Tuesday, May 16, 2023

द केरल स्टोरी - समीक्षा

द केरल स्टोरी - कोई स्टोरी नहीं है। कहानी नहीं है। सच्ची कहानियों पर आधारित एक फिल्म है जो कि फिल्म नहीं कही जा सकती है। यह कभी डाक्यूमेंटरी लगती है तो कभी नाटक तो कभी मज़ाक़। 


सच्ची घटनाएँ पर्दे पर रंग नहीं ला पाती हैं। उन्हें जीवंत करने के लिए किरदार जोड़े जाते हैं। उनका चरित्र तैयार किया जाता है। कसी हुई स्क्रिप्ट चाहिए। दमदार संवाद चाहिए। यही एक साहित्य, सिनेमा और कला की पहचान है। रामायण लिखने के लिए वाल्मीकि चाहिए। मानस लिखने के लिए तुलसीदास चाहिए। शोले के लिए सलीम-जावेद चाहिए। 


इस फिल्म की पूरी टीम बहुत कमजोर है। ऐसा लगता है जैसे कि हाई स्कूल के बच्चों ने बनाई हो। 


नाम केरल फ़ाइल्स भी हो सकता था। मैंने हिन्दी में देखी। लेकिन बीच-बीच में दूसरी भाषाएँ आती गईं। समझने में दिक़्क़त हुई। सबटाइटल पढ़ने पड़े। गीत भी पल्ले नहीं पड़े। 


फिल्म बनाने का मक़सद क्या है, समझ नहीं आया। मनोरंजन तो है नहीं। इस फिल्म की वजह से लड़कियाँ धर्मपरिवर्तन नहीं करेंगी ऐसा प्रतीत नहीं होता। धर्मपरिवर्तन का दायरा भी बहुत छोटा रखा गया। कोई पुरूष मुसलमान नहीं बनता है। पुरूष तो आतंकवाद में ज़्यादा कामयाब हो सकते हैं। उन्हें क्यों छोड़ दिया गया?


कश्मीर फाइल्स के मुक़ाबले इस फिल्म में कम हिंसा है, कम नफ़रत है। किंतु सेक्स ज़्यादा है। 


न देखें तो ही बेहतर है। कोई किताब पढ़ लें। 


राहुल उपाध्याय । 16 मई 2023 । सिएटल 





Thursday, May 4, 2023

बापू

मोहनदास के दफ़्तर के लोग उनके परिवार के सदस्य थे। वे सब बीच ग्रोव विला में ही रहते थे।  उन सबकी सेवा का ज़िम्मा गांधी भाई और कस्तूर का था। खाना, रहना, सोना, जागना सबकी देखभाल गांधी दम्पति करते थे। सबके कमरों में रात्रि में लघुशंका के लिए पॉट रखे जाते थे। बाथरूम दूरी पर था और सबके लिए वहाँ जाना संभव नहीं था। जाड़ों में वैसे भी कठिन होता था। पॉट साफ़ करने का काम मोहनदास करते थे। कस्तूर को यह अच्छा नहीं लगता था। उसका कहना था कि सबको अपना-अपना पॉट स्वयं साफ़ करना चाहिए। मोहन दास कहते थे एक तो वे हमारे मेहमान हैं। फिर यह भी तो सेवा का ही अंश है। 


"मेहमान एक दो दिन का होता है…।" 


मोहनदास को इस तरह की बातों पर बहस करना अच्छा नहीं लगता था। वे चुप लगा जाते थे। 


मोहनदास का एक क्लर्क था। वह पहले अछूत वर्ग का हिन्दू था। बाद में ईसाई हो गया था। धर्म बदलने से उसकी अस्पृश्यता दूर हो गई थी। एक दिन मोहनदास व्यस्त थे। उन्होंने कस्तूर से उसके कमरे का पॉट साफ़ करने के लिए कहा। 


कस्तूर ने अनसुना कर दिया। थोड़ी देर बाद मोहनदास ने देखा पॉट वैसा का वैसा ही रखा है। मोहनदास पहले तो पॉट ख़ाली करने के लिए बढ़े।    फिर रुक गए। 


मोहनदास ने कस्तूर से पूछा, "तुमने पॉट ख़ाली नहीं किया?"


