Wednesday, September 7, 2022

लाल सिंह चड्ढा

शनिवार, 3 सितम्बर को अमेरिका में राष्ट्रीय सिनेमा दिवस था। और इस उपलक्ष्य में सारे दिन सारे शो तीन डॉलर में थे। आमतौर पर यह 15 डॉलर के होते हैं। 


मेरे एक मित्र ने मेरी एक पोस्ट से अंदाज़ा लगा लिया था कि मैं लाल सिंह चड्ढा देखना चाहता हूँ पर वह मेरे चहेते थियेटर से उतर चुकी थी। उसने दूसरा थियेटर ढूँढ लिया और रात के नौ बजे के शो के दो टिकट ले लिए। मैं माउंट रेनियर की यात्रा से भागा-भागा घर पहुँचा। नहा कर तुरंत टॉको बेल रेस्टोरेन्ट पर चलुपा खा कर भागते-भागते थियेटर पहुँचें। थियेटर खचाखच भरा था। पहली क़तार में भी लोग बैठे थे जहाँ से फ़िल्म देखने में गर्दन अकड़ जाती है। 


मुझे फ़िल्में देखने का बेहद शौक़ है। पागलपन भी कह सकते हैं। लाल सिंह चड्ढा देखना इस कारण से भी चाहता था कि इसे बॉयकॉट करने का अभियान चल रहा था। 


फ़िल्म बिलकुल ही वाहियात है। न बॉयकॉट करते तो भी बेमौत मर जाती। न कहानी है, न गाने हैं, न निर्देशन है। बस अंग्रेज़ी फ़िल्म की हू-ब-हू नक़ल करती जाती है। 


नक़ल भी अच्छी हो सकती है। इसके उदाहरण हैं ऐतबार और सत्ते पे सत्ता।


लेकिन इस फ़िल्म ने सिर्फ़ कॉपी/पेस्ट किया है। काया पर ध्यान दिया, रूह पर नहीं। 


कहानी कहीं से भी विश्वसनीय या तर्कसंगत नहीं लगती। जाने कहाँ से ऐसे पात्र आते हैं। 


माना कि बाहुबली भी अतिशयोक्तिपूर्ण है। लेकिन पूरी प्रस्तुति एक ऐसा माहौल तैयार करती है कि सब मानने को जी करने लगता है। यहाँ कोई भी ऐसी कोशिश नहीं की गई कि दर्शक जुड़ सके। 


मसलन गाने हैं पर एक भी ऐसा नहीं जो मन में रह सके, भा सके, पाँव थिरकने लगे, होंठ गुनगुनाने लगे। 


फ़िल्म ख़त्म हो जाने पर भी ख़त्म नहीं हुई। ज़बरदस्ती खींची गई। नीरसता बढ़ती गई। 


कई बार कोशिश की गई कि लोग भावुक हो जाए। जैसे कि पगड़ी बाँधते हुए पूरा एक ओंकार सुनाना। 


लेकिन सबमें बनावटीपन था। 


राहुल उपाध्याय । 7 सितम्बर 2022 । सिएटल 


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