Tuesday, March 8, 2022

गंगुबाई

एक मसालेदार व्यंजन की तरह बहुत ही स्वादिष्ट फ़िल्म बनी है 'गंगुबाई'। मुझे संजय भंसाली की अब तक सिर्फ़ 'हम दिल दे चुके सनम' पसन्द आई थी। बाक़ी फ़िल्में जानबूझकर भव्य बनाई गई लगी और ज़बरदस्ती की ड्रामेबाज़ी भी। 


'गंगुबाई' में हर मसाला उचित मात्रा में है। न कम, न ज़्यादा। 


शादी है, प्यार है, टूटे दिल हैं, समाज का अत्याचार है, दोस्ती है, दगा है, पीड़ा है, आनंद है, चुनाव है, प्रतिद्वंद्वी हैं, भाषणबाज़ी है, धमाकेदार संवाद है! सब कुछ है। नेहरू हैं, नेहरू का गुलाब है। 


कहानी सच है या झूठी, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। किरदार विश्वसनीय है। 


हर भाग अपने आप में एक सुन्दर कृति है। मज़े की बात ये कि एक भाग का दूसरे भाग से कोई लेना देना नहीं है। जैसे कि हर भाग एक अलग ही प्लॉट हो। किरदार इधर के उधर नहीं होते। 


सीमा पाहना और विजय राज़ के किरदार अविस्मरणीय है। दोनों ने शानदार अभिनय किया है। 


आलिया भट्ट ने तो कमाल ही कर दिया। कई सीन बहुत लम्बे हैं और एक ही शॉट में लिए हैं। शुरू का नृत्य, अंत का नृत्य, फ़ोन पर माँ से बात करना, सब बेहतरीन। 


आलिया के किरदार को समझने में दर्शक को मेहनत करनी पड़ती है। जो भागना चाहती थी, भागती क्यों नहीं है? बाक़ी सब भी उतनी बंधक नहीं हैं जितनी दिखती है। और उतनी आज़ाद भी नहीं जितनी दिखती हैं। और यह बात जितनी अटपटी है उतनी ही सच भी यदि हम अपने जीवन में झांक कर देखे तो। और यही इस फ़िल्म की खूबी है कि जो हमसे कोसों दूर है वह अपना सा लगता है। कई बार तो अपना ही जीवन लगता है। 


राहुल उपाध्याय । 8 मार्च 2022 । सिएटल 



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