं देखना है, तो नहीं देख रहे हैं। 


माहौल भी देखिए। जगह भी देखिए। किसी खेत के पास की किसी सड़क के पास। मोटर साईकल आ रही हैं।  जा रही हैं। लोग आ रहे हैं। जा रहे हैं। सब सामान्य रूप से चल रहा है। किसी के भी कदम में कोई ज़रा सी भी भनक नहीं कि मंच पर कुछ हो भी रहा है। 


(काश कविता सुनाना इतना आसान होता। हमें तो कोई हमारी तरफ़ देखे नहीं तो कविता मुँह से निकलती ही नहीं।)


भारत के ग्रामीण अंचल का एक अच्छा ख़ासा दस्तावेज है यह। 


बालिकाओं ने नृत्य अनुरूप पोशाकें पहनी हैं। लेकिन सब की एक जैसी नहीं हैं। यह भी अच्छा लगा कि अभिभावकों को कोई अतिरिक्त खर्च नहीं उठाना पड़ा। इन्हीं पोशाकों में वे किसी जन्मदिन या शादी के कार्यक्रम में शरीक हो सकती हैं। एक पंथ, दो काज। या हो सकता है ये किसी शादी या जन्मदिन की ही पोशाकें हों। 


राहुल उपाध्याय । 25 जनवरी 2022 । सिएटल 



आदर्श





आदर्श



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राहुल उपाध्याय


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पात्र काल्पनिक हैं। 

कहानी सच्ची है। 

विचार मेरे हैं। 














आदर्श अपनी बहन से मिलने अमेरिका जा रहा था। 


यह सच भी था। और झूठ भी। 


वैसे ही जैसे होस्टल के लड़के मंदिर जाते हैं। 


वह सच भी होता है। और झूठ भी। 


आदर्श अमेरिका ही जा रहा था। और वहाँ उसकी बहन के पास ही जाना था। उसी के साथ रहना भी था। 


उसी की मदद से उसे अपने पैरों पर खड़ा भी होना था। 


और यही सच था। 


अपने पैरों पर खड़ा तो वह दिल्ली में भी हो सकता था। लेकिन अमेरिका का सिस्टम ही अलग है। वहाँ जो सुविधाएँ हैं वो भारत में कहाँ। वहाँ भीड़ भी कम है। मारामारी भी कम है। भारत में लाखों बेरोज़गार है। हर नौकरी के लिए हज़ारों से लड़ना पड़ता है। अमेरिका में कम्पीटिशन कम है। 


सबसे बड़ी बात माँ-बाप की, समाज की, बातें नहीं सुननी पड़ती है। जो मन चाहे करो। रेस्टोरेन्ट में वेटर बन जाओ। टैक्सी चलाओ। ट्रक चलाओ। संडास साफ़ करो। कोई कुछ नहीं कहता। 


उसकी बहन अमेरिका एक अमेरिकन नागरिक से शादी कर के गई थी। जीजाजी सिख हैं। पर पासपोर्ट अमेरिकन है। 


आदर्श विज़िटर विसा पर जा रहा है। उसे अपना ध्येय मालूम है। उसे अमेरिका में ही अब बसना है। चाहे जैसे हो। 


बारहवीं तक की पढ़ाई करने के बाद वह कलाकार बनना चाहता था। बचपन से उसे चित्रकारी का बड़ा शौक़ था। अमिताभ के पोस्टर्स को स्कूल की चारदीवारी पर बनाना उसके बाएँ हाथ का खेल था। 


उसने सामने रहने वाली लड़की स्नेहा का भी स्केच कई बार बनाया था। उसे दिखाया था। उसे दिया था। 


स्नेहा और आदर्श बचपन से एक दूसरे को जानते थे। जब से आँख खोली, तब से दोनों साथ थे। घर आमने-सामने था। लेकिन ऐसे जैसे एक ही घर हो। दोनों साथ घुटनों-घुटनों चलें। बड़े होने पर दोनों साथ स्कूल गए। दोनों ने पढ़ाई भी साथ में की। सारे खेल साथ-साथ खेलें। छुपमछुपाई, पिठ्ठू। स्नेहा का होमवर्क अक्सर आदर्श ही करता था। वह पढ़ने में कमजोर थी। और आदर्श को स्नेहा का हर काम करना अच्छा लगता था। 


