Monday, March 6, 2023

जूडी ह्यूमन

कल 1947 में न्यू यॉर्क में जन्मी जूडी ह्यूमन का देहांत हो गया। 

उन्हें डेढ़ साल की उम्र में ही पोलियो हो गया था। वे व्हीलचैयर का इस्तेमाल करती थी। प्राथमिक स्कूल ने उन्हें स्कूल आने से मना कर दिया, यह कह कर कि आग लगने पर वे स्कूल से निकल नहीं पाएँगी। ख़ुद की भी जान जाएगी और अन्य लोगों को भी हानि पहुँच सकती है। तीन साल तक स्कूल से एक शिक्षक घर पर पढ़ाने आ जाता था। हफ़्ते में दो बार। मात्र एक घंटे के लिए। 

इसे डिस्क्रिमिनेशन कहा जा सकता है। यानी भेदभाव। लेकिन यह व्यक्तिगत भेदभाव नहीं है। यह सिस्टमेटिक डिस्क्रिमिनेशन है। और इसी व्यवस्थागत भेदभाव के खिलाफ उनकी माँ ने और बाद में उन्होंने स्वयं एक लम्बी लड़ाई लड़ी। और उनके प्रयासों की वजह से आज हर किसी के लिए अब हर जगह सुविधाएँ मौजूद हैं। छोटा रेस्टोरेन्ट हो या पाँच सितारा होटल, लायब्रेरी हो या एयरपोर्ट, हर जगह जहां सीड़ी है वहाँ एक रैम्प या लिफ्ट आवश्यक है ताकि व्हीलचैयर वाले बिना किसी इंसान की मदद के अंदर-बाहर आ जा सके। 

माँ ने स्कूल वालों से अपील की, लगातार प्रयास किया और को चौथी कक्षा में उन्हें स्कूल आने की अनुमति दे दी। बाद में हाई स्कूल ने फिर मना कर दिया। कॉलेज में भी यही अड़चन आई। वहाँ भी अपील की, और अनुमति हासिल की। होस्टल वालों ने भी मना कर दिया। वहाँ भी उन्होंने हार न मानी और होस्टल में रहीं। बाद में नौकरी में भी यही आपत्ति आई। प्रयास किए, सफल हुई और एक शिक्षक की नौकरी की। 

1977 में शिक्षा मंत्रालय के साथ भी भिड़ गईं। धरने पर बैठ गई कुछ समर्थकों के साथ। कि जब तक हमारी माँगे नहीं मानेंगे हम यहीं बैठे रहेंगे। 

मंत्री महोदय ने उस बिल्डिंग में मौजूद कैफे को बंद करवा दिया। जूडी ने जनता से अपील की। साल्वेशन आर्मी - जो कि ग़रीबों के लिए काम करती है - ने दूसरे दिन सबके लिए भोजन भेजा। दवाईयाँ भी भेजी। क्योंकि कोई कर्मचारी ब्लडप्रेशर आदि की दवाईयाँ लेता था तो कोई कुछ और। बाद में एक दूसरी संस्था- ब्लैक पेंथर - ने यह ज़िम्मा लिया कि वे रोज़ भोजन भेजती रहेगी। 

यह धरना 28 दिन तक चला जो कि अमेरिका की किसी सरकारी बिल्डिंग में सबसे लम्बा चलनेवाला धरना है। 

अंततः मंत्री महोदय ने हार मान ली। और नये क़ानून पारित हुए। 

जूडिथ के जीवन से हमें प्रेरणा मिलती है कि एक अकेला इंसान भी अगर चाहें तो समाज में बदलाव ला सकता है। 

उनकी बदौलत ही आज हर बच्चा स्कूल जा सकता है चाहे उसे कितनी ही विशेष सुविधाएँ प्रदान करनी पड़े। कई बार तो एक छात्र के लिंए एक अटेंडेंट नियुक्त किया जाता है जो उसकी हर ज़रूरत का ध्यान रखता है जैसे कि कब कौनसी दवाई देनी है, कब क्या खिलाना-पिलाना है, कब बाथरूम ले जाना है। छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी चीज़ का ध्यान रखा जाता है। मॉक ड्रील की जाती है यानी प्रैक्टिस कि अगर कभी आग लगी तो अटेंडेंट स्वयं को और छात्र को बचा पाएगा या नहीं। नहीं तो बिल्डिंग में बदलाव लाए जाते हैं ताकि वे दोनों सुरक्षित बाहर निकल पाए। 

कई बार बनी बनाई बिल्डिंग ध्वस्त कर दी जाती हैं इसलिए कि यह एक विशेष वर्ग के लोगों के लिए सुरक्षित नहीं है। 

सिनेमाघरों में व्हीलचैयर वालों के लिए बक़ायदा अलग जगह है जहाँ वे व्हीलचैयर में बैठे-बैठे ही फ़िल्म देख सकती हैं। नेत्रहीन भी फ़िल्म देख सकते हैं। जैसे हमें तेलुगु समझ न आए तो हम सबटाइटल से समझ जाते हैं। वैसे ही नेत्रहीन देख नहीं सकते हैं तो क्या हुआ, सुन तो सकते हैं। उन्हें एक विशेष हेडफ़ोन दिया जाता है जिसमें फ़िल्म के हर सीन का आँखों देखा हाल सुनाया जाता रहता है। जैसे एक ज़माने में हम क्रिकेट की कमेंट्री से कपिल देव के चौके-छक्के 'देखा' करते थे, वैसे ही ये फ़िल्म 'देखते' हैं।

व्हीलचैयर वाले हर बस में, हर ट्रेन में चढ़ सकते हैं, उतर सकते हैं। 

राहुल उपाध्याय । 6 मार्च 2023 । सिएटल

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