कस्तूर काम करते-करते ही जवाब दिया, "नहीं।"


"क्यों?"


"मैं यह काम मैं नहीं करुँगी।"


"क्यों?"


"मैं अपना धर्म-कर्म नहीं बिगाड़ूँगी।"


"सेवा भी धर्म-कर्म" का ही हिस्सा है।"


"करने वाले पर है, वो कितनी सेवा करना चाहता है।"


"मेरे साथ रहना है तो तुम्हें सेवा का अंश बढ़ाना होगा।" धीरे-धीरे मोहनदास की आवाज़ सख़्त होती जा रही थी।  


"तुम मुझे क्या समझते हो?"


"तुम मेरी पत्नी हो…।"


"पत्नी या गिरमिटिया… गिरमिटिया की तो फिर भी लड़ाई लड़ते घूमते हो…।  कस्तूर की आवाज़ डूब गई थी।  


कस्तूर का जवाब मोहनदास को अपनी अवज्ञा की तरह लगा था। कस्तूर ख़ामोश हो गई थी।  


मोहनदास की पेशानी पर तनाव आ गया था। आँखों में जो सहजता रहती थी वह असहजता में बदल गई थी। मोहनदास और भी तेज आवाज़ में बोले, "मैंने कहा ना मेरे साथ रहना है तो तुम्हें सेवा को धर्म बनाना होगा और भेदभाव को दफ़न करना होगा। मेरा व्रत तुम्हारा होगा और तुम्हारा मेरा। तभी हम एक दूसरे के सुख के साथी बन पाएंगे।


हरि देख रहा था। वह पॉट की तरफ़ बढ़ा। मोहनदास तुरंत बोले, "नहीं, यह तुम्हारी बा को ही करना होगा।"


वह रूक गया। उसकी आँखें भर आयी थीं। मोहनदास ने एक बार फिर अपने क्रोध को संभाला,  "मैंने कितनी बार समझाया… काम कैसा भी हो ख़ुशी-ख़ुशी करना चाहिए।"


"काम के बारे में मुझे भी तय करने का अधिकार है। तुम अप्रिय काम करने को भी कहते हो… और यह भी चाहते हो कि मैं ख़ुशी-ख़ुशी करूँ। तुम्हारी पत्नी होने के साथ-साथ मेरी अपनी भी स्वतंत्रता है।"


"एक-तरफ़ा स्वतंत्रता अधिकार नहीं होता, उसका निर्णय कर्म करते हैं। घृणा और अहं स्वतंत्रता का नहीं परतंत्रता का रास्ता है।"


"मैंने कहा ना मैं पॉट साफ़ नहीं करूँगी।"


"तुम्हें करना पड़ेगा।"


"तुम क्यों नहीं उठा देते।"


"मैं तो रोज़ करता हूँ, तुम इस पॉट को साफ़ करके ही इस घर में रहोगी।"


"तो तुम इसके लिए मुझे घर से निकालोगे?"


"इसके लिए नहीं, तुम्हारे अंदर भरी दुर्भावना के लिए, ज़िद के लिए।"


"ज़िद क्या मेरी ही है?"


"तो तुम्हारा यही निश्चय है?" मोहनदास किचकिचा उठे। 


हरि के चेहरे पर घबराहट और परेशानी उभर आई थी। वह कुछ कहना चाह कर भी कुछ कह नहीं पा रहा था। 


"मैं फिर कहता हूँ, तुम इस घर में तभी रह पाओगी, जब तुम यह पॉट उठाओगी।"


"तो तुम मुझे घर से निकाल दोगे?"


