Friday, May 28, 2021

29 मई 1981

आठवीं कक्षा का बच्चा क्या जाने दस्तावेज क्या होते हैं। सम्हालना किसे कहते हैं। किस चीज़ की क्या क़ीमत होती है। याद क्या होती है। 


और हम तो तक़रीबन ख़ानाबदोश की ही ज़िन्दगी जी रहे थे। बाऊजी ने दिल्ली, ऑकलेण्ड, मेरठ, जम्मू, शिमला, कलकत्ता, जबलपुर और बैंगलोर में लॉ पढ़ाया। मैं उनके साथ मेरठ, शिमला और कलकत्ता में कुल आठ साल रहा। 


उन्होंने ही मेरा आठवीं का रिपोर्ट कार्ड सम्हाल कर रखा था। जब मैं बनारस में बी-टेक कर रहा था तभी बाऊजी जबलपुर चले गए थे। सारे काग़ज़ात वो ही ले गए थे। उनमें से मेरे रिपोर्ट कार्ड भी थे। 


मेरी तीन और प्रिय चीजें थीं। जो वो शायद जानबूझकर नहीं ले गए या उन्हें मिली नहीं। 


पहली चीज़, अदिति का संदेश, जो उसने मेरे लिए बड़े प्यार से पीले पतले नाज़ुक से काग़ज़ पर लिखा था और रोल कर के एक खूबसूरत रंगीन गत्ते की ट्यूब में डाल कर दिया था। ऊपर सुन्दर रिबन भी बांधी थी। 


कितना कुछ किया था उस पाँचवीं कक्षा की बच्ची ने मुझे हमारे फ़ेयरवेल के दिन देने के लिए। 


मुझ ग्रामीण को इन सबकी कोई समझ नहीं थी। तब जन्मदिन मनाए नहीं जाते थे। केक तो देखा तक नहीं था। उसने मुझे अपने जन्मदिन पर बुलाया था। मुझे पहुँचने में देर हो गई थी। उसने केक काटने से मना कर दिया था। सबसे कह दिया था कि जब तक राहुल नहीं आएगा केक नहीं कटेगा। इतनी छोटी उम्र में कोई कैसे ऐसी बातें कर सकता है?


फ़ेयरवेल पार्टी में उसने - इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा - पर नृत्य भी किया था। 


जन्मदिन की पार्टी में मैं क्या ले गया था मुझे कुछ याद नहीं। पर हाँ मुझे क्या मिला था, सब याद है। बहुत सारे चॉकलेट और ग़ुब्बारे। 


उसने जो फ़ेयरवेल पार्टी में संदेश लिखा था - वह था - टाईम एण्ड टाईड वेट्स फ़ॉर नो वन। 


मतलब समझ नहीं आया। उसी ने समझाया। लेकिन ठीक से समझ एक अरसे बाद आया। 


गाँधी जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि एक बार एक शिक्षक उन्हें एक परीक्षा में मदद करने की कोशिश कर रहे थे। एक अंग्रेज़ी शब्द की सही स्पेलिंग बता रहे थे। लेकिन गाँधी जी ने मना कर दिया। उन्हें यह ग़लत लगा। 


मेरे साथ उल्टा हुआ। कान्वेंट स्कूल के अंग्रेज़ी मीडियम माहौल में मैं बिलकुल निरक्षर था। प्रिंसिपल लंच के वक्त मुझे अपने ऑफिस में बुलाकर ए-बी-सी-डी सिखाती थीं। बस पूरे साल मैं इतना ही सीख पाया था। 


वार्षिक परीक्षा, हर विषय की, तीन घंटे की होती थी। अदिति बहुत स्मार्ट और सहृदय थी। परीक्षा के कमरे में हर डेस्क दूसरे डेस्क से सटी नहीं थी। अलग-अलग थी। उसकी डेस्क मेरी दायीं ओर थी। वह दिखाती भी कुछ तो मैं न तो देख पाता और न ही समझ पाता। हमने कोई बात भी नहीं की थी कि कैसे क्या होगा। 


उसने देखा कि मैं तो चुपचाप बैठा हूँ। एक अक्षर तक नहीं लिखा। उसने बिना कुछ कहे, अपनी कॉपी मेरे डेस्क पर रख दी, और मेरी ले ली। वो अपना सारा काम कर चुकी थी। अब वो मेरा काम कर रही थी। 


इसी प्रकार सारे विषय के पर्चे उसी ने दिए। यहाँ तक कि ड्राइंग में ऐपल बनाना था। उसी ने बनाया। 


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दूसरी चीज़, मेरा अपना पेंसिल से बनाया और क्रेयॉन से रंगा गुलाब का फूल, हरी पत्तियों के साथ। 


यह मैंने शिमला में बनाया था, एक ग्रीटिंग कार्ड को देख कर। 


मुझे वह गुलाब बहुत प्रिय था। मुझे लगता था मैं अब ग्रामीण नहीं रहा। अब मैं साफिस्टिकेटेड हो गया हूँ। सम्भ्रांत लोगों की श्रेणी में गिना जा सकता हूँ। 


