Friday, December 16, 2022

ऋषि राजपोपट

दो घंटे पहले जिसकी हमें जानकारी नहीं थी अब हमारे होंठों पे है जैसे अपने ही घर के दूर के भतीजे ने कहीं टॉप कर लिया हो। पता कुछ नहीं है कि कौनसी परीक्षा,  कब हुई, किस काम की है, कितने अंक मिले। बस टॉप किया है तो गर्व की बात है। 


गर्व होना भी चाहिए। ढाई हज़ार साल पुरानी गुत्थी. उस भाषा की जिसे आज सिर्फ़ पच्चीस हज़ार लोग बोलते हैं बहुत मायने रखती है। वह क्यों? क्योंकि इस भाषा (संस्कृत) में नए शब्द एक सीमित धातुओं से ही बनते हैं। जैसे उपनयन। उस ज़माने में चश्मे नहीं थे। जब चश्मे आ गए तो उसके लिए नया शब्द बन गया उप और नयन से। जैसे उपराष्ट्रपति। जो राष्ट्रपति तो नहीं है पर वक्त पड़ने पर राष्ट्रपति का काम कर सकते हैं। उपनयन भी नयन तो नहीं है पर ज़रूरत पड़ने पर नयन की मदद कर सकता है। 


पाणिनि के अष्टाध्यायी ग्रंथ में चार हज़ार के आसपास दिए गए नियमों में निर्देश दिए गए हैं कि कैसे भूतकाल, भविष्यकाल होने से शब्द में कहाँ और क्या जोड़ा जाएगा। कई बार उलझन पैदा हो जाती है कि इसमें पहले कुछ जोड़ा जाए या बाद में। तब कात्यायन ने समझाया कि जो नियम क्रमांक में सबसे बाद में आया हो, उसे ही सही माना जाए। 


ऋषि राजपोपट ने बताया कि कात्यायन का तरीक़ा सही नहीं है। उससे बड़ी मुश्किलें पैदा हो जाती हैं। नये-नये नियम बनने लगते हैं। जबकि अष्टाध्यायी अपने आप में परिपूर्ण है। 


सही तरीक़ा यह है कि शब्द के दाईं और वाला नियम ही माना जाए। ऐसा करने से सारी समस्या हल हो जाती है। नए नियम नहीं बनाने पड़ते हैं। यानी कम्प्यूटर में सब नियम डाल दीजिए तो अगले हज़ारों सालों तक कुछ करने की ज़रूरत नहीं। नए शब्द, नए जुमले, नए वाक्य बनते चले जाएँगे। 


बाद और दाई - दोनों एक जैसे ही लगते हैं लेकिन अंतर है। अब यह नहीं समझ में आता है कि पाणिनि के जीवनकाल में ही यह समस्या क्यों सामने नहीं आई? आती तो वे ही हल बता देते। 


ज़िन्दगी के 59 वर्ष गुज़ारने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि हम जितने जल्दी उत्साहित होते हैं उतनी ही जल्दी भूल भी जाते हैं। दो दिन बाद बहुत कम लोगों को ऋषि राजपोपट या उनकी खोज की कोई याद भी रहेगी। 


मीडिया भी एक साथ ही टूट पड़ता है। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से ऋषि की पीएचडी थीसिस 15 दिसम्बर को प्रकाशित हुई। तभी उन्होंने एक लेख भी अपनी वेबसाइट पर डाला। तबसे यह खबर आग की तरह फैल रही है। 


लेकिन ध्यान देनेवाली बात यह है कि थीसिस जनवरी में ही लिखी जा चुकी थी और ऋषि को डॉक्टर की उपाधि भी तभी मिल गई थी। कहाँ सो रहे थे सब जब यह क्रांतिकारी खोज केम्ब्रिज में बताई जा रही थी? क्यों थीसिस के प्रकाशित होने तक इंतज़ार किया गया?


दो बातें और। ऋषि ने मुम्बई से बीए इकॉनॉमिक्स से किया है। मास्टर्स करने वे ऑक्सफ़ोर्ड गए। लेकिन उधार लेकर नहीं। क़र्ज़ में नहीं डूबे। न ही माता-पिता को क़र्ज़ में डाला। बहुत से धनी लोगों को चिट्ठी लिख कर उन्होंने अनुदान की माँग की। और उन्हें पर्याप्त धन मिल गया। मालवीय जी ने ऐसे ही काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। 


पीएचडी के लिए धनराशि उन्हें राजीव गांधी फ़ाऊंडेशन और कैम्ब्रिज ट्रस्ट से मिली। 


ऋषि हनुमान भक्त हैं। अपनी खोज का श्रेय वे हनुमान जी और सरस्वती माता को देते हैं। यह तस्वीर उनकी डेस्क पर हमेशा रहती है। 


राहुल उपाध्याय । 16 दिसम्बर 2022 । दिल्ली 


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