पीने का पानी मोहल्ले में लगे नल से ही लोग लाते थे। आदर्श अपने घर का भी पानी भरता था और स्नेहा का भी। 


सुबह सैर करने भी वे साथ जाते थे। गर्मियों के दिनों में बरामदे में ही वो खाट पर सो जाती थी। आदर्श रोज़ उसे जगाता था और दोनों पास के पोखर के चक्कर लगा कर आते। कभी कोई सुन्दर फूल नज़र आ गया तो वह उसे दे देता था। 


दोनों एक दूसरे को चाहने लगे थे। चाहत की नज़रें ऐसी होती हैं कि जग जान जाता है। स्नेहा के परिवार ने स्नेहा का घूमना-फिरना बंद करा दिया। आदर्श को पानी भरने से भी मना कर दिया। 


मोहब्बत कोई न कोई रास्ता खोज ही लेती है। स्नेहा की बहन सीमा, स्नेहा से एक साल छोटी थी। लेकिन बहुत तेज़। अपने मन की करने वाली। किसी की न सुनने वाली। हाज़िरजवाब। 


स्नेहा, सीमा की मार्फ़त, आदर्श को ख़त लिखने लगी। आदर्श भी जवाब देने लगा। जब सीमा स्नेहा की चिट्ठी आदर्श को देती थी तो साथ में अपनी तरफ़ से भी एक चिट्ठी लिख कर देती थी। 


आदरणीय जीजाजी, बहन आपको बहुत याद करती है। चिट्ठी का इंतज़ार करती है। मम्मी-पापा उसे बुरा-भला कहते रहते हैं। वग़ैरह, वग़ैरह। 


फिर स्नेहा ने बताया कि उसकी शादी की बात चल रही है। फिर बताया कि बात भी पक्की हो गई है। 


एक दिन स्नेहा चुपके से आदर्श से मिलने आई। होने वाले पति का फ़ोटो भी साथ लाई। कहने लगी देखो किसके पल्ले बाँध रहे हैं मुझे। मुझे तो तुमसे ही प्यार है। और कोई जँचता ही नहीं। तुम क्यों नहीं कर लेते हो मुझसे शादी?


आदर्श कुल 18 साल का बारहवीं पढ़ा छात्र। जिसे भविष्य का कोई अंदाज़ा नहीं। चित्रकारी का शौक़ है। उसी में दिल लगता है। पिता का कहना कि चित्रकारी से घर नहीं चलता। कोई काम सीख लो। आय-टी-आई में कार सुधारने के कोर्स में भर्ती करवा दिया। मन तो था नहीं। बेमन से दिन काट रहा था। 


अब ऐसे हालात में कोई शादी कैसे करें? यह 'क़यामत से क़यामत तक' या 'मैंने प्यार किया' तो है नहीं कि किसी काल्पनिक जगह जाकर मज़दूरी कर के जी लेंगे। 


सो आदर्श ने साफ़ मना कर दिया। और यह भी कहा कि माँ-बाप जो करते हैं वे हमेशा बच्चों की भलाई के लिए ही करते हैं। वैसे भी जो होता है अच्छा ही होता है। कहते हैं ना कि मन की हो तो अच्छा। न हो तो और अच्छा। तुम्हारी इसी में भलाई है कि तुम माँ-बाप की इच्छा अनुसार ख़ुशी-ख़ुशी यह शादी करो। प्यार तो मन की भावना है। सब प्यार करनेवाले शादी करें, यह कोई ज़रूरी तो नहीं। 


वह चली गई। 


चिट्ठियाँ फिर भी आती रहीं। साथ में सीमा की भी। अब सीमा की चिट्ठियों से जीजाजी शब्द ग़ायब था। और बहन के बारे में भी कुछ नहीं लिखती थी। सिर्फ़ अपनी भावनाएँ लिखती थी। और वह भी खुल के। लिखने लगी कि आपकी और मेरी जोड़ी ख़ूब जमेगी। दीदी तो डरपोक थी। मैं अलग हूँ और हम दोनों साथ होंगे तो मुझे बहुत ख़ुशी होगी। 


