Friday, December 9, 2022

नज़र अंदाज़

परियों की कहानी बहुत सुन्दर, ख़ूबसूरत, सुहानी, लुभावनी होती हैं। तितलियाँ विचरती रहती हैं। फूल खिलते रहते हैं। तारों से भरा एक अलौकिक संसार होता है। 


'नज़र अंदाज़' भी ऐसी ही एक फिल्म है जो बड़े दिनों बाद किसी मित्र के साथ देखी। मित्र ने देख रखी थी। इतनी पसन्द आई कि मेरे साथ दोबारा देखी। 


मैं उससे कैसे कहूँ कि मुझे पसन्द नहीं आई। पर सच तो यही है कि इस फ़िल्म की कहानी मेरे गले नहीं उतरी। बिना नौकरी के ज़िन्दगी इतनी ख़ूबसूरत और आरामदायक हो सकती है कैसे मान लूँ। और वह भी जब नायक नेत्रहीन है। वह औरों को भी सहारा देता है। 


एक्टिंग बहुत लाउड है। कुमुद मिश्रा ने अभिनय के क्षेत्र में चेहरे को तोड़ना-मोड़ना भी जोड़ लिया है। जिम कैरी जब ऐसी हरकत करते हैं तो कामेडी लगती है। यहाँ यह बेतुकी लगती हैं। दिव्या दत्ता का किरदार बहुत बहुत लाउड है। और फ़िल्म के उत्तरार्ध में वही किरदार बहुत बदल जाता है किसी उच्चवर्गीय परिवार के सदस्य की तरह। 


इस तरह के किरदार, इस तरह का जीवन, इस तरह के लटके-झटके सिर्फ़ पश्चिमी देशों के ही हो सकते हैं। ये हमारी मुम्बई में तर्कसंगत नहीं लगते।


कई तरह के घिसे-पीटे फ़ार्मूले भी जोड़े गए हैं। ज़बरदस्ती हँसाने की भी कोशिश की गई है। 


हर क्षेत्र में- गीत में, संगीत में, पटकथा में - कमज़ोर है। संवाद ज़बरदस्ती नेत्रहीन की विडम्बना दर्शाने की कोशिश करते हैं। 


अगर कुछ अच्छा है तो वह है अभिषेक बनर्जी का विश्वसनीय अभिनय। 


न देखें तो ही बेहतर है। हाँ मित्र का दिल रखना हो तो वह अलग बात है। 


राहुल उपाध्याय । 9 दिसम्बर 2022 । सिएटल 



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