Thursday, May 4, 2023

बापू

मोहनदास के दफ़्तर के लोग उनके परिवार के सदस्य थे। वे सब बीच ग्रोव विला में ही रहते थे।  उन सबकी सेवा का ज़िम्मा गांधी भाई और कस्तूर का था। खाना, रहना, सोना, जागना सबकी देखभाल गांधी दम्पति करते थे। सबके कमरों में रात्रि में लघुशंका के लिए पॉट रखे जाते थे। बाथरूम दूरी पर था और सबके लिए वहाँ जाना संभव नहीं था। जाड़ों में वैसे भी कठिन होता था। पॉट साफ़ करने का काम मोहनदास करते थे। कस्तूर को यह अच्छा नहीं लगता था। उसका कहना था कि सबको अपना-अपना पॉट स्वयं साफ़ करना चाहिए। मोहन दास कहते थे एक तो वे हमारे मेहमान हैं। फिर यह भी तो सेवा का ही अंश है। 


"मेहमान एक दो दिन का होता है…।" 


मोहनदास को इस तरह की बातों पर बहस करना अच्छा नहीं लगता था। वे चुप लगा जाते थे। 


मोहनदास का एक क्लर्क था। वह पहले अछूत वर्ग का हिन्दू था। बाद में ईसाई हो गया था। धर्म बदलने से उसकी अस्पृश्यता दूर हो गई थी। एक दिन मोहनदास व्यस्त थे। उन्होंने कस्तूर से उसके कमरे का पॉट साफ़ करने के लिए कहा। 


कस्तूर ने अनसुना कर दिया। थोड़ी देर बाद मोहनदास ने देखा पॉट वैसा का वैसा ही रखा है। मोहनदास पहले तो पॉट ख़ाली करने के लिए बढ़े।    फिर रुक गए। 


मोहनदास ने कस्तूर से पूछा, "तुमने पॉट ख़ाली नहीं किया?"


कस्तूर काम करते-करते ही जवाब दिया, "नहीं।"


"क्यों?"


"मैं यह काम मैं नहीं करुँगी।"


"क्यों?"


"मैं अपना धर्म-कर्म नहीं बिगाड़ूँगी।"


"सेवा भी धर्म-कर्म" का ही हिस्सा है।"


"करने वाले पर है, वो कितनी सेवा करना चाहता है।"


"मेरे साथ रहना है तो तुम्हें सेवा का अंश बढ़ाना होगा।" धीरे-धीरे मोहनदास की आवाज़ सख़्त होती जा रही थी।  


"तुम मुझे क्या समझते हो?"


"तुम मेरी पत्नी हो…।"


"पत्नी या गिरमिटिया… गिरमिटिया की तो फिर भी लड़ाई लड़ते घूमते हो…।  कस्तूर की आवाज़ डूब गई थी।  


कस्तूर का जवाब मोहनदास को अपनी अवज्ञा की तरह लगा था। कस्तूर ख़ामोश हो गई थी।  


मोहनदास की पेशानी पर तनाव आ गया था। आँखों में जो सहजता रहती थी वह असहजता में बदल गई थी। मोहनदास और भी तेज आवाज़ में बोले, "मैंने कहा ना मेरे साथ रहना है तो तुम्हें सेवा को धर्म बनाना होगा और भेदभाव को दफ़न करना होगा। मेरा व्रत तुम्हारा होगा और तुम्हारा मेरा। तभी हम एक दूसरे के सुख के साथी बन पाएंगे।


हरि देख रहा था। वह पॉट की तरफ़ बढ़ा। मोहनदास तुरंत बोले, "नहीं, यह तुम्हारी बा को ही करना होगा।"


वह रूक गया। उसकी आँखें भर आयी थीं। मोहनदास ने एक बार फिर अपने क्रोध को संभाला,  "मैंने कितनी बार समझाया… काम कैसा भी हो ख़ुशी-ख़ुशी करना चाहिए।"


"काम के बारे में मुझे भी तय करने का अधिकार है। तुम अप्रिय काम करने को भी कहते हो… और यह भी चाहते हो कि मैं ख़ुशी-ख़ुशी करूँ। तुम्हारी पत्नी होने के साथ-साथ मेरी अपनी भी स्वतंत्रता है।"


"एक-तरफ़ा स्वतंत्रता अधिकार नहीं होता, उसका निर्णय कर्म करते हैं। घृणा और अहं स्वतंत्रता का नहीं परतंत्रता का रास्ता है।"


"मैंने कहा ना मैं पॉट साफ़ नहीं करूँगी।"


"तुम्हें करना पड़ेगा।"


"तुम क्यों नहीं उठा देते।"


"मैं तो रोज़ करता हूँ, तुम इस पॉट को साफ़ करके ही इस घर में रहोगी।"


"तो तुम इसके लिए मुझे घर से निकालोगे?"