"हाँ…"


हरि को रोना आ रहा था। 


कस्तूर बिफर कर बोली, "निकाल कर देखो।"


मोहनदास आपे से बाहर हो गए। वे दो डग भरकर कस्तूर के पास पहुँच गये और हाथ पकड़ कर घसीटते हुए दरवाज़े तक ले गए। मणि जग गया था। वह रोने लेगा। कस्तूर बोली, "पहले मेरी एक बात सुन लो।"


मोहनदास ठिठक गए। कस्तूर बोली, "तुम मेरे पति हो। तुम्हारे कारण मैं सात समंदर पार इस परदेस में आयी हूँ। यहाँ मेरा ना कोई जानने वाला है, न सम्बन्धी और ना माता-पिता। तुम ग़ुस्से से पागल हो। क्या तुमने सोचा, मैं इस परदेस में कहाँ जाऊंगी? लोग क्या कहेंगे कि और हिंदुस्तानियों की तरह तुमने भी अपनी पत्नी को घर से निकाल दिया। औरतों को सताने वाला गोरों का आरोप तुम अपने व्यवहार से सच साबित कर रहे हो।"


मोहनदास का हाथ रुक गया। वे दो क़दम पीछे हट गए। बच्चे डरे हुए खड़े थे। हरि के चेहरे पर विचित्र सा भाव था। उसने अपने बापू का यह रूप पहले कभी नहीं देखा था। उसके अंदर काँच की तस्वीर की तरह कुछ टूट रहा था। 


दोनों बच्चे माँ के पास आकर खड़े हो गए थे। 


मणि ने पूछा, "बाबू तुम्हें क्यों निकाल रहे हैं?" 


कस्तूर ने धीरे से कहा, "बापू भी आदमी ही है।"


"हमें बहुत डर लग रहा है।" मणि ही बोला। हरि की आँखों से टप-टप पानी टपकने लगा था। लेकिन वह ख़ामोश था। चेहरे पर उत्तेजना मिली असमर्थता थी। 


मोहनदास बाहर निकल गए। 


थोड़ी देर बाद लौटे। उसी लिबास में। वे कस्तूर के पास आकर खड़े हो गए। 


कस्तूर के कंधे पर हाथ रखकर बोले, "कस्तूर, तुमने और बच्चों ने मुझे हैवानियत से बचा लिया। मुझे दुख है मैंने तुम्हारे साथ ऐसा व्यवहार किया।"


कस्तूर ने कोई जवाब नहीं दिया। सिर्फ़ मोहनदास की तरह देखा। आँखों से दो आँसू टपक गए। अपने को संभालते हुए बोलीं, "मेरा तो कुछ नहीं, मैं तो वहाँ भी अकेली थी… यहाँ भी अकेली ही हूँ। इन बच्चों की बात है जो इतनी दूर अपने बापू की तलाश में आए थे… इन्हें बापू तो मिले… पर आधे-अधूरे।" 


उनसे बोला नहीं गया। मोहनदास ने कस्तूर का कंधा थपथपाया और बाहर निकल गए। बच्चे बा से और ज़्यादा सट गए थे। 


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गिरिराज किशोर के उपन्यास 'पहला गिरमिटिया' से। 

Tuesday, May 2, 2023

प्रकाश उपाध्याय

मानव के जीवन में भाग्य कब पलट जाए कह नहीं सकते। प्रकाश मामासाब टीचर की वेंकेसी समय पर नही भर पाए।  हुआ यूँ कि टीचर की भर्ती का फार्म भरकर सोहन मामासा को पोस्ट करने के लिए दिया किंतु वे भूल गए। हमारे नानाजी ने बहुत डांटा। लिखने-पढ़ने को शौक़ था। उन दिनों नई दुनिया में कोई व्यास पत्रकार काम करते थे। वे नई दुनिया छोडकर नई दिल्ली जा रहे थे। कहीं से पता चल गया और नई दुनिया के मालिक से संपर्क किया और नई दुनिया ज्वाईन कर लिया।  यह बात सन् 1953 की है। 

