Tuesday, October 19, 2021

चंद्रशेखर सीमा

जन्म जिसका हुआ है, उसका मरण भी निश्चित है। सब जानते हैं। सब मानते हैं। 


जब तक सूरज-चाँद रहेगा, जग में तेरा नाम रहेगा। 


यह नारा भी यही दर्शाता है कि सूरज-चाँद सदा नहीं रहेंगे। 


लेकिन कई लोग सोच नहीं पाते हैं कि सूरज भी एक दिन ख़त्म हो जाएगा। लेकिन यह सच है कि सूरज भी एक दिन चमकना बंद कर देगा। 


सूरज एक तारा है। हमारे क़रीब है इसलिए ज़्यादा बड़ा और ज़्यादा प्रकाशवान दिखता है। 


सारे तारे नश्वर हैं। 


19 वर्ष की आयु में, सन् 1930 में, सुब्रमण्यम चंद्रशेखर ने एक सीमा की गणना की थी, जिससे ज़्यादा अगर किसी तारे का वजन है तो वह मरते वक्त  ब्लैक होल में तब्दील हो सकता है। इसे 'चन्द्रशेखर सीमा' कहते हैं। 


इस बात को उस वक्त के स्थापित वैज्ञानिक एडिंग्टन ने बकवास ठहराया। ब्लैक होल जैसी कल्पना प्रकृति के प्रति उनको मज़ाक़ लगा। 


लिहाज़ा इस सीमा का संज्ञान 53 वर्ष बाद चंद्रशेखर को नोबेल पुरस्कार देकर लिया गया। 


तब वे 72 वर्ष के थे। 


यह वाक़या दुखद भी है और सुखद भी। 


दुखद इसलिए कि एक युवा वैज्ञानिक के शोध को युवावस्था में बकवास ठहराया गया। सारा जीवन इस उपलब्धि से वह वंचित रहा। 


सुखद इसलिए कि वह नवयुवक हताश नहीं हुआ। वह शोध करता रहा। किताबें लिखता रहा। 


सुखद इसलिए भी कि उसके समर्थक उसे भूले नहीं और देर-सवेर उसे नोबेल पुरस्कार दिलवा कर ही रहें। 


नोबेल पुरस्कार मिलना इतना आसान नहीं है। हर वर्ष कई उम्मीदवार होते हैं। उनमें से एक चुनना बहुत कठिन होता है। 


आज, 19 अक्टूबर, के दिन चन्द्रशेखर का जन्म हुआ था। 


इस सीमा की अधिक जानकारी के लिए यह वीडियो देखें:

https://youtu.be/ZjDdMnuPQ5w


राहुल उपाध्याय । 19 अक्टूबर 2021 । सिएटल 







Sunday, October 17, 2021

भारत - 2021

मुझे, दिनांक अच्छी तरह से याद रहते हैं। लेकिन इस बार की भारत यात्रा इतनी तेज़ रफ़्तार से गुजरी कि बार-बार सोचना पड़ रहा है कि मैं कब कहाँ था, और कब कहाँ से कहाँ गया। 


फ़ोटो में दिनांक और समय होते हैं तो खोजबीन में ज़्यादा समय नहीं लगता है। 


जब मम्मी मेरे साथ अमेरिका आई तो लगा अब भारत में कुछ नहीं रखा है वापस आने के लिए। जब भी मम्मी की किसी से बात होती थी, सब उनसे भारत आने का कहते थे। मैंने उनका ग्रीन कार्ड इसीलिए बनवाया था कि वे अमेरिका में आराम से रह सकें। इस उम्र में और कमज़ोर अवस्था में वे लंबा सफ़र तय नहीं कर सकती थीं। 


मेरे भी कुछ परिचित थे जिनसे मैं कभी मिला नहीं पर वे मिलना चाहते थे और मुझे बुलाते थे लेकिन मैं मम्मी को छोड़कर कहीं नहीं जाना चाहता था। मम्मी के बाद की कभी सोची नहीं। 


मम्मी के गुज़रने पर भी मैं दाह संस्कार तक ही सोच पाया। फ्यूनरल होम वाले 

सज्जन ने कहा कि अस्थियाँ कहाँ ले जाओगे? भारत ले जानी हो तो भारत सरकार की अनुमति लेने में समय लगेगा। तब मैं सोच में पड़ गया और हरिद्वार गंगा में प्रवाहित करने का निर्णय लिया। 