"इसके लिए नहीं, तुम्हारे अंदर भरी दुर्भावना के लिए, ज़िद के लिए।"


"ज़िद क्या मेरी ही है?"


"तो तुम्हारा यही निश्चय है?" मोहनदास किचकिचा उठे। 


हरि के चेहरे पर घबराहट और परेशानी उभर आई थी। वह कुछ कहना चाह कर भी कुछ कह नहीं पा रहा था। 


"मैं फिर कहता हूँ, तुम इस घर में तभी रह पाओगी, जब तुम यह पॉट उठाओगी।"


"तो तुम मुझे घर से निकाल दोगे?"


"हाँ…"


हरि को रोना आ रहा था। 


कस्तूर बिफर कर बोली, "निकाल कर देखो।"


मोहनदास आपे से बाहर हो गए। वे दो डग भरकर कस्तूर के पास पहुँच गये और हाथ पकड़ कर घसीटते हुए दरवाज़े तक ले गए। मणि जग गया था। वह रोने लेगा। कस्तूर बोली, "पहले मेरी एक बात सुन लो।"


मोहनदास ठिठक गए। कस्तूर बोली, "तुम मेरे पति हो। तुम्हारे कारण मैं सात समंदर पार इस परदेस में आयी हूँ। यहाँ मेरा ना कोई जानने वाला है, न सम्बन्धी और ना माता-पिता। तुम ग़ुस्से से पागल हो। क्या तुमने सोचा, मैं इस परदेस में कहाँ जाऊंगी? लोग क्या कहेंगे कि और हिंदुस्तानियों की तरह तुमने भी अपनी पत्नी को घर से निकाल दिया। औरतों को सताने वाला गोरों का आरोप तुम अपने व्यवहार से सच साबित कर रहे हो।"


मोहनदास का हाथ रुक गया। वे दो क़दम पीछे हट गए। बच्चे डरे हुए खड़े थे। हरि के चेहरे पर विचित्र सा भाव था। उसने अपने बापू का यह रूप पहले कभी नहीं देखा था। उसके अंदर काँच की तस्वीर की तरह कुछ टूट रहा था। 


दोनों बच्चे माँ के पास आकर खड़े हो गए थे। 


मणि ने पूछा, "बाबू तुम्हें क्यों निकाल रहे हैं?" 


कस्तूर ने धीरे से कहा, "बापू भी आदमी ही है।"


"हमें बहुत डर लग रहा है।" मणि ही बोला। हरि की आँखों से टप-टप पानी टपकने लगा था। लेकिन वह ख़ामोश था। चेहरे पर उत्तेजना मिली असमर्थता थी। 


मोहनदास बाहर निकल गए। 


थोड़ी देर बाद लौटे। उसी लिबास में। वे कस्तूर के पास आकर खड़े हो गए। 


कस्तूर के कंधे पर हाथ रखकर बोले, "कस्तूर, तुमने और बच्चों ने मुझे हैवानियत से बचा लिया। मुझे दुख है मैंने तुम्हारे साथ ऐसा व्यवहार किया।"


कस्तूर ने कोई जवाब नहीं दिया। सिर्फ़ मोहनदास की तरह देखा। आँखों से दो आँसू टपक गए। अपने को संभालते हुए बोलीं, "मेरा तो कुछ नहीं, मैं तो वहाँ भी अकेली थी… यहाँ भी अकेली ही हूँ। इन बच्चों की बात है जो इतनी दूर अपने बापू की तलाश में आए थे… इन्हें बापू तो मिले… पर आधे-अधूरे।" 


उनसे बोला नहीं गया। मोहनदास ने कस्तूर का कंधा थपथपाया और बाहर निकल गए। बच्चे बा से और ज़्यादा सट गए थे। 


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गिरिराज किशोर के उपन्यास 'पहला गिरमिटिया' से। 

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