Tuesday, January 25, 2022

आदर्श





आदर्श



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राहुल उपाध्याय


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पात्र काल्पनिक हैं। 

कहानी सच्ची है। 

विचार मेरे हैं। 














आदर्श अपनी बहन से मिलने अमेरिका जा रहा था। 


यह सच भी था। और झूठ भी। 


वैसे ही जैसे होस्टल के लड़के मंदिर जाते हैं। 


वह सच भी होता है। और झूठ भी। 


आदर्श अमेरिका ही जा रहा था। और वहाँ उसकी बहन के पास ही जाना था। उसी के साथ रहना भी था। 


उसी की मदद से उसे अपने पैरों पर खड़ा भी होना था। 


और यही सच था। 


अपने पैरों पर खड़ा तो वह दिल्ली में भी हो सकता था। लेकिन अमेरिका का सिस्टम ही अलग है। वहाँ जो सुविधाएँ हैं वो भारत में कहाँ। वहाँ भीड़ भी कम है। मारामारी भी कम है। भारत में लाखों बेरोज़गार है। हर नौकरी के लिए हज़ारों से लड़ना पड़ता है। अमेरिका में कम्पीटिशन कम है। 


सबसे बड़ी बात माँ-बाप की, समाज की, बातें नहीं सुननी पड़ती है। जो मन चाहे करो। रेस्टोरेन्ट में वेटर बन जाओ। टैक्सी चलाओ। ट्रक चलाओ। संडास साफ़ करो। कोई कुछ नहीं कहता। 


उसकी बहन अमेरिका एक अमेरिकन नागरिक से शादी कर के गई थी। जीजाजी सिख हैं। पर पासपोर्ट अमेरिकन है। 


आदर्श विज़िटर विसा पर जा रहा है। उसे अपना ध्येय मालूम है। उसे अमेरिका में ही अब बसना है। चाहे जैसे हो। 


बारहवीं तक की पढ़ाई करने के बाद वह कलाकार बनना चाहता था। बचपन से उसे चित्रकारी का बड़ा शौक़ था। अमिताभ के पोस्टर्स को स्कूल की चारदीवारी पर बनाना उसके बाएँ हाथ का खेल था। 


उसने सामने रहने वाली लड़की स्नेहा का भी स्केच कई बार बनाया था। उसे दिखाया था। उसे दिया था। 


स्नेहा और आदर्श बचपन से एक दूसरे को जानते थे। जब से आँख खोली, तब से दोनों साथ थे। घर आमने-सामने था। लेकिन ऐसे जैसे एक ही घर हो। दोनों साथ घुटनों-घुटनों चलें। बड़े होने पर दोनों साथ स्कूल गए। दोनों ने पढ़ाई भी साथ में की। सारे खेल साथ-साथ खेलें। छुपमछुपाई, पिठ्ठू। स्नेहा का होमवर्क अक्सर आदर्श ही करता था। वह पढ़ने में कमजोर थी। और आदर्श को स्नेहा का हर काम करना अच्छा लगता था। 


पीने का पानी मोहल्ले में लगे नल से ही लोग लाते थे। आदर्श अपने घर का भी पानी भरता था और स्नेहा का भी। 


सुबह सैर करने भी वे साथ जाते थे। गर्मियों के दिनों में बरामदे में ही वो खाट पर सो जाती थी। आदर्श रोज़ उसे जगाता था और दोनों पास के पोखर के चक्कर लगा कर आते। कभी कोई सुन्दर फूल नज़र आ गया तो वह उसे दे देता था। 


दोनों एक दूसरे को चाहने लगे थे। चाहत की नज़रें ऐसी होती हैं कि जग जान जाता है। स्नेहा के परिवार ने स्नेहा का घूमना-फिरना बंद करा दिया। आदर्श को पानी भरने से भी मना कर दिया। 