अनुमति मिलते ही रवाना हो गया। रीत भी है कि अस्थियाँ यहाँ-वहाँ न भटकें एवं सीधे हरिद्वार ले जाईं जाए। बातों-बातों में टैक्सी का इंतज़ाम हो गया। जो स्वेच्छा से जुड़ना चाहते थे, जुड़ गए। उसमें उल्लेखनीय है कि बिना अग्रिम सूचना के गांधीनगर (गुजरात) से अजय, प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश) से बृजेश, एवं सागर से ओंकार सम्मिलित हो गए। और वापस लौट भी गए। जैसी भी ट्रेन मिली उससे। इतना अपनापन, इतना लगाव आज के जीवन में दुर्लभ है। 


उसके बाद क्या करना है कुछ पक्का नहीं था। वापस जाने की तिथि दो व्यक्तियों के जन्मदिन की तिथियों के बाद की थी। सोचा था मौक़ा है क्यों न फ़ोन पर बधाई एवं शुभकामनाएँ देने के बजाए साथ में ही दोनों जन्मदिन मना कर वापस अमेरिका जाऊँ। 


तब तक क्या करूँगा? मम्मी की दो बहनें, मेरी मासीजी, दोनों से मिलना ज़रूरी समझा। जहाँ-जहाँ परिजन गुज़र गए, वहाँ भी शोकाकुल परिवार से मिलना ज़रूरी समझा। 


बाक़ी वक्त उनसे मिलना ज़रूरी समझा जो मेरे सुख-दुख के वक्त मेरे साथ थे। दूर थे, मगर पास थे। 


इन्हीं सब को सोचते हुए मैं भोपाल, पीथमपुर, इन्दौर, रतलाम, सैलाना, शिवगढ़, उज्जैन, तराना, उदयपुर, प्रयागराज गया। 


सब जगह असीम प्रेम मिला। अपनापन लगा। कुछ लोगों से जीवन में पहली बार मिला। लेकिन लगा ही नहीं कि पहली बार मिला। 


कहीं कुछ लेकर नहीं गया। सिवाय प्रेम, प्यार, सद्‌भाव के। कहीं कुछ देकर नहीं आया। सिवाय प्रेम, प्यार, सद्‌भाव के। 


हो सकता है मेरे बारे में पीठ पीछे बातें हुई हो कि व्यावहारिकता के नाम पर यह इंसान शून्य है। न पैसे, न मिठाई, न फल, न फूल! कुछ भी नहीं! हाथ हिलाते हुए, बिन बताए आता है और वैसे ही चले जाता है। 


यदि सम्बन्ध देन-लेन से बनते हो तो ऐसे सम्बन्ध न बनें तो ही अच्छा। 


जहाँ-जहाँ से मैं किसी लम्बी यात्रा पर निकला, सबने प्रेम पूर्वक रास्ते के लिए सुन्दर और स्वादिष्ट भोजन बाँधा और मैंने प्रेम से ग्रहण किया। 


तरूण ने तो अखरोट का एक पैकेट भी साथ रख दिया कि कहाँ-कहाँ ढूँढते फिरोगे। बबली और जया ने सुबह पालक आदि का जूस तैयार किया जबकि हज़ारों और काम भी करने होते हैं। नेपथ्य में भंसाली ने जब, जहाँ का, जिस भी ट्रेन का टिकट चाहा, तुरंत बना कर दिया। तरूण के सिम ने मेरी आधी रात की मीटिंग बिना किसी रूकावट के चलने दी।


नूतन ने अमेरिका के लिए बहुत सारा भोजन बाँधा। वन्दना ने प्रयागराज के लिए।  मधु ने इन्दौर के लिए। हर तरफ़ आनन्द ही आनन्द। मासीजी और मीनू दिन भर आगे-पीछे ये खा लूँ, वो खा लूँ। 