आदर्श तो चकरा गया। ये क्या? ये तो उसने दूर-दूर तक नहीं सोचा था। उसने सीमा से साफ-साफ बात की कि ये कैसा बेहूदा मज़ाक़ है? ऐसा सोचना भी मेरे लिए पाप है। और तुम्हारे लिए भी। 


सीमा ने कहा कि जो लिखा सब सच है। मैं आपको बहुत चाहती हूँ। इसमें पाप कैसा? यह तो सच्चा प्रेम है। दीदी के साथ नहीं तो मेरे साथ। इसमें ग़लत क्या है? 


स्नेहा को पता चला तो वह भी बहुत आग-बबूला हुई कि सीमा कितनी निर्लज्ज है। ऐसी घिनौनी बात वह सोच भी कैसे सकती है। 


बहरहाल, आदर्श ने सीमा को अच्छी तरह से बता दिया कि यह मामला यहीं ख़त्म। अब इस विषय में कोई बात नहीं होगी। 


कुछ दिनों बाद स्नेहा की शादी हो गई। सारे दोस्त शादी में बुलाए गए। आदर्श को छोड़कर। 


बारात आई। बैंड-बाजा ख़ूब बजे। ख़ूब नाच-गान हुआ। ख़ूब रौनक, चहल-पहल रही। 


और आदर्श देवदास से भी बदतर हालत में सब देखता रहा। इधर-उधर से माँग कर खूब बीड़ी पी। 


ख़ुद अपने ही पाँव पर कुल्हाड़ी मारने से दर्द तो उतना ही होता है जितना कि कोई और मारे, लेकिन तरस कम आता है। 


वह समझ नहीं पा रहा था कि यह क्या हो रहा है। जो हो रहा है वो तो होना ही था। उसी ने स्नेहा को कहा था कि वो शादी करें। अब कर रही है तो दुख किस बात का?


और यह तो अच्छा हुआ कि उसे शादी में बुलाया नहीं। वरना सोचो कितना मुश्किल होता उसे दुल्हन के श्रृंगार में देखना। उसे फेरे पड़ते देखना। उसे किसी के गले में वरमाला डालते देखना। उसे किसी के साथ कार में विदा होते देखना। 


वह चली गई। लेकिन आशिक़ तो पागल है। चकोर की तरह अपने चाँद का वापस मायके आने का इंतज़ार करता रहा। कई बार दुल्हन एक-दो दिन में ही आ जाती है। 


यहाँ दस दिन गुज़र गए। वो वापस नहीं आई। हफ़्तों गुज़र गए। वो वापस नहीं आई। 


तीन महीने के अकाल के बाद वो एक दिन आई। पड़ोस में एक भाभीजी रहती थी जो आदर्श की विरह-वेदना को देख रही थी। उन्होंने स्नेहा को अपने घर बुलाया। उसे आदर्श की पीड़ा की रामकहानी सुनाई। स्नेहा बहुत दुखी हुई। भाभीजी ने आदर्श को फ़ौरन आने को कहा। और दोनों को कमरे में अकेला छोड़ दिया। 


वह फूट-फूट कर रोने लगी। कहने लगी शादी तो कर ली। लेकिन वह खुश नहीं है। उसे आज भी आदर्श ही अच्छा लगता है। बस आदर्श हाँ कह दे और वह अपना नया घर-संसार छोड़ देगी। 


आदर्श ने उसे बहुत समझाया कि यह क्या पागलपन है? हालात कुछ नहीं बदले हैं। मैं अभी भी वही 18 साल का बेरोज़गार लड़का हूँ जिसका भविष्य उसे खुद पता नहीं। तुम्हें तो क्या, मैं अभी ख़ुद को पालने योग्य नहीं हूँ। और फिर इस नए परिवार का क्या दोष? उन्हें क्यों संकट में डालें?