मोहब्बत कोई न कोई रास्ता खोज ही लेती है। स्नेहा की बहन सीमा, स्नेहा से एक साल छोटी थी। लेकिन बहुत तेज़। अपने मन की करने वाली। किसी की न सुनने वाली। हाज़िरजवाब। 


स्नेहा, सीमा की मार्फ़त, आदर्श को ख़त लिखने लगी। आदर्श भी जवाब देने लगा। जब सीमा स्नेहा की चिट्ठी आदर्श को देती थी तो साथ में अपनी तरफ़ से भी एक चिट्ठी लिख कर देती थी। 


आदरणीय जीजाजी, बहन आपको बहुत याद करती है। चिट्ठी का इंतज़ार करती है। मम्मी-पापा उसे बुरा-भला कहते रहते हैं। वग़ैरह, वग़ैरह। 


फिर स्नेहा ने बताया कि उसकी शादी की बात चल रही है। फिर बताया कि बात भी पक्की हो गई है। 


एक दिन स्नेहा चुपके से आदर्श से मिलने आई। होने वाले पति का फ़ोटो भी साथ लाई। कहने लगी देखो किसके पल्ले बाँध रहे हैं मुझे। मुझे तो तुमसे ही प्यार है। और कोई जँचता ही नहीं। तुम क्यों नहीं कर लेते हो मुझसे शादी?


आदर्श कुल 18 साल का बारहवीं पढ़ा छात्र। जिसे भविष्य का कोई अंदाज़ा नहीं। चित्रकारी का शौक़ है। उसी में दिल लगता है। पिता का कहना कि चित्रकारी से घर नहीं चलता। कोई काम सीख लो। आय-टी-आई में कार सुधारने के कोर्स में भर्ती करवा दिया। मन तो था नहीं। बेमन से दिन काट रहा था। 


अब ऐसे हालात में कोई शादी कैसे करें? यह 'क़यामत से क़यामत तक' या 'मैंने प्यार किया' तो है नहीं कि किसी काल्पनिक जगह जाकर मज़दूरी कर के जी लेंगे। 


सो आदर्श ने साफ़ मना कर दिया। और यह भी कहा कि माँ-बाप जो करते हैं वे हमेशा बच्चों की भलाई के लिए ही करते हैं। वैसे भी जो होता है अच्छा ही होता है। कहते हैं ना कि मन की हो तो अच्छा। न हो तो और अच्छा। तुम्हारी इसी में भलाई है कि तुम माँ-बाप की इच्छा अनुसार ख़ुशी-ख़ुशी यह शादी करो। प्यार तो मन की भावना है। सब प्यार करनेवाले शादी करें, यह कोई ज़रूरी तो नहीं। 


वह चली गई। 


चिट्ठियाँ फिर भी आती रहीं। साथ में सीमा की भी। अब सीमा की चिट्ठियों से जीजाजी शब्द ग़ायब था। और बहन के बारे में भी कुछ नहीं लिखती थी। सिर्फ़ अपनी भावनाएँ लिखती थी। और वह भी खुल के। लिखने लगी कि आपकी और मेरी जोड़ी ख़ूब जमेगी। दीदी तो डरपोक थी। मैं अलग हूँ और हम दोनों साथ होंगे तो मुझे बहुत ख़ुशी होगी। 


आदर्श तो चकरा गया। ये क्या? ये तो उसने दूर-दूर तक नहीं सोचा था। उसने सीमा से साफ-साफ बात की कि ये कैसा बेहूदा मज़ाक़ है? ऐसा सोचना भी मेरे लिए पाप है। और तुम्हारे लिए भी। 


सीमा ने कहा कि जो लिखा सब सच है। मैं आपको बहुत चाहती हूँ। इसमें पाप कैसा? यह तो सच्चा प्रेम है। दीदी के साथ नहीं तो मेरे साथ। इसमें ग़लत क्या है? 