जहाँ-जहाँ मैं रात रूका, सबने मेरा भरपूर ख़्याल रखा। मैं आत्मनिर्भर इंसान हूँ पर स्नेह के आगे झुकना पड़ा। नूतन और मीना ने मना करने पर भी मेरे शर्ट पर प्रेस की। अखरोट भिगोए। दही जमाया। 


सैलाना में रेखा की बनिस्बत ज़िन्दगी में पहली बार ड्रेगन फ़्रूट खाया। भोपाल में रेखा जी की बदौलत ज़िन्दगी में पहली बार पेशन फ़्रूट खाया। 


दिल्ली में अंकित सुबह पौने छ: पर मुझे स्टेशन लेने आया। भोपाल में सुबह पौने पाँच बजे रवि जी एवं रेखा जी मुझे स्टेशन लेने आए। मधु सपरिवार स्टेशन पर लेने और छोड़ने आई। बबली, जया और सुदर्श भी। 


अधिकांश जगह मैं सुबह गया और शाम वापस लौट आया। रात नहीं रूका। रात रूकने की योजना बनाई थी, दिल्ली में तरूण के यहाँ ( 21 सितम्बर), भोपाल में रवि जी एवं रेखा जी के यहाँ (23 और 24)। पीथमपुर में सुहानी के यहाँ (25, 26, 27, और 28)। रतलाम में बबली के यहाँ (29, 30, और 1, 4, 5, 10, 11, 12 अक्टूबर)। उदयपुर में राकेश के यहाँ (6)। प्रयागराज में मधु के यहाँ (8) । दिल्ली में मीनू के यहाँ (14 और 15)


उज्जैन से तराना जाने में वक्त लग गया। वापस रतलाम आने का कोई रास्ता न था। मैं बिना तैयारी के निकल गया था। रतलाम से निकलते वक्त लग रहा था कि रात को शायद वापस न आ पाऊँ। बबली ने कहा भी कि कुछ कपड़े साथ रख लो। मुझे ज़्यादा ताम-झाम साथ लेकर चलना पसन्द नहीं। सोचा जहाँ रूकूँगा वहीं से शर्ट ख़रीद लूँगा। भोपाल में भी दो शर्ट ख़रीदें थे। टी-शर्ट और शार्ट्स भी रात को सोने के लिए। टूथब्रश वग़ैरह तो हमेशा बैकपैक में रहते हैं, पानी की बोतल, तीन चार्जर और एक पॉवर पैक के साथ। 


2 अक्टूबर को तराना पहुँचते-पहुँचते रात हो गई। बाज़ार भी बंद सा था। सो पंकज के कपड़े रात में पहने। दूसरे दिन उसका एक बढ़िया सा शर्ट पहनकर इन्दौर गया। एकदम फ़िट। अब वो मेरा हो गया है। दिया कुछ नहीं, ले ज़रूर आया। 


3 अक्टूबर को इन्दौर में भी संगीता ने बिलकुल नया शानदार शर्ट दिया। यह भी एकदम फ़िट। रात घनश्याम जी के यहाँ गुज़ारी। तीन दशक बाद मिलना हुआ। 


दिल्ली में हरभजन सिंह जी, एवं ओम सपरा जी के साथ एक यादगार मुलाक़ात हुई। 


भोपाल में आत्माराम जी से संक्षिप्त मुलाक़ात हुई। 


आरिफ़ जी से और उनके परिवार से दो बार पूरी आत्मीयता से मिला। 


बहुत मिलना-जुलना हुआ। फिर भी मंदसौर और नागदा जाना रह गया। भोपाल दोबारा जाना था। नहीं जा पाया। प्रतापगढ़ भी छूट गया। पलवल भी जाना है। मुम्बई, सागर, लखनऊ, मैंगलोर और हैदराबाद का न्योता स्वीकार न सका। दिल्ली में कुछ लोगों से मिलना रह गया। 


शायद अगली बार। 


मम्मी की तेरहवीं सिएटल में की थी। सैलाना में जिस मंदिर को मम्मी ने बनवाया था, उस मन्दिर में सीमा ने भी तेरहवीं की थी। मैं भी चाहता था कि मेरी इस प्रथम यात्रा में कोई कार्यक्रम हो जाए। सीमा और पंडित जी से बात करने पर तय हुआ कि पितृ पक्ष की अमावस्या  के दिन एक हवन कर लिया जाए। उस दिन मम्मी को गुज़रे हुए दो महीने भी हो रहे थे। सो 6 अक्टूबर को वह कार्य सम्पन्न हुआ। 