- ज्योति नारायण त्रिवेदी 

शिव शंकर मेहरा

शिव शंकर मेहरा

जन्म 25 दिसंबर 1945       

निधन 8 मार्च 2012


धामनोद वाले काकासाब का पूरा नाम शिवशंकर था। वे बाबूजी के मामा के बेटे थे। वे अपने पिता गोर्वधनलाल और माता नर्मदाबाई की इकलौती जीवित संतान थे। काकासाब का जन्म 25 दिसंबर 1945 को मध्यप्रदेश के धार जिले की बदनावर तहसील के किसी गांव में हुआ था जहां काकासाब के माता-पिता शिक्षक थे। काकासाब की माताजी नर्मदा बाई का उनके बचपन में ही कैंसर से निधन हो गया। तब हमारी दादी (जो काकासा की बुआ थी) उन्हें सैलाना ले आई। काकासाब ने प्राथमिक शिक्षा सैलाना में प्राप्त की। बाद में उनके पिता रतलाम ले गये। वे अपनी पत्नी के निधन के बाद रतलाम आ गये थे और बरवड़ हनुमान मंदिर में पुजारी बन गये। सन् 1966 में उच्चतर माध्यमिक विद्यालय तक की शिक्षा माणकचौक स्कूल रतलाम से प्राप्त की। बाद में पुनः सैलाना आ गये। लगभग 6 वर्ष तक दासाब की अखबार और स्कूल संचालन में मदद की। 21 जनवरी 1972 को दासाब के प्रयास से वे शासकीय प्राथमिक विद्यालय ग्राम हिंगडी तहसील आलोट जिला रतलाम में बतौर सहायक शिक्षक नियुक्त हुए। उनका विवाह हमारे रिश्ते में मौसाजी लगने वाले ग्राम ढाबलाधीर जिला कालापीपल निवासी जमनाप्रसाद जी शर्मा की भतीजी सुशीलादेवी के साथ मई 1973 में हुआ। काकीसाब के पिता मूल रुप से ग्राम मोलगा जिला ईछावर के निवासी थे। उनके निधन के बाद काकीसाब अपने चाचा जमनाप्रसादजी के पास ढाबला आ गयी थीं। और उनके काका ने ही उनका विवाह करवाया। काकासाब की दो पुत्रियाँ मीना और भावना है जो क्रमशः12 अक्टूबर 1974 और 13 अक्टूबर 1975 को जन्मीं। बाद में काकासाब ग्राम सुखेडा, बीटीआई पिपलौदा, बिबडोद आदि स्थानों पर पदस्थ रहने के पश्चात माह नवंबर 1977 में प्राथमिक विद्यालय धामनोद ट्रांसफ़र होकर आ गये तथा सेवानिवृत्ति दिनांक 31 दिसंबर 2007 तक इसी विद्यालय में कार्यरत रहे।   काकासाब बहुत ही मेहनती व्यक्ति थे। वे गरमी की छुट्टियों में आते तो दासाब और बाद में बाबूजी की अखबार/स्कूल संचालन में मदद करते। दीपावली अवकाश पर मम्मी का घर की साफ-सफाई, रंगने-पोतने के काम में हाथ बंटाते। हम सब भाई बहनों को घड़ी देखना, साईकल चलाना भी काकासाब ने सिखाया। तथा बीमार होने पर हम सबको काकासाब ही अस्पताल ले जाते थे। मैने काकासाब के साथ अनेक फिल्में रतलाम और सैलाना के टाकिज में  देखीं। काकासाब जब तक स्वस्थ रहे हमेशा साईकिल से सैलाना आते थे। मुझे याद नहीं कि काकासाब ने दासाब, बाई और बाबूजी की किसी बात को नहीं माना हो। उन्होंने कभी भी इनके आदेश की अवज्ञा नहीं की।  अपने जीवन के अंतिम दशक में वे काफ़ी बीमार रहे। काकीसाब ने उनकी बहुत सेवा की। वे अकेली ही काकासाब की बीमारी से जुझती रहीं। और अंततः 8 मार्च 2012 को धुलेंडी के दिन काकासाब का निधन हो गया। 


