Thursday, December 22, 2022

विवेकानंद शिला स्मारक

इतिहास एक ऐसी ताक़त है जो पत्थर में भी जान फूंक देती है। मदुराई के संग्रहालय में गाँधी जी की रक्त-रंजित पोषाक से मैं भावुक हो उठा। 


आज कन्याकुमारी में 1970 में निर्मित ध्यान केन्द्र में ध्यान करते हुए सुकून हुआ। यह केन्द्र विवेकानंद शिला स्मारक का हिस्सा है। कहते हैं कि 1892 में इसी शिला पर विवेकानंद ने ध्यान करने के बाद निर्णय लिया था कि वे अब अमेरिका जाएँगे। ग्यारह सितंबर 1893 के दिन उन्होंने शिकागो में जो भाषण दिया उसकी गूंज आज भी हिन्दू समाज के जनमानस में है। 


लेकिन दुख की बात है कि उनका दर्शन विश्वव्यापी तो क्या देश को जोड़ने में भी सफल न हो सका। हालाँकि पूरे स्मारक में घोषणा यही की गई है कि उन्होंने पूरे भारत को जोड़ दिया था। यदि उन्होंने पूरे भारत को जोड़ ही दिया था तो विभाजन हुआ ही क्यों? और उनके पदचिह्नों पर चलने वाले तथाकथित गुट, गुट ही क्यों रह गए?


उसी शिला पर उसी स्मारक के परिसर में किसी देवी के रक्त-रंजित चरण हैं। यह मुझे भावुक नहीं करता। क्योंकि यह इतिहास नहीं है। आस्था है। 


विवेकानंद भी क्या सचमुच इस शिला पर आए थे? कैसे आए थे? कोई केवट लाया था? तीन दिन यहीं रहे या आते-जाते रहे? यहीं रहे तो भोजन-शौच-शयन आदि का क्या इंतज़ाम रहा?


प्रश्न किए जा सकते हैं। किए जाने चाहिए। लेकिन यह तो इतिहास ही है कि इसे किसी संस्था ने चंदा इकठ्ठा कर के बनाया। आज भी ये दान स्वीकार करती है। अमिताभ बच्चन ने ग्यारह लाख रूपये दान में दिए हैं। 


विवेकानंद की मूर्ति स्वयंभू नहीं है। किसी ने चित्र बनाया। किसी ने उस चित्र के आधार पर मूर्ति बनाई। सब साफ़ है। कोई रहस्य नहीं है। 


ध्यान केन्द्र में रोशनी नहीं के बराबर है। पंखे बहुत कम शोर करते हैं। कोई ड्रेस कोड नहीं है। कोई टिकट नहीं है। कोई शर्त नहीं है। कोई प्रतिबंध नहीं है। सिवाय इसके कि शांत बैठे। असुविधा हो तो कुर्सियाँ भी हैं। 


जितनी देर चाहे बैठें। कोई भगाता नहीं है। दुत्कारता नहीं है। क्यों? क्या भीड़ कम है इसलिए? भीड़ क्यों कम है? फैरी से जाना पड़ता है इसलिए?


नहीं। कलकत्ता में ढाकुरिया झील के निकट स्थित रामकृष्ण मिशन के ध्यान केन्द्र में मैं कई बार गया हूँ। वहाँ भी बिलकुल यही वातावरण है, यही व्यवस्था है। कोई रोकटोक नहीं है। सहज वातावरण है। (तब मैं नवीं कक्षों दूसरी बार पढ़ रहा था। पिछले साल फेल हो चुका था गणित और अंग्रेज़ी में। किशोरावस्था थी। किसी ने न बालक समझा, न कोई सलाह दी। मैं आता, बैठता, ॐ को निहारता रहता और चला जाता। मुझे आँख बंद कर के ध्यान करना नहीं आता। ध्यान करना ही नहीं आता। विपासना के आश्रम में दस दिवस बीता चुका है। वहाँ किसी को किसी से बात करने की अनुमति नहीं होती। यहाँ तक कि आँख भी नहीं मिला सकते। सब एक ही कमरे में एक ही टेबल पर बैठकर भोजन करते हैं। पर आँख नहीं मिलाते। न लिख सकते हैं, न पढ़ सकते हैं। न फोन, न कोई और उपकरण साथ होता है। कहते हैं उन दस दिनों में इंसान बदल जाता है। मुझे कोई फ़र्क़ नहीं लगा।) वहाँ भी मगर भीड़ नहीं होती है। कालीघाट पर भयंकर भीड़ होती है। मम्मी सैंकड़ों बार कालीघाट गईं होंगी। रामकृष्ण मिशन एक बार भी नहीं गईं। कालीघाट पर शनिवार को बकरे की बलि के खून को देखकर भयभीत भी हुई है पर वहाँ जाना नहीं छोड़ा। 


दरअसल ध्यान में निष्क्रियता है। पूजा में सक्रियता है। कुछ ख़रीदो, कुछ चढ़ाओ, कुछ खाओ, कुछ खिलाओ, क़तार में लगो, घंटों खड़े रहो, किसी से बात करो। 


पूजा केन्द्र जो व्यस्त हैं और भी व्यस्त रहेंगे। क्योंकि लोग वही जाते हैं जहाँ सब जाते हैं। जहाँ कोई नहीं जाता, वहाँ कोई नहीं जाता। भरे को ही भरने का रिवाज है। जिसके पास अपार धन है उसे बहुत महँगा उपहार दिया जाता है। जो गरीब है उसे उतरे हुए कपड़े दे दिए जाते हैं। 


आजकल सुरक्षा या कोरोना के बहाने प्रसिद्ध मन्दिरों में ख़ाली हाथ ही जाना पड़ता है। कोई हार-फूल नहीं। कोई प्रसाद नहीं। कोई चढ़ावा नहीं। इन मन्दिरों में भी सक्रियता घटती जा रही है। भक्तों को आनन्द कम मिल रहा है। 


शायद वहाँ भी ध्यान केन्द्र खुल जाए। लोग तसल्ली से सुकून के साथ घर लौट पाए। 


राहुल उपाध्याय । 22 दिसम्बर 2022 । कन्याकुमारी 





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