स्नेहा को पता चला तो वह भी बहुत आग-बबूला हुई कि सीमा कितनी निर्लज्ज है। ऐसी घिनौनी बात वह सोच भी कैसे सकती है। 


बहरहाल, आदर्श ने सीमा को अच्छी तरह से बता दिया कि यह मामला यहीं ख़त्म। अब इस विषय में कोई बात नहीं होगी। 


कुछ दिनों बाद स्नेहा की शादी हो गई। सारे दोस्त शादी में बुलाए गए। आदर्श को छोड़कर। 


बारात आई। बैंड-बाजा ख़ूब बजे। ख़ूब नाच-गान हुआ। ख़ूब रौनक, चहल-पहल रही। 


और आदर्श देवदास से भी बदतर हालत में सब देखता रहा। इधर-उधर से माँग कर खूब बीड़ी पी। 


ख़ुद अपने ही पाँव पर कुल्हाड़ी मारने से दर्द तो उतना ही होता है जितना कि कोई और मारे, लेकिन तरस कम आता है। 


वह समझ नहीं पा रहा था कि यह क्या हो रहा है। जो हो रहा है वो तो होना ही था। उसी ने स्नेहा को कहा था कि वो शादी करें। अब कर रही है तो दुख किस बात का?


और यह तो अच्छा हुआ कि उसे शादी में बुलाया नहीं। वरना सोचो कितना मुश्किल होता उसे दुल्हन के श्रृंगार में देखना। उसे फेरे पड़ते देखना। उसे किसी के गले में वरमाला डालते देखना। उसे किसी के साथ कार में विदा होते देखना। 


वह चली गई। लेकिन आशिक़ तो पागल है। चकोर की तरह अपने चाँद का वापस मायके आने का इंतज़ार करता रहा। कई बार दुल्हन एक-दो दिन में ही आ जाती है। 


यहाँ दस दिन गुज़र गए। वो वापस नहीं आई। हफ़्तों गुज़र गए। वो वापस नहीं आई। 


तीन महीने के अकाल के बाद वो एक दिन आई। पड़ोस में एक भाभीजी रहती थी जो आदर्श की विरह-वेदना को देख रही थी। उन्होंने स्नेहा को अपने घर बुलाया। उसे आदर्श की पीड़ा की रामकहानी सुनाई। स्नेहा बहुत दुखी हुई। भाभीजी ने आदर्श को फ़ौरन आने को कहा। और दोनों को कमरे में अकेला छोड़ दिया। 


वह फूट-फूट कर रोने लगी। कहने लगी शादी तो कर ली। लेकिन वह खुश नहीं है। उसे आज भी आदर्श ही अच्छा लगता है। बस आदर्श हाँ कह दे और वह अपना नया घर-संसार छोड़ देगी। 


आदर्श ने उसे बहुत समझाया कि यह क्या पागलपन है? हालात कुछ नहीं बदले हैं। मैं अभी भी वही 18 साल का बेरोज़गार लड़का हूँ जिसका भविष्य उसे खुद पता नहीं। तुम्हें तो क्या, मैं अभी ख़ुद को पालने योग्य नहीं हूँ। और फिर इस नए परिवार का क्या दोष? उन्हें क्यों संकट में डालें?


स्नेहा दुखी तो हुई, लेकिन उसके दिल में आदर्श के प्रति सम्मान बढ़ गया। अब तक वह उससे प्यार करती थी। अब वह उसकी इज़्ज़त करती थी। 


कहने लगी तुम तो देवता हो। आज के ज़माने में भी तुम्हारे जैसा इंसान है, मुझे यक़ीन नहीं हो रहा है। तुमने आज तक मुझे छुआ नहीं। कोई भी ऐसा काम नहीं किया जिससे मुझे सर झुकाना पड़े। सिर्फ़ और सिर्फ़ प्यार किया, प्यार का इज़हार किया, मेरा अच्छे-बुरे समय में साथ दिया। तुम चाहते तो कभी भी मेरा फ़ायदा उठा सकते थे। 


और यह भी कहा कि वचन दो कि तुम सीमा से शादी कर लोगे ताकि कम से कम परिवार के सदस्य तो रहोगे। 