——

काकीसाब के पिताजी भी ग्राम मोलगा के संपन्न किसान थे खरीब ढाईसो बीघा जमीन थी उनका भी कैंसर से निधन होने पर सारी जमीन बिक गयी और काकीसाब को अपने  चाचा जो उनके पिता के दूर के रिश्ते के भाई थे के पास जाना पड़ा। 

उनके भाई जो बहुत छोटे थे को रिश्तेदारों ने बेवक़ूफ़ बनाकर आपस में लड़वाया और औने-पौने दाम पर सब जमीन खरीद ली। 


काकीसाब की बहिन भी थी। उनका किसी गांव के पोस्टमैन के साथ विवाह हुआ। भाई कहाँ है किसी को पता नहीं। 


- ज्योति नारायण त्रिवेदी

16 दिसम्बर 2020

हमारे फुफाजी अशोक कुमार जी आचार्य का जन्म 11 दिसंबर 1948 को रतलाम में हुआ था। फुफाजी का वास्तव में सरनेम मांवर है। उनके पिताजी को कोई उपाधि मिलने से सरनेम आचार्य हो गया। वे रतलाम से करीब 20 किमी दूर बदनावर रोड पर एक छोटे से गांव रेनमऊ के मूल निवासी है। आज भी फुफासा के भाई-बंधु रेनमऊ में रहते हैं। फुफाजी अपने पिता स्वर्गीय नंदकिशोरजी आचार्य, जिन्हें हम सब बासाब कहते थे, तथा माता स्वर्गीय रतनबाई की मझली संतान थे। उनकी माता रतनबाई का पीहर सैलाना में ही था।  रतनबाई सैलाना निवासी लेबर ऑफिसर रामचन्द्र दुबे की बहन थी। फुफाजी के एक बड़े भाई और एक छोटा भाई थे। बासाब नंदकिशोर जी तीन भाईयो में सबसे छोटे थे। बासाब सैलाना से मेट्रिक पास कर पश्चिम रेल्वे के रतलाम स्टेशन पर मालबाबू बन गये।  बासाब ने अपने बच्चों की आगे की पढाई के लिए परिवार को रतलाम शिफ्ट किया और बागड़ों के वास स्थित आनंद निवास में किराए से रहने लगे जिसे बाद में उन्होने खरीद लिया। फुफाजी की माता रतनबाई का उनके बचपन में निधन हो गया था। उनसे दस वर्ष बड़े भाई और भाभी तथा बासाब ने उनकी परवरिश की।  फुफासा अपने बड़े भाई  मणिशंकर जी आचार्य तथा भाभी विद्या जी को अपने माता-पिता मानते थे और इस रिश्ते को अंतिम समय तक निभाया।  