वर्ष 2021 की सफलतम् फ़िल्म है अल्लु अर्जुन अभिनीत 'पुष्पा'।
वैसे सफलताओं के कई मापदंड है। थिएटर में कितनी कमाई हुई हैं। कितने थिएटर में कितनी कमाई हुई। कितने दिन में कितनी कमाई हुई। किस भाषा में कितनी कमाई हुई। वग़ैरह। वग़ैरह।
मूल फ़िल्म हिन्दी में नहीं है। हिन्दी में डब करने के बाद अब इंटरनेट पर देखी जा सकती है।
हिन्दी में डब करने से एक बात यह अच्छी हो गई कि कलाकारों के नाम आदि भी देवनागरी लिपि में हैं!
हिन्दी फ़िल्म वाले स्वयं इतने उदार नहीं है।
यहाँ तक कि हम हिन्दी भाषी भी अपने घर के आगे अपना नाम अंग्रेज़ी में ही लिखते हैं।
'पुष्पा' फ़िल्म को देखना इतना आसान नहीं है। यह अपने आप में एक नए प्रकार की फ़िल्म है। इसे आप गॉडफ़ादर से प्रभावित भी कह सकते हैं। और उससे भिन्न भी। हर मारधाड़ वाले सीन को आगे भी बढ़ा सकते हैं या उसकी हर फ़्रेम पर मंत्रमुग्ध हो सकते हैं। हर हीरोइज़्म वाले बड़बोले सीन पर हँस सकते हैं या ताली बजा सकते हैं।
दो-चार दृश्य असहनीय है। मूवी बंद करने को जी चाहता है। मैंने बंद की भी सही। दो दिन बाद फिर हिम्मत कर के वहीं से देखी जहाँ रोक दी थी। बहुत ही अच्छी लगी।
कहानी कोई नई नहीं है। वही घिसीपिटी। गरीब व्यक्ति। नाजायाज औलाद। क्रूर खलनायक। लाचार माँ। असहाय पिता।
फिर भी खिचड़ी नहीं है। पूरा महाभोज है।
हर दृश्य एक सुन्दर तस्वीर है। हर दृश्य से एक कविता फूटती है।
कुछ साधारण से हाव-भाव इतने प्रभावशाली बन पड़े हैं कि लगता ही नहीं है कि सोच-विचार कर जोड़े गए हैं।
पुष्पा का पाँव पर पाँव रख कर बैठना। (बचपन में भी ऐसे ही बैठना, जब उसे और उसकी माँ को उसका बड़ा भाई अपने घर से बेदख़ल कर देता है।) दाड़ी के नीचे से हाथ घुमाना। नाचते-नाचते चप्पल छूट जाना।
शेखावत को दमदार खलनायक बनाने से पुष्पा का भी क़द ऊँचा हुआ।
इतने ट्रक, इतनी लकड़ियाँ, इतनी लड़कियाँ, इतने मनोहारी दृश्य। ज़रूर कम्प्यूटर ग्राफ़िक्स का इस्तेमाल किया गया होगा। लेकिन बहुत ही रोमांचक दृश्य हैं।
पुष्पा को हिन्दी स्वर श्रेयस तलपड़े ने दिया है। यह जानकर बहुत ख़ुशी हुई। वे बहुत अच्छे अभिनेता भी है। और विडम्बना देखिए अपनी शुरुआत की फ़िल्म 'इक़बाल' में वे गूँगे थे। जैसे कि अमिताभ 'रेशमा और शेरा' में।
राहुल उपाध्याय । 24 जनवरी 2022 । सिएटल
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