स्नेहा दुखी तो हुई, लेकिन उसके दिल में आदर्श के प्रति सम्मान बढ़ गया। अब तक वह उससे प्यार करती थी। अब वह उसकी इज़्ज़त करती थी। 


कहने लगी तुम तो देवता हो। आज के ज़माने में भी तुम्हारे जैसा इंसान है, मुझे यक़ीन नहीं हो रहा है। तुमने आज तक मुझे छुआ नहीं। कोई भी ऐसा काम नहीं किया जिससे मुझे सर झुकाना पड़े। सिर्फ़ और सिर्फ़ प्यार किया, प्यार का इज़हार किया, मेरा अच्छे-बुरे समय में साथ दिया। तुम चाहते तो कभी भी मेरा फ़ायदा उठा सकते थे। 


और यह भी कहा कि वचन दो कि तुम सीमा से शादी कर लोगे ताकि कम से कम परिवार के सदस्य तो रहोगे। 


आदर्श ने उसे डाँट दिया कि कैसी बहकी बातें कर रही हो। मैं ऐसा हरगिज़ नहीं करूँगा। 


इतना सब कहने के बाद विदा लेते समय स्नेहा ने आदर्श के चरण छुए और उसी हाथ से अदृश्य सिंदूर से अपनी माँग भर ली। 


फिर वह चली गई और कभी नहीं मिली। 


इधर सीमा बेताब हो रही थी। दुनिया भर में कहती फिरती थी आदर्श और हम ब्याह रचाएँगे। अपने माँ-बाप से भी कह दिया था। पिटाई खाती रहती और कहती जाती। 


कई बार सूटकेस में कपड़े डाल कर आदर्श के यहाँ आ जाती। कहती मैं बस अब यहीं रहूँगी। शादी करो या न करो। दो-चार साल बाद जब मन आए कर लेना। 


आदर्श उसे समझाता-बुझाता। दस तरह की बातें करता। फिर ख़ुद ही उसे कुछ घण्टों बाद उसके घर छोड़ आता। 


अब माँ-बाप को भी इसकी आदत हो गई थी। उन्हें पता था कि आदर्श कभी कोई ग़लत काम नहीं करेगा। सीमा बेदाग़ सही-सलामत घर आ जाएगी। 


अब सीमा ने पैंतरे बदलने शुरू किए। मरने की धमकी देने लगी। पटरी पर जाकर बैठ गई। उसके माँ-बाप दौड़ें-दौड़ें आदर्श के ही पास आए कि तुम ही उसे बचा सकते हो। और हमेशा की तरह आदर्श ने उसे बचा लिया, घर लौटा दिया। 


एक बार अपने स्कूल की केमिस्ट्री लैब से नीला थोथा भी ले आई। कहने लगी मैं इसे खा के मर जाऊँगी यदि तुमने शादी से मना किया तो। 


एक बार छत से कूद रही थी। माँ ने आदर्श को बुलाया। आदर्श बहुत ग़ुस्से में था। उसने सीमा से कहा मुझे न तुमसे कुछ कहना है, न तुमसे कुछ सुनना है। बस तुम्हारा हाथ मुझे दे दो। सीमा ने हाथ दे दिया। आदर्श उसे नीचे ले आया और वही हाथ उसकी माँ को सौंप दिया। 


एक दिन जब आदर्श के घर वाले सब कहीं गए थे, वो हमेशा की तरह सूटकेस बांध कर धमक पड़ी। 


दरवाज़ा बंद कर लिया और कहने लगी कि आज तो फ़ुल एण्ड फ़ाइनल है। आज मैं कुछ नहीं सुनूँगी। अभी और इसी वक्त शादी करनी है। आदर्श हँस पड़ा। ऐसे भी कोई शादी होती है? पण्डित हो। मुहूर्त हो। अग्नि के फेरे हो। सगे-सम्बन्धी हो। यार दोस्त हो। तब कहीं जाकर शादी होती है। 


वह कहने लगी वो सब ढोंग है। शादी तो दो दिलों का मिलन है। मैं तुम्हें कुछ वचन दूँगी। तुम मुझे कुछ वचन देना। फिर तुम मेरी माँग में सिंदूर भरना। बस हो गई शादी। 


अब सीमा उतने पूर्ण विश्वास के साथ आई थी कि आदर्श का मन पिघल गया। और सच मानें तो अब वह उसे अच्छी भी लगने लगी थी। थी तेज़ पर भोली भी बहुत थी। अब उसे उस पर प्यार आने लगा था। 


क़रीब आधे घंटे तक सीमा ने वचन लिए और दिए। माँग भरवाई। और बहुत खुश हुई कि आज जो सोच कर आई थी वह हो ही गया। शादी हो गई!