आदर्श ने उसे डाँट दिया कि कैसी बहकी बातें कर रही हो। मैं ऐसा हरगिज़ नहीं करूँगा। 


इतना सब कहने के बाद विदा लेते समय स्नेहा ने आदर्श के चरण छुए और उसी हाथ से अदृश्य सिंदूर से अपनी माँग भर ली। 


फिर वह चली गई और कभी नहीं मिली। 


इधर सीमा बेताब हो रही थी। दुनिया भर में कहती फिरती थी आदर्श और हम ब्याह रचाएँगे। अपने माँ-बाप से भी कह दिया था। पिटाई खाती रहती और कहती जाती। 


कई बार सूटकेस में कपड़े डाल कर आदर्श के यहाँ आ जाती। कहती मैं बस अब यहीं रहूँगी। शादी करो या न करो। दो-चार साल बाद जब मन आए कर लेना। 


आदर्श उसे समझाता-बुझाता। दस तरह की बातें करता। फिर ख़ुद ही उसे कुछ घण्टों बाद उसके घर छोड़ आता। 


अब माँ-बाप को भी इसकी आदत हो गई थी। उन्हें पता था कि आदर्श कभी कोई ग़लत काम नहीं करेगा। सीमा बेदाग़ सही-सलामत घर आ जाएगी। 


अब सीमा ने पैंतरे बदलने शुरू किए। मरने की धमकी देने लगी। पटरी पर जाकर बैठ गई। उसके माँ-बाप दौड़ें-दौड़ें आदर्श के ही पास आए कि तुम ही उसे बचा सकते हो। और हमेशा की तरह आदर्श ने उसे बचा लिया, घर लौटा दिया। 


एक बार अपने स्कूल की केमिस्ट्री लैब से नीला थोथा भी ले आई। कहने लगी मैं इसे खा के मर जाऊँगी यदि तुमने शादी से मना किया तो। 


एक बार छत से कूद रही थी। माँ ने आदर्श को बुलाया। आदर्श बहुत ग़ुस्से में था। उसने सीमा से कहा मुझे न तुमसे कुछ कहना है, न तुमसे कुछ सुनना है। बस तुम्हारा हाथ मुझे दे दो। सीमा ने हाथ दे दिया। आदर्श उसे नीचे ले आया और वही हाथ उसकी माँ को सौंप दिया। 


एक दिन जब आदर्श के घर वाले सब कहीं गए थे, वो हमेशा की तरह सूटकेस बांध कर धमक पड़ी। 


दरवाज़ा बंद कर लिया और कहने लगी कि आज तो फ़ुल एण्ड फ़ाइनल है। आज मैं कुछ नहीं सुनूँगी। अभी और इसी वक्त शादी करनी है। आदर्श हँस पड़ा। ऐसे भी कोई शादी होती है? पण्डित हो। मुहूर्त हो। अग्नि के फेरे हो। सगे-सम्बन्धी हो। यार दोस्त हो। तब कहीं जाकर शादी होती है। 


वह कहने लगी वो सब ढोंग है। शादी तो दो दिलों का मिलन है। मैं तुम्हें कुछ वचन दूँगी। तुम मुझे कुछ वचन देना। फिर तुम मेरी माँग में सिंदूर भरना। बस हो गई शादी। 


अब सीमा उतने पूर्ण विश्वास के साथ आई थी कि आदर्श का मन पिघल गया। और सच मानें तो अब वह उसे अच्छी भी लगने लगी थी। थी तेज़ पर भोली भी बहुत थी। अब उसे उस पर प्यार आने लगा था। 


क़रीब आधे घंटे तक सीमा ने वचन लिए और दिए। माँग भरवाई। और बहुत खुश हुई कि आज जो सोच कर आई थी वह हो ही गया। शादी हो गई!