वास्तव में इस घोर कलयुग में ऐसे दो भाई मिलना मुश्किल है जो एक दूसरे से इतने गहरे जुड़े हों। हमने भगवान राम और लक्ष्मण को नहीं देखा पर इन दो भाईयों देखकर लगता था कि ये दोनो भाई कलयुग के राम-लक्ष्मण ही थे। फुफाजी ने अपने बड़े भाई की दोनो बेटियों को भी अपनी बेटियों जैसा ही माना। फुफाजी की माध्यमिक स्कूल तक की शिक्षा राष्ट्रीय विद्या पीठ घास बाजार रतलाम में हुई। हायरसेकंडरी की शिक्षा माणक चौक स्कूल में प्राप्त करने के बाद शासकीय कला एवं विज्ञान महाविद्यालय रतलाम से विज्ञान संकाय में स्नातक की डिग्री प्राप्त करने के बाद सन् 1974 में नागदा ग्रेसिम मिल में बतौर सुपरवाईजर नियुक्त हुए। उनका विवाह 15 फरवरी 1976 को हमारी बुआ हिंदबाला बेन के साथ हुआ।  बुआजी बीएड करने के बाद जुलाई 1978 में प्राथमिक स्कूल नागदा में शिक्षिका बन गईं। बुआजी ने भी नौकरी के साथ ससुराल की ज़िम्मेदारियों को काफी अच्छे से निभाया। उन्होंने भी अपने जेठ-जेठानी को सास-ससुर ही माना और उनकी बेटियों को ननद। वे भी उनको भाभी ही कहती हैं। फुफाजी के चार बेटियां हैं। चारो बेटियां भी अपने ददिहाल और ननिहाल से मिले संस्कारो का पालन करते हुए काम कर रही हैं तथा घर की ज़िम्मेदारियाँ भी निभा रही हैं।  फुफासा ने सन् 2000 में वी-आर-एस लिया। चूँकि बुआजी अभी नौकरी में थी इसलिए नागदा में ही रहे। सन् 2017 में बुआजी के सेवानिवृत्त हो जाने के बाद परिवार का मोह रतलाम खींच लाया और दो साल पहले कस्तूरबा नगर सुंदरवन में मकान बनाया। उनका अपने परिवार से कितना लगाव था इससे पता चलता है कि पिछले साल पिंटू की शादी के बाद जब वे जाने लगे तब हम तीनों भाईयों को बुलाया और एक लाख रुपये देने की पेशकश की और कहा ये पैसे पिंटू की शादी के लिए ही रखे हैं। वापस नहीं लूँगा। हालांकि भाईसाब ने विनम्रतापूर्वक उनके अनुरोध.को ठुकरा दिया। आज के इस स्वार्थी युग में  सगा भाई भी अपने भाई के लिए एक पैसा नहीं निकालते हैं। फुफाजी ऐसा कैसे कर लेते थे इसका उत्तर कभी भी नहीं मिलेगा।  वास्तव में फुफाजी एक जांबाज और दिलदार व्यक्ति थे। बाबुजी के जाने के बाद आज ऐसा पहली बार लगा कि आज (16 दिसम्बर 2020) हमने भी अपने पिता जैसे व्यक्ति को खो दिया है