अब शाम हो रही थी। अंधेरा होने वाला था। आदर्श ने कहा चलो अब तुम्हें अपने घर ले चलता हूँ। वहाँ मैं तुम्हारे माता-पिता से बात भी कर लेता हूँ ताकि विधिवत रूप से रिश्ता पक्का हो जाए। 


सीमा के माता-पिता ने जो उसकी बेइज़्ज़ती की उसकी कोई सीमा नहीं। और साथ में जम के पिटाई भी की।  


आदर्श दुखी मन से हताश लौट आया। सोचता रहा सही तो किया उन्होंने। कौन बाप अपनी बेटी का रिश्ता मुझ जैसे इंसान से जोड़ना चाहेगा। एक बेकार-बेरोज़गार इंसान की औक़ात ही क्या है? किस मुँह से मैं रिश्ता माँगने चला गया। 


और इसी उहापोह में उसे बहन ने अमेरिका बुला लिया। 


अब वह अमेरिका जाकर, अपने पैरों पर खड़ा होकर, एक अच्छी धनराशि लेकर वापस दिल्ली आएगा और सीमा का हाथ माँगेगा। 


ये देश की सीमाएँ भी अजीब है। इधर से उधर जाने के लिए एक काग़ज़ का टुकड़ा और उस पर एक मुहर लगी होनी चाहिए स्वीकृति की। 


सीमाएँ न होतीं तो कितना अच्छा होता। नहीं, नहीं, सीमाएँ हैं तभी तो अमेरिका में बहन आराम से है और मेरे लिए भी एक आशा की किरण है। वरना अमेरिका और भारत में क्या अंतर होता। हर ऐरा-गैरा मुँह उठाए अमेरिका चला आता। वैसे ही जैसे कि हम नहीं चाहते कि प्लेन का टिकट सस्ता हो ताकि भेड़-बकरी चलाने वाला तो कम से कम हमारे साथ न बैठ सके। 


अब इस सरहद और इस काग़ज़ के टुकड़े की वजह से अपनी बहन से मिल तो सकता था, लेकिन वहाँ छ: महीने से ज़्यादा रूक नहीं सकता था। विज़िटर विसा पर इतनी ही अनुमति होती है। 


वह तो वहाँ बसना चाहता था। कमाना चाहता था। 


उसका एक ही रास्ता था। अपनी बहन की तरह किसी अमेरिकन पासपोर्ट धारी के साथ शादी कर ले। और ग्रीनकार्ड हथिया ले। ताकि आजीवन अमेरिका रह सके। और जब सीमा पार करनी हो बेरोकटोक कर सके। न अमेरिका से कहीं जाने में अड़चन। न वापस अमेरिका आने में अड़चन। 


आदर्श आदर्शवादी ठहरा। सिर्फ़ ग्रीनकार्ड के लिए किसी लड़की को धोखा नहीं दे सकता। जिसके साथ शादी करेगा उसी के साथ अपना जीवन बिताएगा। ग्रीनकार्ड पाने के बाद उसे छोड़ेगा नहीं। तलाक़ नहीं देगा। 


आँखों में जो सपना लेके आया था उसे सच करना आसान नहीँ था। इंसान सोचता कुछ है और होता कुछ और है। 


आदर्श के लिए शादी का मतलब जन्म जन्मांतर का साथ था। 6-7 साल बीत गए तब कहीं जाकर बामुश्किल आदर्श को ग्रीन कार्ड मिला । और इस दौरान ज़िंदगी की ठोकरों ने सब कुछ बदल दिया। वहाँ भी सीमा शादी कर चुकी थी। बच्चे भी हो गए थे। 


