Tuesday, December 13, 2022

बैकपैक के मायने बदल गए हैं

जहाँ बैकपैक के मायने ही बदल जाते हैं वह है शहर दिल्ली। मेट्रो में सफ़र करते वक्त भीड़-भाड़ के माहौल में यह तर्कसंगत लगता है कि बैकपैक पीठ की बजाय सामने पेट पर बांधा जाए। ताकि कोई पीछे से ज़िप खोल कुछ चुरा न ले। 


नल में पानी इतना कम आता है कि सबने घर में मोटर लगवा रखी है जिससे ज़्यादा से ज़्यादा पानी अपनी निजी टंकी में भरा जा सके। 


मोहल्ले में प्रवेश करने की कई गलियाँ हैं। एक को छोड़कर सब रात के ग्यारह से सुबह पाँच बजे तक बंद रहती हैं। गेट लगा दिए जाते हैं। ताले लगा दिए जाते हैं। यदि आना-जाना हो तो घूम-घामकर आओ-जाओ। 


एटीएम रात को बंद कर दिए जाते हैं ताकि चोरी न हो। 


इन्वर्टर लगा रखे हैं कि बिजली जाए तो पता न लगे। 


इन सबसे - ताला बंदी से, निजी टंकी से, इन्वर्टर से- इंसान आश्वस्त है। आश्वस्त ही नहीं, गौरवान्वित है कि देखिए हमारी सोसाइटी हमारी सुरक्षा का कितना ख़याल रखती है। बिना गार्ड की अनुमति के कोई परिन्दा पर नहीं मार सकता। 


तस्लीमा नसरीन की पुस्तक पढ़ रहा हूँ इन दिनों - औरत के हक़ में। उसमें लड़कियों के छात्रावास पर लगाए गए प्रतिबंधों पर सवाल खड़े किए गए हैं। क्यों वे शाम के अमुक समय के बाद बाहर नहीं जा सकती हैं। क्यों कोई उनसे मिलने नहीं आ सकता है? क्या भेड़िए सिर्फ़ लड़कियों के छात्रावास के आसपास ही रहते हैं? क्या वे घरों में नहीं रहते?


हमें पता ही नहीं चलता है कब हम सलाख़ों को क़ैद नहीं अपनी सुरक्षा समझने लगते हैं। कब टंकी को एक असुविधा और सरकारी नाकामी न मान अपने सामर्थ्य की डींग हांकने लगते हैं। 


कब बेड़ियों को संस्कार समझने लगते हैं। कब भेदभाव को रीति-रिवाज समझने लगते हैं। कब ग़ुलामी को रिश्तों का सम्मान समझने लगते हैं। कब ग़ुस्से को प्यार समझने लगते हैं। 


राहुल उपाध्याय । 13 दिसम्बर 2022 । दिल्ली 





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