जुलाई में सैलाना में बरसी करने का मन है। 


राहुल उपाध्याय । 17 अक्टूबर 2021 । शिकागो






भारत 2021

मुझे, दिनांक अच्छी तरह से याद रहते हैं। लेकिन इस बार की भारत यात्रा इतनी तेज़ रफ़्तार से गुजरी कि बार-बार सोचना पड़ रहा है कि मैं कब कहाँ था, और कब कहाँ से कहाँ गया। 


फ़ोटो में दिनांक और समय होते हैं तो खोजबीन में ज़्यादा समय नहीं लगता है। 


जब मम्मी मेरे साथ अमेरिका आई तो लगा अब भारत में कुछ नहीं रखा है वापस आने के लिए। जब भी मम्मी की किसी से बात होती थी, सब उनसे भारत आने का कहते थे। मैंने उनका ग्रीन कार्ड इसीलिए बनवाया था कि वे अमेरिका में आराम से रह सकें। इस उम्र में और कमज़ोर अवस्था में वे लंबा सफ़र तय नहीं कर सकती थीं। 


मेरे भी कुछ परिचित थे जिनसे मैं कभी मिला नहीं पर वे मिलना चाहते थे और मुझे बुलाते थे लेकिन मैं मम्मी को छोड़कर कहीं नहीं जाना चाहता था। मम्मी के बाद की कभी सोची नहीं। 


मम्मी के गुज़रने पर भी मैं दाह संस्कार तक ही सोच पाया। फ्यूनरल होम वाले 

सज्जन ने कहा कि अस्थियाँ कहाँ ले जाओगे? भारत ले जानी हो तो भारत सरकार की अनुमति लेने में समय लगेगा। तब मैं सोच में पड़ गया और हरिद्वार गंगा में प्रवाहित करने का निर्णय लिया। 


अनुमति मिलते ही रवाना हो गया। रीत भी है कि अस्थियाँ यहाँ-वहाँ न भटकें एवं सीधे हरिद्वार ले जाईं जाए। बातों-बातों में टैक्सी का इंतज़ाम हो गया। जो स्वेच्छा से जुड़ना चाहते थे, जुड़ गए। उसमें उल्लेखनीय है कि बिना अग्रिम सूचना के गांधीनगर (गुजरात) से अजय, प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश) से बृजेश, एवं सागर से ओंकार सम्मिलित हो गए। और वापस लौट भी गए। जैसी भी ट्रेन मिली उससे। इतना अपनापन, इतना लगाव आज के जीवन में दुर्लभ है। 


उसके बाद क्या करना है कुछ पक्का नहीं था। वापस जाने की तिथि दो व्यक्तियों के जन्मदिन की तिथियों के बाद की थी। सोचा था मौक़ा है क्यों न फ़ोन पर बधाई एवं शुभकामनाएँ देने के बजाए साथ में ही दोनों जन्मदिन मना कर वापस अमेरिका जाऊँ। 


तब तक क्या करूँगा? मम्मी की दो बहनें, मेरी मासीजी, दोनों से मिलना ज़रूरी समझा। जहाँ-जहाँ परिजन गुज़र गए, वहाँ भी शोकाकुल परिवार से मिलना ज़रूरी समझा। 


बाक़ी वक्त उनसे मिलना ज़रूरी समझा जो मेरे सुख-दुख के वक्त मेरे साथ थे। दूर थे, मगर पास थे। 


इन्हीं सब को सोचते हुए मैं भोपाल, पीथमपुर, इन्दौर, रतलाम, सैलाना, शिवगढ़, उज्जैन, तराना, उदयपुर, प्रयागराज गया। 


सब जगह असीम प्रेम मिला। अपनापन लगा। कुछ लोगों से जीवन में पहली बार मिला। लेकिन लगा ही नहीं कि पहली बार मिला। 


कहीं कुछ लेकर नहीं गया। सिवाय प्रेम, प्यार, सद्‌भाव के। कहीं कुछ देकर नहीं आया। सिवाय प्रेम, प्यार, सद्‌भाव के। 