आज उसे अमेरिका आए 24 साल हो गए हैं। वह अपनी पत्नी शीला के साथ खुश है। 


स्नेहा से स्नेह आज भी है। और सीमा से असीम प्यार। 


सोचता रहता है क्या सही किया, क्या ग़लत किया। 


लेकिन इस बात पर उसे ज़रूर गर्व है कि उसने सिर्फ़ प्यार किया और कुछ न किया। 


















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25 जनवरी 2022

सिएटल 










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Monday, January 24, 2022

पुष्पा

वर्ष 2021 की सफलतम् फ़िल्म है अल्लु अर्जुन अभिनीत 'पुष्पा'। 


वैसे सफलताओं के कई मापदंड है। थिएटर में कितनी कमाई हुई हैं। कितने थिएटर में कितनी कमाई हुई। कितने दिन में कितनी कमाई हुई। किस भाषा में कितनी कमाई हुई। वग़ैरह। वग़ैरह। 


मूल फ़िल्म हिन्दी में नहीं है। हिन्दी में डब करने के बाद अब इंटरनेट पर देखी जा सकती है। 


हिन्दी में डब करने से एक बात यह अच्छी हो गई कि कलाकारों के नाम आदि भी देवनागरी लिपि में हैं!


हिन्दी फ़िल्म वाले स्वयं इतने उदार नहीं है। 


यहाँ तक कि हम हिन्दी भाषी भी अपने घर के आगे अपना नाम अंग्रेज़ी में ही लिखते हैं। 


'पुष्पा' फ़िल्म को देखना इतना आसान नहीं है। यह अपने आप में एक नए प्रकार की फ़िल्म है। इसे आप गॉडफ़ादर से प्रभावित भी कह सकते हैं। और उससे भिन्न भी। हर मारधाड़ वाले सीन को आगे भी बढ़ा सकते हैं या उसकी हर फ़्रेम पर मंत्रमुग्ध हो सकते हैं। हर हीरोइज़्म वाले बड़बोले सीन पर हँस सकते हैं या ताली बजा सकते हैं। 


दो-चार दृश्य असहनीय है। मूवी बंद करने को जी चाहता है। मैंने बंद की भी सही। दो दिन बाद फिर हिम्मत कर के वहीं से देखी जहाँ रोक दी थी। बहुत ही अच्छी लगी। 


कहानी कोई नई नहीं है। वही घिसीपिटी। गरीब व्यक्ति। नाजायाज औलाद। क्रूर खलनायक। लाचार माँ। असहाय पिता। 


फिर भी खिचड़ी नहीं है। पूरा महाभोज है। 


हर दृश्य एक सुन्दर तस्वीर है। हर दृश्य से एक कविता फूटती है। 


कुछ साधारण से हाव-भाव इतने प्रभावशाली बन पड़े हैं कि लगता ही नहीं है कि सोच-विचार कर जोड़े गए हैं। 


पुष्पा का पाँव पर पाँव रख कर बैठना। (बचपन में भी ऐसे ही बैठना, जब उसे और उसकी माँ को उसका बड़ा भाई अपने घर से बेदख़ल कर देता है।) दाड़ी के नीचे से हाथ घुमाना। नाचते-नाचते चप्पल छूट जाना। 


शेखावत को दमदार खलनायक बनाने से पुष्पा का भी क़द ऊँचा हुआ। 


इतने ट्रक, इतनी लकड़ियाँ, इतनी लड़कियाँ, इतने मनोहारी दृश्य। ज़रूर कम्प्यूटर ग्राफ़िक्स का इस्तेमाल किया गया होगा। लेकिन बहुत ही रोमांचक दृश्य हैं। 


पुष्पा को हिन्दी स्वर श्रेयस तलपड़े ने दिया है। यह जानकर बहुत ख़ुशी हुई। वे बहुत अच्छे अभिनेता भी है। और विडम्बना देखिए अपनी शुरुआत की फ़िल्म 'इक़बाल' में वे गूँगे थे। जैसे कि अमिताभ 'रेशमा और शेरा' में। 