अब शाम हो रही थी। अंधेरा होने वाला था। आदर्श ने कहा चलो अब तुम्हें अपने घर ले चलता हूँ। वहाँ मैं तुम्हारे माता-पिता से बात भी कर लेता हूँ ताकि विधिवत रूप से रिश्ता पक्का हो जाए। 


सीमा के माता-पिता ने जो उसकी बेइज़्ज़ती की उसकी कोई सीमा नहीं। और साथ में जम के पिटाई भी की।  


आदर्श दुखी मन से हताश लौट आया। सोचता रहा सही तो किया उन्होंने। कौन बाप अपनी बेटी का रिश्ता मुझ जैसे इंसान से जोड़ना चाहेगा। एक बेकार-बेरोज़गार इंसान की औक़ात ही क्या है? किस मुँह से मैं रिश्ता माँगने चला गया। 


और इसी उहापोह में उसे बहन ने अमेरिका बुला लिया। 


अब वह अमेरिका जाकर, अपने पैरों पर खड़ा होकर, एक अच्छी धनराशि लेकर वापस दिल्ली आएगा और सीमा का हाथ माँगेगा। 


ये देश की सीमाएँ भी अजीब है। इधर से उधर जाने के लिए एक काग़ज़ का टुकड़ा और उस पर एक मुहर लगी होनी चाहिए स्वीकृति की। 


सीमाएँ न होतीं तो कितना अच्छा होता। नहीं, नहीं, सीमाएँ हैं तभी तो अमेरिका में बहन आराम से है और मेरे लिए भी एक आशा की किरण है। वरना अमेरिका और भारत में क्या अंतर होता। हर ऐरा-गैरा मुँह उठाए अमेरिका चला आता। वैसे ही जैसे कि हम नहीं चाहते कि प्लेन का टिकट सस्ता हो ताकि भेड़-बकरी चलाने वाला तो कम से कम हमारे साथ न बैठ सके। 


अब इस सरहद और इस काग़ज़ के टुकड़े की वजह से अपनी बहन से मिल तो सकता था, लेकिन वहाँ छ: महीने से ज़्यादा रूक नहीं सकता था। विज़िटर विसा पर इतनी ही अनुमति होती है। 


वह तो वहाँ बसना चाहता था। कमाना चाहता था। 


उसका एक ही रास्ता था। अपनी बहन की तरह किसी अमेरिकन पासपोर्ट धारी के साथ शादी कर ले। और ग्रीनकार्ड हथिया ले। ताकि आजीवन अमेरिका रह सके। और जब सीमा पार करनी हो बेरोकटोक कर सके। न अमेरिका से कहीं जाने में अड़चन। न वापस अमेरिका आने में अड़चन। 


आदर्श आदर्शवादी ठहरा। सिर्फ़ ग्रीनकार्ड के लिए किसी लड़की को धोखा नहीं दे सकता। जिसके साथ शादी करेगा उसी के साथ अपना जीवन बिताएगा। ग्रीनकार्ड पाने के बाद उसे छोड़ेगा नहीं। तलाक़ नहीं देगा। 


आँखों में जो सपना लेके आया था उसे सच करना आसान नहीँ था। इंसान सोचता कुछ है और होता कुछ और है। 


आदर्श के लिए शादी का मतलब जन्म जन्मांतर का साथ था। 6-7 साल बीत गए तब कहीं जाकर बामुश्किल आदर्श को ग्रीन कार्ड मिला । और इस दौरान ज़िंदगी की ठोकरों ने सब कुछ बदल दिया। वहाँ भी सीमा शादी कर चुकी थी। बच्चे भी हो गए थे। 


आज उसे अमेरिका आए 24 साल हो गए हैं। वह अपनी पत्नी शीला के साथ खुश है। 


स्नेहा से स्नेह आज भी है। और सीमा से असीम प्यार। 


सोचता रहता है क्या सही किया, क्या ग़लत किया। 


लेकिन इस बात पर उसे ज़रूर गर्व है कि उसने सिर्फ़ प्यार किया और कुछ न किया। 


















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25 जनवरी 2022

सिएटल 










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