Saturday, February 20, 2021

20 फ़रवरी 2021

29 सितम्बर 1966 के इस फ़ोटो के साथ जो मैंने बात (https://rahul-upadhyaya.blogspot.com/2020/09/29-1966.html?m=1 )  शुरू की थी, उसे और आगे बढ़ाने का स्वर्णिम अवसर आज मुझे मेरी भांजी  प्रांशु, ने दिया। 


आज हमारा पूरा परिवार गर्व से अभिभूत है। 


इन्दौर शहर के निकट पीथमपुर के एक गरीब परिवेश में पली प्रांशु हमेशा से होनहार रही। 2017 में उज्जैन स्थित विक्रम विश्वविद्यालय से बी-ए (राजनीति विज्ञान) में सर्वोच्च अंक प्राप्त कर उसने स्वर्ण पदक अर्जित किया। 2019 में विक्रम विश्वविद्यालय से ही एम-ए (राजनीति विज्ञान) में सर्वोच्च अंक प्राप्त कर उसने दोबारा स्वर्ण पदक अर्जित किया, जिसे आज, 20 फ़रवरी को, भव्य दीक्षांत समारोह में मध्य प्रदेश की राज्यपाल श्रीमती आनंदी बेन पटेल ने प्रदान किया। 


बाऊजी और प्रांशु - दोनों को विक्रम विश्वविद्यालय से स्वर्ण पदक मिले।


1965 में जब बाऊजी को मिला था तब मेरी आयु दो वर्ष भी नहीं थी। उनका स्वर्ण पदक हमेशा बड़ा सम्हाल कर रखा गया। दूसरे शब्दों में कहूँ तो देखने का मौक़ा कभी नहीं मिला। कुछ वर्षों पहले उन्होंने लाड़ से मेरे छोटे बेटे को यह कहते हुए दिखाया कि मैं यह तुझे देता हूँ। 


तब मैंने उस पदक का यह फ़ोटो लिया था। पता चला कि पदक सोने का नहीं है। सिर्फ़ परत सोने की है। मेरे लिए इसका फ़ोटो ही सोने से ज़्यादा क़ीमती है। 


इसी की वजह से बाऊजी रतलाम से बाहर निकलें। लंदन से पी-एच-डी की। और मेरा रतलाम के जैन स्कूल से निकल कर शिमला के केन्द्रीय विद्यालय में दाख़िला सम्भव हुआ। आज मैं जो भी हूँ, जहाँ भी हूँ, उन सबका बीज मैं इस पदक को मानता हूँ। यह न होता तो दुनिया कुछ और ही होती। 


मैं नहीं जानता कि प्रांशु की या प्रांशु के परिवार की दुनिया अगले 55 वर्षों में कितनी बदलेगी। लेकिन जितनी मेहनत और लगन वो आज दिखा रही है, उससे मुझे पूरा भरोसा है कि जो भी होगा अच्छा और अभूतपूर्व ही होगा। 


इन दिनों वह भोपाल में बैठकर पूरी दुनिया पर नब्ज रखती है। अनऐकेडमी के दैनिक समसामयिकी श्रंखला के लिए सामग्री तैयार करती है। इधर घटना घटी और उधर वह जी-जान से जुट जाती है इंटरनेट खंगालने में। 


एक दिन मैं उससे बात कर रहा था। उसने कहा कि जैक मा ग़ायब है। मैं उसी पर काम कर रही हूँ। और मैं इधर बबल की कृपा से पूरी तरह से अनभिज्ञ था। 


भोपाल से उसने सिएटल का बबल तोड़ा। 


मेरी कोई बहन नहीं है। हम दो भाई ही हैं। तो यह भांजी कैसे हुई?


इसका श्रेय मैं बाऊजी के स्वर्ण पदक को ही देता हूँ। चूंकि बाऊजी लंदन में थे तो मेरा बचपन ननिहाल में गुज़रा। उन दिनों शायद यह रिवाज नहीं था कि पूरा परिवार ले जाया जाए। या फिर मम्मी चौथी तक ही पढ़ीं थीं और अंग्रेज़ी से कोसों दूर थीं शायद इसलिए। या फिर हाथ तंग होंगे इसलिए। या फिर कोई और वजह। मज़े कि बात यह है कि मैंने आज तक नहीं सोचा कि हम साथ क्यों नहीं गए। 


नहीं गए तो एक तरह से अच्छा ही हुआ। मुझे एक संयुक्त परिवार का प्यार मिला। 


जैसा कि मैंने पहले कहा था वहाँ हम पन्द्रह प्राणी एक ही छत के नीचे खाते-पीते और गद्दे-चादर बिछा, रज़ाई ओढ़ सोते थे। गर्मियों में पतरों (टीन की चादर) पर सोते थे। साथ में सगे मामा और सगी मौसी का परिवार भी रहता था। मेरे दासाब-बाई (मेरे नाना-नानी) बहुत दिलेर थे। 


बाई के भाई और भाभी कम उम्र में गुज़र गए। (भाभी पहले कैंसर से, भाई बाद में लकवे से। तब मैंने पहली बार घर में अर्थी पर रखा शव देखा था)।  सो उनके बेटे (जिन्हें भी मैं मामासाब कहता था) को भी साथ रखा। पढ़ाया। शिक्षक की नौकरी दिलवाई। शादी करवाई। वह मेरे जीवन की पहली शादी थी। तब मैं दस वर्ष का था। हम बच्चे बहुत लालायित थे बारात में जाने को। लालच पकवान का था।संयुक्त परिवार में प्रेम बहुत था। और दाल-रोटी-चावल-सब्ज़ी भी पेट भर मिलता था। लेकिन पकवान? सिर्फ़ तीज-त्योहार पर। या जब कोई मेहमान आए तब। और वह भी पाँति से, हिसाब से। दस गुलाब जामुन कोई मेहमान लाए तो आधा मिल जाए वही ग़नीमत है। हम गधों के ढेंचू-ढेंचू सुनकर बहुत ख़ुश होते थे कि शायद आज कोई मेहमान आए और पकवान लाए। 


लेकिन दासाब (मेरे नाना) का आदेश था कोई बच्चा बारात में नहीं जाएगा। बहुत दुखी हुए। शायद समधी की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखकर यह निर्णय लिया गया था। 


जब दुल्हन घर आई तो सब बच्चों में होड़ मच गई दुल्हन का चेहरा देखने की। इतना बड़ा घूँघट निकाले वे एक कोने में बैठी रहती थीं। काम करें तो सूरत भी दिखे। बड़े इंतज़ार के बाद मैंने सुशीला मामीसाब का चेहरा देखा। आज भी मुझे उनके हाथों की मेहंदी की ख़ुशबू याद है। 


सुशीला मामीसाब यानी प्रांशु की नानी। 


आ गया रिश्ता समझ प्रांशु का और मेरा?


मैं कभी-कभी मज़ाक़ में कहता हूँ कि मैं अभी 33 साल और जीवित रहूँगा। और मैं ऐसा अद्भुत इंसान बनूँगा जो तब तक चार पीढ़ियों की शादी देख चुका होगा। सुशीला मामीसाब, उनकी बेटी मीना, मीना की बेटी प्रांशु, और प्रांशु की बेटी। 


राहुल उपाध्याय । 20 फ़रवरी 2021 । सिएटल 









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