पाँचवीं में मेरठ में हम साकेत में रहे।  101 साकेत। बड़ा सा घर। शावर से नहाना। कॉन्वेंट में पढ़ना। बालों को शैम्पू से धोना। स्कूल से ट्रिप पर दिल्ली का चिड़ियाघर देख आना। प्रगति मैदान में एशिया 72 की प्रदर्शनी में खुद को पहली बार टीवी पर देखना। 


इनमें और सैलाना के जीवन में ज़मीन-आसमान का अंतर था। समझो विदेश ही आ गया था। 


लेकिन शिमला तो इससे भी दस कदम आगे था। हमारा घर था गिडियन्स कॉटेज। सन 1975 की बात है यह। समरहिल स्टेशन से लगा हुआ था यह कॉटेज। शाम को जतोग की पहाड़ियों के पीछे सूरज डूबता हुआ बहुत सुन्दर लगता था। और घर के चारों ओर सुन्दर गुलाब के ख़ुशबूदार फूल खिलते थे। हम किराए से थे। मकान मालिक कोई अंग्रेज़ थे जिनका अलग से आवास था। बहुत ही सज्जन व्यक्ति।


तभी लग गया था कि हाँ जीवन बदल रहा है। सुविधाएँ सिर्फ़ पढ़ने की चीज़ें नहीं हैं। अब महसूस की जा सकती हैं। सैलाना में बहुत गर्मी होने पर डंडी पर क़ुल्फ़ी खाई जाती थी। यहाँ बारह महीने सॉफ्टी खाई जाती है - वह भी शुगर कोन में। आईसक्रीम तो खाओ तो खाओ, कोन भी चबा जाओ। 


रोज़ स्कूल से घर ट्रेन से आना। 


बिलकुल जन्नत की ज़िंदगी थी शिमला की ज़िंदगी। 


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तीसरी चीज़ थी, प्रेम पत्र, जिसमें संजुक्ता ने पहली बार आई लव यू लिखा। और एक बार नहीं, सौ बार लिखा होगा। कई तरह से लिखा था। आड़ा-तिरछा। गोल। काग़ज़ के ऊपर। नीचे। दायीं ओर। बायीं ओर। इस रंग से। उस रंग से। 


1979 की बात थी। मैं एक पारिवारिक मित्र के साथ उसकी बहन की शादी में उड़ीसा गया। आठ दिन रूका। कुछ पता नहीं चला वो आठ दिन कैसे गुजरे। 


एक तरफ़ तो मलाल कि वे बड़ी जल्दी गुज़र गए। दूसरी तरफ़ आश्चर्य कि इतने कम समय में इतनी दोस्ती कैसे हो गई? 


शायद उम्र ही कुछ ऐसी थी। मैं नवम्बर में 16 का होने वाला था। वह जनवरी में पन्द्रह की हो चुकी थी। वह दो चोटी बांधकर केन्द्रीय विद्यालय की यूनिफार्म पहन स्कूल जाती। मैं उसे छत से हाथ हिलाकर बाय बोलता। स्कूल से आते ही वह दौड़ कर अपनी छत पर आती। उसकी छत मेरे कमरे की खिड़की के पास दो-चार कदम की दूरी पर थी। वह रिकार्ड प्लेयर पर गाना लगा कर आती - बहुत शुक्रिया, बड़ी मेहरबानी, मेरी ज़िन्दगी में हुज़ूर आप आए। 


वह गाना आज भी जब बजता है तो दर्द भी होता है, ख़ुशी भी होती है। मन करता है यह गाना बजता ही जाए। कई बार घंटो तक इसे रिपीट पर सुना है। 


शादी में वह इतना सज-धज के आई कि मेरे तो होश ही उड़ गए। वहाँ कोई बात नहीं हुई। सारी बातें खिड़की से छत पर ही हुईं। 


वापस आने पर मैंने ख़त लिखा। पता तो मेरे पास था ही। वह अंग्रेज़ी में लिखती थी। बहुत सुन्दर लिखती थी। 


तीन साल बाद मैं बनारस चला आया। बनारस जाने से कुछ महीने पहले सैलाना में शादी थी। मम्मी और मैं पहले गए। बाऊजी बाद में आए। वे जब आए तो साथ में डाक भी लाए। डाक में एक लिफ़ाफ़ा मेरे लिए था। संजुक्ता का। बाऊजी ने उसे खोल लिया था। खोला तो पढ़ भी लिया होगा। 


उन्होंने कभी इसके बारे में बात नहीं की। न ही उन्होंने मुझे कभी डाँटा या मारा। 


उसी ख़त में उसने पहली बार आई लव यू लिखा था। उसे मैं बनारस जाते वक्त कलकत्ता में ही छोड़ गया था। 


राहुल उपाध्याय । 28 मई 2021 । सिएटल 




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