- ज्योति नारायण त्रिवेदी 

3 मई 2006

हमारे पिताजी को हम सब बाबुजी कहते थे। बाबुजी का पूरा नाम कैलाशनारायण था। बाबुजी का जन्म 17 जून 1934 को सैलाना में हुआ था। बाबुजी अपने माता पिता की सबसे बड़ी संतान थे।  बाबुजी की माध्यमिक स्कूल तक की शिक्षा सैलाना में हुई तथा मेट्रिक तक की शिक्षा सन् 1951 में अपने ताऊजी के घर रहकर मंदसौर से पूरी की।  सन् 1952 मे़ं वे सैलाना के पास  यग्राम अडवानिया में प्राथमिक स्कुल शिक्षक बन गये। सन् 1955 में पश्चिम रेलवे में स्टेशन मास्टर बन‌ गये। बाबुजी की रेलवे में पहली नियुक्ति गुजरात राज्य में बड़ौदा के पास ढबोई नामक स्थान पर हुई। बाद में वे पश्चिम रेलवे के रतलाम मंडल में पंचपिपलया, रूनखेड़ा, खाचरोद, जावरा, नागदा, बांगरोद, बेडावन्या आदि स्टेशनों पर पदस्थ रहते हुए सन 1982 मे़ं स्वेच्छा से सेवानिवृत्ति ले ली। यह बात सुनने में ही अविश्वसनीय लगती है कि कोई बेटा अपने पिता को विश्राम देने के लिये लगी लगाई सरकारी नौकरी, वो भी रेलवे की, छोड़कर घर आ जाए। यह अविश्वसनीय घटना घटी 19 अक्टुबर 1982 को।  उस दिन बाबुजी की माताजी, हमारी दादीजी, का अकस्मात निधन हो गया। उनका पार्थिव देह रात्रि में घर लाया गया। उस रात्रि को ही हमारे दादाजी ने अपनी सेवानिवृत्ति की घोषणा कर दी और बाबुजी को उनके सारे कार्यों को करने का आदेश दिया। बाबुजी ने उनके आदेश को शिरोधार्य कर रेलवे से सेवानिवृत्ति ले ली और अपने पिता काम संभाला।  उसस मय नौकरी करना राज करने जैसा हुआ करता था। पर बाबुजी ने राज करने के बजाय अपने पिता को विश्राम देने की पुनीत और कठिन जिम्मेदारी निभाई। उनके पिता प्रजामंडल के जमाने के स्वतंत्रता संग्रामके सेनानी थे तथा सन् 1936 से निजी विद्यालय संचालित कर रहे थे। वे सन् 1947 से ही नईदुनिया सहित अनेक पत्र-पत्रिकाओं से सम्बन्धित थे। साथ ही वे अनेक सामाजिक संगठनों से भी जुड़े थे। बाबुजी ने उनके सारे क्रियाकलापों को जस का तस स्वीकार कर बिना किसी घालमेल के उन्हें निरंतर बनाए रखा। बाबुजी के इरादे नेक थे। अतः भगवान ने भी उनकी मदद की तथा वे शीघ्र ही सैलाना के शिक्षा, पत्रकारिता और समाजसेवा क्षेत्र के स्तंभ बन गये। उन्हें सैलाना ही नहीं पूरा अंचल बाबुजी कहता था। वे त्रिवेदीजी से बाबुजी कब और कैसे बने कोई नहीं जानता। शायद बाबुजी को इस संबोधन यात्रा का उद्गम ज्ञात नहीं होगा। बाबुजी ने सैलाना में प्रेसक्लब की स्थापना की और अंत तक व्यवहारिक अध्यक्ष बने रहे। सनाढ्य ब्राह्मण समाज मंदिर के भी अंत समय तक अध्यक्ष बने रहे। उन्होंने शांतिवन जीर्णोद्धार का बीड़ा उठाया और अपने विश्वसनीय साथियों की टीम बनाकर उसका कायाकल्प कर दिया। उन्होंने शांतिवन में पौधे रोपे और प्रतिदिन चार किलोमीटर दूर सायकल से पौधों को‌ पानी पिलाने जाते थे। आज हरा-भरा शांतिवन अंतिम यात्रा में सम्मिलित होने वाले लोगों को सुकून दे रहा है नईदुनिया अखबार के माध्यम से जनहितैषी समाचारों को छापने से कभी गुरेज नहीं किया। सैलाना नल जल योजना के सुचारू क्रियान्वयन के लिये पी-एच-ई से लेकरनगर परिषद को सौपने के लिये उन्होंने अखबार के माध्यम से शासन तक बात पहुंचाई। नगर परिषद को जलप्रदान का कार्य सौपने से आज लोगों के घर में‌ नियमित जलप्रदान हो रहा है।  सैलाना बायपास के लिये काफी लंबे समय तक शासन का ध्यान अपने अखबार के माध्यम से आकर्षित किया। बायपास बनने से सैलाना की यातायात व्यवस्था काफी बेहतर हुई है। रेलवे के नियम के अनुसार बाबुजी को प्रथम श्रेणी पास की सुविधा थी किंतु रेलवे छोड़ने के बाद उन्होंने एक बार भी इसका उपयोग नहीं किया। मुफ्तखोरी के इस जमाने में बाबुजी ऐसा कैसे कर लेते थे इसका उत्तर कभी नहीं मिलेगा। उन्हें लोगों का सम्मान और लाड़ प्यार मिला और खूब मिला क्योंकि वे सबको अपने मन की तलहटी से सम्मान और प्यार देते थे।   हम सबको भी बाबुजी ने अनुशासन में रहकर ईमानदारी से कार्य करने की प्रेरणा दी। आइये सब आज उनकी पुण्यतिथि के अवसर पर उनके बताए हुए मार्ग पर चलने की प्रतिज्ञा ले।