राहुल उपाध्याय । 24 जनवरी 2022 । सिएटल 



Saturday, January 22, 2022

कभी-कभी




कभी-कभी 



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राहुल उपाध्याय




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पात्र काल्पनिक हैं। 

कहानी सच्ची है। 

विचार मेरे हैं। 












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जो हमारी ज़िंदगी का सबसे बड़ी ख़ुशी का दिन था, वहीं आज टीस भर देता है। 


कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है 

कि जैसे तुझको बनाया गया है मेरे लिए


कभी-कभी लगता है कि क्यूँ हमने इसे अपना गीत बनाया। 


हम दोनों ही अमिताभ के भक्त थे। मैं कुछ ज़्यादा, वो कुछ कम। इतनी कम कि उसने 'शोले' कभी देखी ही नहीं। वह इतनी छोटी है कि 'शोले' उसकी पैदाइश के पहले ही आ के चली गई थी। जब तक मुझे यह नहीं पता था कि वह इतनी छोटी है, मैं समझता था कि जिसने 'शोले' नहीं देखी, उसे हिंदी फ़िल्म देखने का कोई हक़ नहीं है। जैसे कि जिसने क, ख, ग न सीखा और सीधा कविता पढ़ने लगे। वैसे मैं आज भी मानता हूँ कि जिसने 'दीवार' (यश चोपड़ा द्वारा निर्देशित) नहीं देखी, उसे देख लेनी चाहिए। 


कभी-कभी उसने कईं बार देखी। जबकि वह 'शोले' के बाद आई थी। क्योंकि वह उसने मेरे कहने पर मेरे साथ देखी और बाद में अलग से भी। उसकी आदत थी वह पात्रों को उनके नाम से बुलाती थी। पूजा के बारे में बात करती थी, राखी का नाम भी नहीं लेती थी। 


वह मेरी पूजा थी। मैं उसका अमित। न जाने क्यों वही किरदार हमें आकर्षित करते हैं जो कभी मिल नहीं पाते हैं। अगली बार कोई मिली तो मैं ध्यान रखूँगा कि न वो मेरी पूजा हो, न मैं उसका अमित। 


मैं बक़ायदा अमित जैसा बंद गले का स्वेटर पहन कर उससे मिलता था। वह भी यश चोपड़ा की ख़ूबसूरत नायिकाओं के परिधान में आती थी। कभी-कभी के गीत के फ़िल्मांकन की तरह कभी वो मेरे काँधे पर सर रखती थी, कभी वो मेरी बाहों में भर जाती थी, कभी मैं उसकी गोद में सर रख देता था, और वो अपनी ज़ुल्फ़ से मेरा चेहरा ढक देती थी। कभी मैं उसके बालों में उँगली फेरता, कभी वो मेरे शर्ट के बटन से खेलती। कभी आँख भर कर बस देखती रहती। हर प्रीत का गाना उस पर फ़िट बैठता था। वह सिर्फ़ प्यार और प्यार थी। कभी तो विश्वास ही नहीं होता था कि कोई कैसे इतना प्यार कर सकता है। बिना किसी अपेक्षा के। बिना शिकायत के। बिना मनमुटाव के। हर चीज़ इतनी सहज। इतनी आसान। ऐसे में ही लगता है कि चाँद-तारे तोड़ लाना भी शायद आसान होता होगा। 


जिन दिनों 'कभी-कभी' मैंने पहली बार देखी थी, उन दिनों मेरी ज़िंदगी में कोई और थी। 


हम दोनों छोटे थे। पर हमउम्र थे। प्यार की कोई उम्र नहीं होती। जब बिल गेट्स महज़ 20 वर्ष की उम्र में एक कम्पनी चला सकते हैं। हम प्यार क्यों नहीं कर सकते? 


और प्यार करने के लिए जो चाहिए वो सब तो था हमारे पास। घर से स्कूल तक का पाँच किलोमीटर का रास्ता। शिमला का लुभावना मौसम। चाराने की गर्मागर्म मूँगफली। (पैसे वो ही देती थी। मुझे कभी जेबखर्च नहीं मिला। न ही मैंने अपने बच्चों को दिया। यह परम्परा पीढ़ी दर पीढ़ी आज भी जारी है।) हनीमून पर आए जोड़ों की (उनके कैमरों से उनके कहने पर) तस्वीर उतारना। कालीबाड़ी से पण्डित जी का आशीर्वाद लेना। साथ में मखानों का प्रसाद भी। 'गुफा' रेस्टोरेन्ट के सामने लगी मूर्ति के घड़े से हाथ फैलाते ही बहते पानी का आना और उसे पीना। स्कूल से वापस आते वक्त दौड़ते हुए पहाड़ी ट्रेन पकड़ना। टिकट न लेना और पटरियों की तरफ़ उतर कर दौड़ते हुए घर पहुँचना। 


प्यार नहीं होगा तो क्या होगा?


हर प्यार की कोई न कोई निशानी अवश्य होती है। मेरे पास भी है। मेरे होंठों पर उन चाँदी सी चमकती बूँदों का स्वाद जो सिसिल होटल के सामने वाले गज़ेबो में मैंने उसके कस के बांधे गए बालों के बीचोंबीच की माँग से चुराया था। 


वह भी समझ गई थी। मैं भी समझ गया था। दोनों मानो एक युग तक बिलकुल चुप खड़े रहे। न कुछ कहा, न कुछ किया। स्तब्ध। नि:शब्द। 


उस दिन हमारी ट्रेन छूट गई थी। हम घर जा रहे थे। और बारिश में बुरी तरह फँस गए थे। इसलिए गज़ेबो में शरण ले ली थी। 


अब हम आज़ाद थे। बारिश हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती थी। एक गर्मी सी आ गई थी। दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़ कर दौड़ते-भागते भीगते-भागते घर पहुँचें। 


इसके बाद इस प्रकरण पर कभी कोई बात नहीं हुई। हम इतने क़रीब आ चुके थे कि और क़रीब आने की कोई ज़रूरत नहीं महसूस हो रही थी। 


फिर वही पाँच किलोमीटर का रस्ता, वही मूँगफली, वही ख़ुशनुमा मौसम, वही कालीबाड़ी, वही 'गुफा', वही ट्रेन। 


सब अच्छा चल रहा था। चलता जा रहा था। 


और फिर गर्मी की छुट्टियों में ननिहाल गया तो वापस नहीं लौटा। क़िस्मत कलकत्ता ले गई। संजुक्ता के पास। 


शिमला से कभी विदाई नहीं ली। अलविदा नहीं कहा। ब्रेकअप नहीं हुआ। 


बस पीछे छूट गया। 


उससे ब्रेकअप नहीं हुआ। लेकिन पूजा से हुआ। एक नहीं, कई बार हुआ। इतनी बार कि फिर तो आदत सी पड़ गई। 


ब्रेकअप क्यों होते हैं? जैसे जुड़ने की, चाहने की, प्यार करने की कोई वजह नहीं होती, ब्रेकअप की भी नहीं होती। बस हो जाते हैं। 


जब प्यार हो जाता है दुनिया हसीन लगती है। कदमों में फुर्ती आ जाती है। आँखों में चमक। मौसम रंगीन। सब पर प्यार आता है। सब अच्छा लगता है। कुछ भी बुरा नहीं लगता है। 


जब ब्रेकअप होता है। सब बुरा लगता है। कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। एक ख़ालीपन दिल में घर कर जाता है। इंसान कारण खोजता रहता है। टाईम मशीन के आविष्कार की कल्पना करता है। कब, कैसे, क्या हो गया? मैंने क्या ग़लत किया? क्या कुछ किया जा सकता है ताकि स्थिति सुधर जाए? क्या जो हुआ अच्छा ही हुआ? अच्छे दिन फिर आएँगे?


शिमला का प्यार न पहला था, न अंतिम। 


पूजा से ब्रेकअप पहला ब्रेकअप था, अंतिम नहीं। 


पूजा से पुनर्जन्म में विश्वास जगा। और मोक्ष से मोहभंग हुआ।  





















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22 जनवरी 2022

सिएटल 









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