Monday, July 10, 2023

भक्त दर्शन

भक्त दर्शन - ये भी कोई किसी का नाम होता है? वह भी पूरा नाम? लेकिन वास्तव में यह नाम है। 


मैं दो-चार दिनों के लिए बैंगलोर में हूँ। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के मेरे सहपाठी ने अनुरोध किया कि मैं उनके साथ कुछ समय बिताऊँ। कल रात उन्हीं के यहाँ रूका। आज सुबह उन्होंने बताया कि उनके दादा जी के चाचा जी स्वतंत्रता सेनानी श्री नारायण दत्त डंगवाल जी का ज़िक्र एक पुस्तक - गढ़वाल की दिवंगत विभूतियाँ- में है जिसके लेखक श्री भक्त दर्शन है। 


भक्त दर्शन प्रख्यात राजनेता, सांसद, पत्रकार, सम्पादक एवं केन्द्रीय मंत्री थे। उन्होंने यह पुस्तक तीस वर्ष की आयु में 1942 में जेल में लिखी थी जब वे भारत छोड़ो आन्दोलन के तहत गिरफ़्तार किए गए थे। 


दूसरे संस्करण में उन्होंने वो बातें लिखी हैं जो हर पुस्तक छपवाने के इच्छुक को समझ लेनी चाहिए। 

1 - लिखने की कोई सीमा नहीं होती। छपने की होती है। इस चक्कर में बहुत सारी सामग्री छूट जाती है। इतिहास अधूरा रह जाता है। गौण पात्र गौण होते जाते हैं। हाशिये से भी बाहर हो जाते हैं। फिर हम कहते ही रह जाते हैं कि इतिहास निष्पक्ष नहीं है। गिने-चुने किरदार ही इतिहास में दर्ज हो पाते हैं। 

2 - लिखने में खर्च नहीं होता। छपवाने में खर्च होता है। अधिकतर खर्च लेखक ही उठाता है। भक्त दर्शन जी ने ऋण ले कर पुस्तक छपवाई। ऋण चुका दिया लेकिन अथक परिश्रम से लोगों को बेचने के बाद। 

3 - पुस्तक की क़ीमत भी तय करनी होती है। पहला संस्करण पाँच रूपये का। दूसरा पचास का। तीसरा पाँच सौ का। पहले संस्करण की प्रस्तावना में महंगाई का कोई ज़िक्र नहीं। दूसरे में ऋण का, सहयोग का, धनराशि का, महंगाई का सबका ज़िक्र है। तीसरे संस्करण तक वे दिवंगत हो गए। जिन्होंने छपवाने का बीड़ा उठाया इन्होंने लिखा कि कैसे राजकीय पुस्तकालयों में जा-जाकर उन्होंने जबरन किताबें बिकवाई और खर्च निकाला। 

4 - किताबें कौन पढ़ता है? कहाँ पढ़ पाता है। मेरे मित्र ने भी यह किताब अपने परिजन के उल्लेख की वजह से ख़रीद ली है पर पढ़ी नहीं है। इसमें बहुत से महानुभावों के परिचय हैं। जीवन यात्राएँ हैं। किसे फुरसत है किसी के बारे में दो पैराग्राफ़ पढ़े। अरस्तू, प्लूटो, लिंकन, न्यूटन, आइन्स्टाइन, ओपनहायमर के बारे में पढ़ें कि इनके बारे में पढ़ें?


राहुल उपाध्याय । 11 जुलाई 2023 । बैंगलोर 


सत्यप्रेम की कथा

सत्यप्रेम की कथा - एक अच्छे मुद्दे पर बनी बहुत ही अच्छी फिल्म है। मुद्दा एक नहीं कई सारे हैं। पर सब एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। 


फ़िल्म की शुरुआत नाच-गाने-गीत-संगीत के शोर-शराबे से होती है जहाँ सब कुछ मसाला-पूर्ण होते हुए भी ताज़गी लिए हुए है। गरबा वाले नाच हिन्दी फ़िल्मों में इतने देखे जा चुके हैं कि इनमें नवीनता लाना असम्भव लगता है। इस फिल्म के निर्देशक समीर विद्वांस और कोरियोग्राफ़र को पूरा श्रेय जाता है कि उन्होंने समां बाँधे रखा। 


कार्तिक आर्यन का किरदार सत्यप्रेम, राज कपूर के जैसा सीधा-सादा इंसान है। सब जगह अपनी बात कह कर चलता बनता है बिना यह जाने कि उस बात का क्या असर हुआ है। जो मन में है वही सामने है। 


नारी में कितनी हिम्मत है अपना नुक़सान कर लेने की लेकिन उसके मुक़ाबले ज़रा सी भी हिम्मत नहीं कि अपने भले के लिए किसी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाए। चाहे वो परिवार के सदस्य हो, पति हो या प्रेमी हो। सबको जस का तस रहने देती हैं। कोई बदलाव लाने का प्रयास नहीं करती हैं। इन्हीं मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमती है कहानी एक के बाद एक मुद्दे पर। 


यह फिल्म हर भारतीय महिला को, हर पुरुष को अवश्य देखनी चाहिए। 


बैकग्राउंड स्कोर का सहारा लेकर कई गम्भीर सीन आगे बढ़ाए गए हैं। सब का अभिनय बहुत ही उम्दा है। 


कार्तिक नये जमाने के नये शाह रूख खान है। वे नृत्य, हास्य एवं संजीदा सीन बखूबी कर लेते हैं। ऐसी फ़िल्में देख कर ही समझा जा सकता है कि क्यों अमोल पालेकर और नसीरुद्दीन शाह जैसे अच्छे अभिनेता सफल हीरो नहीं बन पाए। कार्तिक होना आसान नहीं। 


राहुल उपाध्याय । 11 जुलाई 2023 । बैंगलोर