हो सकता है मेरे बारे में पीठ पीछे बातें हुई हो कि व्यावहारिकता के नाम पर यह इंसान शून्य है। न पैसे, न मिठाई, न फल, न फूल! कुछ भी नहीं! हाथ हिलाते हुए, बिन बताए आता है और वैसे ही चले जाता है। 


यदि सम्बन्ध देन-लेन से बनते हो तो ऐसे सम्बन्ध न बनें तो ही अच्छा। 


जहाँ-जहाँ से मैं किसी लम्बी यात्रा पर निकला, सबने प्रेम पूर्वक रास्ते के लिए सुन्दर और स्वादिष्ट भोजन बाँधा और मैंने प्रेम से ग्रहण किया। 


तरूण ने तो अखरोट का एक पैकेट भी साथ रख दिया कि कहाँ-कहाँ ढूँढते फिरोगे। बबली और जया ने सुबह पालक आदि का जूस तैयार किया जबकि हज़ारों और काम भी करने होते हैं। नेपथ्य में भंसाली ने जब, जहाँ का, जिस भी ट्रेन का टिकट चाहा, तुरंत बना कर दिया। तरूण के सिम ने मेरी आधी रात की मीटिंग बिना किसी रूकावट के चलने दी।


नूतन ने अमेरिका के लिए बहुत सारा भोजन बाँधा। वन्दना ने प्रयागराज के लिए।  मधु ने इन्दौर के लिए। हर तरफ़ आनन्द ही आनन्द। मासीजी और मीनू दिन भर आगे-पीछे ये खा लूँ, वो खा लूँ। 


जहाँ-जहाँ मैं रात रूका, सबने मेरा भरपूर ख़्याल रखा। मैं आत्मनिर्भर इंसान हूँ पर स्नेह के आगे झुकना पड़ा। नूतन और मीना ने मना करने पर भी मेरे शर्ट पर प्रेस की। अखरोट भिगोए। दही जमाया। 


सैलाना में रेखा की बनिस्बत ज़िन्दगी में पहली बार ड्रेगन फ़्रूट खाया। भोपाल में रेखा जी की बदौलत ज़िन्दगी में पहली बार पेशन फ़्रूट खाया। 


दिल्ली में अंकित सुबह पौने छ: पर मुझे स्टेशन लेने आया। भोपाल में सुबह पौने पाँच बजे रवि जी एवं रेखा जी मुझे स्टेशन लेने आए। मधु सपरिवार स्टेशन पर लेने और छोड़ने आई। बबली, जया और सुदर्श भी। 


अधिकांश जगह मैं सुबह गया और शाम वापस लौट आया। रात नहीं रूका। रात रूकने की योजना बनाई थी, दिल्ली में तरूण के यहाँ ( 21 सितम्बर), भोपाल में रवि जी एवं रेखा जी के यहाँ (23 और 24)। पीथमपुर में सुहानी के यहाँ (25, 26, 27, और 28)। रतलाम में बबली के यहाँ (29, 30, और 1, 4, 5, 10, 11, 12 अक्टूबर)। उदयपुर में राकेश के यहाँ (6)। प्रयागराज में मधु के यहाँ (8) । दिल्ली में मीनू के यहाँ (14 और 15)


उज्जैन से तराना जाने में वक्त लग गया। वापस रतलाम आने का कोई रास्ता न था। मैं बिना तैयारी के निकल गया था। रतलाम से निकलते वक्त लग रहा था कि रात को शायद वापस न आ पाऊँ। बबली ने कहा भी कि कुछ कपड़े साथ रख लो। मुझे ज़्यादा ताम-झाम साथ लेकर चलना पसन्द नहीं। सोचा जहाँ रूकूँगा वहीं से शर्ट ख़रीद लूँगा। भोपाल में भी दो शर्ट ख़रीदें थे। टी-शर्ट और शार्ट्स भी रात को सोने के लिए। टूथब्रश वग़ैरह तो हमेशा बैकपैक में रहते हैं, पानी की बोतल, तीन चार्जर और एक पॉवर पैक के साथ। 


2 अक्टूबर को तराना पहुँचते-पहुँचते रात हो गई। बाज़ार भी बंद सा था। सो पंकज के कपड़े रात में पहने। दूसरे दिन उसका एक बढ़िया सा शर्ट पहनकर इन्दौर गया। एकदम फ़िट। अब वो मेरा हो गया है। दिया कुछ नहीं, ले ज़रूर आया। 


3 अक्टूबर को इन्दौर में भी संगीता ने बिलकुल नया शानदार शर्ट दिया। यह भी एकदम फ़िट। रात घनश्याम जी के यहाँ गुज़ारी। तीन दशक बाद मिलना हुआ। 


बहुत मिलना-जुलना हुआ। फिर भी मंदसौर और नागदा जाना रह गया। भोपाल दोबारा जाना था। नहीं जा पाया। प्रतापगढ़ भी छूट गया। पलवल भी जाना है। मुम्बई, सागर, लखनऊ, मैंगलोर और हैदराबाद का न्योता स्वीकार न सका। दिल्ली में कुछ लोगों से मिलना रह गया। 


शायद अगली बार। 


मम्मी की तेरहवीं सिएटल में की थी। सैलाना में जिस मंदिर को मम्मी ने बनवाया था, उस मन्दिर में सीमा ने भी तेरहवीं की थी। मैं भी चाहता था कि मेरी इस प्रथम यात्रा में कोई कार्यक्रम हो जाए। सीमा और पंडित जी से बात करने पर तय हुआ कि पितृ पक्ष की अमावस्या  के दिन एक हवन कर लिया जाए। उस दिन मम्मी को गुज़रे हुए दो महीने भी हो रहे थे। सो 6 अक्टूबर को वह कार्य सम्पन्न हुआ। 


जुलाई में सैलाना में बरसी करने का मन है। 


राहुल उपाध्याय । 17 अक्टूबर 2021 । शिकागो





Friday, October 1, 2021

आज़ादी

आज़ादी? क्या होती है आज़ादी?


15 सितम्बर 1986 को जब मैं अमेरिका पहुँचा, मुझे पूरी आज़ादी थी कि मैं जब चाहूँ अमेरिका छोड़ सकता था। लेकिन प्लेन टिकट ख़रीदने के लिए पर्याप्त धनराशि न होने की वजह से नहीं छोड़ा। यह थी आर्थिक ग़ुलामी। 


बाद में धनराशि जोड़ लेने पर भी नहीं आया। क्यों? क्योंकि वापस अमेरिका के लिए वीज़ा मिल पाना निश्चित नहीं था। निश्चित करने में पाँच साल लगे। 


आज के मिलन के सुख के लिए मैं अपने सुखद भविष्य की बलि नहीं देना चाहता था। 


पाँच साल तक मैं एक जेल में रहा। ख़ुद की बनाई हुई। उस जेल में कोई सलाख़ें नहीं थी। मैं उससे जब चाहे तब छाती चौड़ी कर निकल सकता था। कोई रोक-टोक नहीं। कोई पूछताछ नहीं। कोई जाँच-पड़ताल नहीं। 


लेकिन वापस आते वक्त हज़ार दिक़्क़तें आ सकती थीं। 


हम रोज़ ऐसे निर्णय लेते हैं। रोज़ किसी न किसी जेल का निर्माण करते हैं और उसमें रहने में ही अपनी भलाई समझते हैं। 


गाँधी जी आज़ाद थे। कुछ कटु अनुभव हुए। वे दूसरों की बनाई हुई जेल में क़ैद हुए ताकि वे और अन्य आज़ाद हो सके, विदेशी ताक़त के बनाए नियम-क़ानून से। 


और हम हैं कि अपने ही घर, परिवार, समाज के बनाए हुए नियम-क़ानून में हर दिन, हर पल बँधे रहते हैं। 


क्या पहनें? हम आज़ाद नहीं हैं। 

क्या खाएँ? हम आज़ाद नहीं हैं। 

क्या करें? हम आज़ाद नहीं हैं। 

किससे मिलें? हम आज़ाद नहीं हैं। 

किसे फ़ोन करें? हम आज़ाद नहीं हैं। 


राहुल उपाध्याय । 2 अक्टूबर 2021 । रतलाम-उज्जैन के बीच