Thursday, January 27, 2022

सुप्रीम कोर्ट

कई बार कई बातें इतनी साफ़ होते हुए भी समझ नहीं आतीं। और कई बार यह समझ में नहीं आता है कि जब सब बराबर है और संविधान में भी लिखा है कि सब बराबर है फिर यह क्यों सोचा जाता है कि अब तक कोई महिला अमेरिका की राष्ट्रपति क्यों नहीं बन सकी? और सब क्यों हाथ धो के पीछे पड़ जाते हैं कि इस बार तो बनना ही चाहिए। बहुत हो गया। जब तक ओबामा नहीं बनें, तब भी यह चर्चा का विषय था। जब कमला हैरिस उपराष्ट्रपति बनीं, तब फूलों की वर्षा की गई कि चलो यहाँ तक तो बात पहुँची। 


अब सुप्रीम कोर्ट के जज के पद पर इस तरह की चर्चा हो रही है। बाईडेन किसे जज बनाएँगे? सुनने में आया है कि जैसे उन्होंने उपराष्ट्रपति के लिए एक अश्वेत महिला का वादा किया था, और पूरा किया। वैसा ही कुछ जज के साथ भी होगा। 


क्यों? क्यों कोई किसी पद पर क़ाबिलियत के बल पर नहीं चुना जाता है? क्या कोटा भरना ज़रूरी है?


और एक और अजीब बात।  न सिर्फ़ लिंग और रंग देखा जाता है, बल्कि विचारधारा की और रूझान भी देखा जाता है। साफ़ शब्दों में कहूँ तो कांग्रेसी राष्ट्रपति कांग्रेसी जज को चुनेगा। भारतीय जनता पार्टी वाला अपना जज ढूँढेगा। और यह खुले आम होता है। ट्रम्प के शासनकाल के अंतिम महीनों में वे अपनी पसंद का जज बैठा कर चले गए। 


और एक और अजीब बात। जब कोई जज बन जाता है तो वो आजीवन उस पद पर आसीन रहता है। चाहे कुछ हो जाए। यदि 50 वर्षीय व्यक्ति को जज कोई बना दे तो अगले 40 साल तक वो आपके पक्ष में ही फ़ैसला लिखेगा। नौ जज होते हैं। एक भी कम-ज़्यादा हो जाए तो दूसरे पक्ष का पलड़ा भारी हो जाता है। 


अब जो भागा-दौड़ी हो रही है वह इसीलिए हो रही है कि एक जज साहब ने स्वेच्छा से सेवानिवृत्ति का फ़ैसला ले लिया है। तो उस पद को अब भरना है। बाईडेन के लिए यह सुनहरा मौक़ा है। 


ट्रम्प के समय में जज साहिबा की मृत्यु हो गई थी। इसलिए उन्हें भी एक मौक़ा मिल गया था। 


है ना अजीबोग़रीब बातें। 


मैं तो सोचता था कि अमेरिका में पिछले 200 साल से लोकतंत्र है यहाँ तो सब आँख मूँद कर होता होगा। लेकिन नहीं। यहाँ भी कुछ बातें समझ से परे हैं। 


यहाँ किसी भी मसले को सड़क पर नहीं अदालत में हल किया जाता है। समलैंगिक विवाह की मान्यता भी अदालत से ही ली गई। स्वेच्छा से गर्भपात होना चाहिए या नहीं, इसका निर्णय भी अदालत ही लेती है। मास्क पहनने चाहिए या नहीं, अदालत तय करती है। टीका लगाना है या नहीं, अदालत तय करती है।


इसीलिए जज की अहमियत यहाँ कई ज़्यादा है। 


जबकि जज को अपनी विचारधारा छोड़ क़ानून के मुताबिक़ फ़ैसला देना चाहिए। लेकिन नहीं। यहाँ विचारधारा ज़्यादा मायने रखते हैं। यदि जज गर्भपात के विरोध में है तो वह क़ानून की व्याख्या उसी सन्दर्भ में करेगा। क़ानून भी दूध का दूध और पानी का पानी नहीं करता। सब गड्डमड्ड होता रहता है। आज यह सही है तो कल यही ग़लत है। 


राहुल उपाध्याय । 27 जनवरी 2022 । सिएटल 






No comments: